"रसखान": अवतरणों में अंतर
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{{रसखान विषय सूची}} | |||
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|चित्र=Raskhan-1.jpg | |चित्र=Raskhan-1.jpg | ||
|जन्म= | |चित्र का नाम=रसखान | ||
|जन्म भूमि=[[ | |पूरा नाम=सैय्यद इब्राहीम (रसखान) | ||
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|जन्म=सन 1533 से 1558 बीच (लगभग) | |||
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'''सैय्यद इब्राहीम 'रसखान'''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Raskhan'', जन्म- लगभग सन 1533 से 1558 के बीच; मृत्यु- सन 1628<ref>{{cite web |url=http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8 |title=रसखान|accessmonthday=22 नवंबर|accessyear=2020 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=kavitakosh.org |language=हिंदी}}</ref>) का [[हिन्दी साहित्य]] में [[कृष्ण]] भक्त तथा [[रीतिकाल|रीतिकालीन]] कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान(क़ान)' कहा जाता है। इनके [[काव्य]] में भक्ति, [[श्रृंगार रस]] दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं। रसखान के सगुण कृष्ण लीलाएं करते हैं। यथा- बाललीला, [[रासलीला]], फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया है। [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] ने जिन [[मुस्लिम]] हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें "रसखान" का नाम सर्वोपरि है। सैय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् 1533 से 1558 के बीच कभी हुआ होगा। [[अकबर]] का राज्यकाल 1556-1605 है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। जन्मस्थान 'पिहानी' कुछ लोगों के मतानुसार [[दिल्ली]] के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह 'पिहानी' [[उत्तर प्रदेश]] के [[हरदोई ज़िला|हरदोई ज़िले]] में है। मृत्यु के बारे में कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं। रसखान ने [[भागवत पुराण|भागवत]] का [[अनुवाद]] [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में भी किया।[[चित्र:raskhan-2.jpg|रसखान के दोहे [[महावन]], [[मथुरा]]|thumb|left]] | |||
==जीवन परिचय== | |||
रसखान के जन्म के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों ने इनका जन्म [[संवत्]] 1615 ई. माना है और कुछ विद्वानों ने 1630 ई. माना है। रसखान स्वयं बताते हैं कि गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब उसे छोड़कर वे [[ब्रज]] चले गये। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीक होता है कि वह गदर के समय वयस्क थे और उनका जन्म गदर के पहले ही हुआ होगा। रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक ने भी यही माना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने इस मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म 1590 ई. में हुआ होगा।<ref name="IGNCA">{{cite web |url=http://www.ignca.nic.in/coilnet/raskhn.htm |title=रसखान |accessmonthday=11 मई |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=www.ignca.nic.in |language=हिन्दी }}</ref> | |||
====जन्म स्थान==== | |||
[[चित्र:Raskhan-Audit-1.jpg|thumb|250px|left|रसखान प्रेक्षागृह, [[हरदोई]]]] | |||
रसखान के जन्म स्थान के विषय में अनेक विद्वानों ने अनेक मत प्रस्तुत किए हैं। कई तो रसखान के जन्म स्थान पिहानी अथवा [[दिल्ली]] को बताते हैं, किंतु यह कहा जाता है कि दिपाली शब्द का प्रयोग उनके [[काव्य]] में केवल एक बार ही मिलता है। जैसा कि पहले लिखा गया कि रसखान ने गदर के कारण [[दिल्ली]] को श्मशान बताया है। उसके बाद की ज़िंदगी उसकी [[मथुरा]] में गुजरी। शिवसिंह सरोज तथा [[हिंदी साहित्य]] के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि [[पिहानी]] ज़िला [[हरदोई]] माना जाए। [[हरदोई]] जनपद मुख्यालय पर निर्मित एक प्रेक्षाग्रह का नाम ‘रसखान प्रेक्षाग्रह’ रखा गया है। [[पिहानी]] और [[बिलग्राम]] ऐसी जगह हैं, जहाँ [[हिंदी]] के बड़े-बड़े एवं उत्तम कोटि के [[मुसलमान]] [[कवि]] पैदा हुए।<ref name="IGNCA"/> | |||
====नाम एवं उपनाम==== | |||
जन्म स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं। [[हजारी प्रसाद द्विवेदी]] जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान। जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और "खान' उसकी उपाधि थी। [[नवलगढ़]] के राजकुमार संग्रामसिंह जी द्वारा प्राप्त रसखान के चित्र पर [[नागरी लिपि]] के साथ- साथ फ़ारसी लिपि में भी एक स्थान पर "रसखान' तथा दूसरे स्थान पर "रसखाँ' ही लिखा पाया गया है। उपर्युक्त सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि रसखान ने अपना नाम "रसखान' सिर्फ इसलिए रखा था कि वह [[कविता]] में इसका प्रयोग कर सके। फ़ारसी कवियों की नाम चसिप्त में रखने की परंपरा का पालन करते हुए रसखान ने भी अपने नाम खाने के पहले "रस' लगाकर स्वयं को रस से भरे खान या रसीले खान की धारणा के साथ काव्य- रचना की। उनके जीवन में रस की कमी न थी। पहले लौकिक रस का आस्वादन करते रहे, फिर अलौकिक रस में लीन होकर काव्य रचना करने लगे। एक स्थान पर उनके काव्य में "रसखाँ' शब्द का प्रयोग भी मिलता है। | |||
<poem>नैन दलालनि चौहटें म मानिक पिय हाथ। | |||
"रसखाँ' ढोल बजाई के बेचियों हिय जिय साथ।।</poem> | |||
उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका नाम सैय्यद इब्राहिम तथा उपनाम "रसखान' था।<ref name="IGNCA"/> | |||
====बाल्यकाल तथा शिक्षा==== | |||
