"श्यामसुन्दर दास": अवतरणों में अंतर

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डॉ. श्यामसुन्दर दास (जन्म- [[1875]] ई., [[काशी]]; मृत्यु- [[1945]] ई.) ने जिस निष्ठा से हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिये लेखन कार्य किया और उसे कोश, इतिहास, काव्यशास्‍त्र भाषाविज्ञान, अनुसंधान पाठ्यपुस्तक और सम्पादित ग्रन्थों से सजाकर इस योग्य बना दिया कि वह इतिहास के खंडहरों से बाहर निकलकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों तक पहुँची।
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
|चित्र=Dr. Shyam Sunder Das.jpg
|पूरा नाम=डॉ.श्यामसुन्दर दास
|अन्य नाम=
|जन्म=[[1875]] ई.
|जन्म भूमि=[[वाराणसी]], [[भारत]]
|मृत्यु=[[1945]] ई.
|मृत्यु स्थान=[[भारत]]
|अभिभावक=लाला देवी दास खन्ना
|पति/पत्नी=
|संतान=
|कर्म भूमि=[[वाराणसी]]
|कर्म-क्षेत्र=अध्यापक, सम्पादक, साहित्यकार, लेखक
|मुख्य रचनाएँ='चन्द्रावली' अथवा 'नासिकेतोपाख्यान', रामचरितमानस, पृथ्वीराज रासो, अशोक की धर्मालिपियाँ, रानी केतकी की कहानी, भाषा पत्र बोध, 'हिन्दी कुसुमावली'
|विषय=ग्रंथ, पुस्तक, पत्रिका, अनुवाद
|भाषा=
|विद्यालय=
|शिक्षा=स्नातक
|पुरस्कार-उपाधि=
|प्रसिद्धि=
|विशेष योगदान=
|नागरिकता=
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=उपाधि
|पाठ 1='साहित्य वाचस्पति' और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 'डी.लिट.'
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
डॉ.श्यामसुन्दर दास (जन्म- [[1875]] ई., [[काशी]]; मृत्यु- [[1945]] ई.) ने जिस निष्ठा से हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिये लेखन कार्य किया और उसे कोश, इतिहास, काव्यशास्‍त्र भाषाविज्ञान, अनुसंधान पाठ्यपुस्तक और सम्पादित ग्रन्थों से सजाकर इस योग्य बना दिया कि वह इतिहास के खंडहरों से बाहर निकलकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों तक पहुँची।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
श्यामसुन्दर दास का जन्म सन 1875 ई. काशी ([[वाराणसी]]) में हुआ था। इनके पूर्वज [[लाहौर]] के निवासी थे और पिता लाला देवी दास खन्ना काशी में कपड़े का व्यापार करते थे। इन्होंने [[1897]] ई. में बी.ए. पास किया था। यह [[1899]] ई. में हिन्दू स्कूल में कुछ दिनों तक अध्यापक रहे। उसके बाद [[लखनऊ]] के कालीचरन स्कूल में बहुत दिनों तक हैडमास्टर रहे। सन [[1921]] ई. में [[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]] के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए।
श्यामसुन्दर दास का जन्म सन् 1875 ई. काशी ([[वाराणसी]]) में हुआ था। इनके पूर्वज [[लाहौर]] के निवासी थे और पिता लाला देवी दास खन्ना काशी में कपड़े का व्यापार करते थे। इन्होंने [[1897]] ई. में बी.ए. पास किया था। यह [[1899]] ई. में हिन्दू स्कूल में कुछ दिनों तक अध्यापक रहे। उसके बाद [[लखनऊ]] के कालीचरन स्कूल में बहुत दिनों तक हैडमास्टर रहे। सन् [[1921]] ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए।
==अनन्य निष्ठा==
==अनन्य निष्ठा==
