"हरिकृष्ण देवसरे": अवतरणों में अंतर

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'''हरिकृष्‍ण देवसरे''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Hari Krishna Devsare'', जन्म: [[9 मार्च]] [[1938]] मृत्यु: [[14 नवंबर]], [[2013]]) [[हिंदी]] के प्रतिष्‍ठित बाल साहित्‍यकार और संपादक थे। [[कविता]], [[कहानी]], [[नाटक]], [[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]] आदि विधाओं में उनकी लगभग 300 पुस्‍तकें प्रकाशित हैं। वे बच्‍चों की लोकप्रिय [[पत्रिका]] [[पराग (पत्रिका)|पराग]] के लगभग 10 वर्ष संपादक भी रहे।
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'''हरिकृष्‍ण देवसरे''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Hari Krishna Devsare'', जन्म: [[9 मार्च]], [[1938]]; मृत्यु: [[14 नवंबर]], [[2013]]) [[हिंदी]] के प्रतिष्‍ठित बाल साहित्‍यकार और संपादक थे। [[कविता]], [[कहानी]], [[नाटक]], [[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]] आदि विधाओं में उनकी लगभग 300 पुस्‍तकें प्रकाशित हैं। वे बच्‍चों की लोकप्रिय [[पत्रिका]] [[पराग (पत्रिका)|पराग]] के लगभग 10 वर्ष संपादक भी रहे।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
[[मध्य प्रदेश]] के नागोद में [[9 मार्च]] [[1938]] को पैदा हुए हरिकृष्‍ण देवसरे का नाम [[हिंदी साहित्य]] के अग्रणी लेखकों में था और बच्चों के लिए रचित उनके [[साहित्य]] को विशेष रूप से पसंद किया गया। बच्चों के लिए लेखन के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें [[2011]] में साहित्य अकादमी बाल साहित्य लाइफटाइम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 300 से अधिक पुस्तकें लिख चुके देवसरे को बाल साहित्यकार सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल साहित्य सम्मान, कीर्ति सम्मान (2001) और हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान (2004) सहित कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। कहा जाता है कि देवसरे देश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बाल साहित्य में डाक्टरेट की उपाधि हासिल की थी।<ref>{{cite web |url= http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-story-39-39-376826.html|title=जाने-माने साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे का निधन  |accessmonthday=18 नवंबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=हिंदुस्तान लाइव |language=हिंदी }}</ref>
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==कार्यक्षेत्र==
==कार्यक्षेत्र==
उन्होंने अपने जीवन काल में तीन सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं। अपने लेखन में प्रयोगधर्मिता के लिए मशहूर देवसरे ने आधुनिक संदर्भ में राजाओं और रानियों तथा परियों की कहानियों की प्रासंगिकता के सवाल पर बहस शुरू की थी। उन्होंने भारतीय भाषाओं में रचित बाल-साहित्य में रचनात्मकता पर बल दिया और बच्चों के लिए मौजूद विज्ञान-कथाओं और एकांकी के ख़ालीपन को भरने की कोशिश की। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे करीब 22 साल तक आकाशवाणी से जुड़े रहे और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद पराग पत्रिका का संपादन किया था। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने धारावाहिकों, टेलीफिल्मों और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित कार्यक्रमों के लिए कहानी भी लिखी। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने कई किताबों का अनुवाद किया। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने 1960 में कार्यक्रम अधिशासी के रूप में आकाशवाणी से अपना करियर शुरू किया और 1984 तक विभिन्न विषयों पर महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का निर्माण और प्रसारण किया।<ref>{{cite web |url= http://www.jagranjosh.com/current-affairs/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%A1%E0%A5%89-%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%A8-1384498359-2|title=बाल साहित्यकार डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का लम्बी बीमारी के बाद निधन |accessmonthday=18 नवंबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण जोश |language=हिंदी }}</ref>
