"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 24-32": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 24-32 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 24-32 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
तब उन्हीं में से एक ने | तब उन्हीं में से एक ने कहा - ‘यदि हम लोग इसके मुँह में घुस जायँ, तो क्या हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी [[बकासुर]] के समान नष्ट हो जायगा। हमारा [[कृष्ण|कन्हैया]] इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर को मारने वाले श्रीकृष्ण का सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुर के मुँह में घुस गये। उन अनजान बच्चों की आपस में हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’ | ||
[[परीक्षित]]! भगवान श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अब अपने सखा ग्वालबालों को उसके मुँह में जाने से बचा लें। भगवान इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ों के साथ उस असुर के पेट में चले गये। परन्तु अघासुर ने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण था कि अघासुर अपने बकासुर और बहिन पूतना के वध की याद करके इस बात की बाट देख रहा था कि उनको मारने वाले श्रीकृष्ण भी मुँह में आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ। | |||
भगवान श्रीकृष्ण सबको अभय देने वाले हैं। जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल - जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ - मेरे हाथ से निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आग में गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्यु रूप अघासुर की जठराग्नि के ग्रास बन गये, तब दैव की इस विचित्र लीला पर भगवान को बड़ा विस्मय हुआ उनका हृदय दया से द्रवित हो गया। | |||
वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्ट की मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकों की हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’ [[परीक्षित]]! भगवान श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान - सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उसके लिये उह उपाय जानना कोई कठिन न था। | |||
वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँह में घुस गये। उस समय बादलों में छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुर के हितैषी [[कंस]] आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे। अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी दाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्ण ने देवताओं की ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गले में अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया। इसके बाद भगवान ने अपने शरीर को इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला रूँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा। सांस रुककर सारे शरीर में भर गयी और अन्त में उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये। उसी मार्ग से प्राणों के साथ उसकी इन्द्रियाँ भी शरीर से बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान मुकुन्द ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालों को ज़िला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुर के मुँह के बाहर निकल आये। | |||
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10:47, 5 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
दशम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः(12) (पूर्वार्ध)
तब उन्हीं में से एक ने कहा - ‘यदि हम लोग इसके मुँह में घुस जायँ, तो क्या हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा। हमारा कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर को मारने वाले श्रीकृष्ण का सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुर के मुँह में घुस गये। उन अनजान बच्चों की आपस में हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’
परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अब अपने सखा ग्वालबालों को उसके मुँह में जाने से बचा लें। भगवान इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ों के साथ उस असुर के पेट में चले गये। परन्तु अघासुर ने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण था कि अघासुर अपने बकासुर और बहिन पूतना के वध की याद करके इस बात की बाट देख रहा था कि उनको मारने वाले श्रीकृष्ण भी मुँह में आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ।
भगवान श्रीकृष्ण सबको अभय देने वाले हैं। जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल - जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ - मेरे हाथ से निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आग में गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्यु रूप अघासुर की जठराग्नि के ग्रास बन गये, तब दैव की इस विचित्र लीला पर भगवान को बड़ा विस्मय हुआ उनका हृदय दया से द्रवित हो गया।
वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्ट की मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकों की हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’ परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान - सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उसके लिये उह उपाय जानना कोई कठिन न था।
वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँह में घुस गये। उस समय बादलों में छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे। अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी दाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्ण ने देवताओं की ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गले में अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया। इसके बाद भगवान ने अपने शरीर को इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला रूँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा। सांस रुककर सारे शरीर में भर गयी और अन्त में उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये। उसी मार्ग से प्राणों के साथ उसकी इन्द्रियाँ भी शरीर से बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान मुकुन्द ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालों को ज़िला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुर के मुँह के बाहर निकल आये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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