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*लल्लू जी लाल [[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] प्रदेश के [[आगरा]] ज़िले के रहने वाले थे।
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*लल्लूजी लाल को लालचंद, लल्लूजी या लाल कवि के नाम से भी जाना जाता है।
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*उनका काम ब्रिटिश राज के कर्मचारियों के लिए पाठय सामग्री तैयार करना था।
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*साहित्यकार के रूप में लल्लूजी किस पायदान पर हैं, इसका मूल्यांकन करना तो आलोचकों का काम है, लेकिन यह सब मानते हैं कि हिन्दी के विकास में उनका योगदान है।
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==परिचय==
लल्लू लाल का जन्म 1763 ई. में ब्रिटिश कालीन [[उत्तर प्रदेश]] के [[आगरा]] में हुआ था। इनके पूर्वज [[गुजरात]] से आकर यहाँ बसे थे। कहा जाता है कि लल्लू लाल आगरा शहर की 'सुनार गली' में ही कहीं रहते थे। आगरा की 'नागरी प्रचारिणी सभा' में भी उनका विवरण नहीं है।
====व्यावसायिक संघर्ष====
लल्लू लाल को आजीविका के लिए बहुत भटकना पड़ा। वे [[मुर्शिदाबाद]], [[कोलकाता]], [[जगन्नाथपुरी]] आदि स्थानों में गए, पर नियमित आजीविका की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई तो वे घूम-फिर कर फिर कोलकाता आ गए।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=759|url=}}</ref>
==अध्यापन कार्य==
लल्लू लालजी तैरना बहुत अच्छा जानते थे। कहते हैं कि एक दिन उन्होंने तैरते समय एक [[अंग्रेज़]] को डूबने से बचाया था। इस पर उस अंग्रेज़ ने इनकी बड़ी सहायता की और इन्हें 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' में [[हिन्दी]] पढ़ाने और हिन्दी गद्य ग्रंथों की रचना का काम मिल गया। उनका काम ब्रिटिश राज के कर्मचारियों के लिए पाठन सामग्री तैयार करना भी था।
==रचनाएँ==
एक साहित्यकार के रूप में लल्लूजी किस पायदान पर थे, इसका मूल्यांकन करना तो आलोचकों का काम है, लेकिन यह सब मानते हैं कि हिन्दी के विकास में उनका बहुत योगदान था। इनके द्वारा रचित प्रमुख [[ग्रंथ]] इस प्रकार हैं-


 
#सिंहासन बत्तीसी
#बैताल पच्चीसी
#शंकुतला
#माधवानल
#प्रेम सागर
#ब्रज भाषा व्याकरण


इनमें व्याकरण ग्रंथ को छोड़कर कोई रचना इनकी मौलिक नहीं मानी जाती है। सभी [[ब्रजभाषा]] में प्रकाशित किसी न किसी पुस्तक के आधार पर लिखी गई थीं। फिर भी इन पुस्तकों ने हिन्दी गद्य के आरम्भिक काल में [[खड़ी बोली]] के प्रचार में योगदान दिया। 'बिहारी सतसई' की [[टीका]] भी इन्होंने ‘लाल चंद्रिका’ नाम से की थी।<ref name="aa"/>
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1804 से 1810 के बीच लिखी गई कृति '[[प्रेमसागर]]' [[कृष्ण]] की लीलाओं व [[भागवत पुराण]] के दसवें अध्याय पर आधारित थी। डब्लू. होलिंग्स ने सन् 1848 में [[अंग्रेज़ी]] में 'प्रेमसागर' का अनुवाद किया। 47वीं रेजीमेंट [[लखनऊ]] में कैप्टन हाँलिंग्स ने प्रस्तावना में लिखा था- "[[हिन्दी भाषा]] का ज्ञान [[भारत|हिन्दुस्तान]](तत्कालीन [[भारत]]) में रहने वाले सभी सरकारी अफ़सरों के लिए ज़रूरी है, क्योंकि यह देश के ज़्यादातर हिस्से में बोली जाती है।" प्राइस ने 'प्रेमसागर' के कठिन शब्दों का हिन्दी-अंग्रेज़ी कोष तैयार किया था।


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05:04, 29 मई 2015 के समय का अवतरण