श्यामसुन्दर दास जी की प्रारम्भ से ही हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा थी। [[नागरी प्रचारिणी सभा]] की स्थापना [[16 जुलाई]], सन [[1893]] ई. को इन्होंने विद्यार्थी काल में ही अपने दो सहयोगियों रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिव कुमार सिंह की सहायता से की थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आने के पूर्व इन्होंने हिन्दी साहित्य की सर्वतोमुखी समृद्धि के लिए न्यायालयों में हिन्दी प्रवेश का आन्दोलन ([[1900]] ई.), हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज ([[1899]] ई.), आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना ([[1903]] ई.), प्राचीन महत्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन सभा-भवन का निर्माण ([[1902]] ई.), 'सरस्वती पत्रिका' का सम्पादन (1900 ई.) तथा शिक्षास्तर के अनुयप पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया था। निश्चित योजना और अदम्य साहस के अभाव में अनेक दिशाओं में एक साथ सफलतापूर्वक कार्य आरम्भ करना सम्भव नहीं था। यह आजीवन एक गति से साहित्य सेवा में लगे रहे।  
श्यामसुन्दर दास जी की प्रारम्भ से ही हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा थी। [[नागरी प्रचारिणी सभा]] की स्थापना [[16 जुलाई]], सन् [[1893]] ई. को इन्होंने विद्यार्थी काल में ही अपने दो सहयोगियों [[रामनारायण मिश्र]] और [[ठाकुर शिव कुमार सिंह]] की सहायता से की थी। [[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]] में आने के पूर्व इन्होंने हिन्दी साहित्य की सर्वतोमुखी समृद्धि के लिए न्यायालयों में हिन्दी प्रवेश का आन्दोलन ([[1900]] ई.), हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज ([[1899]] ई.), आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना ([[1903]] ई.), प्राचीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन सभा-भवन का निर्माण ([[1902]] ई.), 'सरस्वती पत्रिका' का सम्पादन (1900 ई.) तथा शिक्षास्तर के अनुरूप पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया था। निश्चित योजना और अदम्य साहस के अभाव में अनेक दिशाओं में एक साथ सफलतापूर्वक कार्य आरम्भ करना सम्भव नहीं था। यह आजीवन एक गति से साहित्य सेवा में लगे रहे।
 
==कृतियाँ==
==कृतियाँ==
श्यामसुन्दर दास जी ने परिचयात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखने के साथ ही कई दर्जन पुस्तकों का संपादन किया। पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। श्यामसुन्दर दास की साहित्य-कृतियाँ निम्नलिखित हैं।  
श्यामसुन्दर दास जी ने परिचयात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखने के साथ ही कई दर्जन पुस्तकों का संपादन किया। पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। श्यामसुन्दर दास की साहित्य-कृतियाँ निम्नलिखित हैं।  
मौलिक कृतियाँ-
