"अतिथियज्ञ": अवतरणों में अंतर
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'''अतिथियज्ञ''' का अर्थ है कि, अतिथि का प्रेम और आदर से सत्कार करना, उसे भोजन कराना और सेवा करना। अतिथियज्ञ को 'नृयज्ञ' या 'मनुष्ययज्ञ' भी कहते हैं। अतिथि को पहले भोजन कराने के | '''अतिथियज्ञ''' का अर्थ है कि, अतिथि का प्रेम और आदर से सत्कार करना, उसे भोजन कराना और सेवा करना। अतिथियज्ञ को 'नृयज्ञ' या 'मनुष्ययज्ञ' भी कहते हैं। अतिथि को पहले भोजन कराने के पश्चात् ही गृहस्थ को स्वयं भोजन करना चाहिए। [[महाभारत]]<ref>महाभारत, शांतिपर्व 191/12</ref> में कहा गया है कि, जिस गृहस्थ के घर से अतिथि भूखा-प्यासा और निराश होकर वापस लौट जाता है, उसकी गृहस्थी नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। | ||
==अतिथि का मान-सम्मान करना== | ==अतिथि का मान-सम्मान करना== | ||
[[भारतीय संस्कृति]] में अतिथि को वैश्वानर, [[विष्णु]] एवं [[नारायण]] कहा गया है। उसका प्रेम सहित सत्कार करना, भोजन कराना और मान-सम्मान करना ही 'अतिथियज्ञ' कहलाता है। महाभारत के वनपर्व में अतिथियज्ञ में [[यज्ञ]] कर्ता के लिए 5 प्रकार की दक्षिणा बताई गई है-आतिथ्यकर्ता को अपनी [[आँख]], [[हृदय]], मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन (जाते समय थोड़ी दूर तक जाना) आदि से अतिथि को सम्मान देना चाहिए। अतिथि सत्कार के नियम निम्नलिखित हैं- | [[भारतीय संस्कृति]] में अतिथि को वैश्वानर, [[विष्णु]] एवं [[नारायण]] कहा गया है। उसका प्रेम सहित सत्कार करना, भोजन कराना और मान-सम्मान करना ही 'अतिथियज्ञ' कहलाता है। महाभारत के वनपर्व में अतिथियज्ञ में [[यज्ञ]] कर्ता के लिए 5 प्रकार की दक्षिणा बताई गई है-आतिथ्यकर्ता को अपनी [[आँख]], [[हृदय]], मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन (जाते समय थोड़ी दूर तक जाना) आदि से अतिथि को सम्मान देना चाहिए। अतिथि सत्कार के नियम निम्नलिखित हैं- | ||
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==अन्य तथ्य== | ==अन्य तथ्य== | ||
किसी भी [[यज्ञ]] के उपरांत सबसे पहले अतिथियों को ससम्मान भोजन करना चाहिये। उसके बाद श्रेष्ठ [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को भोजन कराना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिए कि नियमित भोजन करने वाले भी भूखे न रहें। अभाव की स्थिति में मीठी बातों से ही अतिथि को संतुष्ट करना चाहिये। उसे आसन पर बिठाकर ससम्मान [[जल]] ही पिलाया जा सकता है। इस प्रकार किया गया सत्कार अतिथियज्ञ कहलाता है। दोपहर में आए अतिथि से सूर्यास्त के समय आए अतिथि का अधिक महत्व होता है। ऐसे अतिथि को बिना भोजन कराये नहीं जाने देना चाहिए। ऐसे अतिथि के अवगुण तथा क्रोध आदि जैसे स्वभाव को नहीं देखना चाहिए। | किसी भी [[यज्ञ]] के उपरांत सबसे पहले अतिथियों को ससम्मान भोजन करना चाहिये। उसके बाद श्रेष्ठ [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को भोजन कराना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिए कि नियमित भोजन करने वाले भी भूखे न रहें। अभाव की स्थिति में मीठी बातों से ही अतिथि को संतुष्ट करना चाहिये। उसे आसन पर बिठाकर ससम्मान [[जल]] ही पिलाया जा सकता है। इस प्रकार किया गया सत्कार अतिथियज्ञ कहलाता है। दोपहर में आए अतिथि से सूर्यास्त के समय आए अतिथि का अधिक महत्व होता है। ऐसे अतिथि को बिना भोजन कराये नहीं जाने देना चाहिए। ऐसे अतिथि के अवगुण तथा क्रोध आदि जैसे स्वभाव को नहीं देखना चाहिए। | ||
'''अतिथि''' अतिथि के प्रति पूज्य भावना की सत्ता [[वैदिक]] [[आर्य|आर्यों]] में अत्यंत प्राचीन काल से है। [[ऋग्वेद]] में अनेक मंत्रों में अग्नि से अतिथि को उपमा दी गई है। (8।74।3-4)। अतिथि वैश्वानर का रूप माना जाता था (कठ. 1।1।7) इसीलिए जल के द्वारा उसकी शांति करने का आदेश दिया गया है। अतिथिर्नमस्य (अतिथि पूज्य है)- भारतीय धर्म का आधारपीठ है जिसका पल्लवन स्मृति ग्रंथों में बड़े विस्तार से किया गया है। उनमें अतिथि के लिए [[आसन]], अर्थ तथा [[मधुपर्क]] का विधान हुआ है। [[महाभारत]] का कथन है कि जिस पर से अतिथि भग्नमनोरथ होकर लौटता है उसे वह अपना पाप देकर तथा उसका [[पुण्य]] लेकर चला जाता है। अतिथिसत्कार को [[पंच महायज्ञ|पंचमहायज्ञों]] में स्थान दिया गया है। | |||
