"राजगुरु": अवतरणों में अंतर

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}}'''शिवराम हरि राजगुरु''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Rajguru''; जन्म- [[24 अगस्त]], [[1908]], [[पुणे]], [[महाराष्ट्र]]; बलिदान- [[23 मार्च]], [[1931]], [[लाहौर]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध वीर स्वतंत्रता सेनानी थे। ये [[भगत सिंह|सरदार भगत सिंह]] और [[सुखदेव]] के घनिष्ठ मित्र थे। इस मित्रता को राजगुरु ने मृत्यु पर्यंत निभाया। देश की आजादी के लिए दिये गये राजगुरु के बलिदान ने इनका नाम [[भारतीय इतिहास]] में स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा दिया। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव का बलिदान आज भी [[भारत]] के युवकों को प्रेरणा प्रदान करता है।
 
==जन्म तथा शिक्षा==
शहीद राजगुरु का पूरा नाम 'शिवराम हरि राजगुरु' था। राजगुरु का जन्म [[24 अगस्त]], [[1908]] को [[पुणे]] ज़िले के खेड़ा गाँव में हुआ था, जिसका नाम अब 'राजगुरु नगर' हो गया है। उनके पिता का नाम 'श्री हरि नारायण' और माता का नाम 'पार्वती बाई' था। भगत सिंह और सुखदेव के साथ ही राजगुरु को भी 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी
वीर स्वतंत्रता सेनानी सुखदेव का जन्म 24 अगस्त, 1908 को [[पुणे]] ([[महाराष्ट्र]]) के [[खेड़ा|खेड़ा]] नामक गाँव में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम श्री हरि नारायण और [[माता]] का नाम पार्वती बाई था। राजगुरु के पिता का निधन इनके बाल्यकाल में ही हो गया था। इनका पालन-पोषण इनकी माता और बड़े भैया ने किया। राजगुरु बचपन से ही बड़े वीर, साहसी और मस्तमौला थे। भारत माँ से प्रेम तो बचपन से ही था। इस कारण [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] से घृणा तो स्वाभाविक ही थी। ये बचपन से ही [[शिवाजी|वीर शिवाजी]] और [[लोकमान्य तिलक]] के बहुत बड़े भक्त थे। संकट मोल लेने में भी इनका कोई जवाब नहीं था। किन्तु ये कभी-कभी लापरवाही कर जाते थे। राजगुरु का पढ़ाई में मन नहीं लगता था, इसलिए इनको अपने बड़े भैया और भाभी का तिरस्कार सहना पड़ता था। माँ बेचारी कुछ बोल न पातीं।<ref name="aa">{{cite web |url=http://rashtravaad-hsra.blogspot.in/2011/04/blog-post_21.html|title=अमर बलिदानी हुतात्मा शिवराम हरि राजगुरु|accessmonthday=24 अगस्त|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
==आज़ादी का प्रण==
====चंद्रशेखर आज़ाद से भेंट====
राजगुरु `स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे हासिल करके रहूंगा' का उद्घोष करने वाले [[बाल गंगाधर तिलक|लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक]] के विचारों से बहुत प्रभावित थे। 1919 में [[जलियांवाला बाग़]] में जनरल डायर के नेतृत्व में किये गये भीषण नरसंहार ने राजगुरु को ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ बाग़ी और निर्भीक बना दिया तथा उन्होंने उसी समय [[भारत]] को विदेशियों के हाथों आजाद कराने की प्रतिज्ञा ली और प्रण किया कि चाहे इस कार्य में उनकी जान ही क्यों न चली जाये वह पीछे नहीं हटेंगे।
जब राजगुरु तिरस्कार सहते-सहते तंग आ गए, तब वे अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए घर छोड़ कर चले गए। फिर सोचा की अब जबकि घर के बंधनों से स्वाधीन हूँ तो भारत माता की बेड़ियाँ काटने में अब कोई दुविधा नहीं है। वे कई दिनों तक भिन्न-भिन्न क्रांतिकारियों से भेंट करते रहे। अंत में उनकी क्रांति की नौका को [[चंद्रशेखर आज़ाद]] ने पार लगाया। राजगुरु 'हिंदुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ' के सदस्य बन गए। चंद्रशेखर आज़ाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित हुए और बड़े चाव से इन्हें निशानेबाजी की शिक्षा देने लगे। शीघ्र ही राजगुरु आज़ाद जैसे एक कुशल निशानेबाज बन गए। कभी-कभी चंद्रशेखर आज़ाद इनको लापरवाही करने पर डांट देते, किन्तु यह सदा आज़ाद को बड़ा भाई समझ कर बुरा न मानते। राजगुरु का निशाना कभी चूकता नहीं था। बाद में दल में इनकी भेंट [[भगत सिंह]] और [[सुखदेव]] से हुई। राजगुरु इन दोनों से बड़े प्रभावित हुए।