रसखान एक जागीरदार [[पिता]] के [[पुत्र]] थे। इसलिए इनका लालन पालन बड़े लाड़-प्यार से हुआ माना जाता है। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि उनके काव्य में किसी विशेष प्रकार की कटुता का सरासर अभाव पाया जाता है। एक संपन्न परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा अच्छी और उच्च कोटि की गई थी। उनकी यह विद्वत्ता उनके काव्य की साधिकार अभिव्यक्ति में जग ज़ाहिर होते हैं। रसखान को [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[हिंदी]] एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान था। फ़ारसी में उन्होंने "[[श्रीमद्भागवत]]' का अनुवाद करके यह साबित कर दिया था। इसको देख कर इस बात का अभास होता है कि वह फ़ारसी और हिंदी भाषाओं का अच्छा वक्ता होंगे। रसखान ने अपना बाल्य जीवन अपार सुख- सुविधाओं में गुजारा होगा। उन्हें पढ़ने के लिए किसी मकतब में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी होगी।<ref name="IGNCA"/> | |||
==व्यक्तित्व== | ==व्यक्तित्व== | ||
अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 | {{मुख्य|रसखान व्यक्तित्व और कृतित्व}} | ||
[[जार्ज ग्रियर्सन|अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन]] ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, [[हरदोई ज़िला|हरदोई ज़िले]] के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई.। यह पहले [[मुसलमान]] थे। बाद में [[वैष्णव]] होकर [[ब्रज]] में रहने लगे थे। इनका वर्णन '[[भक्तमाल]]' में है। इनके एक शिष्य [[कादिर बख्श]] हुए। सांसारिक प्रेम की सीढ़ी से चढ़कर रसखान भगवदीय प्रेम की सबसे ऊँची मंज़िल तक कैसे पहुँचे, इस संबंध की दो आख्यायिकाएँ प्रचलित हैं। 'वार्ता' में लिखा है कि रसखानि पहले एक बनिये के लड़के पर अत्यंत आसक्त थे। उसका जूठा तक यह खा लेते थे। एक दिन चार वैष्णव बैठे बात कर रहे थे कि भगवान् श्रीनाथ जी से प्रीति ऐसी जोड़नी चाहिए, जैसे प्रीति रसखान की उस बनिये के लड़के पर है। रसखान ने रास्ते में जाते हुए यह बात सुन ली। उन्होंने पूछा कि 'आपके श्रीनाथ जी का स्वरूप कैसा है?' वैष्णवों ने श्रीनाथ जी का एक सुंदर चित्र उन्हें दिखाया। चित्रपट में भगवान् की अनुपम छवि देखकर रसखानि का मन उधर से फिर गया। प्रेम की विह्वल दशा में श्रीनाथ जी का दर्शन करने यह [[गोकुल]] पहुँचे। गोसाई विट्ठलदास जी ने इनके अंतर के परात्पर प्रेम को पहचानकर इन्हें अपनी शरण में ले लिया। रसखानि श्रीनाथ जी के अनन्य भक्त हो गए।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=रसखान: व्यक्तित्व और कृतित्व |लेखक=डॉ. माजदा असद |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=प्रेम प्रकाशन मन्दिर, दिल्ली |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या= |url=|ISBN=}}</ref> | |||
= | |||
== | |||
== | ==कविताएँ== | ||
{{Main|रसखान की कविताएँ}} | |||
रसखान की कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं- 'सुजान रसखान' और 'प्रेमवाटिका'। 'सुजान रसखान' में 139 [[सवैया|सवैये]] और कवित्त है। 'प्रेमवाटिका' में 52 दोहे हैं, जिनमें प्रेम का बड़ा अनूठा निरूपण किया गया है। रसखानि के सरस सवैय सचमुच बेजोड़ हैं। [[सवैया]] का दूसरा नाम 'रसखान' भी पड़ गया है। शुद्ध [[ब्रजभाषा]] में रसखानि ने प्रेमभक्ति की अत्यंत सुंदर प्रसादमयी रचनाएँ की हैं। यह एक उच्च कोटि के भक्त कवि थे, इसमें संदेह नहीं। | |||
<blockquote><poem>मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वालन। | |||
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन। | |||
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन। | |||
जो खग हौं बसेरो करौं मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।।</poem></blockquote> | |||
== | ==साहित्यिक विशेषताएँ== | ||
{{Main|रसखान की साहित्यिक विशेषताएँ}} | |||
सैय्यद इब्राहिम रसखान के काव्य के आधार भगवान [[श्रीकृष्ण]] हैं। रसखान ने उनकी ही लीलाओं का गान किया है। उनके पूरे काव्य- रचना में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की गई है। इससे भी आगे बढ़ते हुए रसखान ने सुफिज्म (तसव्वुफ) को भी भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से ही प्रकट किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक एवं आपसी सौहार्द के कितने हिमायती थे। | |||
== | ====होली वर्णन==== | ||
कृष्ण भक्त कवियों की तरह रसखान ने भी कृष्ण जी की उल्लासमयी लीलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उन्होंने अपने पदों में कृष्ण को [[गोपी|गोपियों]] के साथ [[होली]] खेलते हुए दिखाया गया है, जिनमें कृष्ण गोपियों को किंभगो देते हैं। गोपियाँ [[फाल्गुन]] के साथ कृष्ण के अवगुणों की चर्चा करते हुए कहती हैं कि कृष्ण ने होली खेल कर हम में काम- वासना जागृत कर दी हैं। पिचकारी तथा घमार से हमें किंभगो दिया है। इस तरह हमारा हार भी टूट गया है। रसखान अपने पद में कृष्ण को मर्यादा हीन चित्रित किया है:- | |||
== | <poem>आवत लाल गुलाल लिए मग सुने मिली इक नार नवीनी। | ||
{{भारत के कवि}} | त्यों रसखानि जगाइ हिये यटू मोज कियो मन माहि अधीनी। | ||
{{रसखान}} | सारी फटी सुकुमारी हटी, अंगिया दरकी सरकी रंग भीनी। | ||
[[Category:कवि ]] | लाल गुलाल लगाइ के अंक रिझाइ बिदा करि दीनी।</poem> | ||
====कला पक्ष==== | |||
{{मुख्य|रसखान का कला-पक्ष}} | |||
कवि ने कहीं चमत्कार लाने के लिए [[अलंकार|अलंकारों]] को बरबस ठूंसने की चेष्टा नहीं की है। भाव और रस के प्रवाह पर भी उसकी दृष्टि केन्द्रित रही है। भावों और रसों की अभिव्यक्ति को उत्कृष्ट बनाने के लिए ही अलंकारों की योजना की गई है। उचित स्थान पर अलंकारों का ग्रहण किया गया है। उन्हें दूर तक खींचने का व्यर्थ प्रयास नहीं किया गया है। औचित्य के अनुसार ठीक स्थान पर उनका त्याग कर दिया गया है। रसखान द्वारा प्रयुक्त अलंकार अपने 'अलंकार' नाम को सार्थक करते हैं। [[शब्दालंकार|शब्दालंकारों]] में [[अनुप्रास अलंकार|अनुप्रास]] और [[अर्थालंकार|अर्थालंकारों]] में [[उपमा अलंकार|उपमा]], [[उत्प्रेक्षा अलंकार|उत्प्रेक्षा]] एवं [[रूपक अलंकार|रूपक]] की निबंधना में [[कवि]] ने विशेष रुचि दिखाई है। बड़ी कुशलता के साथ उनका सन्निवेश किया है, उन्हें इस विधान में पूर्ण सफलता मिली है। अलंकारों की सुन्दर योजना से उनकी कविता का कला-पक्ष निस्सन्देह निखर आया है। | |||
