"दीना पाठक": अवतरणों में अंतर
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'''दीना पाठक''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Dina Pathak''; जन्म: [[4 मार्च]], [[1922]] | '''दीना पाठक''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Dina Pathak''; जन्म: [[4 मार्च]], [[1922]], [[गुजरात]]; निधन: [[11 अक्टूबर]], [[2002]]) हिन्दी फ़िल्मों की [[अभिनेत्री]] थीं। उनकी प्रसिद्ध फिल्मों में 'मौसम', 'किनारा', 'किताब', 'चितचोर', 'घरौंदा', 'गोलमाल', 'खूबसूरत' आदि शामिल हैं। दीना पाठक ने अपने कॅरियर की अधिकतर फिल्में आर्ट निर्देशकों के साथ कीं। ऐसा इसलिए क्यूंकि वह थियेटर जगत् से जुड़ी थीं और कमर्शियल फिल्मों की चमक-दमक उन्हें पसंद नहीं थी। [[भारतीय सिनेमा]] जगत् में दीना पाठक ने ना सिर्फ अभिनय के क्षेत्र में अपना डंका बजाया बल्कि उन्होंने थियेटर जगत् को [[सिनेमा]] के साथ जोड़ने में बेहद अहम भूमिका निभाई। आज़ादी से पहले महिलाओं का [[रंगमंच]] से जुड़ाव बेहद कम होता था। ऐसे समय में भी दीना पाठक ने रंगमंच को अपनी कर्मभूमि बनाया और उसमें सफलता हासिल करने की कोशिश की। अंग्रेज़ों से लड़ाई की जंग में दीना पाठक ने भी अपना योगदान दिया। उन्होंने नुक्कड़ और नाटकों द्वारा जनता को [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के ख़िलाफ़ एकजुट होने की अपील की। गुजराती थियेटर को अपनी पहचान दिलाने में दीना पाठक का बेहद अहम योगदान रहा है। [[1940]] से ही दीना पाठक गुजराती थियेटरों में काम करने लगीं थीं। दीना पाठक की बेटियां रत्ना पाठक और सुप्रिया पाठक भी हिन्दी कला जगत् की चर्चित अभिनेत्री हैं। दोनों ने ही अधिकतर हास्य प्रधान टीवी कार्यक्रमों में अपनी छाप छोड़ी है। 80 के दशक के सबसे चर्चित टीवी शो 'मालगुड़ी डेज' में भी दीना पाठक नजर आईं। दीना पाठक की आख़िरी फिल्म साल [[2003]] की 'पिंजर' थी।<ref>{{cite web |url=http://days.jagranjunction.com/2013/03/04/deena-pathak-biography-in-hindi-%E0%A4%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%96-%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A5%80-%E0%A4%A5%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80/|title=इन्हें देख आती थी दादी की याद |accessmonthday=24 नवंबर |accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण जंक्शन |language=हिन्दी }}</ref> | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
दीना पाठक का जन्म [[गुजरात]] के अमरेली में 4 मार्च, 1922 को हुआ था और उनके पिताजी सिविल इन्जिनीयर थे। उनकी परवरिश पूना और बम्बई में भी हुई थी। इसलिए वे [[मराठी भाषा|मराठी]] भी अच्छी बोल लेतीं थीं। उनके पढ़ाई के दिनों में आज़ादी का आंदोलन अपने ज़ोरों पर था। इस लिये उन दिनों शेरी नाटक का भी खूब चलन था। दीना जी, यानी उस समय की दीना गांधी, भी उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। वे खासकर महिला जागृति के लिए कार्यशील थीं। विविध आंदोलनों का हिस्सा होने की वज़ह से उन्होंने कारावास भी सहा था। उनकी बड़ी बहन शांता गांधी तथा छोटी बहन तरला भी थियेटर से जुड़ी थीं। शांता गांधी [[राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय|नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा]] में भी प्रवृत्त थीं। जबकि तरला तो बाद में [[धर्मेन्द्र]] की आरंभिक फ़िल्म ‘शोला और शबनम’ की नायिका भी बनी थीं।