"ग़ालिब की गिरफ़्तारी": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
('thumb|righ|180|ग़ालिब| सन 1845 के लगभग आगरा से बद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
छो (Text replacement - " आईने " to " आइने ")
 
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[चित्र:Mirza-Ghalib.gif|thumb|righ|180|ग़ालिब|]]
{{ग़ालिब विषय सूची}}
सन 1845 के लगभग [[आगरा]] से बदलकर एक नया कोतवाल फ़ैजुलहसन आया। इसको काव्य से कोई अनुराग नहीं था। इसीलिए ग़ालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके लिए नहीं हो सकती थी। फिर वह एक सख़्त आदमी भी था। आते ही उसने सख़्ती से जाँच करनी शुरू की। कई दोस्तों ने मिर्ज़ा को चेतावनी भी दी कि जुआ बन्द कर दो, पर वह लोभ एवं अंहकार से अन्धे हो रहे थे। उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। वह समझते थे कि मेरे विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं हो सकती। एक दिन कोतवाल ने छापा मारा, और लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे पर मिर्ज़ा पकड़ लिए गए। मिर्ज़ा की गिरफ़्तारी से पूर्व जौहरी पकड़े गए थे। पर वह रुपया ख़र्च करके बच गए थे। मुक़दमें तक नौबत नहीं आई थी। मिर्ज़ा के पास में रुपया कहाँ था। हाँ, मित्र थे। उन्होंने बादशाह तक से सिफ़ारिश कराई, किन्तु कुछ नतीजा नहीं निकला। जब लोगों को मिर्ज़ा की रिहाई की तरफ़ से निराशा हो गई, तब न केवल दोस्तों ने और साथ उठने-बैठन वालों ने बल्कि अंग्रेज़ों ने भी एक दम आँखें फेर लीं। वे इस बात पर लज्जा का अनुभव करने लगे कि मिर्ज़ा के मित्र या सम्बन्धी कहे जायें।
[[चित्र:Mirza-Ghalib.gif|thumb|righ|180|ग़ालिब|]]  
[[ग़ालिब]] [[उर्दू]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के प्रख्यात [[कवि]] तथा महान् शायर थे। ग़ालिब के जीवन की दश्वारियाँ बढ़ती गईं, उधर बेकारी, शेरोसख़ुन के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। स्वभावत: निठल्लेपन की घड़ियाँ दूभर होने लगीं। चिन्ताओं से पलायन में इनकी सहायक एक तो थी शराब, अब जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक़्त कटता था। कभी-कभी बाज़ी बदकर खेलते थे। सिर्फ़ सरकारी वृत्ति और क़िले के पचास रुपये थे। पर आदतें रईसों जैसी थीं। यही कारण था कि ये सदा ऋणभार से दबे रहते थे। सन 1845 के लगभग [[आगरा]] से बदलकर एक नया कोतवाल फ़ैजुलहसन आया। इसको काव्य से कोई अनुराग नहीं था। इसीलिए ग़ालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके लिए नहीं हो सकती थी। फिर वह एक सख़्त आदमी भी था। आते ही उसने सख़्ती से जाँच करनी शुरू की। कई दोस्तों ने मिर्ज़ा को चेतावनी भी दी कि जुआ बन्द कर दो, पर वह लोभ एवं अंहकार से अन्धे हो रहे थे। उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। <br />
वह समझते थे कि मेरे विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं हो सकती। एक दिन कोतवाल ने छापा मारा, और लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे पर मिर्ज़ा पकड़ लिए गए। मिर्ज़ा की गिरफ़्तारी से पूर्व जौहरी पकड़े गए थे। पर वह रुपया ख़र्च करके बच गए थे। मुक़दमें तक नौबत नहीं आई थी। मिर्ज़ा के पास में रुपया कहाँ था। हाँ, मित्र थे। उन्होंने बादशाह तक से सिफ़ारिश कराई, किन्तु कुछ नतीजा नहीं निकला। जब लोगों को मिर्ज़ा की रिहाई की तरफ़ से निराशा हो गई, तब न केवल दोस्तों ने और साथ उठने-बैठन वालों ने बल्कि अंग्रेज़ों ने भी एक दम आँखें फेर लीं। वे इस बात पर लज्जा का अनुभव करने लगे कि मिर्ज़ा के मित्र या सम्बन्धी कहे जायें।