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'नागरी वर्णमाला' (1896 ई.), 'हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों का वार्षिक खोज विवरण' (1900-1905 ई.), 'हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज' (1906-1908 ई.) का प्रथम त्रैवार्षिक विवरण' (1912 ई.), 'हिन्दी कोविद रत्नमाला' भाग 1, 2 (1909 ई.), 'साहित्यलोचन' (1923 ई.), भाषा विज्ञान' (1924 ई.), 'हिन्दी भाषा का विकास' (1924 ई.), 'हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण' (1923 ई.), 'गद्य कुसुमावली' (1925 ई.), 'भारतेन्दु हरिश्चन्द्र' (1927 ई.), 'हिन्दी भाषा और साहित्य' (1930 ई.), 'गोस्वामी तुलसीदास' (1931 ई.), 'रूपक रहस्य' (1931 ई.), 'भाषा रहस्य' भाग 1, (1935 ई.), 'हिन्दी गद्य के निर्माता' भाग 1,2 (1940 ई.), 'मेरी आत्म कहानी' (1942 ई.)।
|-valign="top"
सम्पादित ग्रन्थ-
|
'चन्द्रावली' अथवा 'नासिकेतोपाख्यान' (1901 ई.), 'छत्र प्रकाश' (1903 ई.), 'रामचरितमानस' (1904 ई.), 'पृथ्वीराज रासो' (1904 ई.), 'हिन्दी वैज्ञानिक कोश' (1906 ई.), 'वनिता विनोद' (1906 ई.), 'इन्द्रावती भाग 1 (1906 ई.), 'हम्मीर रासो' (1908 ई.), 'शकुन्तला नाटक' (1908 ई.), 'प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लेखावली' (1911 ई.), 'बाल विनोद' (1908 ई.), 'हिन्दी शब्द सागर' खण्ड 1-4 (1916 ई.), 'मेघदूत' (1920 ई.), 'दीनदयाल गिरि ग्रन्थावली' (1921 ई.), 'परमाल रासो' (1921 ई.), 'अशोक की धर्मालिपियाँ' (1923 ई.), 'रानी केतकी की कहानी' (1925 ई.), 'भारतेन्दु नाटकावली' (1927 ई.), 'कबीर ग्रन्थावली' (1928 ई.), 'राधाकृष्ण ग्रन्थावली' (1930 ई.), 'सतसई सप्तक' (1933 ई.), 'द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ' (1933 ई.), 'रत्नाकर' (1933 ई.), 'बाल शब्द सागर' (1935 ई.), 'त्रिधारा' (1945 ई.), 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (1-18 भाग), 'मनोरंजन पुस्तक माला' (1-50 संख्या), 'सरस्वती' (1900 ई. तक)।
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पाठ्य पुस्तकें (संग्रह)-
|+  सम्पादित ग्रन्थ
'भाषा सार संग्रह' भा. 1 (1902 ई.), 'भाषा पत्र बोध' (1902 ई.), 'प्राचीन लेख मणिमाला' (1903 ई.), 'आलोक चित्रण' (1902 ई.), 'हिन्दी पत्र लेखन' (1904 ई.), 'हिन्दी प्राइमर' (1905 ई.), 'हिन्दी की पहली पुस्तक' (1905 ई.), 'हिन्दी ग्रामर' (1906 ई.), 'गवर्नमेण्ट आफ़ इण्डिया' (1908 ई.), 'हिन्दी संग्रह' (1908 ई.), 'बालक विनोद' (1908 ई.), 'सरल संग्रह' (1919 ई.), 'नूतन संग्रह' (1919 ई.), 'अनुलेख माला' (1919 ई.), 'नयी हिन्दी रीडर' भाग 6, 7 (1923), 'हिन्दी संग्रह' भाग 1, 2 (1925 ई.), 'हिन्दी कुसुम संग्रह' भाग 1,2 (1925 ई.), 'हिन्दी कुसुमावली' (1927 ई.), 'हिन्दी प्रोज सेलेक्शन' (1927 ई.), 'साहित्य सुमन' भाग 1-4 (1928 ई.), 'गद्य रत्नावली' (1931 ई.), 'साहित्य प्रदीप' (1932 ई.), 'हिन्दी गद्य कुसुमावली' भाग 1, 2 (1936 ई.), 'हिन्दी प्रवेशिका पद्यावली' (1939 ई.), 'हिन्दी गद्य संग्रह' (1945 ई.), 'साहित्यिक लेख' (1945 ई.)।
|-
उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त आपके विभिन्न विषयों पर लिखे गये स्फुट निबन्धों और विभिन्न सम्मेलनों के अवसर पर दी गयी वक्तृताओं की सम्मिलित संख्या 41 है। इस विस्तृत सामग्री का अनुशीलन करने से स्पष्ट है कि आपकी सतर्क दृष्टि हिन्दी के समस्त अभावों को लक्ष्य कर रही थी और आप पूरी निष्ठा से उन्हें दूर करने में प्रयत्नशील थे। वस्तुत: आप बहुत अच्छे प्रबन्धक थे। आपने विविध क्षेत्रों में हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिए आवश्यक सामग्री