"भूषण": अवतरणों में अंतर
शिल्पी गोयल (वार्ता | योगदान) No edit summary |
आदित्य चौधरी (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "छः" to "छह") |
||
(6 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 30 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{सूचना बक्सा साहित्यकार | {{सूचना बक्सा साहित्यकार | ||
|चित्र=Blankimage. | |चित्र=Blankimage.png | ||
|पूरा नाम= | |पूरा नाम= | ||
|अन्य नाम=पतिराम, मनिराम (किवदंती) | |अन्य नाम=पतिराम, मनिराम (किवदंती) | ||
|जन्म=1613 | |जन्म=1613 (लगभग) | ||
|जन्म भूमि= | |जन्म भूमि=[[तिकवांपुर]], [[कानपुर]] | ||
| | |अभिभावक=रत्नाकर त्रिपाठी | ||
|पति/पत्नी= | |पति/पत्नी= | ||
|संतान= | |संतान= | ||
|कर्म भूमि=कानपुर | |कर्म भूमि=कानपुर | ||
|कर्म-क्षेत्र=कविता | |कर्म-क्षेत्र=कविता | ||
|मृत्यु=1715 | |मृत्यु=1715 (लगभग) | ||
|मृत्यु स्थान= | |मृत्यु स्थान= | ||
|मुख्य रचनाएँ=शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक | |मुख्य रचनाएँ=शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक | ||
|विषय=वीर रस कविता | |विषय=वीर रस कविता | ||
|भाषा=[[ब्रज भाषा|ब्रज]], अरबी, फारसी, तुर्की | |भाषा=[[ब्रज भाषा|ब्रज]], [[अरबी भाषा|अरबी]], [[फारसी भाषा|फारसी]], तुर्की | ||
|विद्यालय= | |विद्यालय= | ||
|शिक्षा= | |शिक्षा= | ||
पंक्ति 30: | पंक्ति 30: | ||
|अद्यतन= | |अद्यतन= | ||
}} | }} | ||
वीर रस के कवि | |||
'''भूषण''' [[वीर रस]] के [[कवि]] थे। इनका जन्म [[कानपुर]] में [[यमुना नदी|यमुना]] किनारे '[[तिकवांपुर]]' में हुआ था। मिश्रबन्धुओं तथा [[रामचन्द्र शुक्ल]] ने भूषण का समय '''1613-1715''' ई. माना है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। भूषण 1627 ई. से 1680 ई. तक महाराजा [[शिवाजी]] के आश्रय में रहे। इनके छ्त्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने का भी उल्लेख मिलता है। 'शिवराज भूषण', 'शिवाबावनी', और 'छ्त्रसाल दशक' नामक तीन ग्रंथ ही इनके लिखे छह ग्रथों में से उपलब्ध हैं। | |||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
भूषण [[हिन्दी]] [[रीति काल]] के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा [[वीर रस|वीर-रस]] की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने '''शिवराज-भूषण''' में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे तथा [[यमुना नदी|यमुना]] के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ [[बीरबल]] का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर [[महादेव]] हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र | भूषण [[हिन्दी]] [[रीति काल]] के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा [[वीर रस|वीर-रस]] की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने '''शिवराज-भूषण''' में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये 'रत्नाकर त्रिपाठी' के पुत्र थे तथा [[यमुना नदी|यमुना]] के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ [[बीरबल]] का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर [[महादेव]] हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रुद्र सुलंकी ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि से विभूषित किया था।<ref>छन्द 25-28</ref> तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण [[शिवाजी]] के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे। | ||
==== | ====परिवार==== | ||
भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम '''पतिराम''' अथवा '''मनिराम''' होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है। | भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। भूषण वीररस के ये प्रसिद्ध कवि [[चिंतामणि त्रिपाठी|चिंतामणि]] और [[मतिराम]] के भाई थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम '''पतिराम''' अथवा '''मनिराम''' होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है। | ||
==== | ====आश्रयदाता==== | ||
भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज [[शिवाजी]] | भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज [[शिवाजी]]<ref> [[6 अप्रैल]], 1627 - [[3 अप्रैल]], 1680 ई</ref> तथा [[छत्रसाल|छत्रसाल बुन्देला]]<ref> 1649-1731 ई.</ref> थे। इनके नाम से कुछ ऐसे फुटकर छन्द मिलते हैं, जिनमें साहूजी, बाजीराव, सोलंकी, [[जयसिंह|महाराज जयसिंह]], महाराज रानसिंह, अनिरुद्ध, राव बुद्ध, कुमाऊँ नरेश, गढ़वार-नरेश, [[औरंगजेब]], दाराशाह ([[दारा शिकोह]]) आदि की प्रशंसा की गयी है। ये सभी [[छन्द]] भूषण-रचित हैं। इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उक्त-सभी राजाओं क भूषण का आश्रयदाता नहीं माना जा सकता। | ||
==भूषण उपाधि== | |||
[[चित्रकूट]] के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें '''कविभूषण''' की उपाधि दी थी। तभी से ये '''भूषण''' के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इनका असली नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीरकाव्य के नायक हुए, छत्रापति महाराज शिवाजी मिले। [[पन्ना]] के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा मान हुआ। कहते हैं कि महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कंधा लगाया था जिस पर इन्होंने कहा था - '''सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।''' ऐसा प्रसिद्ध है कि इन्हें एक एक छंद पर [[शिवाजी]] से लाखों रुपये मिले। | |||
==वीर रस== | |||
[[शिवाजी]] और [[छत्रसाल]] की वीरता के वर्णनों को खुशामद नहीं कहा ज सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे [[हिंदू]] जाति के प्रतिनिधि कवि हैं। शिवाजी के दरबार में पहुँचने के पहले वे और राजाओं के पास भी रहे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें अवश्य ही करनी पड़ी होगी। पर वह झूठी थी। बाद में भूषण को अपनी उन रचनाओं से विरक्ति ही हुई होगी। भूषण वीररस के ही कवि थे। इधर इनके दो-चार कवित्त, श्रृंगार के भी मिले हैं, पर वे गिनती के योग्य नहीं हैं। | |||