==सज़ा एवं रिहाई==
==सज़ा एवं रिहाई==
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के मित्रों में केवल नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ ‘शोफ़्ता’ ने हर क़दम पर इनका साथ दिया। ख़बर मिलते ही वह एक-एक हाकिम से जाकर मिले और मिर्ज़ा की रिहाई की कोशिश की। फिर जब मुक़दमा चला और बाद में उसकी अपील की गई तब भी उसका तमाम ख़र्च ख़ुद ही उठाया। जब तक मिर्ज़ा क़ैद रहे हर दूसरे दिन जाकर उनसे मिलते रहे। इस मामले में मिर्ज़ा का दोष कुछ भी नहीं था। मित्रों की चेतावनी के बावजूद वह नहीं सम्भले। इसके पूर्व भी एक बार इस जुर्म में मिर्ज़ा को 100 रुपये जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार मास की क़ैद हुई थी और यह चन्द दिनों के बाद जुर्माना अदा करने पर छूट गए थे। पर इस पर भी वह सावधान नहीं हुए। दोबारा 1847 में जुए के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। गिरफ़्तारी की घटना भी दिलचस्प है। कोतवाल ने बड़ी होशियारी से छापा मारा। मकान घेर लेने के बाद इत्तिला करवाई कि जनानी सवारियाँ आई हैं। इस कारण किसी ने आपत्ति नहीं की। अन्दर जाने पर भेद खुला। लोगों ने विरोध किया। इस पर पुलिस ने भी सख़्ती की। मिर्ज़ा जुआख़ाना चलाने के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। मुक़दमा कुँवर वज़ीर अलीख़ाँ मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। वहाँ सज़ा हुई और अपील में भी बनी रही। 6 माह कठोर कारावास और दो सौ जुर्माने का दण्ड मिला। जुर्माना न देने पर 6 मास और। जुर्माने के अलावा 50 अधिक देने पर श्रम से मुक्ति।<ref>‘दिल्ली का आख़िरी साँस’ पृष्ठ 174 तथा अहरुनुल अख़बार बम्बई 2 जुलाई, 1847।</ref> जेल में खाना-कपड़ा घर से आता था। जो चाहे जब मिल सकता था। फिर भी इस सज़ा और क़ैद से मिर्ज़ा के अहम को गहरी चोट पहुँची। ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली ने इनका एक ख़त उदधृत किया है, जिससे इनकी मनोदशा का पता लगता है। इसमें वह लिखते हैं-<br />
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के मित्रों में केवल नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ ‘शोफ़्ता’ ने हर क़दम पर इनका साथ दिया। ख़बर मिलते ही वह एक-एक हाकिम से जाकर मिले और मिर्ज़ा की रिहाई की कोशिश की। फिर जब मुक़दमा चला और बाद में उसकी अपील की गई तब भी उसका तमाम ख़र्च ख़ुद ही उठाया। जब तक मिर्ज़ा क़ैद रहे हर दूसरे दिन जाकर उनसे मिलते रहे। इस मामले में मिर्ज़ा का दोष कुछ भी नहीं था। मित्रों की चेतावनी के बावजूद वह नहीं सम्भले। इसके पूर्व भी एक बार इस जुर्म में मिर्ज़ा को 100 रुपये जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार मास की क़ैद हुई थी और यह चन्द दिनों के बाद जुर्माना अदा करने पर छूट गए थे। पर इस पर भी वह सावधान नहीं हुए। दोबारा 1847 में जुए के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। गिरफ़्तारी की घटना भी दिलचस्प है। <br />