====भाव पक्ष==== | |||
{{मुख्य|रसखान का भाव-पक्ष}} | |||
रसखान के काव्य में छ: स्थायी भावों की निबंधना मिलती है- रति, निर्वेद, उत्साह, हास, वात्सल्य और भक्ति। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने परंपराप्रथिता चार स्थायी भावों को ही गौरव दिया है, जिनमें अन्यतम भाव रति का है। क्रोध, जुगुप्ता, विस्मय, शोक और भय की उपेक्षा का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि इन भावों का रति से मेल नहीं है। रसखान प्रेमी जीव थे, अतएव उन्होंने अपनी कविता में तीन प्रकार के रति भावों की रति, वात्सल्य और भक्ति की व्यंजना की; जो भाव इनमें विशेष सहायक हो सकते थे उन्हें यथास्थान अभिव्यक्ति किया। दूसरा कारण यह भी है कि उनकी रचना मुक्तक है; अतएव [[प्रबन्ध काव्य]] की भांति उसमें सभी प्रकार के भावों का सन्निवेश आवश्यक भी नहीं है। | |||
====रस संयोजन==== | |||
{{मुख्य|रसखान का रस संयोजन}} | |||
रसखान ने [[भक्ति रस|भक्तिरस]] के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से श्रृंगार के कवि हैं। उनका श्रृंगार [[कृष्ण]] की लीलाओं पर आश्रित है। अतएव सामान्य पाठक को यह भ्रांति हो सकती है कि उनके अधिकांश पद भक्ति रस की अभिव्यक्ति करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से जिन पदों के द्वारा पाठक के मन में स्थित ईश्वर विषयक-रतिभाव रसता नहीं प्राप्त करता, उन पदों को भक्ति रस व्यंजक मानना तर्क संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि रसखान भक्त थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में भजनीय कृष्ण का सरस रूप से निरूपण किया है। | |||
====भक्ति भावना==== | |||
{{मुख्य|रसखान की भक्ति-भावना}} | |||
[[हिन्दी साहित्य|हिन्दी-साहित्य]] का भक्ति-युग (संवत् 1375 से 1700 वि0 तक) [[हिन्दी]] का स्वर्ण युग माना जाता है। इस [[युग]] में हिन्दी के अनेक महाकवियों– [[विद्यापति]], [[कबीरदास]], [[मलिक मुहम्मद जायसी]], [[सूरदास]], [[नंददास]], [[तुलसीदास]], [[केशवदास]], रसखान आदि ने अपनी अनूठी काव्य-रचनाओं से साहित्य के भण्डार को सम्पन्न किया। इस युग में सत्रहवीं शताब्दी का स्थान भक्ति-काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सूरदास, [[मीरां|मीराबाई]], तुलसीदास, रसखान आदि की रचनाओं ने इस शताब्दी के गौरव को बढ़ा दिया है। भक्ति का जो आंदोलन दक्षिण से चला वह हिन्दी-साहित्य के भक्तिकाल तक सारे [[भारत]] में व्याप्त हो चुका था। उसकी विभिन्न धाराएं [[उत्तर भारत]] में फैल चुकी थीं। [[दर्शन]], [[धर्म]] तथा [[साहित्य]] के सभी क्षेत्रों में उसका गहरा प्रभाव था। एक ओर सांप्रदायिक भक्ति का ज़ोर था, अनेक तीर्थस्थान, मंदिर, मठ और अखाड़े उसके केन्द्र थे। दूसरी ओर ऐसे भी भक्त थे जो किसी भी तरह की सांप्रदायिक हलचल से दूर रह कर भक्ति में लीन रहना पसंद करते थे। रसखान इसी प्रकार के भक्त थे। वे स्वच्छंद भक्ति के प्रेमी थे। | |||
====भाषा==== | |||
{{मुख्य|रसखान की भाषा}} | |||
सोलहवीं शताब्दी में [[ब्रजभाषा]] साहित्यिक आसन पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। भक्त-कवि सूरदास इसे सार्वदेशिक काव्य भाषा बना चुके थे। किन्तु उनकी शक्ति भाषा सौष्ठव की अपेक्षा भाव द्योतन में अधिक रमी। इसीलिए बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर [[ब्रजभाषा]] का व्याकरण बनाते समय रसखान, [[बिहारी लाल]] और [[घनानन्द कवि|घनानन्द]] के काव्याध्ययन को सूरदास से अधिक महत्त्व देते हैं। [[बिहारी]] की व्यवस्था कुछ कड़ी तथा भाषा परिमार्जित एवं साहित्यिक है। घनानन्द में भाषा-सौन्दर्य उनकी 'लक्षणा' के कारण माना जाता है। रसखान की भाषा की विशेषता उसकी स्वाभाविकता है। उन्होंने ब्रजभाषा के साथ खिलवाड़ न कर उसके मधुर, सहज एवं स्वाभाविक रूप को अपनाया। साथ ही बोलचाल के शब्दों को साहित्यिक शब्दावली के विकट लाने का सफल प्रयास किया। | |||
[[चित्र:raskhan-3.jpg|रसखान की समाधि [[महावन]], [[मथुरा]]|thumb|250px]] | |||
====दर्शन==== | |||
{{मुख्य|रसखान का दर्शन}} | |||
अब प्रश्न यह उठता है कि जब वे भक्त थे और उनकी रचना भक्ति प्रधान है तो उसका कोई दर्शन भी अवश्य होगा। जहाँ आलोचक की जानकारी के लिए नियमों की श्रृंखला में कोई वस्तु नहीं बंधती, वहां उसे स्वच्छंद कह दिया जाता है। पर वास्तव में ऐसी बात नहीं। प्रत्येक कार्य का मूल कारण अवश्य रहता है। मिश्र जी ने एक बात बार-बार कही है कि रसखान में विदेशीपन की झलक अवश्य दिखाई पड़ती है। यह प्रेममार्गी भक्त थे। लौकिक पक्ष में इनका विरह फ़ारसी काव्य की वंदना से प्रभावित है, अलौकिक पक्ष में सूफियों की प्रेमपीर से। आगे कहते हैं स्वच्छंद कवियों ने प्रेम की पीर सूफी कवियों से ही ली है इसमें कोई संदेह नहीं। | |||
====प्रकृति वर्णन==== | |||
{{मुख्य|रसखान का प्रकृति वर्णन}} | |||
मानस और उसको धारण करने वाले शरीर को तथा मनुष्य के निर्माण भाग को छोडकर अन्य समस्त चेतन और अचेतन सृष्टि-प्रसार को प्रकृति स्वीकार किया जाता है।<ref>प्रकृति और काव्य पृ0 4</ref> व्यावहारिक रूप से तो जितनी मानवेतर सृष्टि है उसको हम प्रकृति कहते हैं किन्तु दार्शनिक दृष्टि से हमारा शरीर और मन उसकी ज्ञानेन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सूक्ष्म तत्त्व प्रकृति के अंतर्भूत हैं।<ref>हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण, पृ0 6</ref> काव्य में प्रकृति चित्रण हर काल में मिलता है। [[संस्कृत]] काव्य से लेकर आधुनिक काव्य तक में प्रकृति के दर्शन होते हैं। यह स्वाभाविक भी है। मानव अध्ययन भले ही काव्य का मुख्य विषय माना गया हो किन्तु प्रकृति के साहचर्य बिना मानव की चेष्टाएं और मनोदशाएं भावहीन-सी होने लगती हैं। [[यमुना के घाट, मथुरा|यमुना तट]], वंशीवट, [[कदंब]] के वृक्ष और [[:श्रेणी:ब्रज के वन|ब्रज के वन]] बाग-तड़ाग-बिना नट नागर कृष्ण की समस्त लीलाएं शून्य एवं नीरस-सी प्रतीत होती हैं। अत: प्रकृति के अभाव में किसी सुंदर काव्य की कल्पना कुछ अधूरी-सी ही प्रतीत होती है। काव्य में प्रकृति चित्रण भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है। रसखान के काव्य में प्रकृति की छटा तीन रूपों में दृष्टिगोचर होती है। | |||