==ग्रन्थ== | ==ग्रन्थ== | ||
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ- | भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ- | ||
* ' | * 'भूषणहज़ारा' | ||
* 'भूषणउल्लास' | * 'भूषणउल्लास' | ||
* 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है: | * 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है: | ||
====शिवराज भूषण==== | |||
==== | भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि [[ज्येष्ठ]] वदी [[त्रयोदशी]], [[रविवार]], संम्वत् 1730, [[29 अप्रैल]], 1673 ई. रविवार को दी है।<ref>छन्द 382</ref> शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में '''384 छन्द''' हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा [[कवित्त छन्द|कवित्त]] एवं [[सवैया छन्द|सवैया छन्दों]] में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराजभूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। पर रीतिग्रंथ की दृष्टि से, अलंकार निरूपण के विचार से यह उत्तम ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा भी स्पष्ट नहीं है और उदाहरण भी कई स्थलों पर ठीक नहीं हैं। | ||
भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि [[ज्येष्ठ]] वदी [[ | ====शिवा बावनी==== | ||
==== | |||
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है। | शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है। | ||
==== | ====छत्रसाल दशक==== | ||
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य | छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संग्रहीत हैं। | ||
==काव्यगत सौन्दर्य== | ==काव्यगत सौन्दर्य== | ||
भूषण की सारी रचनाएँ '''मुक्तक-पद्धति''' में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के | भूषण की सारी रचनाएँ '''मुक्तक-पद्धति''' में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरुष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त [[रौद्र रस|रौद्र]], [[भयानक रस|भयानक]], [[वीभत्स रस|वीभत्स]] आदि प्राय: समस्त [[रस|रसों]] के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है। | ||
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है। | रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है। | ||
=== | ===शैली=== | ||
सामान्यत: भूषण की शैली '''विवेचनात्मक''' एवं '''संश्लिष्ट''' है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, | सामान्यत: भूषण की शैली '''विवेचनात्मक''' एवं '''संश्लिष्ट''' है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन् मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है। | ||
=== | ===भाषा=== | ||
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा [[ब्रज भाषा|ब्रज]] का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग [[मुसलमान|मुसलमानों]] के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने '''अरबी''', '''फारसी''' और '''तुर्की''' के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में '''ओज''' पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है। | भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा [[ब्रज भाषा|ब्रज]] का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग [[मुसलमान|मुसलमानों]] के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने '''अरबी''', '''फारसी''' और '''तुर्की''' के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में '''ओज''' पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है। भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन है और वाक्यरचना भी कहीं कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत बिगाड़े गए हैं और कहीं कहीं बिल्कुल गढ़ंत के शब्द रखे गए हैं। पर जो कवित्त इन दोनों से मुक्त हैं वे बड़े ही सशक्त और प्रभावशाली हैं। | ||
==निधन== | |||
इनका परलोक वास संवत 1772 में माना जाता है। | |||
==काव्य में स्थान== | ==काव्य में स्थान== | ||
आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक | आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता कवि- कीर्तिसम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। वे तत्कालीन स्वातन्यसंग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। भूषण वीरकाव्य-धारा के जगमगाते [[रत्न]] हैं। कुछ काव्यगत उदाहरण इस प्रकार हैं - | ||
<blockquote><poem>इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर, | |||
रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं। | |||
पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर, | |||
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं | |||
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर, | |||
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं। | |||
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर, | |||
त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज हैं</poem> | |||
<poem>डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती, | |||
बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिंदुवाने की। | |||
कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब, | |||
मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की। | |||
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाक धाक, | |||
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की। | |||
मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय सीस, | |||
खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की</poem> | |||
<poem> | |||
सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग, | |||
ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे। | |||
जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि उर, | |||
कीन्हों ना सलाम न बचन बोले सियरे | |||
भूषन भनत महाबीर बलकन लाग्यो, | |||
सारी पातसाही के उड़ाय गए जियरे। | |||
तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयो, | |||
स्याह मुख नौरँग, सिपाह मुख पियरे।</poem> | |||
<poem>दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की, | |||
बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को। | |||
मठ विस्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को, | |||
देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को। | |||
गाढ़े गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें, | |||
ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को। | |||
बूड़ति है दिल्ली सो सँभारै क्यों न दिल्लीपति, | |||
धाक्का आनि लाग्यौ सिवराज महाकाल को</poem> | |||
<poem>चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार, | |||
दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है। | |||
बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति, | |||
फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है | |||
थर थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा, | |||
हहरि हबस भूप भीर भरकति है। | |||
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि, | |||
केते बादसाहन की छाती धारकति है | |||
</poem> | |||
<poem>जिहि फन फूतकार उड़त पहार भार, | |||
कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगो। | |||
विषजाल ज्वालामुखी लवलीन होत जिन, | |||
झारन चिकारि मद दिग्गज उगलिगो | |||
कीन्हो जिहि पान पयपान सो जहान कुल, | |||
कोलहू उछलि जलसिंधु खलभलिगो। | |||
खग्ग खगराज महाराज सिवराज जू को, | |||
अखिल भुजंग मुग़लद्दल निगलिगो</poem></blockquote> | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==बाहरी कड़ियाँ== | |||
*[http://books.google.co.in/books?id=h-hhCMYUgYsC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false भूषण ग्रंथावली] | |||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{भारत के कवि}} | {{भारत के कवि}} | ||
[[Category:कवि]] | [[Category:कवि]] | ||
[[Category: | [[Category:रीति काल]] | ||
[[Category: | [[Category:साहित्य कोश]] | ||
[[Category: | [[Category:रीतिकालीन कवि]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
11:10, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
भूषण
| |
अन्य नाम | पतिराम, मनिराम (किवदंती) |
जन्म | 1613 (लगभग) |
जन्म भूमि | तिकवांपुर, कानपुर |
मृत्यु | 1715 (लगभग) |
अभिभावक | रत्नाकर त्रिपाठी |
कर्म भूमि | कानपुर |
कर्म-क्षेत्र | कविता |
मुख्य रचनाएँ | शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक |
विषय | वीर रस कविता |
भाषा | ब्रज, अरबी, फारसी, तुर्की |
पुरस्कार-उपाधि | भूषण |
प्रसिद्धि | वीर-काव्य तथा वीर रस |
विशेष योगदान | रीतिग्रंथ |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
भूषण वीर रस के कवि थे। इनका जन्म कानपुर में यमुना किनारे 'तिकवांपुर' में हुआ था। मिश्रबन्धुओं तथा रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण का समय 1613-1715 ई. माना है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। भूषण 1627 ई. से 1680 ई. तक महाराजा शिवाजी के आश्रय में रहे। इनके छ्त्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने का भी उल्लेख मिलता है। 'शिवराज भूषण', 'शिवाबावनी', और 'छ्त्रसाल दशक' नामक तीन ग्रंथ ही इनके लिखे छह ग्रथों में से उपलब्ध हैं।
जीवन परिचय
भूषण हिन्दी रीति काल के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा वीर-रस की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने शिवराज-भूषण में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये 'रत्नाकर त्रिपाठी' के पुत्र थे तथा यमुना के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ बीरबल का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर महादेव हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रुद्र सुलंकी ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि से विभूषित किया था।[1] तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण शिवाजी के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे।
परिवार
भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। भूषण वीररस के ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम पतिराम अथवा मनिराम होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है।
आश्रयदाता
भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज शिवाजी[2] तथा छत्रसाल बुन्देला[3] थे। इनके नाम से कुछ ऐसे फुटकर छन्द मिलते हैं, जिनमें साहूजी, बाजीराव, सोलंकी, महाराज जयसिंह, महाराज रानसिंह, अनिरुद्ध, राव बुद्ध, कुमाऊँ नरेश, गढ़वार-नरेश, औरंगजेब, दाराशाह (दारा शिकोह) आदि की प्रशंसा की गयी है। ये सभी छन्द भूषण-रचित हैं। इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उक्त-सभी राजाओं क भूषण का आश्रयदाता नहीं माना जा सकता।
भूषण उपाधि
चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें कविभूषण की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इनका असली नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीरकाव्य के नायक हुए, छत्रापति महाराज शिवाजी मिले। पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा मान हुआ। कहते हैं कि महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कंधा लगाया था जिस पर इन्होंने कहा था - सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को। ऐसा प्रसिद्ध है कि इन्हें एक एक छंद पर शिवाजी से लाखों रुपये मिले।