<blockquote>"मैं हर काम को ख़ुदा की तरफ़ से समझता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं जा सकता। जो कुछ गुज़रा उसके नंग<ref>बदनामी, लज्जा</ref> से आज़ाद और जो कुछ गुज़रने वाला है, उस पर राज़ी हूँ। मगर आरज़ू<ref>इच्छा, आशा, उम्मीद</ref> करना आईने अबूदियत<ref>उपासना, सिद्धान्त</ref> के ख़िलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरज़ू है कि अब दुनिया में न रहूँ और रहूँ तो हिन्दुस्तान में न रहूँ। रूम है, मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। यह भी जाने दो; ख़ुद काबा आज़ादों की जाएपनाह<ref>आश्रयस्थान</ref> आस्तनए रहमतुल आलमीन<ref>संसार पर दया करने वाले (ईश्वर) का स्थान</ref> दिलदारों की तकियागाह<ref>रसिकों का आश्रय</ref> देखिए यह वक़्त कब आयेगा कि दरमाँदगी<ref>हीनता, बेकारी, विवशता</ref> की क़ैद से, जो इस गुज़री हुई क़ैद से ज़्यादा जानफर्सा<ref>प्राणलेवा</ref> है, नजात<ref>मुक्ति</ref> पाऊँ और बग़ैर उसके कोई मंज़िले मक़सद क़रार दूँ, सरब सेहरा निकल जाऊँ। यह है जो मुझ पर गुज़रा और यह है जिसका मैं आरज़ूमन्द हूँ।"</blockquote>
कोतवाल ने बड़ी होशियारी से छापा मारा। मकान घेर लेने के बाद इत्तिला करवाई कि जनानी सवारियाँ आई हैं। इस कारण किसी ने आपत्ति नहीं की। अन्दर जाने पर भेद खुला। लोगों ने विरोध किया। इस पर पुलिस ने भी सख़्ती की। मिर्ज़ा जुआख़ाना चलाने के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। मुक़दमा कुँवर वज़ीर अलीख़ाँ मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। वहाँ सज़ा हुई और अपील में भी बनी रही। 6 माह कठोर कारावास और दो सौ जुर्माने का दण्ड मिला। जुर्माना न देने पर 6 मास और। जुर्माने के अलावा 50 अधिक देने पर श्रम से मुक्ति।<ref>‘दिल्ली का आख़िरी साँस’ पृष्ठ 174 तथा अहरुनुल अख़बार बम्बई 2 जुलाई, 1847।</ref> जेल में खाना-कपड़ा घर से आता था। जो चाहे जब मिल सकता था। फिर भी इस सज़ा और क़ैद से मिर्ज़ा के अहम को गहरी चोट पहुँची। ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली ने इनका एक ख़त उदधृत किया है, जिससे इनकी मनोदशा का पता लगता है। इसमें वह लिखते हैं-<br />
<blockquote>"मैं हर काम को ख़ुदा की तरफ़ से समझता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं जा सकता। जो कुछ गुज़रा उसके नंग<ref>बदनामी, लज्जा</ref> से आज़ाद और जो कुछ गुज़रने वाला है, उस पर राज़ी हूँ। मगर आरज़ू<ref>इच्छा, आशा, उम्मीद</ref> करना आइने अबूदियत<ref>उपासना, सिद्धान्त</ref> के ख़िलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरज़ू है कि अब दुनिया में न रहूँ और रहूँ तो हिन्दुस्तान में न रहूँ। रूम है, मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। यह भी जाने दो; ख़ुद काबा आज़ादों की जाएपनाह<ref>आश्रयस्थान</ref> आस्तनए रहमतुल आलमीन<ref>संसार पर दया करने वाले (ईश्वर) का स्थान</ref> दिलदारों की तकियागाह<ref>रसिकों का आश्रय</ref> देखिए यह वक़्त कब आयेगा कि दरमाँदगी<ref>हीनता, बेकारी, विवशता</ref> की क़ैद से, जो इस गुज़री हुई क़ैद से ज़्यादा जानफर्सा<ref>प्राणलेवा</ref> है, नजात<ref>मुक्ति</ref> पाऊँ और बग़ैर उसके कोई मंज़िले मक़सद क़रार दूँ, सरब सेहरा निकल जाऊँ। यह है जो मुझ पर गुज़रा और यह है जिसका मैं आरज़ूमन्द हूँ।"</blockquote>