उन्होंने अपने जीवन काल में तीन सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं। अपने लेखन में प्रयोगधर्मिता के लिए मशहूर देवसरे ने आधुनिक संदर्भ में राजाओं और रानियों तथा परियों की कहानियों की प्रासंगिकता के सवाल पर बहस शुरू की थी। उन्होंने भारतीय भाषाओं में रचित बाल-साहित्य में रचनात्मकता पर बल दिया और बच्चों के लिए मौजूद विज्ञान-कथाओं और एकांकी के ख़ालीपन को भरने की कोशिश की। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे क़रीब 22 साल तक आकाशवाणी से जुड़े रहे और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद पराग पत्रिका का संपादन किया था। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने धारावाहिकों, टेलीफिल्मों और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित कार्यक्रमों के लिए कहानी भी लिखी। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने कई किताबों का अनुवाद किया। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने 1960 में कार्यक्रम अधिशासी के रूप में आकाशवाणी से अपना करियर शुरू किया और 1984 तक विभिन्न विषयों पर महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का निर्माण और प्रसारण किया।<ref>{{cite web |url= http://www.jagranjosh.com/current-affairs/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%A1%E0%A5%89-%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%A8-1384498359-2|title=बाल साहित्यकार डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का लम्बी बीमारी के बाद निधन |accessmonthday=18 नवंबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण जोश |language=हिंदी }}</ref>
==बाल साहित्‍यकार==
==बाल साहित्‍यकार==
हिंदी बालसाहित्‍य पर पहला शोधप्रबंध, प्रथम पांक्‍तेय संपादक, प्रथम पांक्‍तेय आलोचक तथा प्रथम पांक्‍तेय रचनाकार थे हरिकृष्ण देवसरे। उन्हें बालसाहित्‍यकार कहलवाने में जरा-भी हिचकिचाहट नहीं थी। जब और जहां भी अवसर मिले बालसाहित्‍य में नई परंपरा की खोज के लिए सतत आग्रहशील रहे। पचास से अधिक वर्षों से अबाध मौलिक लेखन, कई दर्जन पुस्‍तकें, उत्‍कृष्‍ट [[पत्रकारिता]], संपादन, समालोचना और अनुवादकर्म उनके लेखन कौशल को दर्शाता है। कुल मिलाकर बालसाहित्‍य के नाम पर अपने आप में एक संस्‍था, एक शैली, एक आंदोलन थे हरिकृष्ण देवसरे। उस जमाने में जब बालसाहित्‍य अपनी कोई पहचान तक नहीं बना पाया था, लोग उसे दोयम दर्जे का साहित्‍य मानते थे, अधिकांश साहित्‍यकार स्‍वयं को बालसाहित्‍यकार कहलवाने से भी परहेज करते; और जब बच्‍चों के लिए लिखना हो तो अपना ज्ञान, उपदेश और अनुभव-समृद्धि का बखान करने लगते थे, उन दिनों एक बालपत्रिका की संपादकी के लिए जमी-जमाई सरकारी नौकरी न्‍योछावर कर देना, फिर बच्‍चों की खातिर हमेशा-हमेशा के लिए कलम थाम लेना, परंपरा का न अतार्किक विरोध, न अंधसमर्पण।  डॉ. देवसरे ने बालसाहित्‍य की लगभग हर विधा में लिखा। हर क्षेत्र में अपनी मौलिक विचारधारा की छाप छोड़ी। लुभावनी परिकल्‍पनाएं गढ़ीं, मगर उनकी छवि बनी एक वैज्ञानिक सोच, बालसाहित्‍य के नाम पर परीकथाओं और जादू-टोने से भरी रचनाओं के विरोधी बालसाहित्‍यकार की। ऐसा भी नहीं है कि वे बालसाहित्‍य की पुरातन परंपरा को पूरी तरह नकारते हों, परीकथाओं की मोहक कल्‍पनाशीलता से उन्‍हें जरा-भी मोह न हो, उनकी सहजता और पठनीयता उन्‍हें लुभाती न हो, वस्‍तुतः वे परंपरा के नाम पर भूत-प्रेत, जादू-टोने, तिलिस्‍म जैसी अतार्किक स्‍थापनाओं, इनके आधार पर गढ़ी गई रचनाओं का विरोध करते हैं। वे उस फंतासी को बालसाहित्‍य से बहिष्‍कृत कर देना चाहते हैं, जिसका कोई तार्किक आधार न हो। जो बच्‍चों को भाग्‍य के भरोसे जीना सिखाए, चमत्‍कारों में उनकी आस्‍था पैदा करे, जीवन-संघर्ष में पलायन की शिक्षा दे। परीकथाओं में वे वैज्ञानिक दृष्‍टि के पक्षधर है। ऐसी परीकथाओं के समर्थक हैं, जो परंपरा का अन्‍वेषण करती, बालमन में नवता का संचार करती हों, जो बच्‍चे की जिज्ञासा को उभारें, उनकी कल्‍पनाओं में नूतन रंग भरें, जिनके लिए गिल्‍बर्ट कीथ चेटरसन ने कहा था कि- परीकथाओं में व्‍यक्‍त कल्‍पनाशीलता सत्‍य से भी बढ़कर हैं, इसलिए नहीं कि वह हमें सिखाती हैं कि राक्षस को खदेड़ना संभव है, बल्‍कि इसलिए कि वे हमें एहसास दिलाती हैं कि दैत्‍य को दबोचा भी जा सकता है।<ref name="rachnakar">{{cite web |url=http://www.rachanakar.org/2009/03/blog-post_15.html#ixzz2kulb7XqK|title=ओमप्रकाश कश्‍यप का आलेख : डॉ. हरिकृष्‍ण देवसरे के बालउपन्‍यास|accessmonthday=18 नवंबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=रचनाकार (ब्लॉग) |language=हिंदी }}</ref>