<ref name="hinditimes"/> | दीना पाठक का जन्म [[गुजरात]] के अमरेली में [[4 मार्च]], [[1922]] को हुआ था और उनके पिताजी सिविल इन्जिनीयर थे। उनकी परवरिश पूना और बम्बई में भी हुई थी। इसलिए वे [[मराठी भाषा|मराठी]] भी अच्छी बोल लेतीं थीं। उनके पढ़ाई के दिनों में आज़ादी का आंदोलन अपने ज़ोरों पर था। इस लिये उन दिनों शेरी नाटक का भी खूब चलन था। दीना जी, यानी उस समय की दीना गांधी, भी उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। वे खासकर महिला जागृति के लिए कार्यशील थीं। विविध आंदोलनों का हिस्सा होने की वज़ह से उन्होंने कारावास भी सहा था। उनकी बड़ी बहन शांता गांधी तथा छोटी बहन तरला भी थियेटर से जुड़ी थीं। शांता गांधी [[राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय|नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा]] में भी प्रवृत्त थीं। जबकि तरला तो बाद में [[धर्मेन्द्र]] की आरंभिक फ़िल्म ‘शोला और शबनम’ की नायिका भी बनी थीं।<ref name="hinditimes"/> | ||
==कार्यक्षेत्र== | ==कार्यक्षेत्र== | ||
दीना गांधी की स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी का आलम ये था कि बम्बई की सेंट ज़ेवीयर्स कालिज को उन्हें निकाल देना पड़ा था। मार्च ‘79 के ‘फ़िल्मफ़ेयर’ में दीना जी ने इस बात को बताते हुए कहा था कि उन्होंने दूसरी कालिज में पढ़ाई कर अपनी बी.ए. की उपाधि प्राप्त की थी। देश को स्वतंत्रता मिलते ही ‘स्ट्रीट प्ले’ जैसे कार्यक्रम बंद हो गये। उनके माता-पिता ने उसका विरोध तो नहीं किया; मगर कहा, ‘एक बार शादी कर लो, फिर जो चाहे करो’। तब दीना गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ता रमेश संघवी से शादी की। परंतु, ‘सिने ब्लिट्ज’ सामयिक को अगस्त 1995 के अंक में अपनी ज़िन्दगी के बारे में विस्तार से बताते हुए दीना जी ने जानकारी दी थी कि दोनों के रास्ते अलग होने की वज़ह से शादी के एक ही साल में वे अलग हो गये थे।<ref name="hinditimes"/> | दीना गांधी की [[स्वतंत्रता संग्राम]] में हिस्सेदारी का आलम ये था कि बम्बई की सेंट ज़ेवीयर्स कालिज को उन्हें निकाल देना पड़ा था। मार्च ‘79 के ‘फ़िल्मफ़ेयर’ में दीना जी ने इस बात को बताते हुए कहा था कि उन्होंने दूसरी कालिज में पढ़ाई कर अपनी बी.ए. की उपाधि प्राप्त की थी। देश को स्वतंत्रता मिलते ही ‘स्ट्रीट प्ले’ जैसे कार्यक्रम बंद हो गये। उनके माता-पिता ने उसका विरोध तो नहीं किया; मगर कहा, ‘एक बार शादी कर लो, फिर जो चाहे करो’। तब दीना गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ता रमेश संघवी से शादी की। परंतु, ‘सिने ब्लिट्ज’ सामयिक को [[अगस्त]], [[1995]] के अंक में अपनी ज़िन्दगी के बारे में विस्तार से बताते हुए दीना जी ने जानकारी दी थी कि दोनों के रास्ते अलग होने की वज़ह से शादी के एक ही साल में वे अलग हो गये थे।<ref name="hinditimes"/> | ||
==अभिनय की शुरुआत== | ==अभिनय की शुरुआत== | ||
