"एक स्वप्न कथा -गजानन माधव मुक्तिबोध": अवतरणों में अंतर

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सतह से उठता आदमी '''आलोचना'''- कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का  
 
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सोई हुई अग्नियाँ
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उँगली से हिला-डुला
उँगली से हिला-डुला
             पुनः जिला देती हैं।
             पुनः ज़िला देती हैं।
मुझे वे दुनिया की
मुझे वे दुनिया की
किसी दवाई में डाल
किसी दवाई में डाल
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मानो अजीब हूँ;
मानो अजीब हूँ;
उन्हें छोड़ कष्टों में
उन्हें छोड़ कष्टों में
उन्हें त्याग दुख की खोहों में
उन्हें त्याग दु:ख की खोहों में
               कहीं दूर निकल गया
               कहीं दूर निकल गया
कि मैं जो बहा किया
कि मैं जो बहा किया
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इस काले सागर का
इस काले सागर का
सुदूर-स्थित पश्चिम-किनारे से
सुदूर-स्थित पश्चिम-किनारे से
जरूर कुछ नाता है
ज़रूर कुछ नाता है
इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।
इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।



10:45, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

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एक स्वप्न कथा -गजानन माधव मुक्तिबोध
गजानन माधव मुक्तिबोध
गजानन माधव मुक्तिबोध
कवि गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
जन्म 13 नवंबर, 1917
जन्म स्थान श्यौपुर, ग्वालियर
मृत्यु 11 सितंबर 1964
मृत्यु स्थान दिल्ली
मुख्य रचनाएँ कविता संग्रह- चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल कहानी संग्रह- काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी आलोचना- कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी रचनावली- मुक्तिबोध रचनावली (6 खंडों में)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाएँ

 एक विजय और एक पराजय के बीच
मेरी शुद्ध प्रकृति
मेरा 'स्व'
जगमगाता रहता है
              विचित्र उथल-पुथल में।
मेरी साँझ, मेरी रात
सुबहें व मेरे दिन
नहाते हैं, नहाते ही रहते हैं
सियाह समुंदर के अथाह पानी में
              उठते-गिरते हुए दिगवकाश-जल में।
विक्षोभित हिल्लोलित लहरों में
मेरा मन नहाता रहता है
              साँवले पल में।
फिर भी, फिसलते से किनारे को पकड़कर मैं
बाहर निकलने की, रह-रहकर तड़पती कोशिश में
कौंध-कौंध उठता हूँ;
इस कोने, उस कोने
              चकाचौंध-किरनें वे नाचतीं
                       सामने बगल में।

मेरी ही भाँति कहीं इसी समुंदर की
सियाह लहरों में नंगी नहाती हैं।
किरनीली मूर्तियाँ -
मेरी ही स्फूर्तियाँ
निथरते पानी की काली लकीरों के
कारण, कटी-पिटी अजीब-सी शकल में।
उनके मुखारविंद
मुझे डराते हैं,
इतने कठोर हैं कि कांतिमान पत्थर हैं
क्वार्ट्ज शिलाएँ हैं
जिनमें से छन-छनकर
नील किरण-मालाएँ
कोण बदलती हैं।
एक नया पहलू रोज
सामने आता है प्रश्नों के पल-पल में


2

सागर तट पथरीला
किसी अन्य ग्रह-तल के विलक्षण स्थानों को
अपार्थिव आकृति-सा
इस मिनिट, उस सेकेंड
              चमचमा उठता है,
जब-जब वे स्फूर्ति-मुख मुझे देख
              तमतमा उठते हैं

काली उन लहरों को पकड़कर अंजलि में
जब-जब मैं देखना चाहता हूँ -
क्या हैं वे? कहाँ से आई हैं?
किस तरह निकली हैं
उद्गम क्या, स्रोत क्या,
उनका इतिहास क्या?
काले समुंदर की व्याख्या क्या, भाष्य क्या?
कि इतने में, इतने में
झलक-झलक उठती हैं
जल-अंतर में से ही कठोर मुख आकृतियाँ
भयावने चेहरे कुछ, लहरों के नीचे से,
चिलक-चिलक उठते हैं,
मुझको अड़ाते हैं,
बहावदार गुस्से में भौंहें चढ़ाते हैं।
पहचान में आते-से, जान नहीं पाता हूँ,
शनाख्त न कर सकता।
खयाल यह आता है -
शायद है,
सागर की थाहों में महाद्वीप डूबे हों
रहती हैं उनमें ये मनुष्य आकृतिया
मुस्करा, लहरों में, उभरती रहती हैं।
थरथरा उठता हूँ!
सियाह वीरानी में लहराता आर-पार
सागर यह कौन है?

