"गुरु": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Swami Vivekanand.jpg|thumb|250px|[[स्वामी विवेकानन्द]]]] | |||
'''गुरु''' [[हिंदू धर्म]] में एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक शिक्षक या निर्देशक होते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि प्राप्त कर ली हो। कम से कम उपनिषदों के समय से [[भारत]] में धार्मिक शिक्षा में गुरुकुल पद्धति पर ज़ोर दिया जाता रहा है। | '''गुरु''' [[हिंदू धर्म]] में एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक शिक्षक या निर्देशक होते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि प्राप्त कर ली हो। कम से कम [[उपनिषद|उपनिषदों]] के समय से [[भारत]] में धार्मिक शिक्षा में [[गुरुकुल]] पद्धति पर ज़ोर दिया जाता रहा है। पारंपरिक रूप से पुरुष शिष्य गुरुओं के आश्रम में रहते थे और भक्ति तथा आज्ञाकारिता से उनकी सेवा करते थे। [[भक्ति आंदोलन]] के उत्थान के साथ, जो इष्ट [[देवता]] के प्रति [[भक्ति]] पर ज़ोर देता है, गुरु और भी अधिक महत्त्वपूर्ण चरित्र बन गए। किसी संप्रदाय के प्रमुख या संस्थापक के रूप में गुरु श्रद्धा के पात्र थे और उन्हें आध्यात्मिक सत्य का मूर्तिमान जीवित रूप माना जाता था। इस प्रकार उन्हें [[देवता]] के जैसा सम्मान प्राप्त था। गुरु के प्रति सेवा भाव और आज्ञाकारिता की परंपरा अब भी विद्यमान है। | ||
==गुरु की परिभाषा== | |||
'गुरु' शब्द में 'गु' का अर्थ है 'अंधकार' और 'रु' का अर्थ है 'प्रकाश' अर्थात् गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक'। सही अर्थों में गुरु वही है जो अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करे और जो उचित हो उस ओर शिष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। गुरु उसको कहते हैं जो [[वेद]]-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत होता है। <ref>गृणाति उपदिशति वेद- शास्त्राणि यद्वा गीर्यते स्तूयते शिष्यवर्गे:</ref> [[मनुस्मृति]] <ref>[[मनुस्मृति]] 2.142</ref> में गुरु की परिभाषा निम्नांकित है- | |||
<poem>निषेकादीनि कार्माणि य: करोति यथाविधि। | |||
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते।</poem> | |||
[[चित्र:Guru-Granth-Sahib.jpg|thumb|250px|[[गुरु ग्रंथ साहिब]]]] | |||
जो विप्र निषक <ref>गर्भाधान </ref>आदि संस्कारों को यथा विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह 'गुरु' कहलाता है। इस परिभाषा से [[पिता]] प्रथम गुरु है, तत्पश्चात् पुरोहित, शिक्षक आदि। मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं। | |||
*'गुरुत्व' के लिए वर्जित पुरुषों की सूची 'कालिकापुराण' <ref>कालिकापुराण अध्याय 54</ref> में इस प्रकार दी हुई है- | |||
<poem>अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा। | |||
क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥ | |||
सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत। | |||
गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥</poem> | |||
*[[कूर्मपुराण]] <ref>[[कूर्मपुराण]] उपविभाग, अध्याय 11</ref> में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है: | |||
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उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:। | |||
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥ | |||
बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥ | |||
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥ | |||
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु। | |||
इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:॥</poem> | |||
[[चित्र:Ramkrishna Paramhans.jpg|thumb|250px|[[रामकृष्ण परमहंस]]]] | |||
इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान है। | |||
*'युत्किकल्पतरु' में अच्छे गुरु के लक्षण निम्नांकित कहे गये हैं- | |||
<poem>सदाचार: कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थापारग:। | |||
नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारक: शुचि:॥ | |||
अपर्वमैथुनपुर: पितृदेवार्चने रत:। | |||
गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत सदा॥ | |||
दयावान शीलसम्पन्न: सत्कुलीनो महामति:। | |||
परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विज:॥ | |||
अन्यैश्च वैदिकगुणैगुणैर्युक्त: कार्यो गुरुर्नृपै:। | |||
एतैरेव गुणैर्युक्त: पुरोधा: स्यान्महीर्भुजाम्॥ | |||
मंत्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं: | |||
शांतो दांत: कुलीनश्च विनीत: शुद्धवेशवान्। | |||
शुद्धाचार: सुप्रतिष्ठ: शुचिर्दक्ष: सुबुद्धिमान॥ | |||