# [[कृष्ण]] की विहार-भूमि [[वृन्दावन]], करील कुंज, [[कालिंदी नदी]] कूल आदि का विशद वर्णन प्रकृति सहचरी के रूप में मिलता है। | |||
# संयोग और वियोग दोनों पक्षों में प्रकृति मानव भावनाओं की पोषिका रही है। कृष्ण-[[गोपी|गोपिका]] मिलन और विरह वर्णन में रसखान ने प्रकृति उद्दीपन विभावों के अंतर्गत दिखाया है। | |||
# साथ ही अपने आराध्य के कोमल सौंदर्यमय पक्ष के निरूपण के लिए अलंकार रूप में प्रकृति को अपनाया है। | |||
==काव्य साधना== | |||
रसखान की भाषा पर्याप्त परिमार्जित और सरस तथा काव्योचित थी। ब्रजभाषा में जितनी उत्तमता से अपने हृदय के भाव वे व्यक्त कर सके, उतना और कवियों के लिये कष्ट साध्य था। उनकी परमोत्कृष्ट विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने लौकिक प्रेम को भगवद् प्रेम में रूपान्तरित कर दिया। असार संसार का परित्याग करके सर्वथा नन्दकुमार के दरबार के सदस्य हो गये। | |||
एक समय कहीं भागवत कथा में उपस्थित थे। व्यासगद्दी के पास [[कृष्ण|श्यामसुन्दर]] का चित्र रखा हुआ था। उनके नयनों में भगवान का रूपमाधुर्य समा गया। उन्होंने प्रेममयी मीठी भाषा में व्यास से [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] का पता पूछा और [[ब्रज]] के लिये चल पड़े। रासरसिक नन्दनन्दन से मिलने के लिये विरही कवि का हृदय-बीन बज उठा। वे अपनी प्रेमिका की बात सोचते जाते थे। अभी थोड़े ही समय पहले उसने कहा था कि- "जिस तरह मुझे चाहते हो, उसी तरह यदि श्रीकृष्ण को चाहते तो भवसागर से पार उतर जाते"। पैर और वेग से आगे बढ़ने लगे, उसी तरह नहीं। उससे भी अधिक चाहने के लिये वे श्रीकृष्ण की लीला भूमि में जा रहे थे। अभी उन्होंने कल ही भागवत के फ़ारसी अनुवाद में [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में विशेष रूप से प्रेममयी स्फूर्ति पायी थी। उन्होंने अपने मन को बार-बार धिक्कारा। मूर्ख ने लोक-बन्धन में मुक्ति-सुख मान लिया था। उनके कण्ठ में भक्ति की मधुर रागिनी ने अमृत घोल दिया। ब्रजरज का मस्तक से स्पर्श होते ही, [[यमुना|भगवती कालिन्दी]] के जल की शीतलता के स्पर्श-सुख से उन्मत्त समीर के मदिर कम्पन की अनुभूति होते ही, श्यामतमाल से अरुझी लताओं की हरियाली का नयनों में आलोडन होते ही वे अपनी सुधि-बुधि खो बैठे। संसार छूट गया, भगवान में मन रम गया। उन्होंने [[वृन्दावन]] के ऐश्वर्य की स्तुति की, भक्ति का भाष्य किया। उन्होंने वृन्दावन के जड़, जीव, चेतन और जंगम में आत्मानुभूति की आत्मीयता देखी। पहाड़, नदी और विहंगों से अपने जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध जोड़ा। वे कह उठे- | |||
<blockquote><poem>या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहू पुर कौ तजि डारौं। | |||
आठहु सिद्धि नवौं निधि कौ सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।। | |||
'रसखान' सदा इन नयनन्हिं सौं ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं। | |||
कोटिन हू कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।।</poem></blockquote> | |||
कितना अद्भुत आत्मसमर्पण था, भावमाधुर्य था। प्रेमसुधा का निरन्तर पान करते वे [[ब्रज]] की शोभा देख रहे थे। उनके पैरों में विरक्ति की बेड़ी थी, हाथों में अनुरक्ति की हथकड़ी थी, हृदय में भक्ति की बन्धन-मुक्ति थी। रसखान के दर्शन से ब्रज धन्य हो उठा। ब्रज के दर्शन से रसखान का जीवन सफल हो गया। वे [[गोवर्धन]] पर श्रीनाथ जी के दर्शन के लिये मन्दिर में जाने लगे, द्वारपाल ने धक्का देकर निकाल दिया। श्रीनाथ जी के नयन रक्त हो उठे। इधर रसखान की स्थिति विचित्र थी। उन्हें अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर का भरोसा था। अन्न-जल छोड़ दिया, न जाने किन पापों के फलस्वरूप पौरिया ने मन्दिर से निकाल दिया था। तीन दिन बीत गये, [[भक्त]] के प्राण कलप हो रहे थे। उधर भगवान भी भक्त की भावना के अनुसार विकल थे। रसखान पड़े-पड़े सोच रहे थे- | |||
<blockquote><poem>देस बिदेस के देखे नरेसन, रीझि की कोउ न बूझ करैगौ। | |||
तातें तिन्हें तजि जान गिरयौ गुन सौं गुन औगुन गांठि परैगौ।। | |||
बांसुरीवारौ बड़ौ रिझवार है स्याम जो नैकु सुढार ढरैगौ। | |||
लाड़िलौ छैल वही तो अहीर कौ हमारे हिये की हरैगौ।।</poem></blockquote> | |||
अहीर के छैल ने उनके हृदय की वेदना हर ही तो ली। भगवान ने साक्षात दर्शन दिये, उसके बाद [[विट्ठलनाथ|गोसाईं श्रीविट्ठलनाथ जी]] ने उनको गोविन्दकुण्ड पर स्नान कराकर दीक्षित किया। रसखान पूरे 'रसखानि' हो गये। भगवान के प्रति पूर्णरूप से समर्पण का भाव उदय हुआ।। रसखान की काव्य-साधना पूरी हो गयी। उनके नयनों ने गवाही दी- | |||
<blockquote><poem>ब्रह्म मैं ढूंढ्यों पुराननि गाननि, वेद रिचा सुनि चौगुने चायन। | |||
देख्यों सुन्यों कबहुं न कितूं वह कैसे सरूप ओ कैसे सुभायन।। | |||
टेरत टेरत हारि पर्यौ 'रसखान' बतायौ न लोग लुगायन। | |||
देख्यों, दुरयौ वह कुंज कुटीर में बैठ्यौ पलोटतु राधिका पायन।।</poem></blockquote> | |||