शादी के अलगाव के बाद दीना ने अपना पूरा ध्यान इण्डियन पिपल्स थियेटर एसोसीएशन ‘[[इप्टा]]’ में लगा दिया। यहाँ [[बलराज साहनी]] और [[ए. के. हंगल|ए.के. हंगल]] जैसे अभिनेताओं के साथ ड्रामा में हिस्सा लेते हुए, संयोगवश ही एक फ़िल्म की | [[विवाह|शादी]] के अलगाव के बाद दीना ने अपना पूरा ध्यान इण्डियन पिपल्स थियेटर एसोसीएशन ‘[[इप्टा]]’ में लगा दिया। यहाँ [[बलराज साहनी]] और [[ए. के. हंगल|ए.के. हंगल]] जैसे अभिनेताओं के साथ ड्रामा में हिस्सा लेते हुए, संयोगवश ही एक फ़िल्म की हिरोइन बनने का ऑफर मिला और उसे गंवाया भी! हुआ था यूँ कि ख्वाजा एहमद अब्बास भी लेफ्टिस्ट होने के कारण ‘इप्टा’ के कलाकारों से जुड़े थे। उन्होंने अपनी एक फ़िल्म ‘धरती के लाल’ के लिए दीना जी का नाम उन्हें पूछे बिना अखबार में दे दिया। फ़िल्म के हीरो [[देव आनंद]] होंगे ये भी कहा गया था। जब उनके डान्स ग्रुप के लीडर ने कहा कि उन्हें पूछे बिना कैसे फ़िल्म स्वीकार कर ली? क्या वो [[रंगमंच]] को छोड़ रही हैं? तब दीना जी ने अब्बास साहब को इनकार कर दिया। बाद में मज़े की बात ये हुई की अंततः देव आनंद ने भी वो फ़िल्म नहीं की और जिस लड़की ने नायिका की भूमिका की वह दीना जी के ग्रुप की ही एक अन्य सदस्या थी! दीना जी का नाटक ‘मेना गुर्जरी’ उन दिनों काफ़ी लोकप्रिय था। वे [[गुजरात]] के लोकसंगीत भवाई की अच्छी कलाकार ही नहीं, उस कला की सुरक्षा में भी इतनी ही लगी रहती थी। उनका ग्रुप जहाँ अपनी रिहर्सल करता था, उसी के पडोस में मोहन स्टूडियो हुआ करता था। इसलिए ग्रुप के कलाकार भी वहाँ शूटिंग देखने जाया करते थे। वहाँ [[बिमल राय]] के सभी सहायकों से दीना मिलती थीं; जिनमें [[ऋषिकेश मुखर्जी]], [[गुलज़ार]], बासु भट्टाचार्य भी शामिल थे। उनमें से बासु भट्टाचार्य ने ‘उसकी कहानी’ फ़िल्म में काम देकर हिन्दी फ़िल्मों का सफर प्रारंभ करवाया। परंतु, उनका कॅरियर सही मायनों में शुरू हुआ, बासु चेटर्जी की [[1966]] में आई ‘सारा आकाश’ से। इस बीच उन्होंने बलदेव पाठक से शादी कर ली थी और दो बेटीयों सुप्रिया और रत्ना की [[माता]] भी बन चुकी थीं। वर्तमान में सुप्रिया पाठक ने पंकज कपूर के साथ और रत्ना पाठक ने [[नसीरुद्दीन शाह]] से शादी कर अपना घर तो बसाया ही है; साथ ही अपनी माता की तरह अभिनय में भी व्यस्त रहती हैं।<ref name="hinditimes">{{cite web |url=http://www.thehinditimes.com/EditorialDetail.aspx?editorial_id=50|title=दीना पाठक: एक प्रतिभावंत कलाकार और आजीवन बागी महिला कार्यकर्ता भी! |accessmonthday=24 नवंबर |accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=द हिन्दी टाइम्स |language=हिन्दी }}</ref> | ||
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दीना पाठक की कर्तव्यनिष्ठा ऐसी कि ‘देवदास’ के गीत “डोला रे डोला...” के फ़िल्मांकन समय उनको बुखार था; फिर भी सेट पर वे सबसे पहले आ जाती थीं। अपने पति बलदेव पाठक के साथ 23 साल की शादीशुदा ज़िन्दगी और उनके देहांत के बाद जीवन के अंतिम 23 वर्ष पति के बिना गुज़ारे। मगर हर समय उनकी शान वही रही, जो पहले से थी। उन्हें कभी फ़िल्म ‘लज्जा’ में बेटियों की सामाजिक हालत के लिए अपनी पीढ़ी को ज़िम्मेदार ठहराते सुनो, तब ये मत समझना कि वे कोई संवाद बोल रहीं थीं। महिला उद्धार के लिए अपने निजी जीवन में भी वे उतनी ही प्रवृत्त थी। जैसे कि वर्ष 2000 में, 78 साल की उम्र में भी, वे ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ इण्डियन विमेन’ जैसे भारतीय स्तर के महिला संगठन की अध्यक्षा थीं।