==सुनियोजित गिरफ़्तारी==
==सांडर्स हत्याकाण्ड==
जीवन के प्रारम्भिक दिनों से ही राजगुरु का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था। राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को [[शहीद-ए-आजम भगत सिंह]] के साथ मिलकर [[लाहौर]] में सहायक पुलिस अधीक्षक पद पर नियुक्त अंग्रेज़ अधिकारी 'जे. पी. सांडर्स' को गोली मार दी थी और ख़ुद को अंग्रेज़ी सिपाहियों से गिरफ़्तार कराया था। यह सब पूर्व नियोजित था।
भगत सिंह और सुखदेव, ये दोनों राजगुरु को अपना सबसे अच्छा साथी मानते थे। दल ने [[लाला लाजपत राय]] की मृत्यु के जिम्मेदार [[अंग्रेज़]] अफ़सर स्कॉट का वध करने की योजना बनायी। इस काम के लिए राजगुरु और भगत सिंह को चुना गया। राजगुरु तो अंग्रेज़ों को सबक सिखाने का अवसर ढूँढ़ते ही रहते थे, अब वह सुअवसर उन्हें मिल गया था। [[19 दिसंबर]], [[1928]] को राजगुरु, भगत सिंह और [[चंद्रशेखर आज़ाद]] ने सुखदेव के कुशल मार्गदर्शन के फलस्वरूप जे. पी. सांडर्स नाम के एक अन्य [[अंग्रेज़]] अफ़सर, जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर लाठियाँ चलायी थीं, का वध कर दिया। कार्रवाई के पश्चात् भगत सिंह अंग्रेज़ी साहब बनकर, राजगुरु उनके सेवक बनकर और चंद्रशेखर आज़ाद सुरक्षित पुलिस की दृष्टि से बचकर निकल गए।<ref name="aa"/>
==अदालत में बयान==
==गिरफ़्तारी==
अदालत में इन क्रांतिकारियों ने स्वीकार किया था कि वे [[पंजाब]] में आज़ादी की लड़ाई के एक बड़े नायक [[लाला लाजपत राय]] की मौत का बदला लेना चाहते थे। अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक प्रदर्शन में पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी।
[[भगत सिंह]] और [[बटुकेश्वर दत्त]] के असेम्बली में बम फोड़ने और स्वयं को गिरफ्तार करवाने के पश्चात् [[चंद्रशेखर आज़ाद]] को छोड़कर [[सुखदेव]] सहित दल के सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए, केवल राजगुरु ही इससे बचे रहे। आज़ाद के कहने पर पुलिस से बचने के लिए राजगुरु कुछ दिनों के लिए [[महाराष्ट्र]] चले गए, किन्तु लापरवाही के कारण राजगुरु भी छुटपुट संघर्ष के बाद पकड़ लिए गए। अंग्रेज़ों ने चंद्रशेखर आज़ाद का पता जानने के लिए राजगुरु पर अनेकों अमानवीय अत्त्याचार किये, किन्तु वीर राजगुरु विचलित नहीं हुए। पुलिस ने राजगुरु को अपने सभी साथियों के साथ लाकर [[लाहौर]] की जेल में बंद कर दिया। सभी साथी मस्तमौला वीर [[मराठा]] राजगुरु को पाकर बड़े खुश थे।
==प्रसिद्ध तिकड़ी==
====मुकदमा====
[[लाहौर]] में सभी क्रांतिकारियों पर सांडर्स हत्याकाण्ड का मुकदमा चल रहा था। मुक़दमे को क्रांतिकारियों ने अपनी फाकामस्ती से बड़ा लम्बा खींचा। सभी जानते थे की अदालत एक ढोंग है। उनका फैसला तो अंग्रेज़ हुकूमत ने पहले ही कर दिया था। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव जानते थे की उनकी मृत्यु का फरमान तो पहले ही लिखा जा चूका है तो क्यों न अपनी मस्तियों से अदालत में [[अंग्रेज़]] जज को धुल चटाई जाए। एक बार राजगुरु ने अदालत में अंग्रेज़ जज को [[संस्कृत]] में ललकारा। जज चौंक गया उसने कहा- "टूम क्या कहता हाय"। राजगुरु ने [[भगत सिंह]] की तरफ हंस कर कहा कि- "यार भगत इसको [[अंग्रेज़ी]] में समझाओ। यह जाहिल हमारी [[भाषा]] क्या समझेंगे"। सभी क्रांतिकारी ठहाका मारकर हसने लगे। अदालत में इन क्रांतिकारियों ने स्वीकार किया था कि वे [[पंजाब]] में आज़ादी की लड़ाई के एक बड़े नायक [[लाला लाजपत राय]] की मौत का बदला लेना चाहते थे। अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक प्रदर्शन में पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी।<ref name="aa"/>
