"ब्रज का कृष्ण काल": अवतरणों में अंतर
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==कृष्ण काल== | ==कृष्ण काल== | ||
[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है। अनेक [[इतिहासकार]] कृष्ण को ऐतिहासिक चरित्र नहीं मानते। यूँ भी आस्था के प्रश्नों का हल [[इतिहास]] में तलाशने का कोई अर्थ नहीं है। आपने जो इतिहास की सामग्री अक्सर खंगाली होगी, वह संभवत: कृष्ण की ऐतिहासिकता पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाती होगी। हमारा प्रयास है कि जो जैसा उपलब्ध है, आप तक पहुँचायें। कई विद्वान् श्रीकृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है। इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है। | |||
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श्रीकृष्ण | श्रीकृष्ण के समय के संबंध में श्रीकृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई.पू. 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घ जीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो [[ब्रज]] में कटा और शेष [[द्वारका]] में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पड़ा। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटीं, उनकी विस्तृत चर्चा [[पुराण|पुराणों]] तथा [[महाभारत]] में मिलती है। [[वैदिक साहित्य]] में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का [[विष्णु के अवतार]] रूप में।<ref>श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ [[वैष्णव]] सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ. 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।</ref>"-श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी | ||
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डॉ. प्रभुदयाल मीतल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं। उन्होंने '[[छान्दोग्य उपनिषद|छांदोग्योपनिषद]]' के [[श्लोक]] का हवाला दिया है।<ref>तध्दैत्दघोर आगिंरस कृष्ण्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स बभूव सोऽन्तवेलायामेतत्त्रय प्रतिपद्ये ताक्षितमस्यच्युतमसि प्राण्सँशितमसीति तत्रैते द्वे ॠचौ भवत: ॥ [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छांदोग्य उपनिषद (3,17,6)]], जिसमें [[देवकी]] पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे0 तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। [[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण]], [[विष्णु पुराण]], [[ब्रह्म पुराण]], [[वायु पुराण]], [[भागवत पुराण]], [[पद्म पुराण]], देवी भागवत [[अग्नि पुराण]] तथा [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] पुराणों में उन्हें प्राय: भागवान रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथों में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्त्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्त्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे</ref> ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मीतल लिखते हैं- "मैत्रायणी [[उपनिषद]] और [[शतपथ ब्राह्मण]] के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कॉलेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था। | |||
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'मैत्रायणी उपनिषद' सबसे पीछे का [[उपनिषद]] कहा जाता है और उसमें '[[छान्दोग्य उपनिषद|छांदोग्य उपनिषद]]' के अवतरण मिलते हैं, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ। [[शतपथ ब्राह्मण]] और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ। छांदोग्य उपनिषद में [[देवकी]] पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है।<ref>[[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उपनिषद, प्रथम भाग, खण्ड 17]]</ref> “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के [[कृष्ण]] स्पष्ट रूप से [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंश के कृष्ण हैं। इस प्रकार कृष्ण का समय प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का ज्ञात होता है।" - डॉ. प्रभुदयाल मीतल | |||
डॉ. मीतल ने किस आधार पर छांदोग्योपनिषद को 5000 वर्ष प्राचीन बताया है। यह कहीं उल्लेख नहीं है। 'छांदोग्योपनिषद' के ई. पू. 500 से 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन होने के प्रमाण नहीं मिलते।<ref>यदि प्रमाण हों तो पाठकों से निवेदन है कि ब्रज डिस्कवरी को अवश्य भेजें। साथ ही ज्योतिष गणनाओं का कोई अन्य आधार जो प्रमाणिक हो अवश्य भेजें।</ref> | |||
