"नागार्जुन": अवतरणों में अंतर
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|चित्र=Nagarjun.jpg | |चित्र=Nagarjun.jpg | ||
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|जन्म भूमि=[[मधुबनी ज़िला]], [[बिहार]] | |जन्म भूमि=[[मधुबनी ज़िला]], [[बिहार]] | ||
|मृत्यु=[[5 नवंबर]], [[1998]] | |मृत्यु=[[5 नवंबर]], [[1998]] | ||
|मृत्यु स्थान=[[दरभंगा ज़िला]], बिहार | |मृत्यु स्थान=[[दरभंगा ज़िला]], [[बिहार]] | ||
| | |अभिभावक=[[पिता]]- गोकुल मिश्र | ||
|पालक माता-पिता= | |पालक माता-पिता= | ||
|पति/पत्नी=अपराजिता देवी | |पति/पत्नी=अपराजिता देवी | ||
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|कर्म भूमि=[[भारत]] | |कर्म भूमि=[[भारत]] | ||
|कर्म-क्षेत्र=[[कवि]], लेखक, [[उपन्यासकार]] | |कर्म-क्षेत्र=[[कवि]], लेखक, [[उपन्यासकार]] | ||
|मुख्य रचनाएँ=रतिनाथ की चाची ([[1948]] ई.), बलचनमा ([[1952]] ई.), नयी पौध ([[1953]] ई.), बाबा बटेसरनाथ ([[1954]] ई.), दुखमोचन ([[1957]] ई.), वरुण के बेटे (1957 ई.) | |मुख्य रचनाएँ='रतिनाथ की चाची' ([[1948]] ई.), 'बलचनमा' ([[1952]] ई.), 'नयी पौध' ([[1953]] ई.), 'बाबा बटेसरनाथ' ([[1954]] ई.), 'दुखमोचन' ([[1957]] ई.), 'वरुण के बेटे' (1957 ई.) | ||
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|भाषा=[[हिंदी]], [[मैथिली भाषा|मैथिली]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] | |भाषा=[[हिंदी]], [[मैथिली भाषा|मैथिली]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] | ||
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|शिक्षा= | |शिक्षा= | ||
|पुरस्कार-उपाधि=[[1969]] में [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]], [[1994]] में साहित्य अकादमी फैलोशिप | |पुरस्कार-उपाधि=[[1969]] में '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]]', [[1994]] में 'साहित्य अकादमी फैलोशिप'। | ||
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|अन्य जानकारी=नागार्जुन ने मैथिली भाषा में 'यात्री' नाम से लेखन किया है। | |अन्य जानकारी=नागार्जुन ने [[मैथिली भाषा]] में 'यात्री' नाम से लेखन किया है। | ||
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'''नागार्जुन''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Nagarjuna'', जन्म: [[30 जून]], [[1911]] | '''नागार्जुन''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Nagarjuna'', जन्म: [[30 जून]], [[1911]]; मृत्यु: [[5 नवंबर]], [[1998]]) प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और [[कवि]] थे। नागार्जुन ने [[1945]] ई. के आसपास [[साहित्य]] सेवा के क्षेत्र में क़दम रखा। [[शून्यवाद]] के रूप में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। नागार्जुन का असली नाम 'वैद्यनाथ मिश्र' था। [[हिन्दी साहित्य]] में उन्होंने 'नागार्जुन' तथा [[मैथिली भाषा|मैथिली]] में 'यात्री' उपनाम से रचनाओं का सृजन किया। | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
30 जून सन् 1911 के दिन [[ज्येष्ठ]] [[मास]] की [[पूर्णिमा]] का [[चन्द्रमा]] [[हिन्दी]] काव्य | 30 जून सन् 1911 के दिन [[ज्येष्ठ]] [[मास]] की [[पूर्णिमा]] का [[चन्द्रमा]] [[हिन्दी]] काव्य जगत् के उस दिवाकर के उदय का साक्षी था, जिसने अपनी फ़क़ीरी और बेबाक़ी से अपनी अनोखी पहचान बनाई। [[कबीर]] की पीढ़ी का यह महान् कवि नागार्जुन के नाम से जाना गया। [[मधुबनी ज़िला|मधुबनी ज़िले]] के 'सतलखा गाँव' की धरती बाबा नागार्जुन की जन्मभूमि बन कर धन्य हो गई। ‘यात्री’ आपका उपनाम था और यही आपकी प्रवृत्ति की संज्ञा भी थी। परंपरागत प्राचीन पद्धति से [[संस्कृत]] की शिक्षा प्राप्त करने वाले बाबा नागार्जुन [[हिन्दी]], [[मैथिली भाषा|मैथिली]], [[संस्कृत]] तथा [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] में [[कविता|कविताएँ]] लिखते थे। मैथिली भाषा में लिखे गए आपके काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए आपको [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]] से सम्मानित किया गया। हिन्दी काव्य-मंच पर अपनी सत्यवादिता और लाग-लपेट से रहित [[कविता|कविताएँ]] लम्बे युग तक गाने के बाद [[5 नवम्बर]] सन् [[1998]] को ख्वाजा सराय, [[दरभंगा]], [[बिहार]] में यह रचनाकार हमारे बीच से विदा हो गया।<ref>{{cite web |url=http://kavyanchal.com/parichay/?p=221 |title=नागार्जुन |accessmonthday=31 जनवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=काव्यांचल |language=हिंदी }}</ref> | ||
==साहित्यिक परिचय== | ==साहित्यिक परिचय== | ||
उनके स्वयं कहे अनुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि कभी छुटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। सो कुल मिलाकर तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित ही मानना चाहिए। हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं। यह सर्वविदित है। उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नहीं जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। | उनके स्वयं कहे अनुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि कभी छुटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। सो कुल मिलाकर तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित ही मानना चाहिए। [[हिंदी]] में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं। यह सर्वविदित है। उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नहीं जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। अब तक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है। अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है। 'फटेहाली' महज कोई बौद्धिक प्रदर्शन है। इस पथ को प्रशस्त करने का भी मैथिली-श्रेय यात्री जी को ही है। | ||