शेष, गणेश, महेश, दिनेश और सुरेश जिनका पार नहीं पा सके, वेद अनादि, अनन्त, अखण्ड, अभेद कहकर नेति-नेति के भ्रमसागर में डूब गये, उनके स्वरूप का इतना भव्य रसमय दर्शन जिस सुन्दर रीति से रसखान ने किया, वह इतिहास की एक अद्भुत घटना है। भक्ति-साहित्य का रहस्यमय वैचित्र्य है। वे आजीवन [[ब्रज]] में ही भगवान की लीला को काव्यरूप देते हुए विचरण करते रहे। भगवान ही उनके एकमात्र स्नेही, सखा और सम्बन्धी थे। | |||
==दिव्य धाम यात्रा== | |||
पैतालीस साल की अवस्था में रसखान ने भगवान के दिव्य धाम की यात्रा की। प्रेमदेवता राधारमण ने अन्तिम समय में उनको दर्शन दिया था। उन्होंने भगवान के सामने यही कामना की, विदा-वेला में केवल इतना ही निवेदन किया- | |||
<blockquote><poem>मानुष हौं तौ वही 'ससखान' बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन। | |||
जो पसु हौं तौ कहा बस मेरौ चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।। | |||
पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जो धरयौ कर छत्र पुरंदर धारन। | |||
जो खग हौं तो बसेरौ करौं नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।</poem></blockquote> | |||
[[भक्त]] के हृदय की विवशता का कितना मार्मिक आत्मनिवेदन है यह। भगवान की लीला से सम्बद्ध दृश्यों, स्थलों, जीवों के प्रति कितनी समीचीन आत्मीयता है। भगवान के सामने ही उनके प्राण चल बसे। जिनके चरणों की रज के लिये कोटि-कोटि जन्मों तक मृत्यु के अधिदेवता यम तरसा करते हैं, उन्होंने भक्त की कीर्ति को समुज्ज्वलतम और नितान्त अक्षुण्ण रखने के लिये अपने हाथों से अन्त्येष्टि-क्रिया की। प्रभु की कृपा का अन्त पाना कठिन है, असम्भव है। प्रेम के साम्राज्य में उनकी कृपा का दर्शन रसखान जैसे भक्तों के ही सौभाग्य की बात है। | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक2 |पूर्णता= |शोध= }} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
<references/> | |||
==बाहरी कड़ियाँ== | |||
*[http://kavyanchal.com/parichay/?p=72 रसखान कवि परिचय] | |||
*[http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8 रसखान की कविताएँ] | |||
*[http://hindibhashi.wordpress.com/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF/%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%97%E0%A4%A3/%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A5%87/ रसखान के दोहे] | |||
*[https://web.archive.org/web/20090122230759/http://hindi.agoodplace4all.com/?p=105 Raskhan - The Great Hindi Poet] | |||
==संबंधित लेख== | |||
{{रसखान2}}{{भारत के कवि}}{{रसखान}} | |||
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10:55, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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सैय्यद इब्राहीम 'रसखान' (अंग्रेज़ी: Raskhan, जन्म- लगभग सन 1533 से 1558 के बीच; मृत्यु- सन 1628[1]) का हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान(क़ान)' कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं। रसखान के सगुण कृष्ण लीलाएं करते हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें "रसखान" का नाम सर्वोपरि है। सैय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् 1533 से 1558 के बीच कभी हुआ होगा। अकबर का राज्यकाल 1556-1605 है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। जन्मस्थान 'पिहानी' कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह 'पिहानी' उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले में है। मृत्यु के बारे में कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं। रसखान ने भागवत का अनुवाद फ़ारसी में भी किया।
जीवन परिचय
रसखान के जन्म के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों ने इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ विद्वानों ने 1630 ई. माना है। रसखान स्वयं बताते हैं कि गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब उसे छोड़कर वे ब्रज चले गये। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीक होता है कि वह गदर के समय वयस्क थे और उनका जन्म गदर के पहले ही हुआ होगा। रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक ने भी यही माना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने इस मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म 1590 ई. में हुआ होगा।[2]
जन्म स्थान
रसखान के जन्म स्थान के विषय में अनेक विद्वानों ने अनेक मत प्रस्तुत किए हैं। कई तो रसखान के जन्म स्थान पिहानी अथवा दिल्ली को बताते हैं, किंतु यह कहा जाता है कि दिपाली शब्द का प्रयोग उनके काव्य में केवल एक बार ही मिलता है। जैसा कि पहले लिखा गया कि रसखान ने गदर के कारण दिल्ली को श्मशान बताया है। उसके बाद की ज़िंदगी उसकी मथुरा में गुजरी। शिवसिंह सरोज तथा हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि पिहानी ज़िला हरदोई माना जाए। हरदोई जनपद मुख्यालय पर निर्मित एक प्रेक्षाग्रह का नाम ‘रसखान प्रेक्षाग्रह’ रखा गया है। पिहानी और बिलग्राम ऐसी जगह हैं, जहाँ हिंदी के बड़े-बड़े एवं उत्तम कोटि के मुसलमान कवि पैदा हुए।[2]
नाम एवं उपनाम
जन्म स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान। जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और "खान' उसकी उपाधि थी। नवलगढ़ के राजकुमार संग्रामसिंह जी द्वारा प्राप्त रसखान के चित्र पर नागरी लिपि के साथ- साथ फ़ारसी लिपि में भी एक स्थान पर "रसखान' तथा दूसरे स्थान पर "रसखाँ' ही लिखा पाया गया है। उपर्युक्त सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि रसखान ने अपना नाम "रसखान' सिर्फ इसलिए रखा था कि वह कविता में इसका प्रयोग कर सके। फ़ारसी कवियों की नाम चसिप्त में रखने की परंपरा का पालन करते हुए रसखान ने भी अपने नाम खाने के पहले "रस' लगाकर स्वयं को रस से भरे खान या रसीले खान की धारणा के साथ काव्य- रचना की। उनके जीवन में रस की कमी न थी। पहले लौकिक रस का आस्वादन करते रहे, फिर अलौकिक रस में लीन होकर काव्य रचना करने लगे। एक स्थान पर उनके काव्य में "रसखाँ' शब्द का प्रयोग भी मिलता है।