हिंदी बालसाहित्‍य पर पहला शोधप्रबंध, प्रथम पांक्‍तेय संपादक, प्रथम पांक्‍तेय आलोचक तथा प्रथम पांक्‍तेय रचनाकार थे हरिकृष्ण देवसरे। उन्हें बालसाहित्‍यकार कहलवाने में जरा-भी हिचकिचाहट नहीं थी। जब और जहां भी अवसर मिले बालसाहित्‍य में नई परंपरा की खोज के लिए सतत आग्रहशील रहे। पचास से अधिक वर्षों से अबाध मौलिक लेखन, कई दर्जन पुस्‍तकें, उत्‍कृष्‍ट [[पत्रकारिता]], संपादन, समालोचना और अनुवादकर्म उनके लेखन कौशल को दर्शाता है। कुल मिलाकर बालसाहित्‍य के नाम पर अपने आप में एक संस्‍था, एक शैली, एक आंदोलन थे हरिकृष्ण देवसरे। उस जमाने में जब बालसाहित्‍य अपनी कोई पहचान तक नहीं बना पाया था, लोग उसे दोयम दर्जे का साहित्‍य मानते थे, अधिकांश साहित्‍यकार स्‍वयं को बालसाहित्‍यकार कहलवाने से भी परहेज करते; और जब बच्‍चों के लिए लिखना हो तो अपना ज्ञान, उपदेश और अनुभव-समृद्धि का बखान करने लगते थे, उन दिनों एक बालपत्रिका की संपादकी के लिए जमी-जमाई सरकारी नौकरी न्‍योछावर कर देना, फिर बच्‍चों की खातिर हमेशा-हमेशा के लिए कलम थाम लेना, परंपरा का न अतार्किक विरोध, न अंधसमर्पण।  डॉ. देवसरे ने बालसाहित्‍य की लगभग हर विधा में लिखा। हर क्षेत्र में अपनी मौलिक विचारधारा की छाप छोड़ी। लुभावनी परिकल्‍पनाएं गढ़ीं, मगर उनकी छवि बनी एक वैज्ञानिक सोच, बालसाहित्‍य के नाम पर परीकथाओं और जादू-टोने से भरी रचनाओं के विरोधी बालसाहित्‍यकार की। ऐसा भी नहीं है कि वे बालसाहित्‍य की पुरातन परंपरा को पूरी तरह नकारते हों, परीकथाओं की मोहक कल्‍पनाशीलता से उन्‍हें जरा-भी मोह न हो, उनकी सहजता और पठनीयता उन्‍हें लुभाती न हो, वस्‍तुतः वे परंपरा के नाम पर भूत-प्रेत, जादू-टोने, तिलिस्‍म जैसी अतार्किक स्‍थापनाओं, इनके आधार पर गढ़ी गई रचनाओं का विरोध करते हैं। वे उस फंतासी को बालसाहित्‍य से बहिष्‍कृत कर देना चाहते हैं, जिसका कोई तार्किक आधार न हो। जो बच्‍चों को भाग्‍य के भरोसे जीना सिखाए, चमत्‍कारों में उनकी आस्‍था पैदा करे, जीवन-संघर्ष में पलायन की शिक्षा दे। परीकथाओं में वे वैज्ञानिक दृष्‍टि के पक्षधर है। ऐसी परीकथाओं के समर्थक हैं, जो परंपरा का अन्‍वेषण करती, बालमन में नवता का संचार करती हों, जो बच्‍चे की जिज्ञासा को उभारें, उनकी कल्‍पनाओं में नूतन रंग भरें, जिनके लिए गिल्‍बर्ट कीथ चेटरसन ने कहा था कि- परीकथाओं में व्‍यक्‍त कल्‍पनाशीलता सत्‍य से भी बढ़कर हैं, इसलिए नहीं कि वह हमें सिखाती हैं कि राक्षस को खदेड़ना संभव है, बल्‍कि इसलिए कि वे हमें एहसास दिलाती हैं कि दैत्‍य को दबोचा भी जा सकता है।<ref name="rachnakar">{{cite web |url=http://www.rachanakar.org/2009/03/blog-post_15.html#ixzz2kulb7XqK|title=ओमप्रकाश कश्‍यप का आलेख : डॉ. हरिकृष्‍ण देवसरे के बालउपन्‍यास|accessmonthday=18 नवंबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=रचनाकार (ब्लॉग) |language=हिंदी }}</ref>
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* बाल साहित्यकार सम्मान
* बाल साहित्यकार सम्मान
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* उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल साहित्य सम्मान
* कीर्ति सम्मान (2001)
* कीर्ति सम्मान ([[2001]])
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* [[हिंदी अकादमी]] का साहित्यकार सम्मान ([[2004]])  
* वर्ष [[2007]] में न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लिया।  
* वर्ष [[2007]] में न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लिया।  
==निधन==
==निधन==
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हरिकृष्ण देवसरे का [[गुरुवार]] [[14 नवंबर]] [[2013]] को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। वह 75 साल के थे। उनके पुत्र शशिन देवसरे ने बताया कि उनके पिता लंबे समय से बीमार थे और उनका [[ग़ाज़ियाबाद]] के इंदिरापुरम में एक अस्पताल में निधन हो गया। देवसरे के [[परिवार]] में उनकी पत्नी के अलावा दो पुत्र और एक पुत्री हैं।  




