"कुबेर पुत्रों का उद्धार": अवतरणों में अंतर
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[[द्वापर युग]] में [[कुबेर]] जैसा शानवान कोई नहीं था। उसके दो पुत्र थे। एक का नाम [[नलकूबर]] था व दूसरे का मणिग्रीव। कुबेर के ये दोनों बेटे अपने पिता की धन−सम्पत्ति के प्रमाद में घमंडी और उद्दंड हो गए थे। राह चलते लोगों को छेड़ना, उन पर व्यंग्य कसना, ग़रीब लोगों का मखौल उड़ाना उन दोनों की प्रवृत्ति बन गयी थी। एक दिन दोनों भाई नदी में स्नान कर रहे थे। तभी आकाश मार्ग से आते हुए उन्हें देवर्षि [[नारद]] दिखाई दिए। उनके मुख से 'नारायण−नारायण' का स्वर सुनकर नदी पर स्नान के लिए पहुँचे लोग उन्हें प्रणाम करने लगे, लेकिन नलकूबर और मणिग्रीव तो अपने पिता के धन के कारण दंभ में भरे हुए थे। उन्होंने नारद को प्रणाम करने के स्थान पर उनकी ओर मुँह बिचकाया और उनका उपहास उड़ाया। | |||
[[द्वापर युग]] में [[कुबेर]] जैसा शानवान कोई नहीं था। उसके दो पुत्र थे। एक का नाम नलकूबर था व दूसरे का मणिग्रीव। कुबेर के ये दोनों बेटे अपने पिता की धन−सम्पत्ति के प्रमाद में घमंडी और उद्दंड हो गए थे। राह चलते लोगों को छेड़ना, उन पर व्यंग्य कसना, ग़रीब लोगों का मखौल उड़ाना उन दोनों की प्रवृत्ति बन गयी थी। एक दिन दोनों भाई नदी में स्नान कर रहे थे। तभी आकाश मार्ग से आते हुए उन्हें देवर्षि [[नारद]] दिखाई दिए। उनके मुख से 'नारायण−नारायण' का स्वर सुनकर नदी पर स्नान के लिए पहुँचे लोग उन्हें प्रणाम करने लगे, लेकिन नलकूबर और मणिग्रीव तो अपने पिता के धन के कारण दंभ में भरे हुए थे। उन्होंने नारद को प्रणाम करने के स्थान पर उनकी ओर मुँह बिचकाया और उनका उपहास उड़ाया। | |||
उन दोनों का व्यवहार नारद को बहुत अखरा। क्रोध में भरकर उन दोनों को शाप दे दिया, 'जाओ, मर्त्यलोक में जाकर वृक्ष बन जाओ।' शापवश उसी समय दोनों मर्त्यलोक में, [[गोकुल]] में [[नंद]] बाबा के द्वार पर पेड़ बन कर खड़े हो गए। कुबेर को अपने पुत्रों की दुर्दशा की ख़बर मिली तो वह बहुत दुःखी हुआ और महर्षि नारद से बार−बार क्षमा याचना करने लगा। नारद जी को उस पर दया आ गई। उन्होंने अपने शाप का परिमार्जन करते हुए कहा, 'अभी तो कुछ हो नहीं सकता, किंतु जब द्वापर में भगवान [[विष्णु]] [[कृष्ण]] के रूप में वहाँ अवतरित होंगे और दोनों वृक्षों का स्पर्श करेंगे तब उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।' | उन दोनों का व्यवहार नारद को बहुत अखरा। क्रोध में भरकर उन दोनों को शाप दे दिया, 'जाओ, मर्त्यलोक में जाकर वृक्ष बन जाओ।' शापवश उसी समय दोनों मर्त्यलोक में, [[गोकुल]] में [[नंद]] बाबा के द्वार पर पेड़ बन कर खड़े हो गए। कुबेर को अपने पुत्रों की दुर्दशा की ख़बर मिली तो वह बहुत दुःखी हुआ और महर्षि नारद से बार−बार क्षमा याचना करने लगा। नारद जी को उस पर दया आ गई। उन्होंने अपने शाप का परिमार्जन करते हुए कहा, 'अभी तो कुछ हो नहीं सकता, किंतु जब द्वापर में भगवान [[विष्णु]] [[कृष्ण]] के रूप में वहाँ अवतरित होंगे और दोनों वृक्षों का स्पर्श करेंगे तब उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।' | ||