नैन दलालनि चौहटें म मानिक पिय हाथ।
"रसखाँ' ढोल बजाई के बेचियों हिय जिय साथ।।
उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका नाम सैय्यद इब्राहिम तथा उपनाम "रसखान' था।[2]
बाल्यकाल तथा शिक्षा
रसखान एक जागीरदार पिता के पुत्र थे। इसलिए इनका लालन पालन बड़े लाड़-प्यार से हुआ माना जाता है। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि उनके काव्य में किसी विशेष प्रकार की कटुता का सरासर अभाव पाया जाता है। एक संपन्न परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा अच्छी और उच्च कोटि की गई थी। उनकी यह विद्वत्ता उनके काव्य की साधिकार अभिव्यक्ति में जग ज़ाहिर होते हैं। रसखान को फ़ारसी, हिंदी एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान था। फ़ारसी में उन्होंने "श्रीमद्भागवत' का अनुवाद करके यह साबित कर दिया था। इसको देख कर इस बात का अभास होता है कि वह फ़ारसी और हिंदी भाषाओं का अच्छा वक्ता होंगे। रसखान ने अपना बाल्य जीवन अपार सुख- सुविधाओं में गुजारा होगा। उन्हें पढ़ने के लिए किसी मकतब में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी होगी।[2]
व्यक्तित्व
अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई.। यह पहले मुसलमान थे। बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इनका वर्णन 'भक्तमाल' में है। इनके एक शिष्य कादिर बख्श हुए। सांसारिक प्रेम की सीढ़ी से चढ़कर रसखान भगवदीय प्रेम की सबसे ऊँची मंज़िल तक कैसे पहुँचे, इस संबंध की दो आख्यायिकाएँ प्रचलित हैं। 'वार्ता' में लिखा है कि रसखानि पहले एक बनिये के लड़के पर अत्यंत आसक्त थे। उसका जूठा तक यह खा लेते थे। एक दिन चार वैष्णव बैठे बात कर रहे थे कि भगवान् श्रीनाथ जी से प्रीति ऐसी जोड़नी चाहिए, जैसे प्रीति रसखान की उस बनिये के लड़के पर है। रसखान ने रास्ते में जाते हुए यह बात सुन ली। उन्होंने पूछा कि 'आपके श्रीनाथ जी का स्वरूप कैसा है?' वैष्णवों ने श्रीनाथ जी का एक सुंदर चित्र उन्हें दिखाया। चित्रपट में भगवान् की अनुपम छवि देखकर रसखानि का मन उधर से फिर गया। प्रेम की विह्वल दशा में श्रीनाथ जी का दर्शन करने यह गोकुल पहुँचे। गोसाई विट्ठलदास जी ने इनके अंतर के परात्पर प्रेम को पहचानकर इन्हें अपनी शरण में ले लिया। रसखानि श्रीनाथ जी के अनन्य भक्त हो गए।[3]
कविताएँ
रसखान की कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं- 'सुजान रसखान' और 'प्रेमवाटिका'। 'सुजान रसखान' में 139 सवैये और कवित्त है। 'प्रेमवाटिका' में 52 दोहे हैं, जिनमें प्रेम का बड़ा अनूठा निरूपण किया गया है। रसखानि के सरस सवैय सचमुच बेजोड़ हैं। सवैया का दूसरा नाम 'रसखान' भी पड़ गया है। शुद्ध ब्रजभाषा में रसखानि ने प्रेमभक्ति की अत्यंत सुंदर प्रसादमयी रचनाएँ की हैं। यह एक उच्च कोटि के भक्त कवि थे, इसमें संदेह नहीं।
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वालन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं बसेरो करौं मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।।
साहित्यिक विशेषताएँ
सैय्यद इब्राहिम रसखान के काव्य के आधार भगवान श्रीकृष्ण हैं। रसखान ने उनकी ही लीलाओं का गान किया है। उनके पूरे काव्य- रचना में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की गई है। इससे भी आगे बढ़ते हुए रसखान ने सुफिज्म (तसव्वुफ) को भी भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से ही प्रकट किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक एवं आपसी सौहार्द के कितने हिमायती थे।
होली वर्णन
कृष्ण भक्त कवियों की तरह रसखान ने भी कृष्ण जी की उल्लासमयी लीलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उन्होंने अपने पदों में कृष्ण को गोपियों के साथ होली खेलते हुए दिखाया गया है, जिनमें कृष्ण गोपियों को किंभगो देते हैं। गोपियाँ फाल्गुन के साथ कृष्ण के अवगुणों की चर्चा करते हुए कहती हैं कि कृष्ण ने होली खेल कर हम में काम- वासना जागृत कर दी हैं। पिचकारी तथा घमार से हमें किंभगो दिया है। इस तरह हमारा हार भी टूट गया है। रसखान अपने पद में कृष्ण को मर्यादा हीन चित्रित किया है:-
आवत लाल गुलाल लिए मग सुने मिली इक नार नवीनी।
त्यों रसखानि जगाइ हिये यटू मोज कियो मन माहि अधीनी।
सारी फटी सुकुमारी हटी, अंगिया दरकी सरकी रंग भीनी।
लाल गुलाल लगाइ के अंक रिझाइ बिदा करि दीनी।
कला पक्ष
कवि ने कहीं चमत्कार लाने के लिए अलंकारों को बरबस ठूंसने की चेष्टा नहीं की है। भाव और रस के प्रवाह पर भी उसकी दृष्टि केन्द्रित रही है। भावों और रसों की अभिव्यक्ति को उत्कृष्ट बनाने के लिए ही अलंकारों की योजना की गई है। उचित स्थान पर अलंकारों का ग्रहण किया गया है। उन्हें दूर तक खींचने का व्यर्थ प्रयास नहीं किया गया है। औचित्य के अनुसार ठीक स्थान पर उनका त्याग कर दिया गया है। रसखान द्वारा प्रयुक्त अलंकार अपने 'अलंकार' नाम को सार्थक करते हैं। शब्दालंकारों में अनुप्रास और अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं रूपक की निबंधना में कवि ने विशेष रुचि दिखाई है। बड़ी कुशलता के साथ उनका सन्निवेश किया है, उन्हें इस विधान में पूर्ण सफलता मिली है। अलंकारों की सुन्दर योजना से उनकी कविता का कला-पक्ष निस्सन्देह निखर आया है।
भाव पक्ष
रसखान के काव्य में छ: स्थायी भावों की निबंधना मिलती है- रति, निर्वेद, उत्साह, हास, वात्सल्य और भक्ति। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने परंपराप्रथिता चार स्थायी भावों को ही गौरव दिया है, जिनमें अन्यतम भाव रति का है। क्रोध, जुगुप्ता, विस्मय, शोक और भय की उपेक्षा का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि इन भावों का रति से मेल नहीं है। रसखान प्रेमी जीव थे, अतएव उन्होंने अपनी कविता में तीन प्रकार के रति भावों की रति, वात्सल्य और भक्ति की व्यंजना की; जो भाव इनमें विशेष सहायक हो सकते थे उन्हें यथास्थान अभिव्यक्ति किया। दूसरा कारण यह भी है कि उनकी रचना मुक्तक है; अतएव प्रबन्ध काव्य की भांति उसमें सभी प्रकार के भावों का सन्निवेश आवश्यक भी नहीं है।
