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'''गौरा पंत ‘शिवानी’''' (जन्म- [[17 अक्टूबर]], [[1923]] ; मृत्यु- [[21 मार्च]], [[2003]]) [[हिन्दी]] की सुप्रसिद्ध [[उपन्यासकार]] थीं। [[हिंदी साहित्य]] जगत में शिवानी एक ऐसी शख्सियत रहीं, जिनकी हिंदी, [[संस्कृत]], [[गुजराती भाषा|गुजराती]], [[बंगाली भाषा|बंगाली]], [[उर्दू]] तथा [[अंग्रेज़ी]] पर अच्छी पकड थी और जो अपनी कृतियों में [[उत्तर भारत]] के [[कुमायूँ]] क्षेत्र के आसपास की लोक संस्कृति की झलक दिखलाने और किरदारों के बेमिसाल चरित्र चित्रण करने के लिए जानी गई। महज 12 वर्ष की उम्र में पहली [[कहानी]] प्रकाशित होने से लेकर उनके निधन तक उनका लेखन निरंतर जारी रहा। उनकी अधिकतर कहानियां और [[उपन्यास]] नारी प्रधान रहे। इसमें उन्होंने नायिका के सौंदर्य और उसके चरित्र का वर्णन बड़े दिलचस्प | '''गौरा पंत ‘शिवानी’''' (जन्म- [[17 अक्टूबर]], [[1923]] ; मृत्यु- [[21 मार्च]], [[2003]]) [[हिन्दी]] की सुप्रसिद्ध [[उपन्यासकार]] थीं। [[हिंदी साहित्य]] जगत में शिवानी एक ऐसी शख्सियत रहीं, जिनकी हिंदी, [[संस्कृत]], [[गुजराती भाषा|गुजराती]], [[बंगाली भाषा|बंगाली]], [[उर्दू]] तथा [[अंग्रेज़ी]] पर अच्छी पकड थी और जो अपनी कृतियों में [[उत्तर भारत]] के [[कुमायूँ]] क्षेत्र के आसपास की लोक संस्कृति की झलक दिखलाने और किरदारों के बेमिसाल चरित्र चित्रण करने के लिए जानी गई। महज 12 वर्ष की उम्र में पहली [[कहानी]] प्रकाशित होने से लेकर उनके निधन तक उनका लेखन निरंतर जारी रहा। उनकी अधिकतर [[कहानी|कहानियां]] और [[उपन्यास]] नारी प्रधान रहे। इसमें उन्होंने नायिका के सौंदर्य और उसके चरित्र का वर्णन बड़े दिलचस्प अंदाज़में किया। | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
शिवानी आधुनिक अग्रगामी विचारों की समर्थक थीं। शिवानी का जन्म [[17 अक्टूबर]], [[1923]] को [[विजयादशमी]] के दिन [[गुजरात]] के पास [[राजकोट]] शहर में हुआ था। शिवानी के पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट में स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और [[रामपुर]] की रियासतों में [[दीवान]] भी रहे। शिवानी के [[माता]] और [[पिता]] दोनों ही विद्वान [[संगीत]] प्रेमी और कई [[भाषा|भाषाओं]] के ज्ञाता थे। शिवानी ने [[पश्चिम बंगाल]] के [[शांति निकेतन]] से बी.ए. किया। साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरा रुझान ‘शिवानी’ को अपने माता और पिता से ही मिला। शिवानी के पितामह [[संस्कृत]] के प्रकांड विद्वान पंडित हरिराम पाण्डे, जो [[बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय]] में धर्मोपदेशक थे, वह परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे। महामना [[मदनमोहन मालवीय]] से उनकी गहरी मित्रता थी। वे प्रायः [[अल्मोड़ा]] तथा [[बनारस]] में रहते थे, अतः शिवानी का बचपन अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता। शिवानी की किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में और युवावस्था अपने शिक्षाविद पति के साथ [[उत्तर प्रदेश]] के विभिन्न भागों में बीती। शिवानी के पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक [[लखनऊ]] में रहीं और अन्तिम समय में [[दिल्ली]] में अपनी बेटियों तथा [[अमेरिका]] में बसे पुत्र के परिवार के साथ रहीं<ref name= "भारतीय साहित्य संग्रह">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=5223 |title=कस्तूरी मृग |accessmonthday=[[4 अप्रैल]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | शिवानी आधुनिक अग्रगामी विचारों की समर्थक थीं। शिवानी का जन्म [[17 अक्टूबर]], [[1923]] को [[विजयादशमी]] के दिन [[गुजरात]] के पास [[राजकोट]] शहर में हुआ था। शिवानी के पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट में स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और [[रामपुर]] की रियासतों में [[दीवान]] भी रहे। शिवानी के [[माता]] और [[पिता]] दोनों ही विद्वान [[संगीत]] प्रेमी और कई [[भाषा|भाषाओं]] के ज्ञाता थे। शिवानी ने [[पश्चिम बंगाल]] के [[शांति निकेतन]] से बी.