"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-40": अवतरणों में अंतर
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) ('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">14 भक्ति-पावनत्व </h4> <poem style="text-align...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (1 अवतरण) |
(कोई अंतर नहीं)
|
06:53, 13 अगस्त 2015 के समय का अवतरण
14 भक्ति-पावनत्व
5. निष्किचना मय्यनुरक्त चेतसः
शांता महांतोऽखिल-जीव-वत्सलाः।
कामैरनालब्ध-धियोजुषन्ति यत्
तन्नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम।।
अर्थः
किसी भी उपाधि अर्थात् संग्रह से रहित, मुझमें अनुरक्त-चित्त, शांत, विशाल हृदय, सब प्राणियों पर प्रेम करने वाले, किसी भी प्रकार की वासना से अस्पृष्ट-बुद्धि मेरे भक्त जिस निरपेक्ष सुख का अनुभव करते हैं, वह दूसरों की समझ में नहीं आ सकता।
6. बाध्यमानोऽपि मद्भभक्तो विषयैरजितेंद्रियः।
प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर् नाभिभूयते।।
अर्थः
मेरा जो भक्त इंद्रियों पर विजय नहीं पा सका है और इसी कारण विषय जिसे बार-बार परेशान करते हैं, ( उसकी ) मुझमें दृढ़ भक्ति होने पर साधारणत: विषय उसे नहीं सताते।
7. भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि संभवात्।।
अर्थः
सज्जनों का अत्यंत प्रिय और उनकी एकमात्र आत्मा में केवल श्रद्धापूर्ण एकनिष्ठ भक्ति से ही वश होता हूँ। मेरी अनन्यभक्ति चांडालों को भी उनके हीन जन्म-कुल से पावन कर देती है।
8. कथ विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना।
विनाऽऽनंदाश्रु-कलया शुद्धयेद् भक्त्या विनाऽऽशयः।।
अर्थः
जब तक शरीर पुलकित नहीं हो उठता, हृदय गद्गद नहीं हो जाता, नेत्रों से आनंदत के अश्रु छलकने नहीं लगते, भक्ति नहीं होती, तब तक ( मलिन) हृदय शुद्ध कैसे होगा ?
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-