"भान कवि": अवतरणों में अंतर
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'''भान कवि''' [[रीति काल]] के प्रमुख कवियों में गिने जाते थे। इन्होंने संवत 1845 {{संवत|संवत=1845}} में 'नरेंद्र भूषण' नामक एक [[अलंकार]] ग्रंथ लिखा था, जिससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि ये 'राजा ज़ोरावर सिंह' के पुत्र थे और राजा 'रनज़ोर सिंह बुंदेल' के यहाँ रहते थे। भान कवि का पूरा नाम क्या था, इस विषय में भी अधिक जानकारी का अभाव है। | '''भान कवि''' [[रीति काल]] के प्रमुख कवियों में गिने जाते थे। इन्होंने संवत 1845 {{संवत|संवत=1845}} में 'नरेंद्र भूषण' नामक एक [[अलंकार]] ग्रंथ लिखा था, जिससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि ये 'राजा ज़ोरावर सिंह' के पुत्र थे और राजा 'रनज़ोर सिंह बुंदेल' के यहाँ रहते थे। भान कवि का पूरा नाम क्या था, इस विषय में भी अधिक जानकारी का अभाव है। | ||
*भान कवि ने अलंकारों के उदाहरण [[रस| | *भान कवि ने अलंकारों के उदाहरण [[रस|श्रृंगार रस]] के प्राय: बराबर ही [[वीर रस|वीर]], [[भयानक रस|भयानक]], [[अद्भुत रस|अद्भुत]] आदि रसों के रखे हैं। इससे इनके [[ग्रंथ]] में कुछ नवीनता अवश्य दिखाई पड़ती है, जो श्रृंगार के सैकड़ों वर्ष से ऊबे पाठक को आराम देती है। | ||
*इनकी कविता में [[भूषण]] का सा जोश और प्रसिद्ध | *इनकी कविता में [[भूषण]] का सा जोश और प्रसिद्ध श्रृंगारियों की सी मधुरता तो नहीं है, पर रचनाएँ परिमार्जित हैं- | ||
<poem>रनमतवारे ये ज़ोरावर दुलारे तव, | <poem>रनमतवारे ये ज़ोरावर दुलारे तव, |
07:54, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
भान कवि रीति काल के प्रमुख कवियों में गिने जाते थे। इन्होंने संवत 1845 (ईसवी सन 1788) में 'नरेंद्र भूषण' नामक एक अलंकार ग्रंथ लिखा था, जिससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि ये 'राजा ज़ोरावर सिंह' के पुत्र थे और राजा 'रनज़ोर सिंह बुंदेल' के यहाँ रहते थे। भान कवि का पूरा नाम क्या था, इस विषय में भी अधिक जानकारी का अभाव है।
- भान कवि ने अलंकारों के उदाहरण श्रृंगार रस के प्राय: बराबर ही वीर, भयानक, अद्भुत आदि रसों के रखे हैं। इससे इनके ग्रंथ में कुछ नवीनता अवश्य दिखाई पड़ती है, जो श्रृंगार के सैकड़ों वर्ष से ऊबे पाठक को आराम देती है।
- इनकी कविता में भूषण का सा जोश और प्रसिद्ध श्रृंगारियों की सी मधुरता तो नहीं है, पर रचनाएँ परिमार्जित हैं-
रनमतवारे ये ज़ोरावर दुलारे तव,
बाजत नगारे भए ग़ालिब दिगीस पर।
दल के चलत खर भर होत चारों ओर,
चालति धारनि भारी भार सों फनीस पर
देखि कै समर सनमुख भयो ताहि समै,
बरनत भान पैज कै कै बिसे बीस पर।
तेरी समसेर की सिफत सिंह रनज़ोर,
लखी एकै साथ हाथ अरिन के सीस पर
घन से सघन स्याम, इंदु पर छाय रहे,
बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँति सी।
तिनके समीप तहाँ खंज की सी ज़ोरी, लाल!
आरसी से अमल निहारे बहु भाँति सी
ताके ढिग अमल ललौहैं बिबि विदु्रम से,
फरकति ओप जामैं मोतिन की कांतिसी।
भीतर से कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि,
सुनि करि भान परि कानन सुहाति सी
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