====मैथिली-भाषा आंदोलन==== | ====मैथिली-भाषा आंदोलन==== | ||
इनके पूर्व तक, मैथिली लेखक-कवि के लिए भले मैथिली-भाषा-आंदोलन की ऐतिहासिक विवशता रही हो, लेकिन कवि-लेखक बहुधा इस बात और व्यवहार पर आत्ममुग्ध ढंग से सक्रिय थे कि ‘साइकिल की हैंडिल में अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर [[मिथिला]] के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में अपना जीवन दान कर दिया। इसके बदले में किसी प्राप्ति की आशा नहीं रखी। मातृभाषा की सेवा के बदले कोई दाम क्या? मैथिली और हिंदी का भाषिक विचार उनका हू-बहू वैसा नहीं पाया गया जैसा आम तौर से इन दोनों ही भाषाओं के इतिहास-दोष या राष्ट्रभाषा बनाम मातृभाषा की द्वन्द्वात्मकता में देखने-मानने का चलन है।<ref name="गद्यकोश">{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF#.UQptdx0X5bt |title=नागार्जुन/परिचय |accessmonthday=31 जनवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गद्यकोश |language=हिंदी }}</ref> | इनके पूर्व तक, मैथिली लेखक-कवि के लिए भले मैथिली-भाषा-आंदोलन की ऐतिहासिक विवशता रही हो, लेकिन कवि-लेखक बहुधा इस बात और व्यवहार पर आत्ममुग्ध ढंग से सक्रिय थे कि ‘साइकिल की हैंडिल में अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर [[मिथिला]] के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में अपना जीवन दान कर दिया। इसके बदले में किसी प्राप्ति की आशा नहीं रखी। मातृभाषा की सेवा के बदले कोई दाम क्या? मैथिली और हिंदी का भाषिक विचार उनका हू-बहू वैसा नहीं पाया गया जैसा आम तौर से इन दोनों ही भाषाओं के इतिहास-दोष या राष्ट्रभाषा बनाम मातृभाषा की द्वन्द्वात्मकता में देखने-मानने का चलन है।<ref name="गद्यकोश">{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF#.UQptdx0X5bt |title=नागार्जुन/परिचय |accessmonthday=31 जनवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गद्यकोश |language=हिंदी }}</ref> | ||
==मार्क्सवाद का प्रभाव== | ==मार्क्सवाद का प्रभाव== | ||
मार्क्सवाद से वह गहरे प्रभावित रहे, लेकिन मार्क्सवाद के तमाम रूप और रंग देखकर वह खिन्न थे। वह पूछते थे कौन से मार्क्सवाद की बात कर रहे हो, मार्क्स या चारु मजूमदार या चे ग्वेरा की? इसी तरह उन्होंने [[जयप्रकाश नारायण]] का समर्थन | मार्क्सवाद से वह गहरे प्रभावित रहे, लेकिन मार्क्सवाद के तमाम रूप और रंग देखकर वह खिन्न थे। वह पूछते थे कौन से मार्क्सवाद की बात कर रहे हो, मार्क्स या चारु मजूमदार या चे ग्वेरा की? इसी तरह उन्होंने [[जयप्रकाश नारायण]] का समर्थन ज़रूर किया, लेकिन जब जनता पार्टी विफल रही तो बाबा ने जयप्रकाश को भी नहीं छोड़ा- | ||
<blockquote><poem>खिचड़ी विप्लव देखा हमने | <blockquote><poem>खिचड़ी विप्लव देखा हमने | ||
भोगा हमने क्रांति विलास | भोगा हमने क्रांति विलास | ||
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तरुणों को उठाने दो बंदूक | तरुणों को उठाने दो बंदूक | ||
फिर करवा लेना आत्मसमर्पण</poem></blockquote> | फिर करवा लेना आत्मसमर्पण</poem></blockquote> | ||
लेकिन इसके लिए उनकी आलोचना भी होती थी कि बाबा की कोई विचारधारा ही नहीं है, बाबा कहीं टिकते ही नहीं हैं। नागार्जुन का मानना था कि वह जनवादी हैं। जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। मैं किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं। मैं ग़रीब, | लेकिन इसके लिए उनकी आलोचना भी होती थी कि बाबा की कोई विचारधारा ही नहीं है, बाबा कहीं टिकते ही नहीं हैं। नागार्जुन का मानना था कि वह जनवादी हैं। जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। मैं किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं। मैं ग़रीब, मज़दूर, किसान की बात करने के लिए ही हूं। उन्होंने ग़रीब को ग़रीब ही माना, उसे किसी जाति या वर्ग में विभाजित नहीं किया। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया।<ref>{{cite web |url=http://celebritywriters.jagranjunction.com/2011/12/05/revolutionary-poet-legendary-hindi-poet-baba-nagarjuna/ |title=नागार्जुन की कविताएं |accessmonthday=1 जुलाई |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण जंक्शन |language=हिंदी }}</ref> | ||
==कृतियाँ== | ==कृतियाँ== | ||
नागार्जुन के गीतों में काव्य की पीड़ा जिस लयात्मकता के साथ व्यक्त हुई है, वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देती। आपने काव्य के साथ-साथ गद्य में भी लेखनी चलाई। आपके अनेक [[हिन्दी]] [[उपन्यास]], एक [[मैथिली भाषा|मैथिली]] उपन्यास तथा [[संस्कृत भाषा]] से हिन्दी में अनूदित [[ग्रंथ]] भी प्रकाशित हुए। काव्य- | नागार्जुन के गीतों में काव्य की पीड़ा जिस लयात्मकता के साथ व्यक्त हुई है, वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देती। आपने काव्य के साथ-साथ गद्य में भी लेखनी चलाई। आपके अनेक [[हिन्दी]] [[उपन्यास]], एक [[मैथिली भाषा|मैथिली]] उपन्यास तथा [[संस्कृत भाषा]] से हिन्दी में अनूदित [[ग्रंथ]] भी प्रकाशित हुए। काव्य-जगत् को आप एक दर्जन काव्य-संग्रह, दो [[खण्ड काव्य]], दो मैथिली [[कविता]] संग्रह तथा एक संस्कृत काव्य ‘धर्मलोक शतकम्’ थाती के रूप में देकर गए। प्रकाशित कृतियों में पहला वर्ग उपन्यासों का है। | ||