आश्रामी ध्याननिष्ठश्च मंत्र-तंत्र-विशारद:। | |||
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते॥ | |||
उद्धर्तुच्ञै व संहतुँ समर्थो ब्राह्माणोत्तम:। | |||
तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुच्यते॥ | |||
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[[चित्र:Guru-Nanak.jpg|thumb|250px|[[नानक देव, गुरु|गुरु नानक देव]]]] | |||
सामान्यत: द्विजाति का गुरु [[अग्नि]], वर्णों का गुरु [[ब्राह्मण]], स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है- | |||
<poem>गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:। | |||
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥<ref>चाणक्यनीति</ref></poem> | |||
*उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थत: गुरु है- | |||
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उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादित:। | |||
आचारमग्निकार्यञ्चसंध्योपासनमेब च॥ | |||
अल्पं वा बहु वा यस्त श्रुतस्योपकरोति य:। | |||
तमपीह गुरुं विद्याच्छु तोपक्रिययातया॥ | |||
षटर्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्। | |||
तदर्द्धिकं पादिक वा ग्रहणांतिकमेव वा॥ <ref>मनु. 2.69;2.149;3.1</ref></poem> | |||
==गुरु का चुनाव== | |||
[[चित्र:Rabindranath-Tagore.gif|thumb|[[रबीन्द्रनाथ ठाकुर]]]] | |||
वीर [[शैव|शैवों]] में यह है कि प्रत्येक लिंगायत गाँव में एक मठ होता है जो प्रत्येक पाँच प्रारम्भिक मठों से सम्बंधित रहता है। प्रत्येक लिंगायत किसी न किसी मठ से सम्बंधित होता है। प्रत्येक का एक गुरु होता है। 'जंगम' इनकी एक जाति है जिसके सदस्य लिंगायतों के गुरु होते हैं। | |||
जब लिंगायत अपने 'गुरु' का चुनाव करता है तब एक उत्सव होता है, जिसमें पाँच मठों के महंतों के प्रतिनिधि के रूप में, रखे जाते हैं। चार पात्र वर्गाकार आकृति में एवं एक केंद्र में रखा जाता है। यह केंद्र का पात्र उस लिंगायत के घर जाता है, उस अवसर पर 'पादोदक' संस्कार <ref>गुरु के चरण धोना</ref> होता है, जिसमें सारा [[परिवार]] तथा मित्रमण्डली उपस्थित रहती है। गृहस्वामी द्वारा गुरु की षोडशोपचार पूर्वक पूजा की जाती है। | |||
==गुरु का सम्मान== | |||
धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा [[भारत]] में अति प्राचीन है। प्राचीन काल में गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का परम [[धर्म]] होता था। [[प्राचीन भारत]] की शिक्षा प्रणाली में [[वेद|वेदों]] का ज्ञान व्यक्तिगत रूप से गुरुओं द्वारा मौखिक शिक्षा के माध्यम से शिष्यों को दिया जाता था। गुरु शिष्य का दूसरा [[पिता]] माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था। [[आधुनिक काल]] में गुरुसम्मान और भी अधिक बताया गया है। [[नानक]], [[दादू]], राधास्वामी आदि संतों के अनुयायी जिसे एक बार गुरु ग्रहण करते हैं, उसकी बातों को ईश्वरवचन मानते हैं। | |||
बिना गुरु की आज्ञा के कोई [[हिंदु]] किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं हो सकता। प्रथम वह एक जिज्ञासु बनता है। बाद में गुरु उसके कान में एक शुभ बेला में दीक्षा-मंज्ञ पढ़ता है और फिर वह सम्प्रदाय का सदस्य बन जाता है। | |||
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07:43, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
गुरु हिंदू धर्म में एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक शिक्षक या निर्देशक होते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि प्राप्त कर ली हो। कम से कम उपनिषदों के समय से भारत में धार्मिक शिक्षा में गुरुकुल पद्धति पर ज़ोर दिया जाता रहा है। पारंपरिक रूप से पुरुष शिष्य गुरुओं के आश्रम में रहते थे और भक्ति तथा आज्ञाकारिता से उनकी सेवा करते थे। भक्ति आंदोलन के उत्थान के साथ, जो इष्ट देवता के प्रति भक्ति पर ज़ोर देता है, गुरु और भी अधिक महत्त्वपूर्ण चरित्र बन गए। किसी संप्रदाय के प्रमुख या संस्थापक के रूप में गुरु श्रद्धा के पात्र थे और उन्हें आध्यात्मिक सत्य का मूर्तिमान जीवित रूप माना जाता था। इस प्रकार उन्हें देवता के जैसा सम्मान प्राप्त था। गुरु के प्रति सेवा भाव और आज्ञाकारिता की परंपरा अब भी विद्यमान है।
गुरु की परिभाषा
'गुरु' शब्द में 'गु' का अर्थ है 'अंधकार' और 'रु' का अर्थ है 'प्रकाश' अर्थात् गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक'। सही अर्थों में गुरु वही है जो अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करे और जो उचित हो उस ओर शिष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। गुरु उसको कहते हैं जो वेद-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत होता है। [1] मनुस्मृति [2] में गुरु की परिभाषा निम्नांकित है-