<ref name="hinditimes"/> | दीना पाठक की कर्तव्यनिष्ठा ऐसी कि ‘देवदास’ के गीत “डोला रे डोला...” के फ़िल्मांकन समय उनको बुखार था; फिर भी सेट पर वे सबसे पहले आ जाती थीं। अपने पति बलदेव पाठक के साथ 23 साल की शादीशुदा ज़िन्दगी और उनके देहांत के बाद जीवन के अंतिम 23 वर्ष पति के बिना गुज़ारे। मगर हर समय उनकी शान वही रही, जो पहले से थी। उन्हें कभी फ़िल्म ‘लज्जा’ में बेटियों की सामाजिक हालत के लिए अपनी पीढ़ी को ज़िम्मेदार ठहराते सुनो, तब ये मत समझना कि वे कोई संवाद बोल रहीं थीं। महिला उद्धार के लिए अपने निजी जीवन में भी वे उतनी ही प्रवृत्त थी। जैसे कि वर्ष [[2000]] में, 78 साल की उम्र में भी, वे ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ इण्डियन विमेन’ जैसे भारतीय स्तर के महिला संगठन की अध्यक्षा थीं।<ref name="hinditimes"/> | ||
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दीना पाठक
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पूरा नाम | दीना पाठक |
जन्म | 4 मार्च, 1922 |
जन्म भूमि | अमरेली, गुजरात |
मृत्यु | 11 अक्टूबर, 2002 |
मृत्यु स्थान | बांद्रा, मुम्बई |
पति/पत्नी | बलदेव पाठक |
संतान | सुप्रिया पाठक और रत्ना पाठक |
कर्म-क्षेत्र | सिनेमा |
मुख्य फ़िल्में | 'मौसम', 'किनारा', 'किताब', 'चितचोर', 'घरौंदा', 'गोलमाल', 'खूबसूरत' आदि। |
पुरस्कार-उपाधि | संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | वर्ष 2000 में, 78 साल की उम्र में भी, दीना पाठक ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ इण्डियन विमेन’ जैसे भारतीय स्तर के महिला संगठन की अध्यक्षा थीं। |
दीना पाठक (अंग्रेज़ी: Dina Pathak; जन्म: 4 मार्च, 1922, गुजरात; निधन: 11 अक्टूबर, 2002) हिन्दी फ़िल्मों की अभिनेत्री थीं। उनकी प्रसिद्ध फिल्मों में 'मौसम', 'किनारा', 'किताब', 'चितचोर', 'घरौंदा', 'गोलमाल', 'खूबसूरत' आदि शामिल हैं। दीना पाठक ने अपने कॅरियर की अधिकतर फिल्में आर्ट निर्देशकों के साथ कीं। ऐसा इसलिए क्यूंकि वह थियेटर जगत् से जुड़ी थीं और कमर्शियल फिल्मों की चमक-दमक उन्हें पसंद नहीं थी। भारतीय सिनेमा जगत् में दीना पाठक ने ना सिर्फ अभिनय के क्षेत्र में अपना डंका बजाया बल्कि उन्होंने थियेटर जगत् को सिनेमा के साथ जोड़ने में बेहद अहम भूमिका निभाई। आज़ादी से पहले महिलाओं का रंगमंच से जुड़ाव बेहद कम होता था। ऐसे समय में भी दीना पाठक ने रंगमंच को अपनी कर्मभूमि बनाया और उसमें सफलता हासिल करने की कोशिश की। अंग्रेज़ों से लड़ाई की जंग में दीना पाठक ने भी अपना योगदान दिया। उन्होंने नुक्कड़ और नाटकों द्वारा जनता को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एकजुट होने की अपील की। गुजराती थियेटर को अपनी पहचान दिलाने में दीना पाठक का बेहद अहम योगदान रहा है। 1940 से ही दीना पाठक गुजराती थियेटरों में काम करने लगीं थीं। दीना पाठक की बेटियां रत्ना पाठक और सुप्रिया पाठक भी हिन्दी कला जगत् की चर्चित अभिनेत्री हैं। दोनों ने ही अधिकतर हास्य प्रधान टीवी कार्यक्रमों में अपनी छाप छोड़ी है। 80 के दशक के सबसे चर्चित टीवी शो 'मालगुड़ी डेज' में भी दीना पाठक नजर आईं। दीना पाठक की आख़िरी फिल्म साल 2003 की 'पिंजर' थी।[1]