==कृष्ण का समय== | ==कृष्ण का समय== | ||
डॉ. मीतल लिखते हैं- "[[परीक्षित]] के समय में [[सप्तर्षि]] (आकाश के सात तारे) [[मघा नक्षत्र]] पर थे, जैसा [[शुकदेव]] द्वारा परीक्षित से कहे हुए वाक्य से प्रमाणित है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र पर एक सौ वर्ष तक रहते हैं। आजकल सप्तर्षि [[कृत्तिका नक्षत्र]] पर हैं, जो मघा से 21वां [[नक्षत्र]] है। इस प्रकार मघा के कृतिका पर आने में 2100 वर्ष लगे हैं किंतु यह 2100 वर्ष की अवधि [[महाभारत]] काल कदापि नहीं है। इससे यह मानना होगा कि मघा से आरम्भ कर 27 नक्षत्रों का एक चक्र पूरा हो चुका था और दूसरे चक्र में ही सप्तर्षि उस काल में मघा पर आये थे। पहिले चक्र के 2700 वर्ष में दूसरे चक्र के 2100 वर्ष जोड़ने से 4800 वर्ष हुए। यह काल [[परीक्षित]] की विद्यमानता का हुआ। परीक्षित के पितामह [[अर्जुन]] थे, जो आयु में [[श्रीकृष्ण]] से 18 वर्ष छोटे थे। इस प्रकार ज्योतिष की उक्त गणना के अनुसार कृष्ण-काल अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है।" | |||
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आजकल के [[चैत्र मास]] के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह [[मार्गशीर्ष]] से होता | आजकल के [[चैत्र मास]] के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह [[मार्गशीर्ष]] से होता था। [[बसन्त ऋतु]] भी इस काल में मार्गशीर्ष माह में होती थी। [[महाभारत]] में मार्गशीर्ष मास से ही कई स्थलों पर महीनों की गणना की गयी है। '[[गीता]]' में जहाँ भगवान की विभूतियों का वर्णन हुआ हैं, वहाँ “मासानां मार्गशीर्षोऽहम” और “ऋतुनां कुसुमाकर” के उल्लेखों से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है। ज्योतिषशास्त्र के विद्धानों ने सिद्ध किया है कि मार्गशीर्ष में वसन्त सम्पात अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व होता था।<ref>भारतीय ज्योतिषशाला, पृष्ठ 34</ref> इस प्रकार भी श्रीकृष्ण काल के 5000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है। | ||
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श्रीकृष्ण [[द्वापर युग]] के अन्त और [[कलियुग]] के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान | श्रीकृष्ण [[द्वापर युग]] के अन्त और [[कलियुग]] के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान थे। भारतीय ज्योतिषियों के मतानुसार कलियुग का आरम्भ [[शक संवत]] से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शु. 1 को हुआ था। आजकल 1887 शक [[संवत]] है। इस प्रकार कलियुग को आरम्भ हुए 5066 वर्ष हो गये हैं। कलियुग के आरम्भ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरम्भ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था। उस समय श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी। उनका तिरोधान 119 वर्ष की आयु में हुआ था। इस प्रकार भारतीय मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण विद्यमानता या काल शक संवत पूर्व 3263 की भाद्रपद कृ. 8 बुधवार के शक संवत पूर्व 3144 तक है। [[भारत]] के विख्यात ज्योतिषी [[वराह मिहिर]], [[आर्यभट]], [[ब्रह्मगुप्त]] आदि के समय से ही यह मान्यता प्रचलित है। [[भारत]] का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत जिसकी गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है, उक्त मान्यता को पुष्ट करता है। | ||
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पुरातत्त्ववेत्ताओं का मत है कि अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व एक प्रकार का प्रलय हुआ था। उस समय भयंकर [[भूकम्प]] और आंधी तूफ़ानों से समुद्र में बड़ा भारी उफान आया था। उस समय नदियों के प्रवाह परिवर्तित हो गये थे, विविध स्थानों पर ज्वालामुखी पर्वत फूट पड़े थे और पहाड़ के श्रृंग टूट-टूटकर गिर गये थे। वह भीषण दैवी दुर्घटना वर्तमान इराक में बग़दाद के पास और वर्तमान मैक्सिको के प्राचीन प्रदेशों में हुई थी, जिसका काल 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। उसी प्रकार की दुर्घटनाओं का वर्णन महाभारत और [[भागवत]] आदि पुराणों भी मिलता है। इनसे ज्ञात होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् उसी प्रकार के भीषण भूकम्प [[हस्तिनापुर]] और [[द्वारिका]] में भी हुए थे, जिनके कारण द्वारिका तो सर्वथा नष्ट ही हो गयी थी। | |||
