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07:45, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
अज्ञान अर्थात् "वस्तु के ज्ञान का अभाव"। न्याय दर्शन में अज्ञान आत्मा का धर्म माना गया है। सौतांत्रिक वस्तु के ऊपर ज्ञानाकार के आरोपण को अज्ञान कहते हैं। माध्यमिक दर्शन में ज्ञान मात्र अज्ञानजनित है।
प्रकार
- अज्ञान दो प्रकार का हो सकता है-
- वस्तु के ज्ञान का अत्यंत अभाव, जैसे- सामने रखी वस्तु को न देखना।
- वस्तु के वास्तविक स्वरूप के स्थान पर दूसरी वस्तु का ज्ञान।
प्रथम अभावात्मक और दूसरा भावात्मक ज्ञान है। इंद्रियदोष, प्रकाशादि उपकरण, अनवधानता आदि के कारण अज्ञान उत्पन्न होता है।[1]
आत्मा का धर्म
न्याय दर्शन में अज्ञान आत्मा का धर्म माना गया है। सौतांत्रिक वस्तु के ऊपर ज्ञानाकार के आरोपण को अज्ञान कहते हैं। माध्यमिक दर्शन में ज्ञान मात्र अज्ञानजनित है। भावात्मक अज्ञान सत्य नहीं है, क्योंकि उसका बोध हो जाता है। यह असत्य नहीं भी है, क्योंकि रज्जु में सर्पादि ज्ञान से सत्य भय उत्पन्न होता है। अत: वेदांत में अज्ञान अनिर्वचनीय कहा गया है।
सृष्टि का आदि कारण
सांसारिक जीवन के अज्ञान के अतिरिक्त भारतीय दर्शन में अज्ञान को सृष्टि का आदि कारण भी माना गया है। यह अज्ञान प्रपंच का मूल कारण है। उपनिषदों में प्रपंच को इंद्र की माया का नाना रूप माना गया है। माया के आवरण को भेदकर आत्मा या ब्रह्म का सद्ज्ञान प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है।
बौद्ध दर्शन में भी अविद्या अथवा अज्ञान से प्रतीत्य समुत्पन्न संसार की उत्पत्ति बतलाई गई है। अद्वैत-वेदांत में अज्ञान को आत्मा के प्रकाश का बाधक माना गया है। यह अज्ञान जान-बूझकर नहीं उत्पन्न होता, अपितु बुद्धि का स्वाभाविक रूप है। दिक्, काल और कारण की सीमा में संचरण करने वाली बुद्धि अज्ञानजनित है, अत बुद्धि के द्वारा उत्पन्न ज्ञान वस्तुत अज्ञान ही है। इस दृष्टि से अज्ञान न केवल वैयक्तिक सत्ता है, अपितु यह एक व्यक्ति निरपेक्ष शक्ति है, जो नामरूपात्मक जगत् तथा सुख-दु:खादि प्रपंच को उत्पन्न करती है। बुद्धि से परे होकर तत्साक्षात्कार करने पर इस अज्ञान का विनाश संभव है।[1]
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