जीवन परिचय
दीना पाठक का जन्म गुजरात के अमरेली में 4 मार्च, 1922 को हुआ था और उनके पिताजी सिविल इन्जिनीयर थे। उनकी परवरिश पूना और बम्बई में भी हुई थी। इसलिए वे मराठी भी अच्छी बोल लेतीं थीं। उनके पढ़ाई के दिनों में आज़ादी का आंदोलन अपने ज़ोरों पर था। इस लिये उन दिनों शेरी नाटक का भी खूब चलन था। दीना जी, यानी उस समय की दीना गांधी, भी उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। वे खासकर महिला जागृति के लिए कार्यशील थीं। विविध आंदोलनों का हिस्सा होने की वज़ह से उन्होंने कारावास भी सहा था। उनकी बड़ी बहन शांता गांधी तथा छोटी बहन तरला भी थियेटर से जुड़ी थीं। शांता गांधी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में भी प्रवृत्त थीं। जबकि तरला तो बाद में धर्मेन्द्र की आरंभिक फ़िल्म ‘शोला और शबनम’ की नायिका भी बनी थीं।[2]
कार्यक्षेत्र
दीना गांधी की स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी का आलम ये था कि बम्बई की सेंट ज़ेवीयर्स कालिज को उन्हें निकाल देना पड़ा था। मार्च ‘79 के ‘फ़िल्मफ़ेयर’ में दीना जी ने इस बात को बताते हुए कहा था कि उन्होंने दूसरी कालिज में पढ़ाई कर अपनी बी.ए. की उपाधि प्राप्त की थी। देश को स्वतंत्रता मिलते ही ‘स्ट्रीट प्ले’ जैसे कार्यक्रम बंद हो गये। उनके माता-पिता ने उसका विरोध तो नहीं किया; मगर कहा, ‘एक बार शादी कर लो, फिर जो चाहे करो’। तब दीना गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ता रमेश संघवी से शादी की। परंतु, ‘सिने ब्लिट्ज’ सामयिक को अगस्त, 1995 के अंक में अपनी ज़िन्दगी के बारे में विस्तार से बताते हुए दीना जी ने जानकारी दी थी कि दोनों के रास्ते अलग होने की वज़ह से शादी के एक ही साल में वे अलग हो गये थे।[2]
अभिनय की शुरुआत
शादी के अलगाव के बाद दीना ने अपना पूरा ध्यान इण्डियन पिपल्स थियेटर एसोसीएशन ‘इप्टा’ में लगा दिया। यहाँ बलराज साहनी और ए.के. हंगल जैसे अभिनेताओं के साथ ड्रामा में हिस्सा लेते हुए, संयोगवश ही एक फ़िल्म की हिरोइन बनने का ऑफर मिला और उसे गंवाया भी! हुआ था यूँ कि ख्वाजा एहमद अब्बास भी लेफ्टिस्ट होने के कारण ‘इप्टा’ के कलाकारों से जुड़े थे। उन्होंने अपनी एक फ़िल्म ‘धरती के लाल’ के लिए दीना जी का नाम उन्हें पूछे बिना अखबार में दे दिया। फ़िल्म के हीरो देव आनंद होंगे ये भी कहा गया था। जब उनके डान्स ग्रुप के लीडर ने कहा कि उन्हें पूछे बिना कैसे फ़िल्म स्वीकार कर ली? क्या वो रंगमंच को छोड़ रही हैं? तब दीना जी ने अब्बास साहब को इनकार कर दिया। बाद में मज़े की बात ये हुई की अंततः देव आनंद ने भी वो फ़िल्म नहीं की और जिस लड़की ने नायिका की भूमिका की वह दीना जी के ग्रुप की ही एक अन्य सदस्या थी! दीना जी का नाटक ‘मेना गुर्जरी’ उन दिनों काफ़ी लोकप्रिय था। वे गुजरात के लोकसंगीत भवाई की अच्छी कलाकार ही नहीं, उस कला की सुरक्षा में भी इतनी ही लगी रहती थी। उनका ग्रुप जहाँ अपनी रिहर्सल करता था, उसी के पडोस में मोहन स्टूडियो हुआ करता था। इसलिए ग्रुप के कलाकार भी वहाँ शूटिंग देखने जाया करते थे। वहाँ बिमल राय के सभी सहायकों से दीना मिलती