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रामसहाय दास चौबेपुर ज़िला, बनारस के रहने वाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र | '''रामसहाय दास''' चौबेपुर ज़िला, [[बनारस]] के रहने वाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे। ये [[काशी]] नरेश 'महाराज उदित नारायण सिंह' के आश्रय में रहते थे। [[संवत्]] 1860-1880 के मध्य महाराज उदित नारायण के दरबारी कवि रामसहाय ने 'रामसतसई', 'श्रृंगार सतसई', 'ककहरा रामसहायदास', 'बानी भूषण', 'राम सप्त शतिका' नामक चमत्कृत काव्य ग्रंथ रचे थे। | ||
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'[[बिहारी सतसई]]' के अनुकरण पर इन्होंने 'रामसतसईं' बनाई थी। [[बिहारी]] के अनुकरण पर बनी हुई पुस्तकों में इसी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके बहुत से [[दोहा|दोहे]] सरस उद्भावना में बिहारी के दोहों के पास तक पहुँचते हैं, पर यह कहना कि ये दोहे बिहारी के दोहों में मिलाए जा सकते हैं, रसज्ञता और भावुकता से ही पुरानी दुश्मनी निकालना ही नहीं, बिहारी को भी कुछ नीचे गिराने का प्रयत्न समझा जाएगा। जहाँ तक शब्दों की कारीगरी और वाग्वैदग्ध्य से संबंध है, वहीं तक अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है और सफलता भी हुई है। पर हावों का वह सुंदर व्यंजना विधान, चेष्टाओं का वह मनोहर चित्रण, [[भाषा]] का वह सौष्ठव, संचारियों की वह सुंदर व्यंजना इस सतसई में नहीं है। इस बड़े भारी भेद के होते हुए भी 'रामसतसईं' [[श्रृंगार रस]] का उत्तम ग्रंथ है इस सतसई के अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तकें और लिखी हैं - | |||
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07:56, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
रामसहाय दास चौबेपुर ज़िला, बनारस के रहने वाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे। ये काशी नरेश 'महाराज उदित नारायण सिंह' के आश्रय में रहते थे। संवत् 1860-1880 के मध्य महाराज उदित नारायण के दरबारी कवि रामसहाय ने 'रामसतसई', 'श्रृंगार सतसई', 'ककहरा रामसहायदास', 'बानी भूषण', 'राम सप्त शतिका' नामक चमत्कृत काव्य ग्रंथ रचे थे।
रचना कार्य
'बिहारी सतसई' के अनुकरण पर इन्होंने 'रामसतसईं' बनाई थी। बिहारी के अनुकरण पर बनी हुई पुस्तकों में इसी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके बहुत से दोहे सरस उद्भावना में बिहारी के दोहों के पास तक पहुँचते हैं, पर यह कहना कि ये दोहे बिहारी के दोहों में मिलाए जा सकते हैं, रसज्ञता और भावुकता से ही पुरानी दुश्मनी निकालना ही नहीं, बिहारी को भी कुछ नीचे गिराने का प्रयत्न समझा जाएगा। जहाँ तक शब्दों की कारीगरी और वाग्वैदग्ध्य से संबंध है, वहीं तक अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है और सफलता भी हुई है। पर हावों का वह सुंदर व्यंजना विधान, चेष्टाओं का वह मनोहर चित्रण, भाषा का वह सौष्ठव, संचारियों की वह सुंदर व्यंजना इस सतसई में नहीं है। इस बड़े भारी भेद के होते हुए भी 'रामसतसईं' श्रृंगार रस का उत्तम ग्रंथ है इस सतसई के अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तकें और लिखी हैं -
- वाणीभूषण,
- वृत्ततरंगिणी (संवत्र् 1873) और
- ककहरा।
- 'वाणीभूषण' अलंकार का ग्रंथ है।
- 'वृत्ततरंगिणी' पिंगल का ग्रंथ है।
- 'ककहरा' जायसी की 'अखरावट' के ढंग की छोटी सी पुस्तक है और शायद सबसे बाद की रचना है, क्योंकि इसमें धर्म और नीति के उपदेश हैं।
- रामसहाय का कविता काल संवत् 1760से 1880 तक माना जा सकता है। -
गड़े नुकीले लाल के नैन रहैं दिन रैनि।
तब नाजुक ठोढ़ी न क्यों गाड़ परै मृदुबैनि?
भटक न, झटपट चटक कै अटक सुनट के संग।
लटक पीतपट की निपट हटकति कटक अनंग॥
लागे नैना नैन में कियो कहा धौ मैन।
नहिं लागै नैना रहैं लागे नैना नैन॥
गुलुफनि लगि ज्यों त्यों गयो, करि करि साहस जोर।
फिर न फिरयो मुरवान चपि, चित अति खात मरोर॥
यौ बिभाति दसनावली ललना बदन मँझार।
पति को नातो मानि कै मनु आई उडुमार॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 266-67।
बाहरी कड़ियाँ
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