* [[अग्नि]] और दाशरथी [[राम]] के पौत्र अर्थात् [[कुश]] के पुत्र का नाम भी '''अतिथि''' था। कुशपुत्र अतिथि के विषय में कहा जाता है कि उसने दस हजार वर्षों तक राज्य किया। इनके अतिरिक्त [[शिव]] को भी उक्त [[संज्ञा]] प्राप्त है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=89 |url=}}</ref> | |||
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09:45, 23 मई 2018 के समय का अवतरण
अतिथियज्ञ का अर्थ है कि, अतिथि का प्रेम और आदर से सत्कार करना, उसे भोजन कराना और सेवा करना। अतिथियज्ञ को 'नृयज्ञ' या 'मनुष्ययज्ञ' भी कहते हैं। अतिथि को पहले भोजन कराने के पश्चात् ही गृहस्थ को स्वयं भोजन करना चाहिए। महाभारत[1] में कहा गया है कि, जिस गृहस्थ के घर से अतिथि भूखा-प्यासा और निराश होकर वापस लौट जाता है, उसकी गृहस्थी नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।
अतिथि का मान-सम्मान करना
भारतीय संस्कृति में अतिथि को वैश्वानर, विष्णु एवं नारायण कहा गया है। उसका प्रेम सहित सत्कार करना, भोजन कराना और मान-सम्मान करना ही 'अतिथियज्ञ' कहलाता है। महाभारत के वनपर्व में अतिथियज्ञ में यज्ञ कर्ता के लिए 5 प्रकार की दक्षिणा बताई गई है-आतिथ्यकर्ता को अपनी आँख, हृदय, मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन (जाते समय थोड़ी दूर तक जाना) आदि से अतिथि को सम्मान देना चाहिए। अतिथि सत्कार के नियम निम्नलिखित हैं-
- आगे बढ़कर अतिथि का स्वागत करना
- हाथ, पैर तथा मुँह आदि धोने के लिए जल देना
- अतिथि को आसन देना व दीपक जलाकर रख देना
- भोजन कराना और ठहरने का स्थान देना
- व्यक्तिगत ध्यान देना और सोने के लिए बिछावन देना
- अतिथि के जाते समय थोड़ी दूर तक उसके साथ में जाना।
यह भी कहा गया है कि, यदि अतिथि घर से निराश होकर लौट जाता है तो, वह अपने सारे पाप गृहस्थ को दे जाता है और गृहस्थ के सभी पुण्य अतिथि के साथ ही चले जाते हैं। इस प्रकार अतिथि के निराश होकर लौट जाने से गृहस्थ का समस्त कुटुम्ब नष्ट हो जाता है।
अन्य तथ्य
किसी भी यज्ञ के उपरांत सबसे पहले अतिथियों को ससम्मान भोजन करना चाहिये। उसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिए कि नियमित भोजन करने वाले भी भूखे न रहें। अभाव की स्थिति में मीठी बातों से ही अतिथि को संतुष्ट करना चाहिये। उसे आसन पर बिठाकर ससम्मान जल ही पिलाया जा सकता है। इस प्रकार किया गया सत्कार अतिथियज्ञ कहलाता है। दोपहर में आए अतिथि से सूर्यास्त के समय आए अतिथि का अधिक महत्व होता है। ऐसे अतिथि को बिना भोजन कराये नहीं जाने देना चाहिए। ऐसे अतिथि के अवगुण तथा क्रोध आदि जैसे स्वभाव को नहीं देखना चाहिए। अतिथि अतिथि के प्रति पूज्य भावना की सत्ता वैदिक आर्यों में अत्यंत प्राचीन काल से है। ऋग्वेद में अनेक मंत्रों में अग्नि से अतिथि को उपमा दी गई है। (8।74।3-4)। अतिथि वैश्वानर का रूप माना जाता था (कठ. 1।1।7) इसीलिए जल के द्वारा उसकी शांति करने का आदेश दिया गया है। अतिथिर्नमस्य (अतिथि पूज्य है)- भारतीय धर्म का आधारपीठ है जिसका पल्लवन स्मृति ग्रंथों में बड़े विस्तार से किया गया है। उनमें अतिथि के लिए आसन, अर्थ तथा मधुपर्क का विधान हुआ है। महाभारत का कथन है कि जिस पर से अतिथि भग्नमनोरथ होकर लौटता है उसे वह अपना पाप देकर तथा उसका पुण्य लेकर चला जाता है। अतिथिसत्कार को पंचमहायज्ञों में स्थान दिया गया है।
- अग्नि और दाशरथी राम के पौत्र अर्थात् कुश के पुत्र का नाम भी अतिथि था। कुशपुत्र अतिथि के विषय में कहा जाता है कि उसने दस हजार वर्षों तक राज्य किया। इनके अतिरिक्त शिव को भी उक्त संज्ञा प्राप्त है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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