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*'बाबा बटेसरनाथ' ([[1954]] ई.) | *'बाबा बटेसरनाथ' ([[1954]] ई.) | ||
*'दुखमोचन' ([[1957]] ई.) | *'दुखमोचन' ([[1957]] ई.) | ||
*'वरुण के बेटे' (1957 ई.) | *'वरुण के बेटे' ([[1957]] ई.) | ||
* उग्रतारा | * उग्रतारा | ||
* कुंभीपाक | * कुंभीपाक | ||
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* मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद) | * मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद) | ||
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इन औपन्यासिक कृतियों में नागार्जुन सामाजिक समस्याओं के सधे हुए लेखक के रूप में सामने आते हैं। जनपदीय संस्कृति और लोक जीवन उनकी कथा-सृष्टि का चौड़ा फलक है। उन्होंने कहीं तो आंचलिक परिवेश में किसी ग्रामीण परिवेश के सुख-दु:ख की कहानी कही है, कहीं मार्क्सवादी सिद्धान्तों की झलक देते हुए सामाजिक आन्दोलनों का समर्थन किया है और कहीं-कहीं समाज में व्याप्त शोषण वृत्ति एवं धार्मिक सामाजिक कृतियों पर कुठाराघात किया है। इन सन्दर्भों में नागार्जुन की 'बाबा बटेसरनाथ' रचना उल्लेखनीय एवं परिपुष्ट कृति है। इसमें ज़मींदारी उन्मूलन के बाद की सामाजिक समस्याओं एवं ग्रामीण परिस्थितियों का अंकन हुआ है और निदान रूप में समाजवादी संगठन द्वारा व्यापक संघर्ष की | इन औपन्यासिक कृतियों में नागार्जुन सामाजिक समस्याओं के सधे हुए लेखक के रूप में सामने आते हैं। जनपदीय संस्कृति और लोक जीवन उनकी कथा-सृष्टि का चौड़ा फलक है। उन्होंने कहीं तो आंचलिक परिवेश में किसी ग्रामीण परिवेश के सुख-दु:ख की कहानी कही है, कहीं मार्क्सवादी सिद्धान्तों की झलक देते हुए सामाजिक आन्दोलनों का समर्थन किया है और कहीं-कहीं समाज में व्याप्त शोषण वृत्ति एवं धार्मिक सामाजिक कृतियों पर कुठाराघात किया है। इन सन्दर्भों में नागार्जुन की 'बाबा बटेसरनाथ' रचना उल्लेखनीय एवं परिपुष्ट कृति है। इसमें ज़मींदारी उन्मूलन के बाद की सामाजिक समस्याओं एवं ग्रामीण परिस्थितियों का अंकन हुआ है और निदान रूप में समाजवादी संगठन द्वारा व्यापक संघर्ष की परिकल्पना की गई है। कथा के प्रस्तुतीकरण के लिए व्यवहृत किये जाने वाले एक अभिनव रोचक शिल्प की दृष्टि से भी नागार्जुन का यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण है। | ||
====कविता==== | ====कविता==== | ||
नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है। उनकी अनेक कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 'युगधारा' (1952) उनका प्रारम्भिक काव्य संकलन है। इधर की कविताओं का एक संग्रह 'सतरंगे पंखोंवाली' प्रकाशित हुआ है। कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रगतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी हैं। उनकी अनेक कविताएँ प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण इस प्रकार के सहज भाव सौंदर्य से दीप्त हो उठी हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में शिष्ट गम्भीर तथा सूक्ष्म चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से भी नागार्जुन की कुछ रचनाएँ अपनी एक अलग पहचान रखती हैं। इन्होंने कहीं-कहीं सरस मार्मिक प्रकृति चित्रण भी किया है। | नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है। उनकी अनेक कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 'युगधारा' ([[1952]]) उनका प्रारम्भिक काव्य संकलन है। इधर की कविताओं का एक संग्रह 'सतरंगे पंखोंवाली' प्रकाशित हुआ है। कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रगतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी हैं। उनकी अनेक कविताएँ प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण इस प्रकार के सहज भाव सौंदर्य से दीप्त हो उठी हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में शिष्ट गम्भीर तथा सूक्ष्म चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से भी नागार्जुन की कुछ रचनाएँ अपनी एक अलग पहचान रखती हैं। इन्होंने कहीं-कहीं सरस मार्मिक प्रकृति चित्रण भी किया है। | ||
====भाषा-शैली==== | ====भाषा-शैली==== | ||
{{दाँयाबक्सा|पाठ=नागार्जुन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है, चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों, विषयवस्तु के हों।|विचारक=[[नामवर सिंह]]}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ=नागार्जुन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है, चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों, विषयवस्तु के हों।|विचारक=[[नामवर सिंह]]}} | ||
नागार्जुन की [[भाषा]] लोक भाषा के निकट है। कुछ कविताओं में [[संस्कृत]] के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है। किन्तु अधिकतर कविताओं और उपन्यासों की भाषा सरल है। | नागार्जुन की [[भाषा]] लोक भाषा के निकट है। कुछ कविताओं में [[संस्कृत]] के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है। किन्तु अधिकतर कविताओं और उपन्यासों की भाषा सरल है। तद्भव तथा ग्रामीण शब्दों के प्रयोग के कारण इसमें एक विचित्र प्रकार की मिठास आ गई है। नागार्जुन की शैलीगत विशेषता भी यही है। वे लोकमुख की वाणी बोलना चाहते हैं। | ||
==जनकवि का ख़िताब== | ==जनकवि का ख़िताब== | ||