3

जाने क्यों, काँप-सिहरते हुए,
एक भयद
अपवित्रता की हद
ढूँढ़ने लगता हूँ कि इतने में
एक अनहद गान
निनादित सर्वतः
झूलता रहता है,
ऊँचा उठ, नीचे गिर
पुनः क्षीण, पुनः तीव्र
इस कोने, उस कोने, दूर-दूर
चारों ओर गूँजता रहता है।
आर-पार सागर के श्यामल प्रसारों पर
अपार्थिव पक्षिणियाँ
अनवरत गाती हैं -
चीखती रहती हैं
जमाने की गहरी शिकायतें
खूँरेज किस्सों से निकले नतीजे और
सुनाती रहती हैं
कोई तब कहता है -
पक्षिणियाँ सचमुच अपार्थिव हैं
कल जो अनैसर्गिक
अमानवीय दिखता था
आज वही स्वाभाविक लगता है,
निश्चित है कल वही अपार्थिव दीखेंगे।
इसीलिए, उसको आज अप्राकृत मान लो।

सियाह समुंदर के वे पाँखी उड़-उड़कर
कंधों पर, शीश पर
इस तरह मँडराकर बैठते
कि मानो मैं सहचर हूँ उनका भी,
कि मैंने भी, दुखात्मक आलोचन -
- किरनों के रक्त-मणि
हृदय में रक्खे हैं।
पक्षिणियाँ कहती है -
सहस्रों वर्षों से यह सागर
उफनता आया है
उसका तुम भाष्य करो
उसका व्याख्यान करो
चाहो तो उसमें तुम डूब मरो।
अतल निरीक्षण को,
मरकर तुम पूर्ण करो।

4

मुझसे जो छूट गए अपने वे
स्फूर्ति-मुख निहारता बैठा हूँ,
उनका आदेश क्या,
क्या करूँ?

रह-रहकर यह खयाल आता है -
ज्ञानी एक पूर्वज ने
किसी रात, नदी का पानी काट,
मन्त्र पढ़ते हुए,
गहन जल-धारा में
गोता लगाया था कि
अंधकार जल-तल का स्पर्श कर
इधर ढूँढ़, उधर खोज
एक स्निग्ध, गोल-गोल
मनोहर तेजस्वी शिलाखंड
तमोमय जल में से सहज निकला था;
देव बना, पूजा की।
उसी तरह संभव है -
सियाह समुंदर के
अतल-तले पड़ा हुआ
किरणीला एक दीप्त
प्रस्तर - युगानुयुग
तिमिर-श्याम सागर के विरुद्ध निज आभा की
महत्वपूर्ण सत्ता का
प्रतिनिधित्व करता हो, आज भी।
संभव है, वह पत्थऱ
मेरा ही नहीं वरन्
पूरे ब्रह्माण्ड की
केंद्र-क्रियाओं का तेजस्वी अंश हो।
संभव है,
सभी कुछ दिखता हो उसमें से,
दूर-दूर देशों में क्या हुआ,
क्यों हुआ, किस तरह, कहाँ हुआ,
इतने में कोई आ कानों में कहता है -
ऐसा यह ज्ञान-मणि
मरने से मिलता है;
जीवन के जंगल में
अनुभव के नए-नए गिरियों के ढालों पर
वेदना-झरने के,
पहली बार देखे-से, जल-तल में
आत्मा मिलती है
(कहीं-कहीं, कभी-कभी)
अरे, राह-गलियों में
पड़ा नहीं मिलता है ज्ञान-मणि।