ए. किया। साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरा रुझान ‘शिवानी’ को अपने माता और पिता से ही मिला। शिवानी के पितामह [[संस्कृत]] के प्रकांड विद्वान पंडित हरिराम पाण्डे, जो [[बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय]] में धर्मोपदेशक थे, वह परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे। महामना [[मदनमोहन मालवीय]] से उनकी गहरी मित्रता थी। वे प्रायः [[अल्मोड़ा]] तथा [[बनारस]] में रहते थे, अतः शिवानी का बचपन अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता। शिवानी की किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में और युवावस्था अपने शिक्षाविद पति के साथ [[उत्तर प्रदेश]] के विभिन्न भागों में बीती। शिवानी के पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक [[लखनऊ]] में रहीं और अन्तिम समय में [[दिल्ली]] में अपनी बेटियों तथा [[अमेरिका]] में बसे पुत्र के परिवार के साथ रहीं<ref name= "भारतीय साहित्य संग्रह">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=5223 |title=कस्तूरी मृग |accessmonthday=[[4 अप्रैल]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
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शिवानी के लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उसकी जड़ें, इसी विविधतापूर्ण जीवन में थीं। शिवानी की पहली रचना [[अल्मोड़ा]] से निकलने वाली ‘नटखट’ नामक एक बाल [[पत्रिका]] में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे [[मदन मोहन मालवीय|मालवीय जी]] की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव [[रवीन्द्रनाथ टैगोर]] शिवानी को ‘गोरा’ पुकारते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की सलाह को कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर शिवानी ने [[हिन्दी]] में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ [[1951]] में ‘[[धर्मयुग पत्रिका|धर्मयुग]]’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।<ref name="भारतीय साहित्य संग्रह"/> | शिवानी के लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उसकी जड़ें, इसी विविधतापूर्ण जीवन में थीं। शिवानी की पहली रचना [[अल्मोड़ा]] से निकलने वाली ‘नटखट’ नामक एक बाल [[पत्रिका]] में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे [[मदन मोहन मालवीय|मालवीय जी]] की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव [[रवीन्द्रनाथ टैगोर]] शिवानी को ‘गोरा’ पुकारते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की सलाह को कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर शिवानी ने [[हिन्दी]] में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ [[1951]] में ‘[[धर्मयुग पत्रिका|धर्मयुग]]’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।<ref name="भारतीय साहित्य संग्रह"/> | ||
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[[उपन्यास]], [[कहानी]], व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, [[लखनऊ]] से निकलने वाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार, लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। शिवानी की 'आमादेर शांति निकेतन' और 'स्मृति कलश' इस पृष्ठभूमि पर लिखी गई श्रेष्ठ पुस्तकें हैं। 'कृष्णकली' उनका सबसे प्रसिद्ध [[उपन्यास]] है। इसके दस से भी अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।<ref name="अभिव्यक्ति"/> उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलने वाले पत्र ‘स्वतन्त्र [[भारत]]’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा।<ref>{{cite web |url=http://punybhoomi-bharat.blogspot.com/2008/12/blog-post_11.html |title=श्रद्धांजलि शिवानी "गौरा पंत- हिन्दी साहित्य का एक चमकता सितारा |accessmonthday=[[4 अप्रैल]] |accessyear=[[2011]] |last=सुयाल |first=सुनील |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=पुण्य भूमि-भारत |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | [[उपन्यास]], [[कहानी]], व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और [[संस्मरण|संस्मरणों]] के अतिरिक्त, [[लखनऊ]] से निकलने वाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार, लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। शिवानी की 'आमादेर शांति निकेतन' और 'स्मृति कलश' इस पृष्ठभूमि पर लिखी गई श्रेष्ठ पुस्तकें हैं। 'कृष्णकली' उनका सबसे प्रसिद्ध [[उपन्यास]] है। इसके दस से भी अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।<ref name="अभिव्यक्ति"/> उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलने वाले पत्र ‘स्वतन्त्र [[भारत]]’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा।<ref>{{cite web |url=http://punybhoomi-bharat.blogspot.com/2008/12/blog-post_11.html |title=श्रद्धांजलि शिवानी "गौरा पंत- हिन्दी साहित्य का एक चमकता सितारा |accessmonthday=[[4 अप्रैल]] |accessyear=[[2011]] |last=सुयाल |first=सुनील |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=पुण्य भूमि-भारत |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
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वरिष्ठ रचनाकार [[ममता कालिया]] के अनुसार हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उनका योगदान कितना रहा, यह कहना मुश्किल है पर यह | वरिष्ठ रचनाकार [[ममता कालिया]] के अनुसार हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उनका योगदान कितना रहा, यह कहना मुश्किल है पर यह ज़रूर है कि कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने का श्रेय शिवानी को जाता है। उन्होंने कहा कि वह कुछ इस तरह लिखती थीं कि लोगों की उसे पढ़ने को लेकर जिज्ञासा पैदा होती थी। उनकी भाषा शैली कुछ-कुछ [[महादेवी वर्मा]] जैसी रही पर उनके लेखन में एक लोकप्रिय किस्म का मसविदा था। उनकी कृतियों से यह झलकता है कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की। ममता कालिया कहती हैं, शिवानी की कृतियों में चरित्र चित्रण में एक तरह का आवेग दिखाई देता है। वह चरित्र को शब्दों में कुछ इस तरह पिरोकर पेश करती थीं जैसे पाठकों की आंखों के सामने [[राजा रवि वर्मा]] का कोई ख़ूबसूरत चित्र तैर जाए। उन्होंने संस्कृत निष्ठ हिंदी का इस्तेमाल किया पर [[कहानी]] की विधा में ही रहने के चलते वह हिंदी के विचार जगत में एक नया पथ प्रदर्शन नहीं कर पाई। शिवानी की क़रीबी रहीं वरिष्ठ साहित्यकार पद्मा सचदेव के अनुसार जब शिवानी का [[उपन्यास]] 'कृष्णकली' [[धर्मयुग पत्रिका|धर्मयुग]] में प्रकाशित हो रहा था तो हर जगह इसकी चर्चा होती थी। मैंने उनके जैसी भाषा शैली और किसी की लेखनी में नहीं देखी। उनके उपन्यास ऐसे हैं जिन्हें पढकर यह एहसास होता था कि वे खत्म ही न हों। उपन्यास का कोई भी अंश उसकी कहानी में पूरी तरह डुबो देता था। उन्होंने कहा, शिवानी भारतवर्ष के हिंदी साहित्य के इतिहास का बहुत प्यारा पन्ना थीं। अपने समकालीन साहित्यकारों की तुलना में वह काफ़ी सहज और सादगी से भरी थीं। उनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान बड़ा है पर फिर भी हिंदी जगत ने उन्हें पूरा सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार रहीं। शिवानी के आखिरी दिनों में भी उनके संपर्क में रहीं पद्मा सचदेव ने कहा कि उन्हें गायन का काफ़ी शौक़ था। उन्हें आखिर तक [[कुमाऊं मण्डल|कुमाऊं]] से बेहद प्यार रहा। उन्हें वहीं के नज़ारे याद आते थे।<ref>{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF#.UUmVQTdQuDW |title=शिवानी / परिचय |accessmonthday= 20 मार्च|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गद्यकोश |language=हिंदी }}</ref> | ||