रस संयोजन
रसखान ने भक्तिरस के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से श्रृंगार के कवि हैं। उनका श्रृंगार कृष्ण की लीलाओं पर आश्रित है। अतएव सामान्य पाठक को यह भ्रांति हो सकती है कि उनके अधिकांश पद भक्ति रस की अभिव्यक्ति करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से जिन पदों के द्वारा पाठक के मन में स्थित ईश्वर विषयक-रतिभाव रसता नहीं प्राप्त करता, उन पदों को भक्ति रस व्यंजक मानना तर्क संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि रसखान भक्त थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में भजनीय कृष्ण का सरस रूप से निरूपण किया है।
भक्ति भावना
हिन्दी-साहित्य का भक्ति-युग (संवत् 1375 से 1700 वि0 तक) हिन्दी का स्वर्ण युग माना जाता है। इस युग में हिन्दी के अनेक महाकवियों– विद्यापति, कबीरदास, मलिक मुहम्मद जायसी, सूरदास, नंददास, तुलसीदास, केशवदास, रसखान आदि ने अपनी अनूठी काव्य-रचनाओं से साहित्य के भण्डार को सम्पन्न किया। इस युग में सत्रहवीं शताब्दी का स्थान भक्ति-काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सूरदास, मीराबाई, तुलसीदास, रसखान आदि की रचनाओं ने इस शताब्दी के गौरव को बढ़ा दिया है। भक्ति का जो आंदोलन दक्षिण से चला वह हिन्दी-साहित्य के भक्तिकाल तक सारे भारत में व्याप्त हो चुका था। उसकी विभिन्न धाराएं उत्तर भारत में फैल चुकी थीं। दर्शन, धर्म तथा साहित्य के सभी क्षेत्रों में उसका गहरा प्रभाव था। एक ओर सांप्रदायिक भक्ति का ज़ोर था, अनेक तीर्थस्थान, मंदिर, मठ और अखाड़े उसके केन्द्र थे। दूसरी ओर ऐसे भी भक्त थे जो किसी भी तरह की सांप्रदायिक हलचल से दूर रह कर भक्ति में लीन रहना पसंद करते थे। रसखान इसी प्रकार के भक्त थे। वे स्वच्छंद भक्ति के प्रेमी थे।
भाषा
सोलहवीं शताब्दी में ब्रजभाषा साहित्यिक आसन पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। भक्त-कवि सूरदास इसे सार्वदेशिक काव्य भाषा बना चुके थे। किन्तु उनकी शक्ति भाषा सौष्ठव की अपेक्षा भाव द्योतन में अधिक रमी। इसीलिए बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर ब्रजभाषा का व्याकरण बनाते समय रसखान, बिहारी लाल और घनानन्द के काव्याध्ययन को सूरदास से अधिक महत्त्व देते हैं। बिहारी की व्यवस्था कुछ कड़ी तथा भाषा परिमार्जित एवं साहित्यिक है। घनानन्द में भाषा-सौन्दर्य उनकी 'लक्षणा' के कारण माना जाता है। रसखान की भाषा की विशेषता उसकी स्वाभाविकता है। उन्होंने ब्रजभाषा के साथ खिलवाड़ न कर उसके मधुर, सहज एवं स्वाभाविक रूप को अपनाया। साथ ही बोलचाल के शब्दों को साहित्यिक शब्दावली के विकट लाने का सफल प्रयास किया।
दर्शन
अब प्रश्न यह उठता है कि जब वे भक्त थे और उनकी रचना भक्ति प्रधान है तो उसका कोई दर्शन भी अवश्य होगा। जहाँ आलोचक की जानकारी के लिए नियमों की श्रृंखला में कोई वस्तु नहीं बंधती, वहां उसे स्वच्छंद कह दिया जाता है। पर वास्तव में ऐसी बात नहीं। प्रत्येक कार्य का मूल कारण अवश्य रहता है। मिश्र जी ने एक बात बार-बार कही है कि रसखान में विदेशीपन की झलक अवश्य दिखाई पड़ती है। यह प्रेममार्गी भक्त थे। लौकिक पक्ष में इनका विरह फ़ारसी काव्य की वंदना से प्रभावित है, अलौकिक पक्ष में सूफियों की प्रेमपीर से। आगे कहते हैं स्वच्छंद कवियों ने प्रेम की पीर सूफी कवियों से ही ली है इसमें कोई संदेह नहीं।
प्रकृति वर्णन
मानस और उसको धारण करने वाले शरीर को तथा मनुष्य के निर्माण भाग को छोडकर अन्य समस्त चेतन और अचेतन सृष्टि-प्रसार को प्रकृति स्वीकार किया जाता है।[4] व्यावहारिक रूप से तो जितनी मानवेतर सृष्टि है उसको हम प्रकृति कहते हैं किन्तु दार्शनिक दृष्टि से हमारा शरीर और मन उसकी ज्ञानेन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सूक्ष्म तत्त्व प्रकृति के अंतर्भूत हैं।[5] काव्य में प्रकृति चित्रण हर काल में मिलता है। संस्कृत काव्य से लेकर आधुनिक काव्य तक में प्रकृति के दर्शन होते हैं। यह स्वाभाविक भी है। मानव अध्ययन भले ही काव्य का मुख्य विषय माना गया हो किन्तु प्रकृति के साहचर्य बिना मानव की चेष्टाएं और मनोदशाएं भावहीन-सी होने लगती हैं। यमुना तट, वंशीवट, कदंब के वृक्ष और ब्रज के वन बाग-तड़ाग-बिना नट नागर कृष्ण की समस्त लीलाएं शून्य एवं नीरस-सी प्रतीत होती हैं। अत: प्रकृति के अभाव में किसी सुंदर काव्य की कल्पना कुछ अधूरी-सी ही प्रतीत होती है। काव्य में प्रकृति चित्रण भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है। रसखान के काव्य में प्रकृति की छटा तीन रूपों में दृष्टिगोचर होती है।
- कृष्ण की विहार-भूमि वृन्दावन, करील कुंज, कालिंदी नदी कूल आदि का विशद वर्णन प्रकृति सहचरी के रूप में मिलता है।
- संयोग और वियोग दोनों पक्षों में प्रकृति मानव भावनाओं की पोषिका रही है। कृष्ण-गोपिका मिलन और विरह वर्णन में रसखान ने प्रकृति उद्दीपन विभावों के अंतर्गत दिखाया है।
- साथ ही अपने आराध्य के कोमल सौंदर्यमय पक्ष के निरूपण के लिए अलंकार रूप में प्रकृति को अपनाया है।
काव्य साधना
रसखान की भाषा पर्याप्त परिमार्जित और सरस तथा काव्योचित थी। ब्रजभाषा में जितनी उत्तमता से अपने हृदय के भाव वे व्यक्त कर सके, उतना और कवियों के लिये कष्ट साध्य था। उनकी परमोत्कृष्ट विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने लौकिक प्रेम को भगवद् प्रेम में रूपान्तरित कर दिया। असार संसार का परित्याग करके सर्वथा नन्दकुमार के दरबार के सदस्य हो गये।