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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/11/131114_harekrishna_devsare_died_sb.shtml बाल साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे का निधन]
*[http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/11/131114_harekrishna_devsare_died_sb.shtml बाल साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे का निधन]
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05:29, 9 मार्च 2018 के समय का अवतरण

हरिकृष्ण देवसरे
हरिकृष्‍ण देवसरे
हरिकृष्‍ण देवसरे
पूरा नाम डॉ. हरिकृष्‍ण देवसरे
जन्म 9 मार्च, 1938
जन्म भूमि नागोद, मध्य प्रदेश
मृत्यु 14 नवंबर, 2013
मृत्यु स्थान इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश)
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र बाल साहित्‍यकार और संपादक
मुख्य रचनाएँ 'खेल बच्‍चे का', 'आओ चंदा के देश चलें', 'मंगलग्रह में राजू', 'उड़ती तश्‍तरियां', 'स्‍वान यात्रा', 'लावेनी' आदि।
भाषा हिंदी
पुरस्कार-उपाधि साहित्य अकादमी बाल साहित्य लाइफटाइम पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल साहित्य सम्मान, कीर्ति सम्मान (2001) और हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान (2004)
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी वे बच्‍चों की लोकप्रिय पत्रिका पराग के लगभग 10 वर्ष संपादक भी रहे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

हरिकृष्‍ण देवसरे (अंग्रेज़ी: Hari Krishna Devsare, जन्म: 9 मार्च, 1938; मृत्यु: 14 नवंबर, 2013) हिंदी के प्रतिष्‍ठित बाल साहित्‍यकार और संपादक थे। कविता, कहानी, नाटक, आलोचना आदि विधाओं में उनकी लगभग 300 पुस्‍तकें प्रकाशित हैं। वे बच्‍चों की लोकप्रिय पत्रिका पराग के लगभग 10 वर्ष संपादक भी रहे।

जीवन परिचय

मध्य प्रदेश के नागोद में 9 मार्च 1938 को पैदा हुए हरिकृष्‍ण देवसरे का नाम हिंदी साहित्य के अग्रणी लेखकों में था और बच्चों के लिए रचित उनके साहित्य को विशेष रूप से पसंद किया गया। बच्चों के लिए लेखन के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें 2011 में साहित्य अकादमी बाल साहित्य लाइफटाइम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 300 से अधिक पुस्तकें लिख चुके देवसरे को बाल साहित्यकार सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल साहित्य सम्मान, कीर्ति सम्मान (2001) और हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान (2004) सहित कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। कहा जाता है कि देवसरे देश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बाल साहित्य में डाक्टरेट की उपाधि हासिल की थी।[1]