आज़ादी के पहले से लेकर अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी सांस तक जनता के साथ कंधा भिड़ाकर लड़ने-भिड़ने, उससे सीखने और उसे सिखाने की यह जिद नागार्जुन के कविता के क्रोड़ में है। सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा होना, समकालीन आलोचकों की कुटिल भ्रू-भंगिमा से मोर्चा लेना और साहित्य की पवित्र भूमि से बर्खास्तगी, यही तो मिलता है जनकवि को। पर रुकिए, उसे जनता का प्यार मिलता है। [[दिल्ली]] की बसों के चिढ़े-खिझलाये ड्राइवरों से लेकर [[बिहार]] के धधकते खेत-खलिहानों के खेत-मजूर तक उसे सर-आँखों पर रखते हैं। अब सवाल बचा लोकप्रियतावाद का। लोकप्रिय होना किसी कवि की | आज़ादी के पहले से लेकर अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी सांस तक जनता के साथ कंधा भिड़ाकर लड़ने-भिड़ने, उससे सीखने और उसे सिखाने की यह जिद नागार्जुन के कविता के क्रोड़ में है। सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा होना, समकालीन आलोचकों की कुटिल भ्रू-भंगिमा से मोर्चा लेना और साहित्य की पवित्र भूमि से बर्खास्तगी, यही तो मिलता है जनकवि को। पर रुकिए, उसे जनता का प्यार मिलता है। [[दिल्ली]] की बसों के चिढ़े-खिझलाये ड्राइवरों से लेकर [[बिहार]] के धधकते खेत-खलिहानों के खेत-मजूर तक उसे सर-आँखों पर रखते हैं। अब सवाल बचा लोकप्रियतावाद का। लोकप्रिय होना किसी कवि की कमज़ोरी नहीं, उसकी मजबूती है, अगर वह लोकप्रियता के लिए अपने ईमान का सौदा नहीं करता। अगर वह सत्य, जनता और अपने आप से दगाबाज़ी नहीं करता। नागार्जुन ने लोकप्रिय होने के लिए कोई समझौता नहीं किया। जब-जब उन्हें लगा कि जनता बदलाव के अपने रास्ते पर है, वे उसके साथ रहे- सीखते-सिखाते। 'जन-आन्दोलनों का इतिहास' नाम की किताब अगर आप लिखने की सोचें तो एकबार नागार्जुन के काव्य-संसार की ओर पलट कर देख लें। तेभागा-तेलंगाना से लेकर [[जयप्रकाश नारायण|जे.पी.]] की सम्पूर्ण क्रान्ति तक और [[भगतसिंह]] से लेकर भोजपुर तक आप यहां दर्ज पायेंगे, और पायेंगे कितने ही स्थानीय प्रतिरोध, जिनको इतिहास की मुख्यधारा हमेशा ही भुला देती है। पर यह कोई अंध आन्दोलन भक्ति का सबब नहीं। आन्दोलनों का टूटना-बिखरना, उनकी कमी-कमज़ोरी, सब अपनी सम्पूर्णता में यहां मौजूद है। जे.पी. आन्दोलन पर क्रमशः लिखी कविताएँ इसकी गवाही हैं- 'क्रान्ति सुगबुगाई है' से 'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' तक। सिर्फ कवि ही आंदोलनों पर प्रभाव नहीं डालते, आन्दोलन भी उन पर असर छोड़ते हैं। [[केदारनाथ अग्रवाल|केदार]], [[त्रिलोचन शास्त्री|त्रिलोचन]] और नागार्जुन, जो कि खेती-किसानी की ज़िन्दगी के कवि हैं, कवितायें वे पहले से ही लिख रहे थे पर सुधीजनों की नज़र उन पर तब पड़ी जब नक्सल आन्दोलन ने ज़मीन के सवाल को राजनीति के केंद्र में स्थापित कर दिया। सो कविता और जनांदोलन का यह गहरा द्वंद्वात्मक संबंध गौरतलब है। | ||
जन-इतिहास की बातें बहुत इतिहासकारों ने कीं, लिखा भी पर नागार्जुन के शानदार कलम के मार्फ़त [[भारत]] के संक्षिप्ततम जन-इतिहास से रू ब रू हों- | जन-इतिहास की बातें बहुत इतिहासकारों ने कीं, लिखा भी पर नागार्जुन के शानदार कलम के मार्फ़त [[भारत]] के संक्षिप्ततम जन-इतिहास से रू ब रू हों- | ||
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पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा ! | पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा ! | ||
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बचपने की संख्याओं और गिनतियों के सम्मोहक संसार से बावस्ता कराती यह कविता कौतूहल और जिज्ञासा के हमारे आदिम मनोभाव से खेलती है, उसी को अपनी ज़मीन के बतौर इस्तेमाल करती है। यह खासा मुश्किल काम है किसी कवि के लिए कि वह लगभग प्रतीक में बदल गए रूप का इस्तेमाल नए कथ्य के लिए करे। यहां रूप का पारंपरिक अर्थ नए अर्थ पर भारी पड़ सकता है और कविता आतंरिक असंगति से गड़बड़ा सकती है। पर यही तो कवियों को लुभाता भी है। बचपने की लय और तुक में जन-इतिहास भरने की दिलचस्प ललक में नागार्जुन यहां हाज़िर हैं। इस लय में मौजूद | बचपने की संख्याओं और गिनतियों के सम्मोहक संसार से बावस्ता कराती यह कविता कौतूहल और जिज्ञासा के हमारे आदिम मनोभाव से खेलती है, उसी को अपनी ज़मीन के बतौर इस्तेमाल करती है। यह खासा मुश्किल काम है किसी कवि के लिए कि वह लगभग प्रतीक में बदल गए रूप का इस्तेमाल नए कथ्य के लिए करे। यहां रूप का पारंपरिक अर्थ नए अर्थ पर भारी पड़ सकता है और कविता आतंरिक असंगति से गड़बड़ा सकती है। पर यही तो कवियों को लुभाता भी है। बचपने की लय और तुक में जन-इतिहास भरने की दिलचस्प ललक में नागार्जुन यहां हाज़िर हैं। इस लय में मौजूद कुतूहल और जिज्ञासा का इस्तेमाल करते और उसे आधुनिक इतिहास की समीक्षा के लिए बरतते हुए। कविता भारतमाता के पांच बलिदानी, लड़ाकू सपूतों के संघर्ष से शुरू होती है। पहले दोनों को क्रमशः हत्या और देश निकाला मिलता है। आज़ादी के लिए लड़ी पुरानी पीढ़ी को नागार्जुन अपनी इस कविता में गौरव से याद करते हैं। भगतसिंह जैसे ढेरों भारतमाता के बेटों को खूंखार दुश्मन के खिलाफ लड़ने के लिए फाँसी और गोली ही मिली। लेकिन जो बाकी बचे, उनको तो उस शहादत का आधार बना हुआ मिला। उन्होंने क्या किया? नागार्जुन ने सीधे देश के विभाजन पर कुछ नहीं लिखा। क्यों नहीं लिखा, इस विषय पर विद्वानों के ढेरों कयास हैं। पर इस कविता की आंतरिक संगति को समझते हुए उस बेटे के बारे में, जो उधर अलग हो गया, पर बार-बार ख्याल अटकता है। क्या यह विभाजन के अलावा और कुछ है? क्या अलग होना और देश निकाला जैसी घटनाओं को विभाजन के दर्द से जोड़ा जा सकता है?<ref>{{cite web |url=http://vatsanurag.blogspot.in/2011/04/blog-post_19.html |title=शताब्दी स्मरण : नागार्जुन |accessmonthday= 25 जनवरी|accessyear=2015 |last= मृत्युंजय |first= |authorlink= |format= |publisher= शबद (ब्लॉग)|language=हिंदी }} </ref> | ||