हाय रे!
मेरे ही स्फूर्ति-मुख
मेरा ही अनादर करते हैं,
तिरस्कार करते हैं,
अविश्वास करते हैं!
मुझे देख तमतमा उठते हैं।
क्रोधारुण उनका मुख-मंडल देखकर लगता है,
छिड़ने ही वाली है युग-व्यापी एक बहस
उभरने वाली है बेहद जद्दोजहद?
बहुत बड़ा परिवर्तन
सघन वातावरण होने ही वाला है;
जिसके ये घनीभूत
अंधकार-पूर्ण शत
पूर्व-क्षण
महान अपेक्षा से यों तड़प उठते हैं
कि मेरे ही अंतःस्थित संवेदन
मुझ पर ही
झूम, बरस, गरज, कड़क उठते हैं।

उनका वार
बिलकुल मुझी पर है;
बिजली का हर्फ
सिर्फ मुझ पर गिर
तहस-नहस करता है;
बहुत बहस करता है

5

मेरे प्रति उन्मुख हो स्फूर्तियाँ
कहती हैं -
तुम क्या हो?
पहचान न पाईं, सच!
क्या कहना! तुम्हारी आत्मा का
सौंदर्य अनिर्वच,
प्राण हैं प्रस्तर-त्वच।

मारकर ठहाका, वे मुझे हिला देती हैं
सोई हुई अग्नियाँ
उँगली से हिला-डुला
            पुनः ज़िला देती हैं।
मुझे वे दुनिया की
किसी दवाई में डाल
                   गला देती हैं!!

उनके बोल हैं कि पत्थर की बारिश है
बहुत पुराने किसी
अन-चुकाए कर्ज की
खतरनाक नालिश है
फिर भी है रास्ता, रिआयत है,
मेरी मुरव्वत है।

क्षितिज के कोने पर गरजते जाने किस
तेज आँधी-नुमा गहरे हवाले से
बोलते जाते हैं स्फूर्ति-मुख।
देख यों हम सबको
चमचमा मंगल-ग्रह साक्षी बन जाता है
पृथ्वी के रत्न-विवर में से निकली हुई
बलवती जलधारा
नव-नवीन मणि-समूह
बहाती लिए जाय,

और उस स्थिति में, रत्न-मंडल की तीव्र दीप्ति
आग लगाय लहरों में
उसी तरह, स्फूर्तिमय भाषा-प्रवाह में
जगमगा उठते हैं भिन्न-भिन्न मर्म-केंद्र।
सत्य-वचन,
स्वप्न-दृग् कवियों के तेजस्वी उद्धरण,
संभावी युद्धों के भव्य-क्षण-आलोडन,
विराट चित्रों में
भविष्य - आस्फालन
जगमगा उठता है।
और तब हा-हा खा
दुनिया का अँधेरा रोता है।
ठहाका - आगामी देवों का।
काले समुंदर की अंधकार-जल-त्वचा
थरथरा उठती है!!
बंद करने की कोशिश होती है तो
मन का यह दरवाजा
करकरा उठता है;
विरोध में, खुल जाता धड्ड से
उसका सुदूर तक गूँजता धड़ाका
अँधेरी रातों में।
स्फूर्तियाँ
कहती हैं कि
मैं जो पुत्र उनका हूँ
अब नहीं पहचान में आता हूँ;
लौट विदेशों से
अपने ही घर पर मैं इस तरह नवीन हूँ
इतना अधिक मौलिक हूँ -
                 असल नहीं!!
मन में जो बात एक कराहती रहती है
उसकी तुष्टि करने का
साहस, संकल्प और बल नहीं।
मुझको वे स्फूर्ति-मुख
इस तरह देखते कि
मानो अजीब हूँ;
उन्हें छोड़ कष्टों में
उन्हें त्याग दु:ख की खोहों में
               कहीं दूर निकल गया
कि मैं जो बहा किया
आंतरिक आरोहावरोहों में,
निर्णायक मुहूर्त जो कि
घपले में टल गया,
कि मैं ही क्यों इस तरह बदल गया!
इसीलिए, मेरी ये कविताएँ
भयानक हिडिंबा हैं,
वास्तव की विस्फारित प्रतिमाएँ
विकृताकृति-बिंबा हैं।