==आमरण अनशन==
जेल में भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय अत्त्याचारों के विरुद्ध आमरण अनशन आरंभ कर दिया, जिसको जनता का जबरदस्त समर्थन मिला, जो पहले से ही क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धा का भाव रखती थी, विशेष रूप से भगत सिंह के प्रति। इस आमरण अनशन से [[वायसराय]] की कुर्सी तक हिल गयी। अंग्रेज़ों ने क्रांतिकारियों की हड़ताल तुडवाने का जबरदस्त प्रयत्न किया, किन्तु क्रांतिकारियों की जिद के सामने वे हार गए। राजगुरु और जतिनदास की इस अनशन में हालत बिगड़ गयी। राजगुरु और [[सुखदेव]] से अंग्रेज़ विशेष रूप से हार गए थे। जतिनदास आमरण अनशन के कारण बलिदानी हो गए, जिससे जनता भड़क उठी। विवश हो कर अंग्रेज़ों को क्रांतिकारियों की सभी बातें मनानी पड़ीं। यह क्रांतिकारियों की विजय थी। उधर सांडर्स हत्याकाण्ड मुक़दमे का परिणाम निकल आया। सांडर्स के वध के अपराध में राजगुरु, [[सुखदेव]] और [[भगत सिंह]] को मृत्युदंड मिला। तीनों इस मृत्युदंड को सुन कर आनंद से पागल हो गए और जोर-जोर से 'इन्कलाब जिंदाबाद' की गर्जाना की।
==बलिदान==
[[चित्र:Freedom-Fighters.jpg|thumb|250px|[[सुखदेव]], [[भगतसिंह]], राजगुरु <br />Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru]]
[[चित्र:Freedom-Fighters.jpg|thumb|250px|[[सुखदेव]], [[भगतसिंह]], राजगुरु <br />Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru]]
([[भगतसिंह]], [[सुखदेव]], राजगुरू)
राजगुरु को [[23 मार्च]], [[1931]] की शाम सात बजे [[लाहौर]] के केंद्रीय कारागार में उनके दोस्तों [[भगत सिंह]] और [[सुखदेव]] के साथ फ़ाँसी पर लटका दिया गया। [[इतिहासकार]] बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए [[अंग्रेज़]] अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का [[अंतिम संस्कार]] फ़िरोज़पुर ज़िले के [[हुसैनीवाला]] में कर दिया था। यह भी माना जाता है कि इन तीनों क्रांतिकारियों की फाँसी की तिथि [[24 मार्च]] निर्धारित थी, लेकिन अंग्रेज़ सरकार फाँसी के बाद उत्पन्न होने वाली स्थितियों से घबरा रही थी। इसीलिए उसने एक दिन पहले ही फाँसी दे दी।
*राजगुरु ने भगत सिंह के साथ मिलकर सांडर्स को गोली मारी थी
==सम्मान==
*राजगुरु ने 28 सितंबर, 1929 को एक गवर्नर को मारने की कोशिश की थी जिसके अगले दिन उन्हें पुणे से गिरफ़्तार कर लिया गया था।
राजगुरु के जन्म शती के अवसर पर [[भारत सरकार]] के प्रकाशन विभाग ने उन पर संभवत पहली बार कोई पुस्तक प्रकाशित की। इस सराहनीय प्रयास के लिए न केवल प्रकाशन विभाग धन्यवाद का पात्र है बल्कि उस लेखक को भी कोटि कोटि बधाई है, जिसने इस क्रन्तिकारी की जीवन लीला से सभी को परिचय कराया है।<ref>{{cite web|url=http://naipirhi.blogspot.com/2008/08/blog-post.html|title=राजगुरु की याद में........|accessmonthday=30जुलाई|accessyear=2010|authorlink=naipirhi.blogspot.com|format=एच.टी.एम.एल |publisher=naipirhi.blogspot.com|language=[[हिन्दी]]}}</ref> [[पुणे]] का वह [[खेड़ा]] गाँव जहाँ राजगुरु का जन्म हुआ था, उसे अब 'राजगुरु नगर' के नाम से जाना जाता है।
*राजगुरु पर 'लाहौर षड़यंत्र' मामले में शामिल होने का मुक़दमा भी चलाया गया।
==फ़ाँसी का दिन==
*राजगुरु को भी [[23 मार्च]], [[1931]] की शाम सात बजे [[लाहौर]] के केंद्रीय कारागार में उनके दोस्तों भगत सिंह और सुखदेव के साथ फ़ाँसी पर लटका दिया गया.<br />
 
