"छोटी थी -चित्रा देसाई": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो ("छोटी थी -आदित्य चौधरी" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (अनिश्चित्त अवधि) [move=sysop] (अनिश्चित्त अवधि)))
No edit summary
 
(एक दूसरे सदस्य द्वारा किए गए बीच के 18 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
|-
|-
|  
|  
<br />
<noinclude>[[चित्र:Copyright.png|50px|right|link=|]]</noinclude>
<noinclude>[[चित्र:Copyright.png|50px|right|link=|]]</noinclude>  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"><font color=#003333 size=5>[[छोटी थी -चित्रा देसाई|छोटी थी]] <small>-[[#रचनाकार संपर्क|चित्रा देसाई]]</small></font></div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"><font color=#003333 size=5>छोटी थी <small>-आदित्य चौधरी</small></font></div>
----
{| width="100%" style="background:transparent"
|-valign="top"
| style="width:40%"|
| style="width:30%"|
<poem style="color=#003333">
<poem style="color=#003333">
छोटी थी
छोटी थी
पंक्ति 10: पंक्ति 14:
फ़्रॉक के लिए,   
फ़्रॉक के लिए,   
मेले में जाने  
मेले में जाने  
और खिलोंनों के लिए।
और खिलौनों के लिए।
खीर पूरी खाने के लिए  
खीर पूरी खाने के लिए  
नानी की गोदी में सोने के लिए।
नानी की गोदी में सोने के लिए।
पंक्ति 34: पंक्ति 38:
मनुहार किया अपना ही ...
मनुहार किया अपना ही ...
सुनो!
सुनो!
अपने आह्वाहन में ...
अपने आह्वान में ...
मेरा भी मन जोड़ लो।
मेरा भी मन जोड़ लो।
आओ इतनी ज़िद करें
आओ इतनी ज़िद करें
पंक्ति 48: पंक्ति 52:
आज पूरे ज़िद्दी बन जाऐं।  
आज पूरे ज़िद्दी बन जाऐं।  
</poem>
</poem>
<noinclude>
====रचनाकार संपर्क====
* फ़ेसबुक- [https://www.facebook.com/chitra.desai.520 श्रीमती चित्रा देसाई]
* ईमेल- chitra_desai@yahoo.com
</noinclude>
| style="width:30%"|
|}
|}
|}
<noinclude>
<noinclude>
{{भारतकोश सम्पादकीय}}
[[Category:कविता]][[Category:चित्रा देसाई की कविताएँ]]
[[Category:कविता]]
[[Category:आदित्य चौधरी की रचनाएँ]]
</noinclude>
</noinclude>


__INDEX__
__INDEX__

06:32, 18 जनवरी 2013 के समय का अवतरण


छोटी थी
तो ज़िद करती थी
फ़्रॉक के लिए,
मेले में जाने
और खिलौनों के लिए।
खीर पूरी खाने के लिए
नानी की गोदी में सोने के लिए।
थोड़ी बड़ी हुई ...
तो स्कूल के लिए,
नई तख़्ती और
क़लम दवात के लिए।
थोड़ी और बड़ी हुई ...
तो धीरे से मेरे कानों में कहा ...
अब ज़िद करना छोड़ दो।
नानी की दुलारी थी
सो बात मान ली
ज़िद करना छोड़ दिया।
... और धीरे धीरे
मुझे पता ही नहीं चला
कब मेरी ज़मीन पर
दूसरों के गांव बसने लगे।
अनजान लोगों की ज़िद मानने लगी ...
पर आज अचानक भीड़ देखी
तो उस बच्ची की ज़िद याद आई।
बंद संदूक से
अपने ज़िद्दीपन को निकाला,
मनुहार किया अपना ही ...
सुनो!
अपने आह्वान में ...
मेरा भी मन जोड़ लो।
आओ इतनी ज़िद करें
कि छत और दीवार ही नहीं
नींव और ज़मीन भी हिल जाऐं ...
बंद कोठरी से
सबका ज़िद्दी मन निकालें,
खुले मैदानों में फैल जाऐं
अपने आसमान के लिए
सुनसान सड़कों पर
हवा से बह जाऐं।
आओ ...
आज पूरे ज़िद्दी बन जाऐं।

रचनाकार संपर्क