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06:35, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
शिवानी
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पूरा नाम | गौरा पंत ‘शिवानी’ |
जन्म | 17 अक्टूबर, 1923 |
जन्म भूमि | राजकोट, गुजरात |
मृत्यु | 21 मार्च, 2003 |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
अभिभावक | अश्विनीकुमार पाण्डे |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | उपान्यासकार |
भाषा | हिंदी, गुजराती |
विद्यालय | शांतिनिकेतन |
शिक्षा | बी.ए. |
पुरस्कार-उपाधि | पद्मश्री |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | शिवानी की माँ गुजरात की विदुषी, पिता अंग्रेज़ी के लेखक थे। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
गौरा पंत ‘शिवानी’ (जन्म- 17 अक्टूबर, 1923 ; मृत्यु- 21 मार्च, 2003) हिन्दी की सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थीं। हिंदी साहित्य जगत में शिवानी एक ऐसी शख्सियत रहीं, जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू तथा अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड थी और जो अपनी कृतियों में उत्तर भारत के कुमायूँ क्षेत्र के आसपास की लोक संस्कृति की झलक दिखलाने और किरदारों के बेमिसाल चरित्र चित्रण करने के लिए जानी गई। महज 12 वर्ष की उम्र में पहली कहानी प्रकाशित होने से लेकर उनके निधन तक उनका लेखन निरंतर जारी रहा। उनकी अधिकतर कहानियां और उपन्यास नारी प्रधान रहे। इसमें उन्होंने नायिका के सौंदर्य और उसके चरित्र का वर्णन बड़े दिलचस्प अंदाज़में किया।
जीवन परिचय
शिवानी आधुनिक अग्रगामी विचारों की समर्थक थीं। शिवानी का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन गुजरात के पास राजकोट शहर में हुआ था। शिवानी के पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट में स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे। शिवानी के माता और पिता दोनों ही विद्वान संगीत प्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। शिवानी ने पश्चिम बंगाल के शांति निकेतन से बी.ए. किया। साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरा रुझान ‘शिवानी’ को अपने माता और पिता से ही मिला। शिवानी के पितामह संस्कृत के प्रकांड विद्वान पंडित हरिराम पाण्डे, जो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे, वह परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे। महामना मदनमोहन मालवीय से उनकी गहरी मित्रता थी। वे प्रायः अल्मोड़ा तथा बनारस में रहते थे, अतः शिवानी का बचपन अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता। शिवानी की किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में और युवावस्था अपने शिक्षाविद पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में बीती। शिवानी के पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमेरिका में बसे पुत्र के परिवार के साथ रहीं[1]
कार्यक्षेत्र
शिवानी का कार्यक्षेत्र मूलरूप से कुमाऊँ क्षेत्र की निवासी के रूप में बीता। शिवानी की शिक्षा शांति निकेतन में और जीवन का अधिकांश समय शिवानी ने लखनऊ में बिताया। शिवानी की माँ गुजरात की विदुषी, पिता अंग्रेज़ी के लेखक थे। पहाड़ी पृष्ठभूमि और गुरुदेव की शरण में शिक्षा ने शिवानी की भाषा और लेखन को बहुयामी बनाया। बांग्ला साहित्य और संस्कृति का शिवानी पर गहरा प्रभाव पड़ा।[2]
लेखन की शुरुआत