कार्यक्षेत्र

उन्होंने अपने जीवन काल में तीन सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं। अपने लेखन में प्रयोगधर्मिता के लिए मशहूर देवसरे ने आधुनिक संदर्भ में राजाओं और रानियों तथा परियों की कहानियों की प्रासंगिकता के सवाल पर बहस शुरू की थी। उन्होंने भारतीय भाषाओं में रचित बाल-साहित्य में रचनात्मकता पर बल दिया और बच्चों के लिए मौजूद विज्ञान-कथाओं और एकांकी के ख़ालीपन को भरने की कोशिश की। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे क़रीब 22 साल तक आकाशवाणी से जुड़े रहे और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद पराग पत्रिका का संपादन किया था। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने धारावाहिकों, टेलीफिल्मों और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित कार्यक्रमों के लिए कहानी भी लिखी। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने कई किताबों का अनुवाद किया। डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे ने 1960 में कार्यक्रम अधिशासी के रूप में आकाशवाणी से अपना करियर शुरू किया और 1984 तक विभिन्न विषयों पर महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का निर्माण और प्रसारण किया।[2]

बाल साहित्‍यकार

हिंदी बालसाहित्‍य पर पहला शोधप्रबंध, प्रथम पांक्‍तेय संपादक, प्रथम पांक्‍तेय आलोचक तथा प्रथम पांक्‍तेय रचनाकार थे हरिकृष्ण देवसरे। उन्हें बालसाहित्‍यकार कहलवाने में जरा-भी हिचकिचाहट नहीं थी। जब और जहां भी अवसर मिले बालसाहित्‍य में नई परंपरा की खोज के लिए सतत आग्रहशील रहे। पचास से अधिक वर्षों से अबाध मौलिक लेखन, कई दर्जन पुस्‍तकें, उत्‍कृष्‍ट पत्रकारिता, संपादन, समालोचना और अनुवादकर्म उनके लेखन कौशल को दर्शाता है। कुल मिलाकर बालसाहित्‍य के नाम पर अपने आप में एक संस्‍था, एक शैली, एक आंदोलन थे हरिकृष्ण देवसरे। उस जमाने में जब बालसाहित्‍य अपनी कोई पहचान तक नहीं बना पाया था, लोग उसे दोयम दर्जे का साहित्‍य मानते थे, अधिकांश साहित्‍यकार स्‍वयं को बालसाहित्‍यकार कहलवाने से भी परहेज करते; और जब बच्‍चों के लिए लिखना हो तो अपना ज्ञान, उपदेश और अनुभव-समृद्धि का बखान करने लगते थे, उन दिनों एक बालपत्रिका की संपादकी के लिए जमी-जमाई सरकारी नौकरी न्‍योछावर कर देना, फिर बच्‍चों की खातिर हमेशा-हमेशा के लिए कलम थाम लेना, परंपरा का न अतार्किक विरोध, न अंधसमर्पण। डॉ. देवसरे ने बालसाहित्‍य की लगभग हर विधा में लिखा। हर क्षेत्र में अपनी मौलिक विचारधारा की छाप छोड़ी। लुभावनी परिकल्‍पनाएं गढ़ीं, मगर उनकी छवि बनी एक वैज्ञानिक सोच, बालसाहित्‍य के नाम पर परीकथाओं और जादू-टोने से भरी रचनाओं के विरोधी बालसाहित्‍यकार की। ऐसा भी नहीं है कि वे बालसाहित्‍य की पुरातन परंपरा को पूरी तरह नकारते हों, परीकथाओं की मोहक कल्‍पनाशीलता से उन्‍हें जरा-भी मोह न हो, उनकी सहजता और पठनीयता उन्‍हें लुभाती न हो, वस्‍तुतः वे परंपरा के नाम पर भूत-प्रेत, जादू-टोने, तिलिस्‍म जैसी अतार्किक स्‍थापनाओं, इनके आधार पर गढ़ी गई रचनाओं का विरोध करते हैं। वे उस फंतासी को बालसाहित्‍य से बहिष्‍कृत कर देना चाहते हैं, जिसका कोई तार्किक आधार न हो। जो बच्‍चों को भाग्‍य के भरोसे जीना सिखाए, चमत्‍कारों में उनकी आस्‍था पैदा करे, जीवन-संघर्ष में पलायन की शिक्षा दे। परीकथाओं में वे वैज्ञानिक दृष्‍टि के पक्षधर है। ऐसी परीकथाओं के समर्थक हैं, जो परंपरा का अन्‍वेषण करती, बालमन में नवता का संचार करती हों, जो बच्‍चे की जिज्ञासा को उभारें, उनकी कल्‍पनाओं में नूतन रंग भरें, जिनके लिए गिल्‍बर्ट कीथ चेटरसन ने कहा था कि- परीकथाओं में व्‍यक्‍त कल्‍पनाशीलता सत्‍य से भी बढ़कर हैं, इसलिए नहीं कि वह हमें सिखाती हैं कि राक्षस को खदेड़ना संभव है, बल्‍कि इसलिए कि वे हमें एहसास दिलाती हैं कि दैत्‍य को दबोचा भी जा सकता है।[3]