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नारद के वचनों को सिद्ध करने के लिए ही मानो वासुदेव श्रीकृष्ण को गोकुल के राजा नंद के घर पलने के लिए छोड़ गए। वैसे तो सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण के गोकुल छोड़ आने का उद्देश्य था− प्रजा को [[कंस]] के अत्याचारों से बचाना। नंद की पत्नी [[यशोदा]] कृष्ण को बड़े लाड़−प्यार से पालती थी, परंतु कृष्ण को तो अपनी लीला रचानी थी। ग्वालिनों के घरों से मक्खन चुराना, उनके मटके फोड़ देना, घर के मक्खन को ग्वाल सखाओं में बाँटना, आदि खेल कृष्ण करते थे। | नारद के वचनों को सिद्ध करने के लिए ही मानो वासुदेव श्रीकृष्ण को गोकुल के राजा नंद के घर पलने के लिए छोड़ गए। वैसे तो सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण के गोकुल छोड़ आने का उद्देश्य था− प्रजा को [[कंस]] के अत्याचारों से बचाना। नंद की पत्नी [[यशोदा]] कृष्ण को बड़े लाड़−प्यार से पालती थी, परंतु कृष्ण को तो अपनी लीला रचानी थी। ग्वालिनों के घरों से मक्खन चुराना, उनके मटके फोड़ देना, घर के मक्खन को ग्वाल सखाओं में बाँटना, आदि खेल कृष्ण करते थे। | ||
एक दिन सुबह−सुबह माता यशोदा दही मथ रही थीं और नंद बाबा गौशाला में बैठकर गायों का दूध दुहवा रहे थे, तभी कृष्ण जाग गए और माता यशोदा से दुग्ध पान की | एक दिन सुबह−सुबह माता यशोदा दही मथ रही थीं और नंद बाबा गौशाला में बैठकर गायों का दूध दुहवा रहे थे, तभी कृष्ण जाग गए और माता यशोदा से दुग्ध पान की ज़िद करने लगे। किंतु काम में व्यस्त होने के कारण यशोदा को थोड़ा−सा विलम्ब हो गया। बस, फिर क्या था, कृष्ण रूठ गए और गुस्से में मथनी ही तोड़ डाली। यशोदा को भी क्रोध आ गया। उन्होंने एक रस्सी से कृष्ण को बांध दिया और रस्सी एक ऊखल से बांध दी। कृष्ण ठहरे अंतर्यामी, इन्हें अपने दरवाज़े के दो शापित वृक्षों की याद आ गई। नारद द्वारा शापित कुबेर के पुत्र काफ़ी समय तक अपनी अशिष्टा की सज़ा पा चुके थे। अब उन्हें मुक्त करना था। ऐसा सोचकर ऊखल खिसकाते हुए कृष्ण आगे बढ़े और दोनों वृक्षों के समीप आकर उनका स्पर्श किया और ऊखल से धक्का मारा। दोनों वृक्ष तत्काल हरहराते हुए नीचे आ गिरे। वृक्षों के गिरने से जो भारी शोर हुआ, उसे सुनकर नंद बाबा, माता यशोदा सहित सभी पड़ोसी वहाँ दौड़ते हुए पहुँचे। तब सभी ने एक चमत्कार देखा। उन वृक्षों में से दो सुंदर युवक, जो कोई देवता जैसे लग रहे थे, कृष्ण के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। फिर वे अंतर्ध्यान होकर अपने लोक को चले गए। इस प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव को नारद के शाप से मुक्ति मिली। | ||
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05:25, 10 दिसम्बर 2012 के समय का अवतरण