शिवानी के लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उसकी जड़ें, इसी विविधतापूर्ण जीवन में थीं। शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलने वाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर शिवानी को ‘गोरा’ पुकारते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की सलाह को कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर शिवानी ने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।[1]
प्रमुख रचनाएँ
उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलने वाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार, लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। शिवानी की 'आमादेर शांति निकेतन' और 'स्मृति कलश' इस पृष्ठभूमि पर लिखी गई श्रेष्ठ पुस्तकें हैं। 'कृष्णकली' उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। इसके दस से भी अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।[2] उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलने वाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा।[3]
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समाकालीन साहित्यकारों की राय
वरिष्ठ रचनाकार ममता कालिया के अनुसार हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उनका योगदान कितना रहा, यह कहना मुश्किल है पर यह ज़रूर है कि कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने का श्रेय शिवानी को जाता है। उन्होंने कहा कि वह कुछ इस तरह लिखती थीं कि लोगों की उसे पढ़ने को लेकर जिज्ञासा पैदा होती थी। उनकी भाषा शैली कुछ-कुछ महादेवी वर्मा जैसी रही पर उनके लेखन में एक लोकप्रिय किस्म का मसविदा था। उनकी कृतियों से यह झलकता है कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की। ममता कालिया कहती हैं, शिवानी की कृतियों में चरित्र चित्रण में एक तरह का आवेग दिखाई देता है। वह चरित्र को शब्दों में कुछ इस तरह पिरोकर पेश करती थीं जैसे पाठकों की आंखों के सामने राजा रवि वर्मा का कोई ख़ूबसूरत चित्र तैर जाए। उन्होंने संस्कृत निष्ठ हिंदी का इस्तेमाल किया पर कहानी की विधा में ही रहने के चलते वह हिंदी के विचार जगत में एक नया पथ प्रदर्शन नहीं कर पाई। शिवानी की क़रीबी रहीं वरिष्ठ साहित्यकार पद्मा सचदेव के अनुसार जब शिवानी का उपन्यास 'कृष्णकली' धर्मयुग में प्रकाशित हो रहा था तो हर जगह इसकी चर्चा होती थी। मैंने उनके जैसी भाषा शैली और किसी की लेखनी में नहीं देखी। उनके उपन्यास ऐसे हैं जिन्हें पढकर यह एहसास होता था कि वे खत्म ही न हों। उपन्यास का कोई भी अंश उसकी कहानी में पूरी तरह डुबो देता था। उन्होंने कहा, शिवानी भारतवर्ष के हिंदी साहित्य के इतिहास का बहुत प्यारा पन्ना थीं। अपने समकालीन साहित्यकारों की तुलना में वह काफ़ी सहज और सादगी से भरी थीं। उनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान बड़ा है पर फिर भी हिंदी जगत ने उन्हें पूरा सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार रहीं। शिवानी के आखिरी दिनों में भी उनके संपर्क में रहीं पद्मा सचदेव ने कहा कि उन्हें गायन का काफ़ी शौक़ था। उन्हें आखिर तक कुमाऊं से बेहद प्यार रहा। उन्हें वहीं के नज़ारे याद आते थे।[4]
पुरस्कार
1982 में शिवानी जी को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अलंकृत किया गया।
मृत्यु
शिवानी का 21 मार्च, 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में निधन हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 कस्तूरी मृग (हिन्दी) (पी.एच.पी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 4 अप्रैल, 2011।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 शिवानी (हिन्दी) (एच टी एम) अभिव्यक्ति। अभिगमन तिथि: 4 अप्रैल, 2011।
- ↑ सुयाल, सुनील। श्रद्धांजलि शिवानी "गौरा पंत- हिन्दी साहित्य का एक चमकता सितारा (हिन्दी) (एच टी एम) पुण्य भूमि-भारत। अभिगमन तिथि: 4 अप्रैल, 2011।
- ↑ शिवानी / परिचय (हिंदी) गद्यकोश। अभिगमन तिथि: 20 मार्च, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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