थीं; जिनमें ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु भट्टाचार्य भी शामिल थे। उनमें से बासु भट्टाचार्य ने ‘उसकी कहानी’ फ़िल्म में काम देकर हिन्दी फ़िल्मों का सफर प्रारंभ करवाया। परंतु, उनका कॅरियर सही मायनों में शुरू हुआ, बासु चेटर्जी की 1966 में आई ‘सारा आकाश’ से। इस बीच उन्होंने बलदेव पाठक से शादी कर ली थी और दो बेटीयों सुप्रिया और रत्ना की माता भी बन चुकी थीं। वर्तमान में सुप्रिया पाठक ने पंकज कपूर के साथ और रत्ना पाठक ने नसीरुद्दीन शाह से शादी कर अपना घर तो बसाया ही है; साथ ही अपनी माता की तरह अभिनय में भी व्यस्त रहती हैं।[2]
प्रमुख फ़िल्में
दीना पाठक की प्रमुख फ़िल्मों में ‘सात हिन्दुस्तानी’, ‘आप की कसम’, ‘सत्यकाम’, ‘अनुरोध’, ‘जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली’, ‘देवी’, ‘आविष्कार’, ‘किनारा’, ‘चितचोर’, ‘मौसम’, ‘सच्चा झूठा’, ‘किताब’, ‘घरौंदा’, ‘मीरा’, ‘बदलते रिश्ते’, ‘ड्रीम गर्ल’, ‘भूमिका’, ‘भव नी भवाई’, ‘विजेता’, ‘थोड़ी सी बेवफाई’, ‘प्रेम रोग’, ‘प्रेम तपस्या’, ‘उमराव जान’, ‘नरम गरम’, ‘अर्थ’, ‘वो सात दिन’, ‘होली’, ‘अनकही’, ‘मिर्च मसाला’, ‘इजाज़त’, ‘सनम बेवफा’, ‘सौदागर’, ‘आँखें’, ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’, ‘याराना’, ‘आशिक’, ‘तुम बिन’, ‘लज्जा’, ‘एक चादर मैली सी’, ‘परदेस’, ‘देवदास’ और 2003 में आई ‘पिंजर’ तक का उल्लेख इंटरनेट से मिलता है।[2]
कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व
दीना पाठक की कर्तव्यनिष्ठा ऐसी कि ‘देवदास’ के गीत “डोला रे डोला...” के फ़िल्मांकन समय उनको बुखार था; फिर भी सेट पर वे सबसे पहले आ जाती थीं। अपने पति बलदेव पाठक के साथ 23 साल की शादीशुदा ज़िन्दगी और उनके देहांत के बाद जीवन के अंतिम 23 वर्ष पति के बिना गुज़ारे। मगर हर समय उनकी शान वही रही, जो पहले से थी। उन्हें कभी फ़िल्म ‘लज्जा’ में बेटियों की सामाजिक हालत के लिए अपनी पीढ़ी को ज़िम्मेदार ठहराते सुनो, तब ये मत समझना कि वे कोई संवाद बोल रहीं थीं। महिला उद्धार के लिए अपने निजी जीवन में भी वे उतनी ही प्रवृत्त थी। जैसे कि वर्ष 2000 में, 78 साल की उम्र में भी, वे ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ इण्डियन विमेन’ जैसे भारतीय स्तर के महिला संगठन की अध्यक्षा थीं।[2]
मृत्यु
अपने लंबे कॅरियर में दीना पाठक ने अमरीश पुरी से लेकर ओम पुरी और अशोक कुमार से अमिताभ बच्चन तक के हर पीढ़ी के सभी महारथी कलाकारों के साथ काम किया था। उनके निर्देशकों ने भी अपनी फ़िल्मों में उन्हें बार-बार दोहराया था, फिर वो ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी हों या गुलज़ार तथा केतन मेहता हो। ऐसी अत्यंत प्रतिभावंत अभिनेत्री का देहांत 11 अक्तूबर, 2002 के दिन हो गया। मगर उनकी यादगार फ़िल्मों के अपने अभिनय से दीना पाठक आज भी ज़िन्दा ही हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इन्हें देख आती थी दादी की याद (हिन्दी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 24 नवंबर, 2016।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 दीना पाठक: एक प्रतिभावंत कलाकार और आजीवन बागी महिला कार्यकर्ता भी! (हिन्दी) द हिन्दी टाइम्स। अभिगमन तिथि: 24 नवंबर, 2016।