तीन मास बाद ही दिल्ली के सिविल सर्जन डॉक्टर रास की सिफ़ारिश पर मिर्ज़ा छोड़ दिए गए।
तीन मास बाद ही दिल्ली के सिविल सर्जन डॉक्टर रास की सिफ़ारिश पर मिर्ज़ा छोड़ दिए गए।
पंक्ति 20: पंक्ति 23:
‘ग़ालिब’ दरबार में कभी-कभी जाया करते थे और उनकी आव-भगत भी होती थी, पर उन्हें वह दर्जा प्राप्त नहीं था, जो कि ज़ौंक़ को प्राप्त था। ज़ौंक़ ज़फ़र के उस्ताद थे। स्वभावत: उनकी इज़्ज़त ज़्यादा थी। उनके साथ ग़ालिब की नोंक-झोंक चलती ही रहती थी।
‘ग़ालिब’ दरबार में कभी-कभी जाया करते थे और उनकी आव-भगत भी होती थी, पर उन्हें वह दर्जा प्राप्त नहीं था, जो कि ज़ौंक़ को प्राप्त था। ज़ौंक़ ज़फ़र के उस्ताद थे। स्वभावत: उनकी इज़्ज़त ज़्यादा थी। उनके साथ ग़ालिब की नोंक-झोंक चलती ही रहती थी।
बहरहाल ज़ौंक़ जब तक रहे, दरबार में ग़ालिब उभर नहीं पाये। 16 अक्टूबर, 1854 को ज़ौक़ की मृत्यु हो गई। ज़ौक़ के बाद बादशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब से इस्लाह लेनी शुरू कर दी। ज़फ़र के सबसे छोटे बेटे शहज़ादे मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान ने भी इनकी शागिर्दी इख़्तियार की। सम्भवत: इसी साल नवाब वाजिद अलीशाह अवध नरेश की ओर से भी पाँच सौ सालाना मिलने लगा। इससे इनकी स्थिति काफ़ी हद तक सुध गई। पर यह अल्पकालिक ही रही, क्योंकि दो ही साल बाद 10 जुलाई, 1856 को मिर्ज़ा फख़्रू की मृत्यु हो गई। उधर 11 फ़रवरी, 1856 को अंग्रेज़ों ने वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतारकर कलकत्ता भेज दिया, जहाँ वह मटियाबूर्ज़ में नज़रबन्द कर दिए गए। मई 1857 में ग़दर हो गया और मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान हुमायूँ के मक़बरे में गिरफ़्तार कर लिए गए और दिल्ली के बाहर मेजर हडसन की गोली के शिकार हुए। ज़फ़र पर बाग़ियों की मदद करने के जुर्म में मुक़दमा चला और वह अक्टूबर 1858 में रंगून (अब [[यांगून]]) भेज दिए गए, जहाँ 7 नवम्बर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।
बहरहाल ज़ौंक़ जब तक रहे, दरबार में ग़ालिब उभर नहीं पाये। 16 अक्टूबर, 1854 को ज़ौक़ की मृत्यु हो गई। ज़ौक़ के बाद बादशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब से इस्लाह लेनी शुरू कर दी। ज़फ़र के सबसे छोटे बेटे शहज़ादे मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान ने भी इनकी शागिर्दी इख़्तियार की। सम्भवत: इसी साल नवाब वाजिद अलीशाह अवध नरेश की ओर से भी पाँच सौ सालाना मिलने लगा। इससे इनकी स्थिति काफ़ी हद तक सुध गई। पर यह अल्पकालिक ही रही, क्योंकि दो ही साल बाद 10 जुलाई, 1856 को मिर्ज़ा फख़्रू की मृत्यु हो गई। उधर 11 फ़रवरी, 1856 को अंग्रेज़ों ने वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतारकर कलकत्ता भेज दिया, जहाँ वह मटियाबूर्ज़ में नज़रबन्द कर दिए गए। मई 1857 में ग़दर हो गया और मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान हुमायूँ के मक़बरे में गिरफ़्तार कर लिए गए और दिल्ली के बाहर मेजर हडसन की गोली के शिकार हुए। ज़फ़र पर बाग़ियों की मदद करने के जुर्म में मुक़दमा चला और वह अक्टूबर 1858 में रंगून (अब [[यांगून]]) भेज दिए गए, जहाँ 7 नवम्बर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।
{{लेख क्रम2 |पिछला=ग़ालिब-आग़ामीर मुलाक़ात|पिछला शीर्षक=ग़ालिब-आग़ामीर मुलाक़ात|अगला शीर्षक=ग़ालिब का अंतिम समय|अगला=ग़ालिब का अंतिम समय}}