'''विशेष'''<br />
 
इतिहासकार बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया था
==पुस्तक का प्रकाशन==
अब उनकी जन्म शती के अवसर पर [[भारत]] सरकार का प्रकाशन विभाग उन पर संभवत पहली बार कोई पुस्तक प्रकाशित कर रहा है। इस सराहनीय प्रयास के लिए न केवल प्रकाशन विभाग धन्यवाद का पात्र है बल्कि उस लेखक को भी कोटि कोटि बधाई है जिसने इस क्रन्तिकारी की जीवन लीला से हमें परिचय कराया है। <ref>{{cite web|url=http://naipirhi.blogspot.com/2008/08/blog-post.html|title=राजगुरु की याद में........|accessmonthday=30जुलाई|accessyear=2010|authorlink=naipirhi.blogspot.com|format=एच.टी.एम.एल |publisher=naipirhi.blogspot.com|language=हिंदी}}</ref>




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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
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05:50, 23 मार्च 2022 के समय का अवतरण

राजगुरु
पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु
अन्य नाम राजगुरु
जन्म 24 अगस्त, 1908
जन्म भूमि पुणे
मृत्यु 23 मार्च, 1931
मृत्यु स्थान लाहौर, पाकिस्तान
मृत्यु कारण शहीद
अभिभावक पिता- श्री हरि नारायण, माता- पार्वती बाई
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
धर्म हिन्दू
आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
जेल यात्रा 28 सितंबर, 1929
संबंधित लेख भगतसिंह, सुखदेव
विशेष अपने दल में राजगुरु सबसे अच्छे निशानेबाज माने जाते थे।
अन्य जानकारी राजगुरु `स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे हासिल करके रहूँगा' का उद्घोष करने वाले बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। पुणे का वह खेड़ा गाँव जहाँ राजगुरु का जन्म हुआ था, उसे अब 'राजगुरु नगर' के नाम से जाना जाता है।

शिवराम हरि राजगुरु (अंग्रेज़ी: Rajguru; जन्म- 24 अगस्त, 1908, पुणे, महाराष्ट्र; बलिदान- 23 मार्च, 1931, लाहौर) भारत के प्रसिद्ध वीर स्वतंत्रता सेनानी थे। ये सरदार भगत सिंह और सुखदेव के घनिष्ठ मित्र थे। इस मित्रता को राजगुरु ने मृत्यु पर्यंत निभाया। देश की आजादी के लिए दिये गये राजगुरु के बलिदान ने इनका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा दिया। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव का बलिदान आज भी भारत के युवकों को प्रेरणा प्रदान करता है।

