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'''भारतीभूषण''' अर्जुनदास केडिया द्वारा लिखित एक अलंकार ग्रंथ है। इसका प्रकाशन [[1930]] ई. में 'भारतीभूषण कार्यालय', [[बनारस]] से हुआ था।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= डॉ. धीरेंद्र वर्मा|पृष्ठ संख्या=407|url=}}</ref> | '''भारतीभूषण''' [[अर्जुनदास केडिया]] द्वारा लिखित एक अलंकार ग्रंथ है। इसका प्रकाशन [[1930]] ई. में 'भारतीभूषण कार्यालय', [[बनारस]] से हुआ था।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= डॉ. धीरेंद्र वर्मा|पृष्ठ संख्या=407|url=}}</ref> | ||
*विकसित और परिष्कृत [[हिन्दी]] गद्य में अलंकारों का सम्यक विवेचन न होना इस ग्रंथ के लेखक के लिए प्रधान प्रेरणा रही है। | *विकसित और परिष्कृत [[हिन्दी]] गद्य में अलंकारों का सम्यक विवेचन न होना इस ग्रंथ के लेखक के लिए प्रधान प्रेरणा रही है। | ||
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10:10, 5 मई 2015 के समय का अवतरण
भारतीभूषण अर्जुनदास केडिया द्वारा लिखित एक अलंकार ग्रंथ है। इसका प्रकाशन 1930 ई. में 'भारतीभूषण कार्यालय', बनारस से हुआ था।[1]
- विकसित और परिष्कृत हिन्दी गद्य में अलंकारों का सम्यक विवेचन न होना इस ग्रंथ के लेखक के लिए प्रधान प्रेरणा रही है।
- विषय की मौलिक विवेचना के प्रयत्न ने पुस्तक को गम्भीरता प्रदान की है। यद्यपि यह अवश्य है कि इसकी विवेचना-शैली प्राचीन परिपाटी की लीक नहीं छोड़ पायी है।
- जिन अलंकारों के कई भेद हैं, उनके मूल लक्षण इस प्रकार दिये गये हैं कि वे सब पर घटित हो सकें।[1]
- 'भारतीभूषण' में लेखक ने बड़े परिश्रम से अलंकारों के उदाहरण या तो स्वरचित दिये हैं या अत्यंत परिश्रम से प्राचीन पुस्तकों से खोज करके रखे हैं।
- लेखक ने उदाहरण के लिए किसी संस्कृत पुस्तक का अनुवाद नहीं किया है। एक-एक अलंकार के कई-कई उदाहरण दिये हैं।
- 750 उदाहरणों में से 375 स्वयं लेखक द्वारा रचित हैं, अन्य उदाहरण 125 अन्य कवियों के लिये गये हैं।
- 8 शब्दालंकारों[2] और 100 अर्थालंकारों का विवेचन किया गया है।
- अर्जुनदास केडिया ने सूचना और टिप्पणियों के रूप में बीच-बीच में अलंकारों के सम्बन्ध में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ दी हैं, जिससे ग्रंथ की गम्भीरता प्रमाणित होती है।
- अनेक प्राचीन अलंकारशास्त्रियों के[3] विवेचन का प्रभाव तो पुस्तक में स्पष्ट है ही, किंतु प्रस्तुत कृति की विशेषता, परिष्कृत गद्य शैली, मौलिक उदाहरण और कहीं-कहीं स्वतंत्र रूप से अलंकार चिंतन में अधिक है।[1]
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