==नागार्जुन रचनावली== | ==नागार्जुन रचनावली== | ||
सात बृहत् खंडों में प्रकाशित नागार्जुन रचनावली है जिसका एक खंड 'यात्री समग्र', जो मैथिली समेत [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]], [[संस्कृत]] आदि भाषाओं में लिखित रचनाओं का है। मैथिली कविताओं की अब तक प्रकाशित यात्री जी की दोनों पुस्तकें क्रमशः ‘चित्रा’ और ‘पत्राहीन नग्न गाछ’<ref> साहित्य अकादमी पुरस्कृत</ref> समेत उनकी समस्त छुटफुट मैथिली कविताओं के संग्रह हैं।<ref name="गद्यकोश"/> | सात बृहत् खंडों में प्रकाशित नागार्जुन रचनावली है जिसका एक खंड 'यात्री समग्र', जो मैथिली समेत [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]], [[संस्कृत]] आदि भाषाओं में लिखित रचनाओं का है। मैथिली कविताओं की अब तक प्रकाशित यात्री जी की दोनों पुस्तकें क्रमशः ‘चित्रा’ और ‘पत्राहीन नग्न गाछ’<ref> साहित्य अकादमी पुरस्कृत</ref> समेत उनकी समस्त छुटफुट मैथिली कविताओं के संग्रह हैं।<ref name="गद्यकोश"/> | ||
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नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार से, उनकी ऐतिहासिक मैथिली रचना 'पत्रहीन नग्न गाछ' के लिए [[1969]] में सम्मानित गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने [[1994]] में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में भी नामांकित कर सम्मानित किया था। | नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार से, उनकी ऐतिहासिक मैथिली रचना 'पत्रहीन नग्न गाछ' के लिए [[1969]] में सम्मानित गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने [[1994]] में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में भी नामांकित कर सम्मानित किया था। | ||
==साहित्य में स्थान== | ==साहित्य में स्थान== | ||
'युगधारा', खिचडी़', 'विप्लव देखा हमने', 'पत्रहीन नग्न गाछ', 'प्यासी पथराई आँखें', इस गुब्बारे की छाया में', 'सतरंगे पंखोंवाली', 'मैं मिलिट्री का बूढा़ घोड़ा' जैसी रचनाओं से आम जनता में चेतना फैलाने वाले नागार्जुन के साहित्य पर विमर्श का सारांश था कि बाबा नागार्जुन जनकवि थे और वे अपनी कविताओं में आम लोगों के दर्द को बयाँ करते थे। विचारक हॉब्सबाम ने '''इस सदी को अतिवादों की सदी''' कहा है। उन्होंने कहा कि नागार्जुन का व्यक्तित्व बीसवीं शताब्दी की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं से निर्मित हुआ था। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से शोषणमुक्त समाज या यों कहें कि समतामूलक समाज निर्माण के लिए प्रयासरत थे। उनकी विचारधारा यथार्थ जीवन के अन्तर्विरोधों को समझने में मदद करती है। [[वर्ष]] [[1911]] इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि उसी वर्ष [[शमशेर बहादुर सिंह]], केदारनाथ अग्रवाल, [[फैज]] एवं नागार्जुन पैदा हुए। उनके संघर्ष, क्रियाकलापों और उपलब्धियों के कारण बीसवीं सदी महत्वपूर्ण बनी। इन्होंने ग़रीबों के बारे में, जन्म देने वाली [[माँ]] के बारे में, मज़दूरों के बारे में लिखा। लोकभाषा के विराट उत्सव में वे गए और काव्य भाषा अर्जित की। लोकभाषा के संपर्क में रहने के कारण इनकी कविताएँ औरों से अलग है। सुप्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने नागार्जुन की रचनाओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनकी कविताओं में आज़ादी की लड़ाई की अंतर्वस्तु शामिल है। नागार्जुन ने कविताओं के जरिए कई | 'युगधारा', खिचडी़', 'विप्लव देखा हमने', 'पत्रहीन नग्न गाछ', 'प्यासी पथराई आँखें', इस गुब्बारे की छाया में', 'सतरंगे पंखोंवाली', 'मैं मिलिट्री का बूढा़ घोड़ा' जैसी रचनाओं से आम जनता में चेतना फैलाने वाले नागार्जुन के साहित्य पर विमर्श का सारांश था कि बाबा नागार्जुन जनकवि थे और वे अपनी कविताओं में आम लोगों के दर्द को बयाँ करते थे। विचारक हॉब्सबाम ने '''इस सदी को अतिवादों की सदी''' कहा है। उन्होंने कहा कि नागार्जुन का व्यक्तित्व बीसवीं शताब्दी की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं से निर्मित हुआ था। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से शोषणमुक्त समाज या यों कहें कि समतामूलक समाज निर्माण के लिए प्रयासरत थे। उनकी विचारधारा यथार्थ जीवन के अन्तर्विरोधों को समझने में मदद करती है। [[वर्ष]] [[1911]] इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि उसी वर्ष [[शमशेर बहादुर सिंह]], केदारनाथ अग्रवाल, [[फैज]] एवं नागार्जुन पैदा हुए। उनके संघर्ष, क्रियाकलापों और उपलब्धियों के कारण बीसवीं सदी महत्वपूर्ण बनी। इन्होंने ग़रीबों के बारे में, जन्म देने वाली [[माँ]] के बारे में, मज़दूरों के बारे में लिखा। लोकभाषा के विराट उत्सव में वे गए और काव्य भाषा अर्जित की। लोकभाषा के संपर्क में रहने के कारण इनकी कविताएँ औरों से अलग है। सुप्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने नागार्जुन की रचनाओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनकी कविताओं में आज़ादी की लड़ाई की अंतर्वस्तु शामिल है। नागार्जुन ने कविताओं के जरिए कई लड़ाइयाँ लड़ीं। वे एक कवि के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु '''नए भारत के निर्माता''' के रूप में दिखाई देते हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B9/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B9-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8-1110314058_1.htm |title=नागार्जुन की जन्मशती पर समारोह संपन्न |accessmonthday=31 जनवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया हिंदी |language=हिंदी }}</ref> | ||