6

मुझे जेल देती हैं
दुश्मन हैं स्फूर्तियाँ
गुस्से में ढकेल ही देती हैं।
भयानक समुंदर के बीचोंबीच फेंक दिया जाता हूँ।
अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर
पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं
वीरान जलती हुई अकेली धड़कन...
सहसा पछाड़ खा
चारों ओर फैले उस भयानक समुद्र की
(काले संगमूसा-सी चिकनी व चमकदार)
सतहों पर छटपटा गिरता हूँ
कि माथे पर चोट जो लगती है
लहरें चूस लेती हैं रक्त को,
तैरने लगते-से हैं रुधिर के रेशे ये।

इतने में खयाल आता है कि
समुद्र के अतल तले
लुप्त महाद्वीपों में पहाड़ भी होंगे ही
उनकी जल खोहों तक जाना ही होगा अब।
भागती लहरों के कंधों के साथ-साथ
आगे कुछ बढ़ता हूँ कि
नाभि-नाल छूता हूँ अकस्मात्।
मृणाल, हाँ मृणाल
जल खोहों से ऊपर उठ
लहरों के ऊपर चढ़
बनकर वृहद् एक
काला सहस्र-दल सम्मुख उपस्थित है,
उसमें हैं कृष्ण रक्त।
गोता लगाऊँ और
नाभि-नाल-रेखा की समांतर राह से
नीचे जल-खोह तक पहुँचूँ तो
संभव है सागर का मूल सत्य
मुझे मिल जायगा।
अंधी जल-खोहों में
क्यों न हम घूमें और
सर्वेक्षण क्यों न करें
फिरें-तिरें।
चाहें तो दुर्घटनाघात से
बूढ़ी विकराल व्हेल-पंजर की काँख में फँसें-मरें।
इतने में, भुजाएँ ये व्यग्र हो
पानी को काटती उदग्र हो।
अचानक खयाल यह आता है कि
काले संगमूसा-सी भयानक लहरों के
कई मील नीचे एक
वृहद नगर
भव्य...
सागर के तिमिर-तले।
निराकार तमाकार पानी की
कई मील मोटी जो लगातार सतहें हैं
जहाँ मुझे जाना है।
इसीलिए, मुझे इस तमाकार पानी से
समझौता करना है
तैरते रहना सीमाहीन काल तक
मुझको तो मृत्यु तक
भयानक लहरों से मित्रता रखना है।
इतने में, हाय-हाय
सागर की जल-त्वचा थरथरा उठती है,
लहरों के दाँत दीख पड़ते हैं पीसते,
दल पर दल लहरें हैं कि
तर्कों की बहती हुई पंक्तियाँ, दिगवकाश-संबंधी थियोरम या
ऊर्ध्वोन्मुख भावों की अधःपतित
उठती निसैनियाँ !!

और,ये लहरें जिस सीमा तक दौड़तीं
जहाँ जिस सीमा पर खो-सी जाती हैं
वहीं, हाँ,
पीली और भूरी-सी धुंध है गीली सी
मद्धिम उजाले को मटमैला बादली परदा-सा
कि जिसके प्रसार पर
           जुलूस चल पड़ते हैं
           दिक्काल

7

स्तब्ध हूँ
विचित्र दृश्य
फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुषों की आकृतियाँ
भुसभुसे टीलों-सी नारी प्रकृतियाँ
ऊँचा उठाए सिर गरबीली चाल से
सरकती जाती हैं
चेहरों के चौखटे
अलग-अलग तरह के - अजीब हैं
मुश्किल है जानना;
पर, कई
निज के स्वयं के ही
पहचानवालों का भान हो आता है।
आसमान असीम, अछोरपन भूल,
तंग गुंबज, फिर,
क्रमशः संक्षिप्त हो
मात्र एक अँधेरी खोह बन जाता है।
और, मैं मन ही मन, टिप्पणी करता हूँ कि
हो न हो
कई मील मोटी जल-परतों के
नीचे ढँका हुआ शहर जो डूबा है
उसके सौ कमरों में
हलचलें गहरी हैं
कि उनकी कुछ झाइयाँ
ऊपर आ सिहरी हैं
सिहरती उभरी हैं...
               साफ-साफ दीखतीं।