जन्म तथा शिक्षा

वीर स्वतंत्रता सेनानी सुखदेव का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे (महाराष्ट्र) के खेड़ा नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हरि नारायण और माता का नाम पार्वती बाई था। राजगुरु के पिता का निधन इनके बाल्यकाल में ही हो गया था। इनका पालन-पोषण इनकी माता और बड़े भैया ने किया। राजगुरु बचपन से ही बड़े वीर, साहसी और मस्तमौला थे। भारत माँ से प्रेम तो बचपन से ही था। इस कारण अंग्रेज़ों से घृणा तो स्वाभाविक ही थी। ये बचपन से ही वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के बहुत बड़े भक्त थे। संकट मोल लेने में भी इनका कोई जवाब नहीं था। किन्तु ये कभी-कभी लापरवाही कर जाते थे। राजगुरु का पढ़ाई में मन नहीं लगता था, इसलिए इनको अपने बड़े भैया और भाभी का तिरस्कार सहना पड़ता था। माँ बेचारी कुछ बोल न पातीं।[1]

चंद्रशेखर आज़ाद से भेंट

जब राजगुरु तिरस्कार सहते-सहते तंग आ गए, तब वे अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए घर छोड़ कर चले गए। फिर सोचा की अब जबकि घर के बंधनों से स्वाधीन हूँ तो भारत माता की बेड़ियाँ काटने में अब कोई दुविधा नहीं है। वे कई दिनों तक भिन्न-भिन्न क्रांतिकारियों से भेंट करते रहे। अंत में उनकी क्रांति की नौका को चंद्रशेखर आज़ाद ने पार लगाया। राजगुरु 'हिंदुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ' के सदस्य बन गए। चंद्रशेखर आज़ाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित हुए और बड़े चाव से इन्हें निशानेबाजी की शिक्षा देने लगे। शीघ्र ही राजगुरु आज़ाद जैसे एक कुशल निशानेबाज बन गए। कभी-कभी चंद्रशेखर आज़ाद इनको लापरवाही करने पर डांट देते, किन्तु यह सदा आज़ाद को बड़ा भाई समझ कर बुरा न मानते। राजगुरु का निशाना कभी चूकता नहीं था। बाद में दल में इनकी भेंट भगत सिंह और सुखदेव से हुई। राजगुरु इन दोनों से बड़े प्रभावित हुए।

सांडर्स हत्याकाण्ड

भगत सिंह और सुखदेव, ये दोनों राजगुरु को अपना सबसे अच्छा साथी मानते थे। दल ने लाला लाजपत राय की मृत्यु के जिम्मेदार अंग्रेज़ अफ़सर स्कॉट का वध करने की योजना बनायी। इस काम के लिए राजगुरु और भगत सिंह को चुना गया। राजगुरु तो अंग्रेज़ों को सबक सिखाने का अवसर ढूँढ़ते ही रहते थे, अब वह सुअवसर उन्हें मिल गया था। 19 दिसंबर, 1928 को राजगुरु, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद ने सुखदेव के कुशल मार्गदर्शन के फलस्वरूप जे. पी. सांडर्स नाम के एक अन्य अंग्रेज़ अफ़सर, जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर लाठियाँ चलायी थीं, का वध कर दिया। कार्रवाई के पश्चात् भगत सिंह अंग्रेज़ी साहब बनकर, राजगुरु उनके सेवक बनकर और चंद्रशेखर आज़ाद सुरक्षित पुलिस की दृष्टि से बचकर निकल गए।[1]

गिरफ़्तारी

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के असेम्बली में बम फोड़ने और स्वयं को गिरफ्तार करवाने के पश्चात् चंद्रशेखर आज़ाद को छोड़कर सुखदेव सहित दल के सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए, केवल राजगुरु ही इससे बचे रहे। आज़ाद के कहने पर पुलिस से बचने के लिए राजगुरु कुछ दिनों के लिए महाराष्ट्र चले गए, किन्तु लापरवाही के कारण राजगुरु भी छुटपुट संघर्ष के बाद पकड़ लिए गए। अंग्रेज़ों ने चंद्रशेखर आज़ाद का पता जानने के लिए राजगुरु पर अनेकों अमानवीय अत्त्याचार किये, किन्तु वीर राजगुरु विचलित नहीं हुए। पुलिस ने राजगुरु को अपने सभी साथियों के साथ लाकर लाहौर की जेल में बंद कर दिया। सभी साथी मस्तमौला वीर मराठा राजगुरु को पाकर बड़े खुश थे।