{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक3 |पूर्णता= |शोध=}}
{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक3 |पूर्णता= |शोध=}}
पंक्ति 38: पंक्ति 43:
*[http://www.milansagar.com/kobi-mirzaghalib.html मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://www.milansagar.com/kobi-mirzaghalib.html मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/urdu/galibletters/ ग़ालिब के ख़त]
*[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/urdu/galibletters/ ग़ालिब के ख़त]
*[http://www.bbc.co.uk/hindi/specials/125_ghalib_pix/index.shtml महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://www.bbc.co.uk/hindi/specials/125_ghalib_pix/index.shtml महान् शायर मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://gunaahgar.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html मिर्ज़ा ग़ालिब हाज़िर हो]
*[http://gunaahgar.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html मिर्ज़ा ग़ालिब हाज़िर हो]
*[http://mirzagalibatribute.blogspot.com/ मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://mirzagalibatribute.blogspot.com/ मिर्ज़ा ग़ालिब]

14:09, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

ग़ालिब विषय सूची

ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। ग़ालिब के जीवन की दश्वारियाँ बढ़ती गईं, उधर बेकारी, शेरोसख़ुन के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। स्वभावत: निठल्लेपन की घड़ियाँ दूभर होने लगीं। चिन्ताओं से पलायन में इनकी सहायक एक तो थी शराब, अब जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक़्त कटता था। कभी-कभी बाज़ी बदकर खेलते थे। सिर्फ़ सरकारी वृत्ति और क़िले के पचास रुपये थे। पर आदतें रईसों जैसी थीं। यही कारण था कि ये सदा ऋणभार से दबे रहते थे। सन 1845 के लगभग आगरा से बदलकर एक नया कोतवाल फ़ैजुलहसन आया। इसको काव्य से कोई अनुराग नहीं था। इसीलिए ग़ालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके लिए नहीं हो सकती थी। फिर वह एक सख़्त आदमी भी था। आते ही उसने सख़्ती से जाँच करनी शुरू की। कई दोस्तों ने मिर्ज़ा को चेतावनी भी दी कि जुआ बन्द कर दो, पर वह लोभ एवं अंहकार से अन्धे हो रहे थे। उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की।
वह समझते थे कि मेरे विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं हो सकती। एक दिन कोतवाल ने छापा मारा, और लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे पर मिर्ज़ा पकड़ लिए गए। मिर्ज़ा की गिरफ़्तारी से पूर्व जौहरी पकड़े गए थे। पर वह रुपया ख़र्च करके बच गए थे। मुक़दमें तक नौबत नहीं आई थी। मिर्ज़ा के पास में रुपया कहाँ था। हाँ, मित्र थे। उन्होंने बादशाह तक से सिफ़ारिश कराई, किन्तु कुछ नतीजा नहीं निकला। जब लोगों को मिर्ज़ा की रिहाई की तरफ़ से निराशा हो गई, तब न केवल दोस्तों ने और साथ उठने-बैठन वालों ने बल्कि अंग्रेज़ों ने भी एक दम आँखें फेर लीं। वे इस बात पर लज्जा का अनुभव करने लगे कि मिर्ज़ा के मित्र या सम्बन्धी कहे जायें।