अकस्मात् मुझे ज्ञान होता है
कि मैं ही नहीं वरन्
अन्य अनेक जन
दुखों के द्रोहपूर्ण
शिखरों पर चढ़ करके
देखते
विराट उन दृश्यों को
कि ऐसा ही एक देव भयानक आकार का
अनंत चिंता से ग्रस्त हो
विद्रोही समीक्षण-सर्वेक्षण करता है
विराट् उन चित्रों का।

जुलूस में अनेक मुख
(नेता और विक्रेता, अफसर और कलाकार)
अनगिन चरित्र
           पर, चरितव्य कहीं नहीं
अनगिनत श्रेष्ठों की रूप-आकृतियाँ
रिक्त प्रकृतियाँ
मात्र महत्ता की निराकार केवलता।
उस कृष्ण सागर की ऊँची तरंगों में,
उठता गिरता हुआ मेरा मन
अपनी दृष्टि-रेखाएँ प्रक्षेपित करता है
इतने में दीखता कि
सागर की थाहों में पैर टिका देता है पर्वत-आकार का
देव भयानक
उठ खड़ा होता है।
सागर का पानी सिर्फ उसके घुटनों तक है,
पर्वत-सा मुख-मंडल आसमान छूता है
अनगिनत ग्रह-तारे चमक रहे, कंधों पर।
लटक रहा एक ओर
चाँद
कंदील-सा।
मद्धिम प्रकाश-रहस्य
जिसमें, दूर, वहाँ, एक फैला-सा
चट्टानी चेहरा स्याह
नाजुक और सख्त (पर, धुँधला वह)
कहता वह -

... ... ...

कितनी ही गर्वमयी
सभ्यता-संस्कृतियाँ
डूब गईं।
काँपा है, थहरा है,
काल-जल गहरा है,
           शोषण की अतिमात्रा,
           स्वार्थों की सुख-यात्रा,
जब-जब संपन्न हुई
आत्मा से अर्थ गया, मर गई सभ्यता।
भीतर की मोरियाँ अकस्मात् खुल गईं।
जल की सतह मलिन
ऊँची होती गई,
अंदर सूराख से
अपने उस पाप से
शहरों के टॉवर सब मीनारें डूब गईं,
काला समुंदर ही लहराया, लहराया!

भयानक थर-थर है!! ग्लानिकर सागर में
मुझे गश आता है
विलक्षण स्पर्शों की अपरिचित पीड़ा में
परिप्रेक्ष्य गहरा हो,
तिमिर-दृश्य आता है
ठनकती रहती हैं,
आभ्यंतर ग्रंथियाँ, बहिःसमस्याएँ।

इतने अकस्मात् मुझे दीख पड़ता है
काले समुंदर के बीच चट्टानों पर
सूनी हवाओं को सूँघ रहा
फूटा हुआ बुर्ज या
रोशनी-मीनार
बुझी हुई -
पुर्तगीज, ओलंदेज, फिरंगी लुटेरों के
हाथों सधी हुई।
उस पर चढ़ अँधियारा
जाने क्या गाता है,
मुझको डराता है!! खयाल यह आता है कि
हो न हो
इस काले सागर का
सुदूर-स्थित पश्चिम-किनारे से
ज़रूर कुछ नाता है
इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।

इतने मे अकस्मात् तैरता आता-सा
समुद्री अँधेरे में
जगमगाते अनगिनत तारों का उपनिवेश।
विविध रूप दीपों को अनगिनत पाँतों का
रहस्य-दृश्य!! सागर में प्रकाश-द्वीप तैरता!!
जहाज हाँ जहाज सर्च-लाइट फेंक घनीभूत अँधेरे में दूर-दूर
उछलती लहरों पर जाने क्या ढूँढ़ता।
सागर तरंगों पर भयानक लट्ठे-सा
डूबता उतराता दिखाई देता हूँ कि
चमकती चादर एक तेज फैल जाती है
मेरे सब अंगों पर।
एक हाथ आता है मेरे हाथ!!

वह जहाज
क्षोभ विद्रोह-भरे संगठित विरोध का
साहसी समाज है!! भीतर व बाहर के पूरे दलिद्दर से
मुक्ति की तलाश में
आगामी कल नहीं, आगत वह आज है!!


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