प्रस्तुत कर देने की चेष्टा की है। इसीलिए आप पूरी शक्ति का प्रयोग किसी एक क्षेत्र में नहीं कर सके हैं। इसीलिए लेखक के रूप में, आलोचक के रूप में, सम्पादक के रूप में, काव्यकृतियों और सिद्धान्तों के व्याख्याता के रूप में या भाषा-तत्त्ववेत्ता के रूप में, चाहे जिस रूप में देखा जाए, सर्वत्र यही स्थिति है, किन्तु इससे आपका महत्व या मूल्य कम नहीं होता है। कृति का मूल्य बहुत कुछ उसमें निहित रचनाविवेक और दृष्टिकोण पर आधृत होता है। “हिन्दी आलोचना का सैद्धान्तिक आधार संस्कृत और अंग्रेज़ी दोनों की काव्य शास्त्रीय मान्यताओं के समन्वय में प्रस्तुत होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास निर्माण में कवियों के इतिवृत्त के साथ युगानुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों का विवेचन तथा काव्य और कला में तात्विक एकता होने के कारण, काव्य विकास के साथ कला विकास का अध्ययन भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सम्पादन में कृतियों की प्राचीनतम प्रति को अन्य भाषाओं का सामान्य परिचय और हिन्दी के ऐतिहासिक विकास का ज्ञान होना चाहिए”-रचना और अध्ययन का यह विवेक श्यामसुन्दरदास की बहुत बड़ी देन है। अभावों की शीघ्रातिशीघ्र पूर्ति को लक्ष्य में रखकर नियोजित ढंग से होने वाले निर्माण कार्य में व्यापकता, वैविध्य और स्थूल उपयोगिता का दृष्टिकोण ही प्रधान होता है। आपके सामने भी यही दृष्टिकोण था, इसीलिए आपमें मौलिकता और गहराई का अपेक्षाकृत अभाव है। व्यक्ति का मूल्य युग की सापेक्षता में ही आँका जाना चाहिए। आपकी बुद्धि विमल, दृष्टि साफ, हृदय उदार और दृष्टिकोण समन्वयवादी था। क्या साहित्य और क्या भाषा, सभी के संघटन में आपने औचित्य और सामंजस्य का ध्यान रखा है। हिन्दी भाषा के संघटन के सम्बन्ध में विचार करते हुए आपने हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के शब्दों को भी ग्रहण करने की बात कही है। किन्तु वरीयता के क्रम से पहला स्थान शुद्ध हिन्दी शब्दों को, दूसरा संस्कृत के सुगम शब्दों को और तीसरा फ़ारसी आदि विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों को दिया है। भाषासम्बन्धी यह दृष्टिकोण सभी विवेकशील व्यक्तियों को मान्य हैं। व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में भी आप सामजस्य को लेकर चले हैं। इसीलिए आपकी आलोचना पद्धति में ऐतिहासिक व्याख्या, विवेचना, तुलना, निष्कर्ष, निर्णय आदि अनेक तत्व सन्निहित हैं। विदेशी साहित्य के प्रभाव से आक्रान्त हिन्दी जनता को आप जैसे उदार, विवेकशील, सतर्क, कर्मठ, स्वाभिमानी और समन्वयवादी नेता के कुशल नेतृत्व की ही आवश्यकता थी।
! सन
अपने जीवन के पचास वर्षों में अनवरत रूप से हिन्दी की सेवा करते हुए आपने इसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र, भाषा विज्ञान, शोधकार्य, उपयोगी साहित्य, पाठ्य पुस्तक और सम्पादित ग्रन्थ आदि से समृद्ध किया, उसके महत्व की प्रतिष्ठा की, उसकी आवाज को जन-जन तक पहुँचाया। उसे खण्डहरों से उठाकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों में प्रतिष्ठित किया। वह अन्य भाषाओं के समकक्ष बैठने की अधिकारिणी हुई। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने आपको 'साहित्य वाचस्पति' और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने 'डी.लिट्.' की उपाधि देकर आपकी सेवाओं का महत्व स्वीकार किया।