सज़ा एवं रिहाई

मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के मित्रों में केवल नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ ‘शोफ़्ता’ ने हर क़दम पर इनका साथ दिया। ख़बर मिलते ही वह एक-एक हाकिम से जाकर मिले और मिर्ज़ा की रिहाई की कोशिश की। फिर जब मुक़दमा चला और बाद में उसकी अपील की गई तब भी उसका तमाम ख़र्च ख़ुद ही उठाया। जब तक मिर्ज़ा क़ैद रहे हर दूसरे दिन जाकर उनसे मिलते रहे। इस मामले में मिर्ज़ा का दोष कुछ भी नहीं था। मित्रों की चेतावनी के बावजूद वह नहीं सम्भले। इसके पूर्व भी एक बार इस जुर्म में मिर्ज़ा को 100 रुपये जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार मास की क़ैद हुई थी और यह चन्द दिनों के बाद जुर्माना अदा करने पर छूट गए थे। पर इस पर भी वह सावधान नहीं हुए। दोबारा 1847 में जुए के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। गिरफ़्तारी की घटना भी दिलचस्प है।
कोतवाल ने बड़ी होशियारी से छापा मारा। मकान घेर लेने के बाद इत्तिला करवाई कि जनानी सवारियाँ आई हैं। इस कारण किसी ने आपत्ति नहीं की। अन्दर जाने पर भेद खुला। लोगों ने विरोध किया। इस पर पुलिस ने भी सख़्ती की। मिर्ज़ा जुआख़ाना चलाने के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। मुक़दमा कुँवर वज़ीर अलीख़ाँ मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। वहाँ सज़ा हुई और अपील में भी बनी रही। 6 माह कठोर कारावास और दो सौ जुर्माने का दण्ड मिला। जुर्माना न देने पर 6 मास और। जुर्माने के अलावा 50 अधिक देने पर श्रम से मुक्ति।[1] जेल में खाना-कपड़ा घर से आता था। जो चाहे जब मिल सकता था। फिर भी इस सज़ा और क़ैद से मिर्ज़ा के अहम को गहरी चोट पहुँची। ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली ने इनका एक ख़त उदधृत किया है, जिससे इनकी मनोदशा का पता लगता है। इसमें वह लिखते हैं-

"मैं हर काम को ख़ुदा की तरफ़ से समझता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं जा सकता। जो कुछ गुज़रा उसके नंग[2] से आज़ाद और जो कुछ गुज़रने वाला है, उस पर राज़ी हूँ। मगर आरज़ू[3] करना आइने अबूदियत[4] के ख़िलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरज़ू है कि अब दुनिया में न रहूँ और रहूँ तो हिन्दुस्तान में न रहूँ। रूम है, मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। यह भी जाने दो; ख़ुद काबा आज़ादों की जाएपनाह[5] आस्तनए रहमतुल आलमीन[6] दिलदारों की तकियागाह[7] देखिए यह वक़्त कब आयेगा कि दरमाँदगी[8] की क़ैद से, जो इस गुज़री हुई क़ैद से ज़्यादा जानफर्सा[9] है, नजात[10] पाऊँ और बग़ैर उसके कोई मंज़िले मक़सद क़रार दूँ, सरब सेहरा निकल जाऊँ। यह है जो मुझ पर गुज़रा और यह है जिसका मैं आरज़ूमन्द हूँ।"

तीन मास बाद ही दिल्ली के सिविल सर्जन डॉक्टर रास की सिफ़ारिश पर मिर्ज़ा छोड़ दिए गए।

बहादुर शाह ज़फ़र

क़िले की नौकरी

संयोगवश क़ैद से छूटने के थोड़े ही दिनों बाद कुछ मित्रों की मध्यस्थता से मिर्ज़ा 'ग़ालिब' का दिल्ली दरबार से सम्बन्ध हो गया। इन दिनों मौलाना नसीरउद्दीन उर्फ़ काले साहब बहादुर ज़फ़र के पीर[11] थे। वह ग़ालिब के मित्रों और शुभ-चिन्तकों में से थे। शाही हकीम एहसानउल्ला ख़ाँ भी मिर्ज़ा के प्रशंसकों में से थे। इन लोगों ने सिफ़ारिश की। बहादुरशाह ने मंज़ूर कर लिया कि मिर्ज़ा तैमूरी वंश का इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखें। 4 जुलाई, 1850 को यह बादशाह के सामने पेश किए गए। बादशाह ज़फ़र ने नजमुद्दौला दबीरुल्मुल्क निज़ाम जंग की उपाधि प्रदान की और 6 पारचे तथा तीन रत्न का ख़िलअत दिया। पचाय रुपये मासिक वृत्ति नियत हुई और मिर्ज़ा क़िले के मुलाज़िम हो गए।[12]