वीर रस
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को खुशामद नहीं कहा ज सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं। शिवाजी के दरबार में पहुँचने के पहले वे और राजाओं के पास भी रहे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें अवश्य ही करनी पड़ी होगी। पर वह झूठी थी। बाद में भूषण को अपनी उन रचनाओं से विरक्ति ही हुई होगी। भूषण वीररस के ही कवि थे। इधर इनके दो-चार कवित्त, श्रृंगार के भी मिले हैं, पर वे गिनती के योग्य नहीं हैं।
ग्रन्थ
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ-
- 'भूषणहज़ारा'
- 'भूषणउल्लास'
- 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है:
शिवराज भूषण
भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि ज्येष्ठ वदी त्रयोदशी, रविवार, संम्वत् 1730, 29 अप्रैल, 1673 ई. रविवार को दी है।[4] शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में 384 छन्द हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा कवित्त एवं सवैया छन्दों में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराजभूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। पर रीतिग्रंथ की दृष्टि से, अलंकार निरूपण के विचार से यह उत्तम ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा भी स्पष्ट नहीं है और उदाहरण भी कई स्थलों पर ठीक नहीं हैं।
शिवा बावनी
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है।
छत्रसाल दशक
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संग्रहीत हैं।
काव्यगत सौन्दर्य
भूषण की सारी रचनाएँ मुक्तक-पद्धति में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरुष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि प्राय: समस्त रसों के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है।
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है।
शैली
सामान्यत: भूषण की शैली विवेचनात्मक एवं संश्लिष्ट है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन् मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है।
भाषा
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा ब्रज का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग मुसलमानों के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने अरबी, फारसी और तुर्की के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में ओज पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है। भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन है और वाक्यरचना भी कहीं कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत बिगाड़े गए हैं और कहीं कहीं बिल्कुल गढ़ंत के शब्द रखे गए हैं। पर जो कवित्त इन दोनों से मुक्त हैं वे बड़े ही सशक्त और प्रभावशाली हैं।
निधन
इनका परलोक वास संवत 1772 में माना जाता है।
काव्य में स्थान
आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता कवि- कीर्तिसम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। वे तत्कालीन स्वातन्यसंग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। भूषण वीरकाव्य-धारा के जगमगाते रत्न हैं। कुछ काव्यगत उदाहरण इस प्रकार हैं -
इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।
पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज हैंडाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती,
बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिंदुवाने की।
कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब,
मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की।
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाक धाक,
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।
मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय सीस,
खोटी भई संपति चकत्ता के घराने कीसबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग,
ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे।
जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों ना सलाम न बचन बोले सियरे
भूषन भनत महाबीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उड़ाय गए जियरे।
तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयो,
स्याह मुख नौरँग, सिपाह मुख पियरे।दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की,
बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को।
मठ विस्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को,
देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को।
गाढ़े गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें,
ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को।
बूड़ति है दिल्ली सो सँभारै क्यों न दिल्लीपति,
धाक्का आनि लाग्यौ सिवराज महाकाल कोचकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार,
दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है।
बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति,
फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है
थर थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा,
हहरि हबस भूप भीर भरकति है।
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,
केते बादसाहन की छाती धारकति हैजिहि फन फूतकार उड़त पहार भार,
कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगो।
विषजाल ज्वालामुखी लवलीन होत जिन,
झारन चिकारि मद दिग्गज उगलिगो
कीन्हो जिहि पान पयपान सो जहान कुल,
कोलहू उछलि जलसिंधु खलभलिगो।
खग्ग खगराज महाराज सिवराज जू को,
अखिल भुजंग मुग़लद्दल निगलिगो
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख