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'''कायोत्सर्ग''' अर्हत् की वीतराग अवस्था में खड़ी मूर्ति है। [[जैन धर्म]] में प्रचलित इस शब्द का प्रयोग [[हिन्दी साहित्य]] में किया गया है।  
'''कायोत्सर्ग''' एक यौगिक [[ध्यान]] की मुद्रा का नाम है। [[जैन धर्म]] के अधिकांश [[तीर्थंकर|तीर्थंकरों]] को 'कायोत्सर्ग' या 'पद्मासन मुद्रा' में ही दर्शाया जाता है।<ref>*पुस्तक- पौराणिक कोश |लेखक- राणा प्रसाद शर्मा | पृष्ठ संख्या- 561</ref><br />
 
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*'कायोत्सर्ग' का शब्दार्थ 'शरीर के ममत्व का त्याग' है। जैन ग्रन्थ, [[मूलाचार]]<ref>अध्याय 7, गा. 153</ref> के अनुसार इसकी परिभाषा है- पैरों में चार अंगुल का अंतराल देकर खड़े हों, दोनों भुजाएँ नीचे को लटकती रहें और समस्त अंगों को निश्चल करके यथानियम श्वास लेने (प्राणायाम) पर कायोत्सर्ग होता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग [[ध्यान]] की शारीरिक अवस्था (समाधि) का पर्यायवाची है, जैसे 'जिन सुथिर मुद्रा देख मृगगन उपल खाज खुजावते' से स्पष्ट है। संकल्प-विकल्प-रहित आंतरिक थिरता को ध्यान (आत्मकायोत्सर्ग) कहा है। अपराधरूपी व्रणों के भैषजभूत कायोत्सर्ग के दैनिक, मासिक आदि अनेक भेद हैं। उत्कृष्ट कायोत्सर्ग एक वर्ष तक तथा जघन्य अंतर्मुहूर्त (एक क्षण से लेकर दो घड़ी के पहिले तक) होता है।
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* पुस्तक- पौराणिक कोश |लेखक- राणा प्रसाद शर्मा | पृष्ठ संख्या- 561
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09:54, 17 मई 2020 के समय का अवतरण

कायोत्सर्ग एक यौगिक ध्यान की मुद्रा का नाम है। जैन धर्म के अधिकांश तीर्थंकरों को 'कायोत्सर्ग' या 'पद्मासन मुद्रा' में ही दर्शाया जाता है।[1]

  • 'कायोत्सर्ग' का शब्दार्थ 'शरीर के ममत्व का त्याग' है। जैन ग्रन्थ, मूलाचार[2] के अनुसार इसकी परिभाषा है- पैरों में चार अंगुल का अंतराल देकर खड़े हों, दोनों भुजाएँ नीचे को लटकती रहें और समस्त अंगों को निश्चल करके यथानियम श्वास लेने (प्राणायाम) पर कायोत्सर्ग होता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग ध्यान की शारीरिक अवस्था (समाधि) का पर्यायवाची है, जैसे 'जिन सुथिर मुद्रा देख मृगगन उपल खाज खुजावते' से स्पष्ट है। संकल्प-विकल्प-रहित आंतरिक थिरता को ध्यान (आत्मकायोत्सर्ग) कहा है। अपराधरूपी व्रणों के भैषजभूत कायोत्सर्ग के दैनिक, मासिक आदि अनेक भेद हैं। उत्कृष्ट कायोत्सर्ग एक वर्ष तक तथा जघन्य अंतर्मुहूर्त (एक क्षण से लेकर दो घड़ी के पहिले तक) होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. *पुस्तक- पौराणिक कोश |लेखक- राणा प्रसाद शर्मा | पृष्ठ संख्या- 561
  2. अध्याय 7, गा. 153

संबंधित लेख

जैन धर्म शब्दावली

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