द्वापर युग में कुबेर जैसा शानवान कोई नहीं था। उसके दो पुत्र थे। एक का नाम नलकूबर था व दूसरे का मणिग्रीव। कुबेर के ये दोनों बेटे अपने पिता की धन−सम्पत्ति के प्रमाद में घमंडी और उद्दंड हो गए थे। राह चलते लोगों को छेड़ना, उन पर व्यंग्य कसना, ग़रीब लोगों का मखौल उड़ाना उन दोनों की प्रवृत्ति बन गयी थी। एक दिन दोनों भाई नदी में स्नान कर रहे थे। तभी आकाश मार्ग से आते हुए उन्हें देवर्षि नारद दिखाई दिए। उनके मुख से 'नारायण−नारायण' का स्वर सुनकर नदी पर स्नान के लिए पहुँचे लोग उन्हें प्रणाम करने लगे, लेकिन नलकूबर और मणिग्रीव तो अपने पिता के धन के कारण दंभ में भरे हुए थे। उन्होंने नारद को प्रणाम करने के स्थान पर उनकी ओर मुँह बिचकाया और उनका उपहास उड़ाया।
उन दोनों का व्यवहार नारद को बहुत अखरा। क्रोध में भरकर उन दोनों को शाप दे दिया, 'जाओ, मर्त्यलोक में जाकर वृक्ष बन जाओ।' शापवश उसी समय दोनों मर्त्यलोक में, गोकुल में नंद बाबा के द्वार पर पेड़ बन कर खड़े हो गए। कुबेर को अपने पुत्रों की दुर्दशा की ख़बर मिली तो वह बहुत दुःखी हुआ और महर्षि नारद से बार−बार क्षमा याचना करने लगा। नारद जी को उस पर दया आ गई। उन्होंने अपने शाप का परिमार्जन करते हुए कहा, 'अभी तो कुछ हो नहीं सकता, किंतु जब द्वापर में भगवान विष्णु कृष्ण के रूप में वहाँ अवतरित होंगे और दोनों वृक्षों का स्पर्श करेंगे तब उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।'
नारद के वचनों को सिद्ध करने के लिए ही मानो वासुदेव श्रीकृष्ण को गोकुल के राजा नंद के घर पलने के लिए छोड़ गए। वैसे तो सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण के गोकुल छोड़ आने का उद्देश्य था− प्रजा को कंस के अत्याचारों से बचाना। नंद की पत्नी यशोदा कृष्ण को बड़े लाड़−प्यार से पालती थी, परंतु कृष्ण को तो अपनी लीला रचानी थी। ग्वालिनों के घरों से मक्खन चुराना, उनके मटके फोड़ देना, घर के मक्खन को ग्वाल सखाओं में बाँटना, आदि खेल कृष्ण करते थे।
एक दिन सुबह−सुबह माता यशोदा दही मथ रही थीं और नंद बाबा गौशाला में बैठकर गायों का दूध दुहवा रहे थे, तभी कृष्ण जाग गए और माता यशोदा से दुग्ध पान की ज़िद करने लगे। किंतु काम में व्यस्त होने के कारण यशोदा को थोड़ा−सा विलम्ब हो गया। बस, फिर क्या था, कृष्ण रूठ गए और गुस्से में मथनी ही तोड़ डाली। यशोदा को भी क्रोध आ गया। उन्होंने एक रस्सी से कृष्ण को बांध दिया और रस्सी एक ऊखल से बांध दी। कृष्ण ठहरे अंतर्यामी, इन्हें अपने दरवाज़े के दो शापित वृक्षों की याद आ गई। नारद द्वारा शापित कुबेर के पुत्र काफ़ी समय तक अपनी अशिष्टा की सज़ा पा चुके थे। अब उन्हें मुक्त करना था। ऐसा सोचकर ऊखल खिसकाते हुए कृष्ण आगे बढ़े और दोनों वृक्षों के समीप आकर उनका स्पर्श किया और ऊखल से धक्का मारा। दोनों वृक्ष तत्काल हरहराते हुए नीचे आ गिरे। वृक्षों के गिरने से जो भारी शोर हुआ, उसे सुनकर नंद बाबा, माता यशोदा सहित सभी पड़ोसी वहाँ दौड़ते हुए पहुँचे। तब सभी ने एक चमत्कार देखा। उन वृक्षों में से दो सुंदर युवक, जो कोई देवता जैसे लग रहे थे, कृष्ण के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। फिर वे अंतर्ध्यान होकर अपने लोक को चले गए। इस प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव को नारद के शाप से मुक्ति मिली।