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06:34, 30 जून 2018 के समय का अवतरण
नागार्जुन | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- नागार्जुन (बहुविकल्पी) |
नागार्जुन
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पूरा नाम | वैद्यनाथ मिश्र |
अन्य नाम | नागार्जुन, यात्री |
जन्म | 30 जून, 1911 |
जन्म भूमि | मधुबनी ज़िला, बिहार |
मृत्यु | 5 नवंबर, 1998 |
मृत्यु स्थान | दरभंगा ज़िला, बिहार |
अभिभावक | पिता- गोकुल मिश्र |
पति/पत्नी | अपराजिता देवी |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | कवि, लेखक, उपन्यासकार |
मुख्य रचनाएँ | 'रतिनाथ की चाची' (1948 ई.), 'बलचनमा' (1952 ई.), 'नयी पौध' (1953 ई.), 'बाबा बटेसरनाथ' (1954 ई.), 'दुखमोचन' (1957 ई.), 'वरुण के बेटे' (1957 ई.) |
भाषा | हिंदी, मैथिली, संस्कृत |
पुरस्कार-उपाधि | 1969 में 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 1994 में 'साहित्य अकादमी फैलोशिप'। |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | ॐ शब्द ही ब्रह्म है |
अन्य जानकारी | नागार्जुन ने मैथिली भाषा में 'यात्री' नाम से लेखन किया है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
नागार्जुन (अंग्रेज़ी: Nagarjuna, जन्म: 30 जून, 1911; मृत्यु: 5 नवंबर, 1998) प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि थे। नागार्जुन ने 1945 ई. के आसपास साहित्य सेवा के क्षेत्र में क़दम रखा। शून्यवाद के रूप में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। नागार्जुन का असली नाम 'वैद्यनाथ मिश्र' था। हिन्दी साहित्य में उन्होंने 'नागार्जुन' तथा मैथिली में 'यात्री' उपनाम से रचनाओं का सृजन किया।
जीवन परिचय
30 जून सन् 1911 के दिन ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा हिन्दी काव्य जगत् के उस दिवाकर के उदय का साक्षी था, जिसने अपनी फ़क़ीरी और बेबाक़ी से अपनी अनोखी पहचान बनाई। कबीर की पीढ़ी का यह महान् कवि नागार्जुन के नाम से जाना गया। मधुबनी ज़िले के 'सतलखा गाँव' की धरती बाबा नागार्जुन की जन्मभूमि बन कर धन्य हो गई। ‘यात्री’ आपका उपनाम था और यही आपकी प्रवृत्ति की संज्ञा भी थी। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने वाले बाबा नागार्जुन हिन्दी, मैथिली, संस्कृत तथा बांग्ला में कविताएँ लिखते थे। मैथिली भाषा में लिखे गए आपके काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी काव्य-मंच पर अपनी सत्यवादिता और लाग-लपेट से रहित कविताएँ लम्बे युग तक गाने के बाद 5 नवम्बर सन् 1998 को ख्वाजा सराय, दरभंगा, बिहार में यह रचनाकार हमारे बीच से विदा हो गया।[1]
साहित्यिक परिचय
उनके स्वयं कहे अनुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि कभी छुटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। सो कुल मिलाकर तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित ही मानना चाहिए। हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं। यह सर्वविदित है। उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नहीं जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। अब तक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है। अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है। 'फटेहाली' महज कोई बौद्धिक प्रदर्शन है। इस पथ को प्रशस्त करने का भी मैथिली-श्रेय यात्री जी को ही है।
मैथिली-भाषा आंदोलन
इनके पूर्व तक, मैथिली लेखक-कवि के लिए भले मैथिली-भाषा-आंदोलन की ऐतिहासिक विवशता रही हो, लेकिन कवि-लेखक बहुधा इस बात और व्यवहार पर आत्ममुग्ध ढंग से सक्रिय थे कि ‘साइकिल की हैंडिल में अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में अपना जीवन दान कर दिया। इसके बदले में किसी प्राप्ति की आशा नहीं रखी। मातृभाषा की सेवा के बदले कोई दाम क्या? मैथिली और हिंदी का भाषिक विचार उनका हू-बहू वैसा नहीं पाया गया जैसा आम तौर से इन दोनों ही भाषाओं के इतिहास-दोष या राष्ट्रभाषा बनाम मातृभाषा की द्वन्द्वात्मकता में देखने-मानने का चलन है।[2]
मार्क्सवाद का प्रभाव
मार्क्सवाद से वह गहरे प्रभावित रहे, लेकिन मार्क्सवाद के तमाम रूप और रंग देखकर वह खिन्न थे। वह पूछते थे कौन से मार्क्सवाद की बात कर रहे हो, मार्क्स या चारु मजूमदार या चे ग्वेरा की? इसी तरह उन्होंने जयप्रकाश नारायण का समर्थन ज़रूर किया, लेकिन जब जनता पार्टी विफल रही तो बाबा ने जयप्रकाश को भी नहीं छोड़ा-
खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास।
क्रांतिकारिता में उनका जबरदस्त विश्वास था इसीलिए वह जयप्रकाश की अहिंसक क्रांति से लेकर नक्सलियों की सशक्त क्रांति तक का समर्थन करते थे-
काम नहीं है, दाम नहीं है
तरुणों को उठाने दो बंदूक
फिर करवा लेना आत्मसमर्पण
लेकिन इसके लिए उनकी आलोचना भी होती थी कि बाबा की कोई विचारधारा ही नहीं है, बाबा कहीं टिकते ही नहीं हैं। नागार्जुन का मानना था कि वह जनवादी हैं। जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। मैं किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं। मैं ग़रीब, मज़दूर, किसान की बात करने के लिए ही हूं। उन्होंने ग़रीब को ग़रीब ही माना, उसे किसी जाति या वर्ग में विभाजित नहीं किया। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया।[3]
कृतियाँ