लल्लू लालजी
लल्लू लाल
लल्लू लाल
पूरा नाम लल्लू लाल
अन्य नाम 'लालचंद', 'लल्लूजी' या 'लाल कवि'
जन्म 1763 ई.
जन्म भूमि आगरा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 1835
मृत्यु स्थान कोलकाता, पश्चिम बंगाल
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ 'सिंहासन बत्तीसी', 'बैताल पच्चीसी', 'शंकुतला', 'माधवानल', 'प्रेम सागर', 'ब्रज भाषा व्याकरण' आदि।
भाषा हिन्दी
प्रसिद्धि साहित्यकार
विशेष योगदान हिन्दी के विकास में लल्लू लालजी का बहुत योगदान था।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी लल्लू लाल द्वारा लिखी गई कृति 'प्रेमसागर' कृष्ण की लीलाओं व भागवत पुराण के दसवें अध्याय पर आधारित थी। डब्लू. होलिंग्स ने सन् 1848 में अंग्रेज़ी में 'प्रेमसागर' का अनुवाद किया था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

लल्लू लाल (जन्म- 1763 ई., आगरा, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 1835, कलकत्ता[1], पश्चिम बंगाल) हिन्दी गद्य के निर्माताओं में से एक और 'प्रेम सागर' के रचनाकार के रूप में प्रसिद्ध थे। इन्हें 'लालचंद', 'लल्लूजी' या 'लाल कवि' के नाम से भी जाना जाता था। एक साहित्यकार के रूप में लल्लू लालजी किस पायदान पर थे, इसका मूल्यांकन करना तो आलोचकों का काम है, लेकिन यह सब मानते हैं कि हिन्दी के विकास में उनका बहुत योगदान था।

परिचय

लल्लू लाल का जन्म 1763 ई. में ब्रिटिश कालीन उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था। इनके पूर्वज गुजरात से आकर यहाँ बसे थे। कहा जाता है कि लल्लू लाल आगरा शहर की 'सुनार गली' में ही कहीं रहते थे। आगरा की 'नागरी प्रचारिणी सभा' में भी उनका विवरण नहीं है।

व्यावसायिक संघर्ष

लल्लू लाल को आजीविका के लिए बहुत भटकना पड़ा। वे मुर्शिदाबाद, कोलकाता, जगन्नाथपुरी आदि स्थानों में गए, पर नियमित आजीविका की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई तो वे घूम-फिर कर फिर कोलकाता आ गए।[2]

अध्यापन कार्य

लल्लू लालजी तैरना बहुत अच्छा जानते थे। कहते हैं कि एक दिन उन्होंने तैरते समय एक अंग्रेज़ को डूबने से बचाया था। इस पर उस अंग्रेज़ ने इनकी बड़ी सहायता की और इन्हें 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' में हिन्दी पढ़ाने और हिन्दी गद्य ग्रंथों की रचना का काम मिल गया। उनका काम ब्रिटिश राज के कर्मचारियों के लिए पाठन सामग्री तैयार करना भी था।

रचनाएँ

एक साहित्यकार के रूप में लल्लूजी किस पायदान पर थे, इसका मूल्यांकन करना तो आलोचकों का काम है, लेकिन यह सब मानते हैं कि हिन्दी के विकास में उनका बहुत योगदान था। इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं-

  1. सिंहासन बत्तीसी
  2. बैताल पच्चीसी
  3. शंकुतला
  4. माधवानल
  5. प्रेम सागर
  6. ब्रज भाषा व्याकरण

इनमें व्याकरण ग्रंथ को छोड़कर कोई रचना इनकी मौलिक नहीं मानी जाती है। सभी ब्रजभाषा में प्रकाशित किसी न किसी पुस्तक के आधार पर लिखी गई थीं। फिर भी इन पुस्तकों ने हिन्दी गद्य के आरम्भिक काल में खड़ी बोली के प्रचार में योगदान दिया। 'बिहारी सतसई' की टीका भी इन्होंने ‘लाल चंद्रिका’ नाम से की थी।[2]

प्रेमसागर

1804 से 1810 के बीच लिखी गई कृति 'प्रेमसागर' कृष्ण की लीलाओं व भागवत पुराण के दसवें अध्याय पर आधारित थी। डब्लू. होलिंग्स ने सन् 1848 में अंग्रेज़ी में 'प्रेमसागर' का अनुवाद किया। 47वीं रेजीमेंट लखनऊ में कैप्टन हाँलिंग्स ने प्रस्तावना में लिखा था- "हिन्दी भाषा का ज्ञान हिन्दुस्तान(तत्कालीन भारत) में रहने वाले सभी सरकारी अफ़सरों के लिए ज़रूरी है, क्योंकि यह देश के ज़्यादातर हिस्से में बोली जाती है।" प्राइस ने 'प्रेमसागर' के कठिन शब्दों का हिन्दी-अंग्रेज़ी कोष तैयार किया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वर्तमान कोलकाता
  2. 2.0 2.1 भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 759 |

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