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[[ | [[बग़दाद]] और [[हस्तिनापुर]] तथा प्राचीन मग प्रदेश और द्वारिका प्राय: एक से आक्षांशों पर स्थित हैं, अत: उनकी दुर्घटनाओं का पारिस्परिक सम्बन्ध विज्ञान सम्मत है। बग़दाद प्रलय के पश्चात् वहाँ बताये गये “उर” नगर को तथा मैक्सिको स्थित मय प्रदेश के ध्वंस को जब 5000 वर्ष प्राचीन माना जा सकता है, जब महाभारत और भागवत में वर्णित वैसी ही घटनाओं, जो कृष्ण के समय में हुई थी, उसी काल का माना जायगा। ऐसी दशा में [[पुरातत्त्व]] के साक्ष्य से भी कृष्ण-काल 5000 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है। यह दूसरी बात है कि महाभारत और भागवत ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई थी, किंतु उनमें वर्णित कथा 5000 वर्ष पुरानी ही है। | ||
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ज्योतिष और | ज्योतिष और पुरातत्त्व के अतिरिक्त इतिहास के प्रमाण से भी कृष्ण-काल विषयक भारतीय मान्यता की पुष्टि होती है। यवन नरेश [[सेल्यूकस|सैल्युक्स]] ने [[मैगस्थनीज]] नामक अपना एक राजदूत भारतीय नरेश [[चन्द्रगुप्त]] के दरबार में भेजा था। मैगस्थनीज ने उस समय के अपने अनुभव लेखबद्ध किये थे। इस समय उस यूनान राजदूत का मूल ग्रंन्थ तो नहीं मिलता है, किंतु उसके जो अंश एरियन आदि अन्य [[यवन]] लेखकों ने उद्धृत किये थे, वे प्रकाशित हो चुके हैं। | ||
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[[मैगस्थनीज़]] ने लिखा है कि [[मथुरा]] में शौरसेनी लोगों का निवास है। वे विशेष रूप से '''हरकुलीज''' (हरि कृष्ण) की पूजा करते हैं। उनका कथन है कि डायोनिसियस के हरकुलीज 15 पीढ़ी और सेण्ड्रकोटस ([[चन्द्रगुप्त मौर्य|चन्द्रगुप्त]]) 153 पीढ़ी पहले हुए थे। इस प्रकार श्रीकृष्ण और चन्द्रगुप्त में 138 पीढ़ियों के 2760 वर्ष हुए। चन्द्रगुप्त का समय ईसा से 326 वर्ष पूर्व है। इस हिसाब से श्रीकृष्ण काल अब से (1965+326+2760) 5051 वर्ष पूर्व सिद्ध होता है। | |||
==कंस के समय मथुरा== | ==कंस के समय मथुरा== | ||
[[कंस]] के समय में मथुरा का क्या स्वरूप था, इसकी कुछ झलक पौराणिक वर्णनों में देखी जा सकती है। जब श्रीकृष्ण ने पहली बार इस नगरी को देखा तो भागवतकार के शब्दों में उसकी शोभा इस प्रकार थी।<ref> | [[कंस]] के समय में मथुरा का क्या स्वरूप था, इसकी कुछ झलक पौराणिक वर्णनों में देखी जा सकती है। जब श्रीकृष्ण ने पहली बार इस नगरी को देखा तो भागवतकार के शब्दों में उसकी शोभा इस प्रकार थी।<ref> | ||
* ददर्श तां स्फाटिकतुङ्गोपुर द्वारां | * ददर्श तां स्फाटिकतुङ्गोपुर द्वारां वृहद्धेमकपाटतोरणाम्। | ||
* ताम्रारकोष्ठां | * ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदामुद्यानरम्योपवनोपशोभिताम्।। | ||
* सौवर्ण श्रृंगाटक हर्म्यनिष्कुटै: श्रेणी | * सौवर्ण श्रृंगाटक हर्म्यनिष्कुटै: श्रेणी सभाभिभवनैरुपस्कृताम्। | ||
* वैदूर्यबज्रामल, | * वैदूर्यबज्रामल, नीलविद्रुमैर्मुक्तहरिद्भिर्बलभीषुवेदिपु।। | ||
* जुष्टेषु जालामुखरंध्रकुटि्टमेष्वाविष्ट | * जुष्टेषु जालामुखरंध्रकुटि्टमेष्वाविष्ट पारावतवर्हिनादिताम्। | ||
* संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां | * संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां प्रकीर्णमाल्यांकुरलाजतंडुजाम।। | ||
* आपूर्णकुभैर्दधिचंदनोक्षितै: प्रसूनदीपाबलिभि: सपल्लवै: । | * आपूर्णकुभैर्दधिचंदनोक्षितै: प्रसूनदीपाबलिभि: सपल्लवै:। | ||
* सवृंदरंभाक्रमुकै: सकेतुभि: स्वलंकृतद्वार गृहां सपटि्टकै: | * सवृंदरंभाक्रमुकै: सकेतुभि: स्वलंकृतद्वार गृहां सपटि्टकै:।।(भागवत, 10, 41, 20-23</ref> | ||
(भागवत, 10, 41, 20-23 | |||
'उस नगरी के प्रवेश-द्वार ऊँचे थे और स्फटिक पत्थर के बने हुए थे। उनके बड़े-बड़े सिरदल और किवाड़ सोने के थे। नगरी के चारों ओर की दीवाल (परकोटा) ताँबे और पीतल की बनी थी तथा उसके नीचे की खाई दुर्लभ थी। नगरी अनेक उद्यानों एक सुन्दर उपवनों से शोभित थी।' | 'उस नगरी के प्रवेश-द्वार ऊँचे थे और स्फटिक पत्थर के बने हुए थे। उनके बड़े-बड़े सिरदल और किवाड़ सोने के थे। नगरी के चारों ओर की दीवाल (परकोटा) [[ताँबा|ताँबे]] और [[पीतल]] की बनी थी तथा उसके नीचे की खाई दुर्लभ थी। नगरी अनेक उद्यानों एक सुन्दर उपवनों से शोभित थी।' | ||
'सुवर्णमय चौराहों, महलों, बगीचियों, सार्वजनिक स्थानों एवं विविध भवनों से वह नगरी युक्त थी। वैदूर्य, बज्र, नीलम, मोती, हीरा आदि रत्नों से अलंकृत छज्जे, वेदियां तथा फर्श जगमगा रहे थे और उन पर बैठे हुए कबूतर और मोर अनेक प्रकार के मधुर शब्द कर रहे थे। गलियों और बाज़ारों में, सड़कों तथा चौराहों पर छिड़काव किया गया था। और उन पर जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ, दूर्वा-दल, लाई और चावल बिखरे हुए थे।' | 'सुवर्णमय चौराहों, महलों, बगीचियों, सार्वजनिक स्थानों एवं विविध भवनों से वह नगरी युक्त थी। वैदूर्य, बज्र, नीलम, मोती, हीरा आदि रत्नों से अलंकृत छज्जे, वेदियां तथा फर्श जगमगा रहे थे और उन पर बैठे हुए कबूतर और मोर अनेक प्रकार के मधुर शब्द कर रहे थे। गलियों और बाज़ारों में, सड़कों तथा चौराहों पर छिड़काव किया गया था। और उन पर जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ, दूर्वा-दल, लाई और चावल बिखरे हुए थे।' | ||
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उपर्युक्त वर्णन कंस या कृष्ण कालीन [[मथुरा]] से कहाँ तक मेल खाता है, यह बताना कठिन है। परन्तु इससे तथा अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णनों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि तत्कालीन मथुरा एक समृद्ध पुरी थी। उसके चारों ओर नगर-परकोटा थी तथा नगरी में उद्यानों का बाहुल्य था। मोर पक्षियों की शायद इस समय भी मथुरा में अधिकता थी। महलों, मकानों, सड़कों और बाज़ारों आदि के जो वर्णन मिलते है उनसे पता चलता है कि कंस के समय की मथुरा एक धन-धान्य सम्पन्न नगरी थी। | उपर्युक्त वर्णन कंस या कृष्ण कालीन [[मथुरा]] से कहाँ तक मेल खाता है, यह बताना कठिन है। परन्तु इससे तथा अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णनों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि तत्कालीन मथुरा एक समृद्ध पुरी थी। उसके चारों ओर नगर-परकोटा थी तथा नगरी में उद्यानों का बाहुल्य था। मोर पक्षियों की शायद इस समय भी मथुरा में अधिकता थी। महलों, मकानों, सड़कों और बाज़ारों आदि के जो वर्णन मिलते है उनसे पता चलता है कि कंस के समय की मथुरा एक धन-धान्य सम्पन्न नगरी थी। | ||
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इस प्रकार भारतीय विद्वानों के सैकड़ों हज़ारों वर्ष प्राचीन निष्कर्षों के फलस्वरूप कृष्ण-काल की जो भारतीय मान्यता ज्योतिष, | इस प्रकार भारतीय विद्वानों के सैकड़ों हज़ारों वर्ष प्राचीन निष्कर्षों के फलस्वरूप कृष्ण-काल की जो भारतीय मान्यता ज्योतिष, पुरातत्त्व और इतिहास से भी परिपुष्ट होती है, उसे न मानने का कोई कारण नहीं है। आधुनिक काल के विद्वानों इतिहास और पुरातत्त्व के जिन अनुसन्धानों के आधार पर कृष्ण-काल की अवधि 3500 वर्ष मानते हैं, वे अभी अपूर्ण हैं। इस बात की पूरी सम्भावना है कि इन अनुसन्धानों के पूर्ण होने पर वे भी भारतीय मान्यता का समर्थन करने लगेंगे। | ||
==प्राचीनतम संस्कृत साहित्य== | ==प्राचीनतम संस्कृत साहित्य== | ||
[[वेद|वैदिक]] संहिताओं के अनंतर संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य-आरण्यक, [[उपनिषद]], ब्राह्मण ग्रंथों और पाणिनीय सूत्रों में श्रीकृष्ण का थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता | [[वेद|वैदिक]] संहिताओं के अनंतर संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य-आरण्यक, [[उपनिषद]], ब्राह्मण ग्रंथों और पाणिनीय सूत्रों में श्रीकृष्ण का थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता है। [[जैन]] साहित्य में श्रीकृष्ण को तीर्थंकर [[नेमिनाथ]] जी का चचेरा भाई बतलाया गया है। इस प्रकार जैन धर्म के प्राचीनतम साहित्य में श्रीकृष्ण का उल्लेख हुआ है। | ||
[[बौद्ध]] साहित्य में [[जातक कथा|जातक कथाएं]] अत्यंत प्राचीन | [[बौद्ध]] साहित्य में [[जातक कथा|जातक कथाएं]] अत्यंत प्राचीन है। उनमें से “घट जातक” में कृष्ण कथा वर्णित है। यद्यपि उपर्युक्त साहित्य कृष्ण–चरित्र के स्रोत से संबंधित है, तथापि कृष्ण-चरित्र के प्रमुख ग्रंथ- | ||
# [[महाभारत]] | |||
# [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]] | |||
# विविध [[पुराण]] | |||
# गोपाल तापनी उपनिषद | |||
# [[गर्ग संहिता]] | |||
यहाँ इन ग्रंथों में वर्णित श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डाला जाता है। | |||
==पुराणेतर ग्रंथ== | |||
जिन पुराणेत्तर ग्रंथों में श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है, उसमें “गोपाल तापनी उपनिषद” और “[[गर्ग संहिता]]” प्रमुख है। यहाँ पर उनका विस्तृत विवरण दिया जाता है- | |||