! कृतियाँ
|-
| [[1901]]
| 'चन्द्रावली' अथवा 'नासिकेतोपाख्यान'
|-
| [[1903]]
| छत्र प्रकाश
|-
| [[1904]]
| रामचरितमानस
|-
| [[1904]]
| पृथ्वीराज रासो
|-
| [[1906]]
| हिन्दी वैज्ञानिक कोश
|-
| [[1906]]
| वनिता विनोद
|-
| [[1906]]
| इन्द्रावती भाग 1
|-
| [[1908]]
| हम्मीर रासो
|-
| [[1908]]
| शकुन्तला नाटक
|-
| [[1911]]
| प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लेखावली
|-
| [[1908]]
| बाल विनोद
|-
| [[1916]]
| हिन्दी शब्द सागर' खण्ड 1-4
|-
| [[1920]]
| मेघदूत
|-
| [[1921]]
| दीनदयाल गिरि ग्रन्थावली
|-
| [[1921]]
| परमाल रासो
|-
| [[1923]]
| अशोक की धर्मालिपियाँ
|-
| [[1925]]
| रानी केतकी की कहानी
|-
| [[1927]]
| भारतेन्दु नाटकावली
|-
| [[1928]]
| कबीर ग्रन्थावली
|-
| [[1930]]
| राधाकृष्ण ग्रन्थावली
|-
| [[1933]]
| सतसई सप्तक  
|-
| [[1933]]
| द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ
|-
| [[1933]]
| रत्नाकर
|-
| [[1935]]
| बाल शब्द सागर
|-
| [[1945]]
| त्रिधारा
|-
| -
| नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (1-18 भाग)
|-
|  -
| 'मनोरंजन पुस्तक माला' (1-50 संख्या)
|-
| [[1900]]
| सरस्वती
|}
|
{| class="bharattable-purple" border="1"
|+पुस्तक संग्रह
|-
! सन
! कृतियाँ
|-
| [[1902]]
भाषा सार संग्रह' भाग 1
|-
| [[1902]]
| भाषा पत्र बोध
|-
| [[1903]]
| प्राचीन लेख मणिमाला
|-
| [[1902]]
| आलोक चित्रण
|-
| [[1904]]
| आलोक चित्रण
|-
| [[1905]]
| हिन्दी प्राइमर
|-
| [[1905]]
| हिन्दी की पहली पुस्तक
|-
| [[1906]]
| हिन्दी ग्रामर
|-
| [[1908]]
| गवर्नमेण्ट आफ़ इण्डिया
|-
| [[1908]]
| हिन्दी संग्रह
|-
| [[1908]]
| बालक विनोद
|-
| [[1919]]
| सरल संग्रह
|-
| [[1919]]
| नूतन संग्रह
|-
| [[1919]]
| अनुलेख माला
|-
| [[1923]]
| 'नयी हिन्दी रीडर' भाग 6, 7
|-
| [[1925]]
| 'हिन्दी संग्रह' भाग 1, 2
|-
| [[1925]]
| 'हिन्दी कुसुम संग्रह' भाग 1,2
|-
| [[1927]]
| 'हिन्दी कुसुमावली'
|-
| [[1927]]
| हिन्दी प्रोज सेलेक्शन
|-
| [[1928]]
| 'साहित्य सुमन' भाग 1-4
|-
| [[1931]]
| गद्य रत्नावली
|-
| [[1932]]
| साहित्य प्रदीप
|-
| [[1936]]
| 'हिन्दी गद्य कुसुमावली' भाग 1, 2
|-
| [[1939]]
| हिन्दी प्रवेशिका पद्यावली
|-
| [[1945]]
| हिन्दी गद्य संग्रह
|-
| [[1945]]
| साहित्यिक लेख
|}
|
{|class="bharattable-purple" border="1"
|+मौलिक कृतियाँ
|-
! सन
! कृतियाँ
|-
| [[1896]]
| नागरी वर्णमाला
|-
| [[1900]]- [[1905]]
| हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों का वार्षिक खोज विवरण
|-
| [[1906]]- [[1908]]
| हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज
|-
| [[1909]]
| 'हिन्दी कोविद रत्नमाला' भाग 1, 2
|-
| [[1923]]
| साहित्यलोचन
|-
| [[1924]]
| भाषा विज्ञान
|-
| [[1924]]
| हिन्दी भाषा का विकास
|-
| [[1923]]
| हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण
|-
| [[1925]]
| गद्य कुसुमावली
|-
| [[1927]]
| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