निषेकादीनि कार्माणि य: करोति यथाविधि।
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते।
जो विप्र निषक [3]आदि संस्कारों को यथा विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह 'गुरु' कहलाता है। इस परिभाषा से पिता प्रथम गुरु है, तत्पश्चात् पुरोहित, शिक्षक आदि। मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं।
- 'गुरुत्व' के लिए वर्जित पुरुषों की सूची 'कालिकापुराण' [4] में इस प्रकार दी हुई है-
अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा।
क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥
सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत।
गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥
- कूर्मपुराण [5] में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है:
उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:।
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥
बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु।
इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:॥
इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान है।
- 'युत्किकल्पतरु' में अच्छे गुरु के लक्षण निम्नांकित कहे गये हैं-
सदाचार: कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थापारग:।
नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारक: शुचि:॥
अपर्वमैथुनपुर: पितृदेवार्चने रत:।
गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत सदा॥
दयावान शीलसम्पन्न: सत्कुलीनो महामति:।
परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विज:॥
अन्यैश्च वैदिकगुणैगुणैर्युक्त: कार्यो गुरुर्नृपै:।
एतैरेव गुणैर्युक्त: पुरोधा: स्यान्महीर्भुजाम्॥
मंत्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं:
शांतो दांत: कुलीनश्च विनीत: शुद्धवेशवान्।
शुद्धाचार: सुप्रतिष्ठ: शुचिर्दक्ष: सुबुद्धिमान॥
आश्रामी ध्याननिष्ठश्च मंत्र-तंत्र-विशारद:।
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते॥
उद्धर्तुच्ञै व संहतुँ समर्थो ब्राह्माणोत्तम:।
तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुच्यते॥
सामान्यत: द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है-
गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:।
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥[6]
- उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थत: गुरु है-
उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादित:।
आचारमग्निकार्यञ्चसंध्योपासनमेब च॥
अल्पं वा बहु वा यस्त श्रुतस्योपकरोति य:।
तमपीह गुरुं विद्याच्छु तोपक्रिययातया॥
षटर्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्।
तदर्द्धिकं पादिक वा ग्रहणांतिकमेव वा॥ [7]
गुरु का चुनाव
वीर शैवों में यह है कि प्रत्येक लिंगायत गाँव में एक मठ होता है जो प्रत्येक पाँच प्रारम्भिक मठों से सम्बंधित रहता है। प्रत्येक लिंगायत किसी न किसी मठ से सम्बंधित होता है। प्रत्येक का एक गुरु होता है। 'जंगम' इनकी एक जाति है जिसके सदस्य लिंगायतों के गुरु होते हैं।
जब लिंगायत अपने 'गुरु' का चुनाव करता है तब एक उत्सव होता है, जिसमें पाँच मठों के महंतों के प्रतिनिधि के रूप में, रखे जाते हैं। चार पात्र वर्गाकार आकृति में एवं एक केंद्र में रखा जाता है। यह केंद्र का पात्र उस लिंगायत के घर जाता है, उस अवसर पर 'पादोदक' संस्कार [8] होता है, जिसमें सारा परिवार तथा मित्रमण्डली उपस्थित रहती है। गृहस्वामी द्वारा गुरु की षोडशोपचार पूर्वक पूजा की जाती है।
गुरु का सम्मान
धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा भारत में अति प्राचीन है। प्राचीन काल में गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का परम धर्म होता था। प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली में वेदों का ज्ञान व्यक्तिगत रूप से गुरुओं द्वारा मौखिक शिक्षा के माध्यम से शिष्यों को दिया जाता था। गुरु शिष्य का दूसरा पिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था। आधुनिक काल में गुरुसम्मान और भी अधिक बताया गया है। नानक, दादू, राधास्वामी आदि संतों के अनुयायी जिसे एक बार गुरु ग्रहण करते हैं, उसकी बातों को ईश्वरवचन मानते हैं।
बिना गुरु की आज्ञा के कोई हिंदु किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं हो सकता। प्रथम वह एक जिज्ञासु बनता है। बाद में गुरु उसके कान में एक शुभ बेला में दीक्षा-मंज्ञ पढ़ता है और फिर वह सम्प्रदाय का सदस्य बन जाता है।
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