'''गोपाल तापनी उपनिषद''': - यह कृष्णोपासना से संबंधित एक आध्यात्मिक रचना है। इसके पूर्व और उत्तर नामक दो भाग है। पूर्व भाग को “कृष्णोपनिषद” और उत्तर भाग को “अथर्वगोपनिषद” कहा गया है। यह रचना सूत्र शैली में है, अत: कृष्णोपासना के परवर्ती ग्रंथों की अपेक्षा यह प्राचीन जान पड़ती है। इसका पूर्व भाग उत्तर भाग से भी पहले का ज्ञात होता है। श्रीकृष्ण प्रिया [[राधा]] और उनके लीला-धाम [[ब्रज]] में से किसी का भी नामोल्लेख इसमें नहीं है। इससे भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती हैं। - डॉ. प्रभुदयाल मीतल | |||
गोपाल तापनी उपनिषद : - यह कृष्णोपासना से संबंधित एक आध्यात्मिक रचना | |||
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"डॉ. प्रभुदयाल मीतल, [[कृष्ण]] का समय 5000 वर्ष पूर्व मानते हैं। वे इसको अनेक तथ्य एवं उल्लेखों के आधार पर प्रमाणित भी करते हैं। श्रीकृष्ण दत्त वाजपेयी का मत भिन्न है, वे कृष्ण काल को 3500 वर्ष से अधिक पुराना नहीं मानते।" अनेक भारतीय और विदेशी इतिहासकार [[महाभारत]] का काल निर्णय होने से यह नहीं मानते कि कृष्ण का समय भी सिद्ध हो गया। यही स्थिति '[[गीता]]' के समय निर्धारण की भी है, कुछ विद्वानों का मानना है कि 'गीता' कहने वाले कृष्ण भिन्न हैं, यहीं एक विवाद [[द्वारका]] के कृष्ण को [[मथुरा]] के कृष्ण को भिन्न बताने का भी है। कुछ का मत है कि कृष्ण को महाभारत में काफ़ी बाद में जोड़ दिया गया। चाहे जो भी हो आज कृष्ण की ऐतिहासिकता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है। हो सकता है कालनिर्णय में मतैक्य न हो। | |||
{{लेख क्रम2 |पिछला=ब्रज का आदिम काल|पिछला शीर्षक=ब्रज का आदिम काल|अगला शीर्षक=ब्रज का मौर्य काल|अगला=ब्रज का मौर्य काल}} | |||
==टीका टिप्पणी== | {{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
[[Category:इतिहास कोश]] | {{refbox}} | ||
[[Category:ब्रज]] | ==संबंधित लेख== | ||
[[Category:ब्रज का इतिहास]] | {{ब्रज का इतिहास}}{{ब्रज}} | ||
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09:42, 15 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
ब्रज का कृष्ण काल
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विवरण | भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्र विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था। |
ब्रज क्षेत्र | आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल (हरियाणा), दक्षिण में ग्वालियर (मध्य प्रदेश), पश्चिम में भरतपुर (राजस्थान) और पूर्व में एटा (उत्तर प्रदेश) को छूती हैं। |
ब्रज के केंद्र | मथुरा एवं वृन्दावन |
ब्रज के वन | कोटवन, काम्यवन, कुमुदवन, कोकिलावन, खदिरवन, तालवन, बहुलावन, बिहारवन, बेलवन, भद्रवन, भांडीरवन, मधुवन, महावन, लौहजंघवन एवं वृन्दावन |
भाषा | हिंदी और ब्रजभाषा |
प्रमुख पर्व एवं त्योहार | होली, कृष्ण जन्माष्टमी, यम द्वितीया, गुरु पूर्णिमा, राधाष्टमी, गोवर्धन पूजा, गोपाष्टमी, नन्दोत्सव एवं कंस मेला |
प्रमुख दर्शनीय स्थल | कृष्ण जन्मभूमि, द्वारिकाधीश मन्दिर, राजकीय संग्रहालय, बांके बिहारी मन्दिर, रंग नाथ जी मन्दिर, गोविन्द देव मन्दिर, इस्कॉन मन्दिर, मदन मोहन मन्दिर, दानघाटी मंदिर, मानसी गंगा, कुसुम सरोवर, जयगुरुदेव मन्दिर, राधा रानी मंदिर, नन्द जी मंदिर, विश्राम घाट , दाऊजी मंदिर |
संबंधित लेख | ब्रज का पौराणिक इतिहास, ब्रज चौरासी कोस की यात्रा, मूर्ति कला मथुरा |
अन्य जानकारी | ब्रज के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है। |
संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया -डॉ. राम मनोहर लोहिया
कृष्ण काल
श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है। अनेक इतिहासकार कृष्ण को ऐतिहासिक चरित्र नहीं मानते। यूँ भी आस्था के प्रश्नों का हल इतिहास में तलाशने का कोई अर्थ नहीं है। आपने जो इतिहास की सामग्री अक्सर खंगाली होगी, वह संभवत: कृष्ण की ऐतिहासिकता पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाती होगी। हमारा प्रयास है कि जो जैसा उपलब्ध है, आप तक पहुँचायें। कई विद्वान् श्रीकृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है। इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है।
श्रीकृष्ण के समय के संबंध में श्रीकृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई.पू. 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घ जीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पड़ा। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटीं, उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।[1]"-श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी
डॉ. प्रभुदयाल मीतल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं। उन्होंने 'छांदोग्योपनिषद' के श्लोक का हवाला दिया है।[2] ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मीतल लिखते हैं- "मैत्रायणी उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कॉलेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था।
'मैत्रायणी उपनिषद' सबसे पीछे का उपनिषद कहा जाता है और उसमें 'छांदोग्य उपनिषद' के अवतरण मिलते हैं, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ। शतपथ ब्राह्मण और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ। छांदोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है।[3] “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के कृष्ण स्पष्ट रूप से वृष्णि वंश के कृष्ण हैं। इस प्रकार कृष्ण का समय प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का ज्ञात होता है।" - डॉ. प्रभुदयाल मीतल
डॉ. मीतल ने किस आधार पर छांदोग्योपनिषद को 5000 वर्ष प्राचीन बताया है। यह कहीं उल्लेख नहीं है। 'छांदोग्योपनिषद' के ई. पू. 500 से 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन होने के प्रमाण नहीं मिलते।[4]
कृष्ण का समय
डॉ. मीतल लिखते हैं- "परीक्षित के समय में सप्तर्षि (आकाश के सात तारे) मघा नक्षत्र पर थे, जैसा शुकदेव द्वारा परीक्षित से कहे हुए वाक्य से प्रमाणित है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र पर एक सौ वर्ष तक रहते हैं। आजकल सप्तर्षि कृत्तिका नक्षत्र पर हैं, जो मघा से 21वां नक्षत्र है। इस प्रकार मघा के कृतिका पर आने में 2100 वर्ष लगे हैं किंतु यह 2100 वर्ष की अवधि महाभारत काल कदापि नहीं है। इससे यह मानना होगा कि मघा से आरम्भ कर 27 नक्षत्रों का एक चक्र पूरा हो चुका था और दूसरे चक्र में ही सप्तर्षि उस काल में मघा पर आये थे। पहिले चक्र के 2700 वर्ष में दूसरे चक्र के 2100 वर्ष जोड़ने से 4800 वर्ष हुए। यह काल परीक्षित की विद्यमानता का हुआ। परीक्षित के पितामह अर्जुन थे, जो आयु में श्रीकृष्ण से 18 वर्ष छोटे थे। इस प्रकार ज्योतिष की उक्त गणना के अनुसार कृष्ण-काल अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है।"
आजकल के चैत्र मास के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह मार्गशीर्ष से होता था। बसन्त ऋतु भी इस काल में मार्गशीर्ष माह में होती थी। महाभारत में मार्गशीर्ष मास से ही कई स्थलों पर महीनों की गणना की गयी है। 'गीता' में जहाँ भगवान की विभूतियों का वर्णन हुआ हैं, वहाँ “मासानां मार्गशीर्षोऽहम” और “ऋतुनां कुसुमाकर” के उल्लेखों से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है। ज्योतिषशास्त्र के विद्धानों ने सिद्ध किया है कि मार्गशीर्ष में वसन्त सम्पात अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व होता था।[5] इस प्रकार भी श्रीकृष्ण काल के 5000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है।
श्रीकृष्ण द्वापर युग के अन्त और कलियुग के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान थे। भारतीय ज्योतिषियों के मतानुसार कलियुग का आरम्भ शक संवत से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शु. 1 को हुआ था। आजकल 1887 शक संवत है। इस प्रकार कलियुग को आरम्भ हुए 5066 वर्ष हो गये हैं। कलियुग के आरम्भ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरम्भ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था। उस समय श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी। उनका तिरोधान 119 वर्ष की आयु में हुआ था। इस प्रकार भारतीय मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण विद्यमानता या काल शक संवत पूर्व 3263 की भाद्रपद कृ. 8 बुधवार के शक संवत पूर्व 3144 तक है। भारत के विख्यात ज्योतिषी वराह मिहिर, आर्यभट, ब्रह्मगुप्त आदि के समय से ही यह मान्यता प्रचलित है। भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत जिसकी गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है, उक्त मान्यता को पुष्ट करता है।
पुरातत्त्ववेत्ताओं का मत है कि अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व एक प्रकार का प्रलय हुआ था। उस समय भयंकर भूकम्प और आंधी तूफ़ानों से समुद्र में बड़ा भारी उफान आया था। उस समय नदियों के प्रवाह परिवर्तित हो गये थे, विविध स्थानों पर ज्वालामुखी पर्वत फूट पड़े थे और पहाड़ के श्रृंग टूट-टूटकर गिर गये थे। वह भीषण दैवी दुर्घटना वर्तमान इराक में बग़दाद के पास और वर्तमान मैक्सिको के प्राचीन प्रदेशों में हुई थी, जिसका काल 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। उसी प्रकार की दुर्घटनाओं का वर्णन महाभारत और भागवत आदि पुराणों भी मिलता है। इनसे ज्ञात होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् उसी प्रकार के भीषण भूकम्प हस्तिनापुर और द्वारिका में भी हुए थे, जिनके कारण द्वारिका तो सर्वथा नष्ट ही हो गयी थी।