नागार्जुन के गीतों में काव्य की पीड़ा जिस लयात्मकता के साथ व्यक्त हुई है, वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देती। आपने काव्य के साथ-साथ गद्य में भी लेखनी चलाई। आपके अनेक हिन्दी उपन्यास, एक मैथिली उपन्यास तथा संस्कृत भाषा से हिन्दी में अनूदित ग्रंथ भी प्रकाशित हुए। काव्य-जगत् को आप एक दर्जन काव्य-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली कविता संग्रह तथा एक संस्कृत काव्य ‘धर्मलोक शतकम्’ थाती के रूप में देकर गए। प्रकाशित कृतियों में पहला वर्ग उपन्यासों का है।
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इन औपन्यासिक कृतियों में नागार्जुन सामाजिक समस्याओं के सधे हुए लेखक के रूप में सामने आते हैं। जनपदीय संस्कृति और लोक जीवन उनकी कथा-सृष्टि का चौड़ा फलक है। उन्होंने कहीं तो आंचलिक परिवेश में किसी ग्रामीण परिवेश के सुख-दु:ख की कहानी कही है, कहीं मार्क्सवादी सिद्धान्तों की झलक देते हुए सामाजिक आन्दोलनों का समर्थन किया है और कहीं-कहीं समाज में व्याप्त शोषण वृत्ति एवं धार्मिक सामाजिक कृतियों पर कुठाराघात किया है। इन सन्दर्भों में नागार्जुन की 'बाबा बटेसरनाथ' रचना उल्लेखनीय एवं परिपुष्ट कृति है। इसमें ज़मींदारी उन्मूलन के बाद की सामाजिक समस्याओं एवं ग्रामीण परिस्थितियों का अंकन हुआ है और निदान रूप में समाजवादी संगठन द्वारा व्यापक संघर्ष की परिकल्पना की गई है। कथा के प्रस्तुतीकरण के लिए व्यवहृत किये जाने वाले एक अभिनव रोचक शिल्प की दृष्टि से भी नागार्जुन का यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण है।
कविता
नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है। उनकी अनेक कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 'युगधारा' (1952) उनका प्रारम्भिक काव्य संकलन है। इधर की कविताओं का एक संग्रह 'सतरंगे पंखोंवाली' प्रकाशित हुआ है। कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रगतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी हैं। उनकी अनेक कविताएँ प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण इस प्रकार के सहज भाव सौंदर्य से दीप्त हो उठी हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में शिष्ट गम्भीर तथा सूक्ष्म चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से भी नागार्जुन की कुछ रचनाएँ अपनी एक अलग पहचान रखती हैं। इन्होंने कहीं-कहीं सरस मार्मिक प्रकृति चित्रण भी किया है।
भाषा-शैली
नागार्जुन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है, चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों, विषयवस्तु के हों।
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नागार्जुन की भाषा लोक भाषा के निकट है। कुछ कविताओं में संस्कृत के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है। किन्तु अधिकतर कविताओं और उपन्यासों की भाषा सरल है। तद्भव तथा ग्रामीण शब्दों के प्रयोग के कारण इसमें एक विचित्र प्रकार की मिठास आ गई है। नागार्जुन की शैलीगत विशेषता भी यही है। वे लोकमुख की वाणी बोलना चाहते हैं।
जनकवि का ख़िताब
आज़ादी के पहले से लेकर अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी सांस तक जनता के साथ कंधा भिड़ाकर लड़ने-भिड़ने, उससे सीखने और उसे सिखाने की यह जिद नागार्जुन के कविता के क्रोड़ में है। सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा होना, समकालीन आलोचकों की कुटिल भ्रू-भंगिमा से मोर्चा लेना और साहित्य की पवित्र भूमि से बर्खास्तगी, यही तो मिलता है जनकवि को। पर रुकिए, उसे जनता का प्यार मिलता है। दिल्ली की बसों के चिढ़े-खिझलाये ड्राइवरों से लेकर बिहार के धधकते खेत-खलिहानों के खेत-मजूर तक उसे सर-आँखों पर रखते हैं। अब सवाल बचा लोकप्रियतावाद का। लोकप्रिय होना किसी कवि की कमज़ोरी नहीं, उसकी मजबूती है, अगर वह लोकप्रियता के लिए अपने ईमान का सौदा नहीं करता। अगर वह सत्य, जनता और अपने आप से दगाबाज़ी नहीं करता। नागार्जुन ने लोकप्रिय होने के लिए कोई समझौता नहीं किया। जब-जब उन्हें लगा कि जनता बदलाव के अपने रास्ते पर है, वे उसके साथ रहे- सीखते-सिखाते। 'जन-आन्दोलनों का इतिहास' नाम की किताब अगर आप लिखने की सोचें तो एकबार नागार्जुन के काव्य-संसार की ओर पलट कर देख लें। तेभागा-तेलंगाना से लेकर जे.पी. की सम्पूर्ण क्रान्ति तक और भगतसिंह से लेकर भोजपुर तक आप यहां दर्ज पायेंगे, और पायेंगे कितने ही स्थानीय प्रतिरोध, जिनको इतिहास की मुख्यधारा हमेशा ही भुला देती है। पर यह कोई अंध आन्दोलन भक्ति का सबब नहीं। आन्दोलनों का टूटना-बिखरना, उनकी कमी-कमज़ोरी, सब अपनी सम्पूर्णता में यहां मौजूद है। जे.पी. आन्दोलन पर क्रमशः लिखी कविताएँ इसकी गवाही हैं- 'क्रान्ति सुगबुगाई है' से 'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' तक। सिर्फ कवि ही आंदोलनों पर प्रभाव नहीं डालते, आन्दोलन भी उन पर असर छोड़ते हैं। केदार, त्रिलोचन और नागार्जुन, जो कि खेती-किसानी की ज़िन्दगी के कवि हैं, कवितायें वे पहले से ही लिख रहे थे पर सुधीजनों की नज़र उन पर तब पड़ी जब नक्सल आन्दोलन ने ज़मीन के सवाल को राजनीति के केंद्र में स्थापित कर दिया। सो कविता और जनांदोलन का यह गहरा द्वंद्वात्मक संबंध गौरतलब है। जन-इतिहास की बातें बहुत इतिहासकारों ने कीं, लिखा भी पर नागार्जुन के शानदार कलम के मार्फ़त भारत के संक्षिप्ततम जन-इतिहास से रू ब रू हों-
पांच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार
गोली खाकर एक मर गया, बाकी बच गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश निकाला मिला एक को, बाकी बच गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया एक गद्दी से, बाकी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कंधे पर था झंडा
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा !
बचपने की संख्याओं और गिनतियों के सम्मोहक संसार से बावस्ता कराती यह कविता कौतूहल और जिज्ञासा के हमारे आदिम मनोभाव से खेलती है, उसी को अपनी ज़मीन के बतौर इस्तेमाल करती है। यह खासा मुश्किल काम है किसी कवि के लिए कि वह लगभग प्रतीक में बदल गए रूप का इस्तेमाल नए कथ्य के लिए करे। यहां रूप का पारंपरिक अर्थ नए अर्थ पर भारी पड़ सकता है और कविता आतंरिक असंगति से गड़बड़ा सकती है। पर यही तो कवियों को लुभाता भी है। बचपने की लय और तुक में जन-इतिहास भरने की दिलचस्प ललक में नागार्जुन यहां हाज़िर हैं। इस लय में मौजूद कुतूहल और जिज्ञासा का इस्तेमाल करते और उसे आधुनिक इतिहास की समीक्षा के लिए बरतते हुए। कविता भारतमाता के पांच बलिदानी, लड़ाकू सपूतों के संघर्ष से शुरू होती है। पहले दोनों को क्रमशः हत्या और देश निकाला मिलता है। आज़ादी के लिए लड़ी पुरानी पीढ़ी को नागार्जुन अपनी इस कविता में गौरव से याद करते हैं। भगतसिंह जैसे ढेरों भारतमाता के बेटों को खूंखार दुश्मन के खिलाफ लड़ने के लिए फाँसी और गोली ही मिली। लेकिन जो बाकी बचे, उनको तो उस शहादत का आधार बना हुआ मिला। उन्होंने क्या किया? नागार्जुन ने सीधे देश के विभाजन पर कुछ नहीं लिखा। क्यों नहीं लिखा, इस विषय पर विद्वानों के ढेरों कयास हैं। पर इस कविता की आंतरिक संगति को समझते हुए उस बेटे के बारे में, जो उधर अलग हो गया, पर बार-बार ख्याल अटकता है। क्या यह विभाजन के अलावा और कुछ है? क्या अलग होना और देश निकाला जैसी घटनाओं को विभाजन के दर्द से जोड़ा जा सकता है?[4]
नागार्जुन रचनावली
सात बृहत् खंडों में प्रकाशित नागार्जुन रचनावली है जिसका एक खंड 'यात्री समग्र', जो मैथिली समेत बांग्ला, संस्कृत आदि भाषाओं में लिखित रचनाओं का है। मैथिली कविताओं की अब तक प्रकाशित यात्री जी की दोनों पुस्तकें क्रमशः ‘चित्रा’ और ‘पत्राहीन नग्न गाछ’[5] समेत उनकी समस्त छुटफुट मैथिली कविताओं के संग्रह हैं।[2]
सम्मान और पुरस्कार
नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार से, उनकी ऐतिहासिक मैथिली रचना 'पत्रहीन नग्न गाछ' के लिए 1969 में सम्मानित गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में भी नामांकित कर सम्मानित किया था।
साहित्य में स्थान
'युगधारा', खिचडी़', 'विप्लव देखा हमने', 'पत्रहीन नग्न गाछ', 'प्यासी पथराई आँखें', इस गुब्बारे की छाया में', 'सतरंगे पंखोंवाली', 'मैं मिलिट्री का बूढा़ घोड़ा' जैसी रचनाओं से आम जनता में चेतना फैलाने वाले नागार्जुन के साहित्य पर विमर्श का सारांश था कि बाबा नागार्जुन जनकवि थे और वे अपनी कविताओं में आम लोगों के दर्द को बयाँ करते थे। विचारक हॉब्सबाम ने इस सदी को अतिवादों की सदी कहा है। उन्होंने कहा कि नागार्जुन का व्यक्तित्व बीसवीं शताब्दी की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं से निर्मित हुआ था। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से शोषणमुक्त समाज या यों कहें कि समतामूलक समाज निर्माण के लिए प्रयासरत थे। उनकी विचारधारा यथार्थ जीवन के अन्तर्विरोधों को समझने में मदद करती है। वर्ष 1911 इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि उसी वर्ष शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, फैज एवं नागार्जुन पैदा हुए। उनके संघर्ष, क्रियाकलापों और उपलब्धियों के कारण बीसवीं सदी महत्वपूर्ण बनी। इन्होंने ग़रीबों के बारे में, जन्म देने वाली माँ के बारे में, मज़दूरों के बारे में लिखा। लोकभाषा के विराट उत्सव में वे गए और काव्य भाषा अर्जित की। लोकभाषा के संपर्क में रहने के कारण इनकी कविताएँ औरों से अलग है। सुप्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने नागार्जुन की रचनाओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनकी कविताओं में आज़ादी की लड़ाई की अंतर्वस्तु शामिल है। नागार्जुन ने कविताओं के जरिए कई लड़ाइयाँ लड़ीं। वे एक कवि के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु नए भारत के निर्माता के रूप में दिखाई देते हैं।[6]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नागार्जुन (हिंदी) काव्यांचल। अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 नागार्जुन/परिचय (हिंदी) गद्यकोश। अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2013।
- ↑ नागार्जुन की कविताएं (हिंदी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 1 जुलाई, 2013।
- ↑ मृत्युंजय। शताब्दी स्मरण : नागार्जुन (हिंदी) शबद (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 25 जनवरी, 2015।
- ↑ साहित्य अकादमी पुरस्कृत
- ↑ नागार्जुन की जन्मशती पर समारोह संपन्न (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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