"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 53-67": अवतरणों में अंतर

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राजन्! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा । उस कबूतर के जोड़े के ह्रदय में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्म में इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि-से-दृष्टि, अंग-से-अंग और बुद्धि-से-बुद्धि को बाँध रखा था ।
राजन्! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा । उस कबूतर के जोड़े के हृदय में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्म में इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि-से-दृष्टि, अंग-से-अंग और बुद्धि-से-बुद्धि को बाँध रखा था ।
उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे । राजन् कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएँ पूर्ण करती । समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये । भगवान  की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैर वाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अंग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे । अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन—सुनकर आनन्द मग्न हो जाते ।
उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे । राजन् कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएँ पूर्ण करती । समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये । भगवान  की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैर वाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अंग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे । अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन—सुनकर आनन्द मग्न हो जाते ।
बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ-बाप का सपर्श करते, कुजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बाप के पास दौड़ आते तब कबूतर-कबूतरी आनन्दमग्न हो जाते । राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर-कबूतरी भगवान  की माया से मोहित हो रहे थे। उनका ह्रदय एक-दूसरे के स्नेह बन्धन से बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनियां, लोक-परलोक की याद ही न आती । एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। क्योंकि अब उन कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। वे चारे के लिये चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे । इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया । कबूतर-कबूतरी बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये । कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हे बच्चे उसके ह्रदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी ।
बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ-बाप का सपर्श करते, कुजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बाप के पास दौड़ आते तब कबूतर-कबूतरी आनन्दमग्न हो जाते । राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर-कबूतरी भगवान  की माया से मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरे के स्नेह बन्धन से बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनियां, लोक-परलोक की याद ही न आती । एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। क्योंकि अब उन कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। वे चारे के लिये चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे । इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया । कबूतर-कबूतरी बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये । कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हे बच्चे उसके हृदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी ।
भगवान  की माया से उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुई थी; अपने बच्चों को जाल में फँसा देखकर उसे अपने शरीर की सुध=बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी । जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी ।
भगवान  की माया से उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुई थी; अपने बच्चों को जाल में फँसा देखकर उसे अपने शरीर की सुध=बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी । जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी ।



09:53, 24 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः (7)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः श्लोक 53-67 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा । उस कबूतर के जोड़े के हृदय में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्म में इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि-से-दृष्टि, अंग-से-अंग और बुद्धि-से-बुद्धि को बाँध रखा था । उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे । राजन् कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएँ पूर्ण करती । समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये । भगवान की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैर वाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अंग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे । अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन—सुनकर आनन्द मग्न हो जाते । बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ-बाप का सपर्श करते, कुजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बाप के पास दौड़ आते तब कबूतर-कबूतरी आनन्दमग्न हो जाते । राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर-कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरे के स्नेह बन्धन से बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनियां, लोक-परलोक की याद ही न आती । एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। क्योंकि अब उन कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। वे चारे के लिये चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे । इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया । कबूतर-कबूतरी बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये । कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हे बच्चे उसके हृदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी । भगवान की माया से उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुई थी; अपने बच्चों को जाल में फँसा देखकर उसे अपने शरीर की सुध=बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी । जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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