एक समय कहीं भागवत कथा में उपस्थित थे। व्यासगद्दी के पास श्यामसुन्दर का चित्र रखा हुआ था। उनके नयनों में भगवान का रूपमाधुर्य समा गया। उन्होंने प्रेममयी मीठी भाषा में व्यास से भगवान श्रीकृष्ण का पता पूछा और ब्रज के लिये चल पड़े। रासरसिक नन्दनन्दन से मिलने के लिये विरही कवि का हृदय-बीन बज उठा। वे अपनी प्रेमिका की बात सोचते जाते थे। अभी थोड़े ही समय पहले उसने कहा था कि- "जिस तरह मुझे चाहते हो, उसी तरह यदि श्रीकृष्ण को चाहते तो भवसागर से पार उतर जाते"। पैर और वेग से आगे बढ़ने लगे, उसी तरह नहीं। उससे भी अधिक चाहने के लिये वे श्रीकृष्ण की लीला भूमि में जा रहे थे। अभी उन्होंने कल ही भागवत के फ़ारसी अनुवाद में गोपी प्रेम के सम्बन्ध में विशेष रूप से प्रेममयी स्फूर्ति पायी थी। उन्होंने अपने मन को बार-बार धिक्कारा। मूर्ख ने लोक-बन्धन में मुक्ति-सुख मान लिया था। उनके कण्ठ में भक्ति की मधुर रागिनी ने अमृत घोल दिया। ब्रजरज का मस्तक से स्पर्श होते ही, भगवती कालिन्दी के जल की शीतलता के स्पर्श-सुख से उन्मत्त समीर के मदिर कम्पन की अनुभूति होते ही, श्यामतमाल से अरुझी लताओं की हरियाली का नयनों में आलोडन होते ही वे अपनी सुधि-बुधि खो बैठे। संसार छूट गया, भगवान में मन रम गया। उन्होंने वृन्दावन के ऐश्वर्य की स्तुति की, भक्ति का भाष्य किया। उन्होंने वृन्दावन के जड़, जीव, चेतन और जंगम में आत्मानुभूति की आत्मीयता देखी। पहाड़, नदी और विहंगों से अपने जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध जोड़ा। वे कह उठे-
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहू पुर कौ तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवौं निधि कौ सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।।
'रसखान' सदा इन नयनन्हिं सौं ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिन हू कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।।
कितना अद्भुत आत्मसमर्पण था, भावमाधुर्य था। प्रेमसुधा का निरन्तर पान करते वे ब्रज की शोभा देख रहे थे। उनके पैरों में विरक्ति की बेड़ी थी, हाथों में अनुरक्ति की हथकड़ी थी, हृदय में भक्ति की बन्धन-मुक्ति थी। रसखान के दर्शन से ब्रज धन्य हो उठा। ब्रज के दर्शन से रसखान का जीवन सफल हो गया। वे गोवर्धन पर श्रीनाथ जी के दर्शन के लिये मन्दिर में जाने लगे, द्वारपाल ने धक्का देकर निकाल दिया। श्रीनाथ जी के नयन रक्त हो उठे। इधर रसखान की स्थिति विचित्र थी। उन्हें अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर का भरोसा था। अन्न-जल छोड़ दिया, न जाने किन पापों के फलस्वरूप पौरिया ने मन्दिर से निकाल दिया था। तीन दिन बीत गये, भक्त के प्राण कलप हो रहे थे। उधर भगवान भी भक्त की भावना के अनुसार विकल थे। रसखान पड़े-पड़े सोच रहे थे-
देस बिदेस के देखे नरेसन, रीझि की कोउ न बूझ करैगौ।
तातें तिन्हें तजि जान गिरयौ गुन सौं गुन औगुन गांठि परैगौ।।
बांसुरीवारौ बड़ौ रिझवार है स्याम जो नैकु सुढार ढरैगौ।
लाड़िलौ छैल वही तो अहीर कौ हमारे हिये की हरैगौ।।
अहीर के छैल ने उनके हृदय की वेदना हर ही तो ली। भगवान ने साक्षात दर्शन दिये, उसके बाद गोसाईं श्रीविट्ठलनाथ जी ने उनको गोविन्दकुण्ड पर स्नान कराकर दीक्षित किया। रसखान पूरे 'रसखानि' हो गये। भगवान के प्रति पूर्णरूप से समर्पण का भाव उदय हुआ।। रसखान की काव्य-साधना पूरी हो गयी। उनके नयनों ने गवाही दी-
ब्रह्म मैं ढूंढ्यों पुराननि गाननि, वेद रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यों सुन्यों कबहुं न कितूं वह कैसे सरूप ओ कैसे सुभायन।।
टेरत टेरत हारि पर्यौ 'रसखान' बतायौ न लोग लुगायन।
देख्यों, दुरयौ वह कुंज कुटीर में बैठ्यौ पलोटतु राधिका पायन।।
शेष, गणेश, महेश, दिनेश और सुरेश जिनका पार नहीं पा सके, वेद अनादि, अनन्त, अखण्ड, अभेद कहकर नेति-नेति के भ्रमसागर में डूब गये, उनके स्वरूप का इतना भव्य रसमय दर्शन जिस सुन्दर रीति से रसखान ने किया, वह इतिहास की एक अद्भुत घटना है। भक्ति-साहित्य का रहस्यमय वैचित्र्य है। वे आजीवन ब्रज में ही भगवान की लीला को काव्यरूप देते हुए विचरण करते रहे। भगवान ही उनके एकमात्र स्नेही, सखा और सम्बन्धी थे।
दिव्य धाम यात्रा
पैतालीस साल की अवस्था में रसखान ने भगवान के दिव्य धाम की यात्रा की। प्रेमदेवता राधारमण ने अन्तिम समय में उनको दर्शन दिया था। उन्होंने भगवान के सामने यही कामना की, विदा-वेला में केवल इतना ही निवेदन किया-
मानुष हौं तौ वही 'ससखान' बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तौ कहा बस मेरौ चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।।
पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जो धरयौ कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करौं नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।
भक्त के हृदय की विवशता का कितना मार्मिक आत्मनिवेदन है यह। भगवान की लीला से सम्बद्ध दृश्यों, स्थलों, जीवों के प्रति कितनी समीचीन आत्मीयता है। भगवान के सामने ही उनके प्राण चल बसे। जिनके चरणों की रज के लिये कोटि-कोटि जन्मों तक मृत्यु के अधिदेवता यम तरसा करते हैं, उन्होंने भक्त की कीर्ति को समुज्ज्वलतम और नितान्त अक्षुण्ण रखने के लिये अपने हाथों से अन्त्येष्टि-क्रिया की। प्रभु की कृपा का अन्त पाना कठिन है, असम्भव है। प्रेम के साम्राज्य में उनकी कृपा का दर्शन रसखान जैसे भक्तों के ही सौभाग्य की बात है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रसखान (हिंदी) kavitakosh.org। अभिगमन तिथि: 22 नवंबर, 2020।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 रसखान (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) www.ignca.nic.in। अभिगमन तिथि: 11 मई, 2012।
- ↑ रसखान: व्यक्तित्व और कृतित्व |लेखक: डॉ. माजदा असद |प्रकाशक: प्रेम प्रकाशन मन्दिर, दिल्ली |
- ↑ प्रकृति और काव्य पृ0 4
- ↑ हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण, पृ0 6
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