ज़ौक़ से छेड़छाड़

‘ग़ालिब’ दरबार में कभी-कभी जाया करते थे और उनकी आव-भगत भी होती थी, पर उन्हें वह दर्जा प्राप्त नहीं था, जो कि ज़ौंक़ को प्राप्त था। ज़ौंक़ ज़फ़र के उस्ताद थे। स्वभावत: उनकी इज़्ज़त ज़्यादा थी। उनके साथ ग़ालिब की नोंक-झोंक चलती ही रहती थी। बहरहाल ज़ौंक़ जब तक रहे, दरबार में ग़ालिब उभर नहीं पाये। 16 अक्टूबर, 1854 को ज़ौक़ की मृत्यु हो गई। ज़ौक़ के बाद बादशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब से इस्लाह लेनी शुरू कर दी। ज़फ़र के सबसे छोटे बेटे शहज़ादे मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान ने भी इनकी शागिर्दी इख़्तियार की। सम्भवत: इसी साल नवाब वाजिद अलीशाह अवध नरेश की ओर से भी पाँच सौ सालाना मिलने लगा। इससे इनकी स्थिति काफ़ी हद तक सुध गई। पर यह अल्पकालिक ही रही, क्योंकि दो ही साल बाद 10 जुलाई, 1856 को मिर्ज़ा फख़्रू की मृत्यु हो गई। उधर 11 फ़रवरी, 1856 को अंग्रेज़ों ने वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतारकर कलकत्ता भेज दिया, जहाँ वह मटियाबूर्ज़ में नज़रबन्द कर दिए गए। मई 1857 में ग़दर हो गया और मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान हुमायूँ के मक़बरे में गिरफ़्तार कर लिए गए और दिल्ली के बाहर मेजर हडसन की गोली के शिकार हुए। ज़फ़र पर बाग़ियों की मदद करने के जुर्म में मुक़दमा चला और वह अक्टूबर 1858 में रंगून (अब यांगून) भेज दिए गए, जहाँ 7 नवम्बर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।


पीछे जाएँ
पीछे जाएँ
ग़ालिब की गिरफ़्तारी
आगे जाएँ
आगे जाएँ


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘दिल्ली का आख़िरी साँस’ पृष्ठ 174 तथा अहरुनुल अख़बार बम्बई 2 जुलाई, 1847।
  2. बदनामी, लज्जा
  3. इच्छा, आशा, उम्मीद
  4. उपासना, सिद्धान्त
  5. आश्रयस्थान
  6. संसार पर दया करने वाले (ईश्वर) का स्थान
  7. रसिकों का आश्रय
  8. हीनता, बेकारी, विवशता
  9. प्राणलेवा
  10. मुक्ति
  11. ध्रर्मगुरु
  12. उस समय क़िले की परम्परा थी, कि साल में दो बार वेतन मिलता था। एक तो पचास रुपये मासिक, फिर 6-6 महीने में मिलता था। उसका परिणाम यह होता था कि महाजन के सूद में ही काफ़ी रक़म कट जाती थी। ग़ालिब ने पहली छमाही किसी तरह से काटी, पर जनवरी 1851 में दर्ख़ास्त पेश की कि रोज़ाना की ज़रूरतों का क्या करूँ उन्हें इतने दिनों के लिए स्थगित तो नहीं किया जा सकता। फलत: महाजनों से क़र्ज़ लेता हूँ और सूद में तनख़्वाह का काफ़ी हिस्सा निकल जाता है। पहली छमाही के वेतन का एक तिहाई इसी में चला जाता है-

    आपका बन्दा और फिर नंगा।
    आपका नौकर और खाऊँ उधार।
    मेरी तनख़्वाह कीजिए माह बमाह।
    ता न हो मुझको ज़िन्दगी दुश्वार।
    तुम सलामत रहो हज़ार बरस।
    हर बरस के हों दिन पचास हज़ार।

    इस प्रार्थना पत्र के बाद इन्हें वेतन हर मास में मिलने लगा।

बाहरी कड़ियाँ

हिन्दी पाठ कड़ियाँ 
अंग्रेज़ी पाठ कड़ियाँ 
विडियो कड़ियाँ 
ऊपर जायें
ऊपर जायें


संबंधित लेख