|-
| [[1930]]
| हिन्दी भाषा और साहित्य
|-
| [[1931]]
| गोस्वामी तुलसीदास
|-
| [[1931]]
| रूपक रहस्य
|-
| [[1935]]
| भाषा रहस्य' भाग 1
|-
| [[1940]]
| हिन्दी गद्य के निर्माता' भाग 1,2
|-
| [[1942]]
| मेरी आत्म कहानी
|}
|}
 
उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त इनके विभिन्न विषयों पर लिखे गये स्फुट निबन्धों और विभिन्न सम्मेलनों के अवसर पर दी गयी वक्तृताओं की सम्मिलित संख्या 41 है। इस विस्तृत सामग्री का अनुशीलन करने से स्पष्ट है कि इनकी सतर्क दृष्टि हिन्दी के समस्त अभावों को लक्ष्य कर रही थी और यह पूरी निष्ठा से उन्हें दूर करने में प्रयत्नशील थे।
==गद्य साधना==
श्यामसुंदर दास के समय में उपन्यास, नाटक, काव्य और कथा आदि क्षेत्रों में द्रुतगति से साहित्य निर्माण हो रहा था, पर अनुसन्धान, भाषा विज्ञान  और साहित्या लोचन आदि विषयों पर किसी का ध्यान नहीं गया। इस प्रकार इन्होंने पहली बार इस क्षेत्र में पदार्पण कर हिंदी की आवश्यकताओं को पूर्ण किया। अंग्रेज़ी साहित्य के ज्ञाता होने के कारण  इन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य का आधार लेकर अनुसन्धान, भाषा विज्ञान , साहित्यालोचन, कवि समीक्षा और नाट्यशास्त्र जैसे गूढ़ और गंभीर विषयों पर हिंदी में लिखा। अंग्रेज़ी की समीक्षात्मक पुस्तकों का भावापहरण होने के कारण  इनके सैद्धांतिक ग्रंथों में भले ही मौलिकता की कमी हो, पर विवेचना का ढंग तो सर्वथा इनका निजी है और तत्कालीन परिस्थितियों व युग में इसके अतिरिक कोई मार्ग भी न था। इस प्रकार यह हिंदी के मौलिक आलोचक थे।
==भाषा शैली==
श्यामसुंदर दास ने शुद्ध साहित्यिक हिंदी का प्रयोग किया तथा विदेशी शब्दों को भी हिंदी के सांचे में ढाल लिया। इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम और प्रचलित तद्भव शब्दों की अधिकता है। उर्दू शब्दों को भी ग्रहण करने के पूर्व उन्होंने हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुसार उनके रूप और ध्वनि में परिवर्तन किया। उनकी भाषा क्लिष्ट और जटिल नहीं है तथा सर्वत्र सुगठित और सुलझी हुई है। गूढ़ से गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में उनकी भाषा सफल रही। भाषा गंभीर और संयत होते हुए भी धारावाहिक प्रवाह लिए हुए है। श्यामसुंदर दास जी ने शैली को भाषा का व्यक्तिगत प्रयोग माना, अतः शैली विषयक उनका मंतव्य भाषा विवेचन के प्रसंग में आ गया है। इनकी शैली में सरलता और सुबोधता का सहज गुण है, जो विषयानुरूप सर्वत्र यथावसर परिवर्तनशील रही। इनके निबंध प्राय: तीन प्रकार के हैं, तदनुरूप इनकी लेखनी शैली भी तीन प्रकार की हो गयी है- व्याख्यात्मक, विचारात्मक और गवेषणात्मक, किन्तु बाबू जी मूलतः व्यास शैली के ही लेखक रहे।<ref name="aa">{{cite web |url=http://raj-bhasha-hindi.blogspot.in/2012/10/blog-post_17.html|title=बाबू श्यामसुंदर दास|accessmonthday=13 अप्रॅल|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= राजभाषा हिन्दी|language= हिन्दी}}</ref>
==अभावों की पूर्ति==