हरिकृष्ण देवसरे के उपन्यास[3]
वर्ष उपन्‍यास/ कहानी संग्रह का नाम पृष्‍ठ एवं मूल्य प्रकाशक अन्य विवरण
1968 खेल बच्‍चे का 42 पृष्‍ठ, मूल्‍य 1.20 रुपये ज्ञानोदय प्रकाशन, रायपुर / इलाहाबाद विज्ञान आधारित छोटी-छोटी कुल 09 कहानियां
1969 आओ चंदा के देश चलें 88 पृष्‍ठ, मूल्‍य 1.80 रुपये बाल बुक बैंक, नई दिल्ली / मथुरा वैज्ञानिक उपन्‍यास
1969 मंगलग्रह में राजू 88 पृष्‍ठ, मूल्‍य 1.80 रुपये बाल बुक बैंक, नई दिल्ली / मथुरा वैज्ञानिक उपन्‍यास
1971 उड़ती तश्‍तरियां 96 पृष्‍ठ, मूल्‍य 1.80 रुपये बाल बुक बैंक, नई दिल्ली / मथुरा वैज्ञानिक उपन्‍यास
1981 स्‍वान यात्रा 44 पृष्‍ठ, मूल्‍य 7.00 रुपये जयश्री प्रकाशन, दिल्ली-110032 वैज्ञानिक उपन्‍यास
1981 लावेनी 52 पृष्‍ठ, मूल्‍य 7.00 रुपये मिश्रा ब्रदर्स, अजमेर वैज्ञानिक उपन्‍यास
1983 सोहराब रुस्‍तम 40 पृष्‍ठ, मूल्‍य 6.00 रुपये शकुन प्रकाशन, नई दिल्ली ऐतिहासिक उपन्‍यास
1983 आल्‍हा ऊदल 40 पृष्‍ठ, मूल्‍य 6.00 रुपये शकुन प्रकाशन, नई दिल्ली ऐतिहासिक उपन्‍यास
1983 गिरना स्‍काइलैब का 40 पृष्‍ठ, मूल्‍य 7.50 रुपये मीनाक्षी प्रकाशन, अजमेर, राजस्थान विविध कथा संग्रह
1984 डाकू का बेटा 40 पृष्‍ठ, मूल्‍य 6.00 रुपये सन्‍मार्ग प्रकाशन, दिल्ली-110007 डाकू समस्‍या पर आधारित लंबी कहानी/ उपन्‍यास
2003 दूसरे ग्रहों के गुप्‍तचर 40 पृष्‍ठ, मूल्‍य 30.00 रुपये शकुन प्रकाशन, नई दिल्ली विज्ञान फंतासी

सम्मान और पुरस्कार

  • बाल साहित्यकार सम्मान
  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल साहित्य सम्मान
  • कीर्ति सम्मान (2001)
  • हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान (2004)
  • वर्ष 2007 में न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लिया।

निधन

हरिकृष्ण देवसरे का गुरुवार 14 नवंबर 2013 को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। वह 75 साल के थे। उनके पुत्र शशिन देवसरे ने बताया कि उनके पिता लंबे समय से बीमार थे और उनका ग़ाज़ियाबाद के इंदिरापुरम में एक अस्पताल में निधन हो गया। देवसरे के परिवार में उनकी पत्नी के अलावा दो पुत्र और एक पुत्री हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जाने-माने साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे का निधन (हिंदी) हिंदुस्तान लाइव। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2013।
  2. बाल साहित्यकार डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का लम्बी बीमारी के बाद निधन (हिंदी) जागरण जोश। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2013।
  3. 3.0 3.1 ओमप्रकाश कश्‍यप का आलेख : डॉ. हरिकृष्‍ण देवसरे के बालउपन्‍यास (हिंदी) रचनाकार (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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