बग़दाद और हस्तिनापुर तथा प्राचीन मग प्रदेश और द्वारिका प्राय: एक से आक्षांशों पर स्थित हैं, अत: उनकी दुर्घटनाओं का पारिस्परिक सम्बन्ध विज्ञान सम्मत है। बग़दाद प्रलय के पश्चात् वहाँ बताये गये “उर” नगर को तथा मैक्सिको स्थित मय प्रदेश के ध्वंस को जब 5000 वर्ष प्राचीन माना जा सकता है, जब महाभारत और भागवत में वर्णित वैसी ही घटनाओं, जो कृष्ण के समय में हुई थी, उसी काल का माना जायगा। ऐसी दशा में पुरातत्त्व के साक्ष्य से भी कृष्ण-काल 5000 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है। यह दूसरी बात है कि महाभारत और भागवत ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई थी, किंतु उनमें वर्णित कथा 5000 वर्ष पुरानी ही है।
ज्योतिष और पुरातत्त्व के अतिरिक्त इतिहास के प्रमाण से भी कृष्ण-काल विषयक भारतीय मान्यता की पुष्टि होती है। यवन नरेश सैल्युक्स ने मैगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत भारतीय नरेश चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा था। मैगस्थनीज ने उस समय के अपने अनुभव लेखबद्ध किये थे। इस समय उस यूनान राजदूत का मूल ग्रंन्थ तो नहीं मिलता है, किंतु उसके जो अंश एरियन आदि अन्य यवन लेखकों ने उद्धृत किये थे, वे प्रकाशित हो चुके हैं।
मैगस्थनीज़ ने लिखा है कि मथुरा में शौरसेनी लोगों का निवास है। वे विशेष रूप से हरकुलीज (हरि कृष्ण) की पूजा करते हैं। उनका कथन है कि डायोनिसियस के हरकुलीज 15 पीढ़ी और सेण्ड्रकोटस (चन्द्रगुप्त) 153 पीढ़ी पहले हुए थे। इस प्रकार श्रीकृष्ण और चन्द्रगुप्त में 138 पीढ़ियों के 2760 वर्ष हुए। चन्द्रगुप्त का समय ईसा से 326 वर्ष पूर्व है। इस हिसाब से श्रीकृष्ण काल अब से (1965+326+2760) 5051 वर्ष पूर्व सिद्ध होता है।
कंस के समय मथुरा
कंस के समय में मथुरा का क्या स्वरूप था, इसकी कुछ झलक पौराणिक वर्णनों में देखी जा सकती है। जब श्रीकृष्ण ने पहली बार इस नगरी को देखा तो भागवतकार के शब्दों में उसकी शोभा इस प्रकार थी।[6]
'उस नगरी के प्रवेश-द्वार ऊँचे थे और स्फटिक पत्थर के बने हुए थे। उनके बड़े-बड़े सिरदल और किवाड़ सोने के थे। नगरी के चारों ओर की दीवाल (परकोटा) ताँबे और पीतल की बनी थी तथा उसके नीचे की खाई दुर्लभ थी। नगरी अनेक उद्यानों एक सुन्दर उपवनों से शोभित थी।'
'सुवर्णमय चौराहों, महलों, बगीचियों, सार्वजनिक स्थानों एवं विविध भवनों से वह नगरी युक्त थी। वैदूर्य, बज्र, नीलम, मोती, हीरा आदि रत्नों से अलंकृत छज्जे, वेदियां तथा फर्श जगमगा रहे थे और उन पर बैठे हुए कबूतर और मोर अनेक प्रकार के मधुर शब्द कर रहे थे। गलियों और बाज़ारों में, सड़कों तथा चौराहों पर छिड़काव किया गया था। और उन पर जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ, दूर्वा-दल, लाई और चावल बिखरे हुए थे।'
'मकानों के दरवाजों पर दही और चन्दन से अनुलेपित तथा जल से भरे हुए मङल-घट रखे हुए थे, फूलों, दीपावलियों, बन्दनवारों तथा फलयुक्त केले और सुपारी के वृक्षों से द्वार सजाये गये थे और उन पर पताके और झड़ियाँ फहरा रही थी।'
उपर्युक्त वर्णन कंस या कृष्ण कालीन मथुरा से कहाँ तक मेल खाता है, यह बताना कठिन है। परन्तु इससे तथा अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णनों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि तत्कालीन मथुरा एक समृद्ध पुरी थी। उसके चारों ओर नगर-परकोटा थी तथा नगरी में उद्यानों का बाहुल्य था। मोर पक्षियों की शायद इस समय भी मथुरा में अधिकता थी। महलों, मकानों, सड़कों और बाज़ारों आदि के जो वर्णन मिलते है उनसे पता चलता है कि कंस के समय की मथुरा एक धन-धान्य सम्पन्न नगरी थी।
इस प्रकार भारतीय विद्वानों के सैकड़ों हज़ारों वर्ष प्राचीन निष्कर्षों के फलस्वरूप कृष्ण-काल की जो भारतीय मान्यता ज्योतिष, पुरातत्त्व और इतिहास से भी परिपुष्ट होती है, उसे न मानने का कोई कारण नहीं है। आधुनिक काल के विद्वानों इतिहास और पुरातत्त्व के जिन अनुसन्धानों के आधार पर कृष्ण-काल की अवधि 3500 वर्ष मानते हैं, वे अभी अपूर्ण हैं। इस बात की पूरी सम्भावना है कि इन अनुसन्धानों के पूर्ण होने पर वे भी भारतीय मान्यता का समर्थन करने लगेंगे।
प्राचीनतम संस्कृत साहित्य
वैदिक संहिताओं के अनंतर संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य-आरण्यक, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथों और पाणिनीय सूत्रों में श्रीकृष्ण का थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता है। जैन साहित्य में श्रीकृष्ण को तीर्थंकर नेमिनाथ जी का चचेरा भाई बतलाया गया है। इस प्रकार जैन धर्म के प्राचीनतम साहित्य में श्रीकृष्ण का उल्लेख हुआ है। बौद्ध साहित्य में जातक कथाएं अत्यंत प्राचीन है। उनमें से “घट जातक” में कृष्ण कथा वर्णित है। यद्यपि उपर्युक्त साहित्य कृष्ण–चरित्र के स्रोत से संबंधित है, तथापि कृष्ण-चरित्र के प्रमुख ग्रंथ-
- महाभारत
- हरिवंश
- विविध पुराण
- गोपाल तापनी उपनिषद
- गर्ग संहिता
यहाँ इन ग्रंथों में वर्णित श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डाला जाता है।
पुराणेतर ग्रंथ
जिन पुराणेत्तर ग्रंथों में श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है, उसमें “गोपाल तापनी उपनिषद” और “गर्ग संहिता” प्रमुख है। यहाँ पर उनका विस्तृत विवरण दिया जाता है-
गोपाल तापनी उपनिषद: - यह कृष्णोपासना से संबंधित एक आध्यात्मिक रचना है। इसके पूर्व और उत्तर नामक दो भाग है। पूर्व भाग को “कृष्णोपनिषद” और उत्तर भाग को “अथर्वगोपनिषद” कहा गया है। यह रचना सूत्र शैली में है, अत: कृष्णोपासना के परवर्ती ग्रंथों की अपेक्षा यह प्राचीन जान पड़ती है। इसका पूर्व भाग उत्तर भाग से भी पहले का ज्ञात होता है। श्रीकृष्ण प्रिया राधा और उनके लीला-धाम ब्रज में से किसी का भी नामोल्लेख इसमें नहीं है। इससे भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती हैं। - डॉ. प्रभुदयाल मीतल
"डॉ. प्रभुदयाल मीतल, कृष्ण का समय 5000 वर्ष पूर्व मानते हैं। वे इसको अनेक तथ्य एवं उल्लेखों के आधार पर प्रमाणित भी करते हैं। श्रीकृष्ण दत्त वाजपेयी का मत भिन्न है, वे कृष्ण काल को 3500 वर्ष से अधिक पुराना नहीं मानते।" अनेक भारतीय और विदेशी इतिहासकार महाभारत का काल निर्णय होने से यह नहीं मानते कि कृष्ण का समय भी सिद्ध हो गया। यही स्थिति 'गीता' के समय निर्धारण की भी है, कुछ विद्वानों का मानना है कि 'गीता' कहने वाले कृष्ण भिन्न हैं, यहीं एक विवाद द्वारका के कृष्ण को मथुरा के कृष्ण को भिन्न बताने का भी है। कुछ का मत है कि कृष्ण को महाभारत में काफ़ी बाद में जोड़ दिया गया। चाहे जो भी हो आज कृष्ण की ऐतिहासिकता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है। हो सकता है कालनिर्णय में मतैक्य न हो।
ब्रज का कृष्ण काल |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ. 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।
- ↑ तध्दैत्दघोर आगिंरस कृष्ण्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स बभूव सोऽन्तवेलायामेतत्त्रय प्रतिपद्ये ताक्षितमस्यच्युतमसि प्राण्सँशितमसीति तत्रैते द्वे ॠचौ भवत: ॥ छांदोग्य उपनिषद (3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे0 तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। महाभारत तथा हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, वायु पुराण, भागवत पुराण, पद्म पुराण, देवी भागवत अग्नि पुराण तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण पुराणों में उन्हें प्राय: भागवान रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथों में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्त्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्त्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे
- ↑ छान्दोग्य उपनिषद, प्रथम भाग, खण्ड 17
- ↑ यदि प्रमाण हों तो पाठकों से निवेदन है कि ब्रज डिस्कवरी को अवश्य भेजें। साथ ही ज्योतिष गणनाओं का कोई अन्य आधार जो प्रमाणिक हो अवश्य भेजें।
- ↑ भारतीय ज्योतिषशाला, पृष्ठ 34
- ↑
- ददर्श तां स्फाटिकतुङ्गोपुर द्वारां वृहद्धेमकपाटतोरणाम्।
- ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदामुद्यानरम्योपवनोपशोभिताम्।।
- सौवर्ण श्रृंगाटक हर्म्यनिष्कुटै: श्रेणी सभाभिभवनैरुपस्कृताम्।
- वैदूर्यबज्रामल, नीलविद्रुमैर्मुक्तहरिद्भिर्बलभीषुवेदिपु।।
- जुष्टेषु जालामुखरंध्रकुटि्टमेष्वाविष्ट पारावतवर्हिनादिताम्।
- संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां प्रकीर्णमाल्यांकुरलाजतंडुजाम।।
- आपूर्णकुभैर्दधिचंदनोक्षितै: प्रसूनदीपाबलिभि: सपल्लवै:।
- सवृंदरंभाक्रमुकै: सकेतुभि: स्वलंकृतद्वार गृहां सपटि्टकै:।।(भागवत, 10, 41, 20-23