मुकदमा

लाहौर में सभी क्रांतिकारियों पर सांडर्स हत्याकाण्ड का मुकदमा चल रहा था। मुक़दमे को क्रांतिकारियों ने अपनी फाकामस्ती से बड़ा लम्बा खींचा। सभी जानते थे की अदालत एक ढोंग है। उनका फैसला तो अंग्रेज़ हुकूमत ने पहले ही कर दिया था। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव जानते थे की उनकी मृत्यु का फरमान तो पहले ही लिखा जा चूका है तो क्यों न अपनी मस्तियों से अदालत में अंग्रेज़ जज को धुल चटाई जाए। एक बार राजगुरु ने अदालत में अंग्रेज़ जज को संस्कृत में ललकारा। जज चौंक गया उसने कहा- "टूम क्या कहता हाय"। राजगुरु ने भगत सिंह की तरफ हंस कर कहा कि- "यार भगत इसको अंग्रेज़ी में समझाओ। यह जाहिल हमारी भाषा क्या समझेंगे"। सभी क्रांतिकारी ठहाका मारकर हसने लगे। अदालत में इन क्रांतिकारियों ने स्वीकार किया था कि वे पंजाब में आज़ादी की लड़ाई के एक बड़े नायक लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेना चाहते थे। अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक प्रदर्शन में पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी।[1]

आमरण अनशन

जेल में भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय अत्त्याचारों के विरुद्ध आमरण अनशन आरंभ कर दिया, जिसको जनता का जबरदस्त समर्थन मिला, जो पहले से ही क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धा का भाव रखती थी, विशेष रूप से भगत सिंह के प्रति। इस आमरण अनशन से वायसराय की कुर्सी तक हिल गयी। अंग्रेज़ों ने क्रांतिकारियों की हड़ताल तुडवाने का जबरदस्त प्रयत्न किया, किन्तु क्रांतिकारियों की जिद के सामने वे हार गए। राजगुरु और जतिनदास की इस अनशन में हालत बिगड़ गयी। राजगुरु और सुखदेव से अंग्रेज़ विशेष रूप से हार गए थे। जतिनदास आमरण अनशन के कारण बलिदानी हो गए, जिससे जनता भड़क उठी। विवश हो कर अंग्रेज़ों को क्रांतिकारियों की सभी बातें मनानी पड़ीं। यह क्रांतिकारियों की विजय थी। उधर सांडर्स हत्याकाण्ड मुक़दमे का परिणाम निकल आया। सांडर्स के वध के अपराध में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को मृत्युदंड मिला। तीनों इस मृत्युदंड को सुन कर आनंद से पागल हो गए और जोर-जोर से 'इन्कलाब जिंदाबाद' की गर्जाना की।

बलिदान

सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु
Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru

राजगुरु को 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे लाहौर के केंद्रीय कारागार में उनके दोस्तों भगत सिंह और सुखदेव के साथ फ़ाँसी पर लटका दिया गया। इतिहासकार बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया था। यह भी माना जाता है कि इन तीनों क्रांतिकारियों की फाँसी की तिथि 24 मार्च निर्धारित थी, लेकिन अंग्रेज़ सरकार फाँसी के बाद उत्पन्न होने वाली स्थितियों से घबरा रही थी। इसीलिए उसने एक दिन पहले ही फाँसी दे दी।

सम्मान

राजगुरु के जन्म शती के अवसर पर भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने उन पर संभवत पहली बार कोई पुस्तक प्रकाशित की। इस सराहनीय प्रयास के लिए न केवल प्रकाशन विभाग धन्यवाद का पात्र है बल्कि उस लेखक को भी कोटि कोटि बधाई है, जिसने इस क्रन्तिकारी की जीवन लीला से सभी को परिचय कराया है।[2] पुणे का वह खेड़ा गाँव जहाँ राजगुरु का जन्म हुआ था, उसे अब 'राजगुरु नगर' के नाम से जाना जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 अमर बलिदानी हुतात्मा शिवराम हरि राजगुरु (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 24 अगस्त, 2013।
  2. राजगुरु की याद में........ (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) naipirhi.blogspot.com। अभिगमन तिथि: 30जुलाई, 2010।

बाहरी कड़ियाँ

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