श्यामसुन्दर दास बहुत अच्छे प्रबन्धक थे। इन्होंने विविध क्षेत्रों में हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिए आवश्यक सामग्री प्रस्तुत कर देने की चेष्टा की है। इसीलिए यह पूरी शक्ति का प्रयोग किसी एक क्षेत्र में नहीं कर सके हैं। इसीलिए लेखक के रूप में, आलोचक के रूप में, सम्पादक के रूप में, काव्यकृतियों और सिद्धान्तों के व्याख्याता के रूप में या भाषा-तत्त्ववेत्ता के रूप में, चाहे जिस रूप में देखा जाए, सर्वत्र यही स्थिति है, किन्तु इससे इनका महत्त्व या मूल्य कम नहीं होता है। कृति का मूल्य बहुत कुछ उसमें निहित रचनाविवेक और दृष्टिकोण पर आधृत होता है। “हिन्दी आलोचना का सैद्धान्तिक आधार [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] और [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] दोनों की काव्य शास्त्रीय मान्यताओं के समन्वय में प्रस्तुत होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास निर्माण में कवियों के इतिवृत्त के साथ युगानुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों का विवेचन तथा काव्य और कला में तात्विक एकता होने के कारण, काव्य विकास के साथ कला विकास का अध्ययन भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सम्पादन में कृतियों की प्राचीनतम प्रति को अन्य भाषाओं का सामान्य परिचय और हिन्दी के ऐतिहासिक विकास का ज्ञान होना चाहिए”- रचना और अध्ययन का यह विवेक श्यामसुन्दरदास की बहुत बड़ी देन है।  
==दृष्टिकोण==
अभावों की शीघ्रातिशीघ्र पूर्ति को लक्ष्य में रखकर नियोजित ढंग से होने वाले निर्माण कार्य में व्यापकता, वैविध्य और स्थूल उपयोगिता का दृष्टिकोण ही प्रधान होता है। श्यामसुन्दर दास के सामने भी यही दृष्टिकोण था, इसीलिए इनमें मौलिकता और गहराई का अपेक्षाकृत अभाव है। व्यक्ति का मूल्य युग की सापेक्षता में ही आँका जाना चाहिए। इनकी बुद्धि विमल, दृष्टि साफ, हृदय उदार और दृष्टिकोण समन्वयवादी था। साहित्य और भाषा सभी के संघटन में इन्होंने औचित्य और सामंजस्य का ध्यान रखा है। हिन्दी भाषा के संघटन के सम्बन्ध में विचार करते हुए इन्होंने हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत और [[अरबी भाषा|अरबी]]- [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के शब्दों को भी ग्रहण करने की बात कही है। किन्तु वरीयता के क्रम से पहला स्थान शुद्ध हिन्दी शब्दों को, दूसरा संस्कृत के सुगम शब्दों को और तीसरा फ़ारसी आदि विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों को दिया है। भाषासम्बन्धी यह दृष्टिकोण सभी विवेकशील व्यक्तियों को मान्य हैं।


==व्यावहारिक आलोचना==
श्यामसुन्दर दास व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में भी सामंजस्य को लेकर चले हैं। इसीलिए इनकी आलोचना पद्धति में ऐतिहासिक व्याख्या, विवेचना, तुलना, निष्कर्ष, निर्णय आदि अनेक तत्त्व सन्निहित हैं। विदेशी साहित्य के प्रभाव से आक्रान्त हिन्दी जनता को इनके जैसे उदार, विवेकशील, सतर्क, कर्मठ, स्वाभिमानी और समन्वयवादी नेता के कुशल नेतृत्व की ही आवश्यकता थी।
अपने जीवन के पचास वर्षों में अनवरत रूप से हिन्दी की सेवा करते हुए इन्होंने इसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र, भाषा विज्ञान, शोधकार्य, उपयोगी साहित्य, पाठ्य पुस्तक और सम्पादित ग्रन्थ आदि से समृद्ध किया, उसके महत्त्व की प्रतिष्ठा की, उसकी आवाज़ को जन-जन तक पहुँचाया। उसे खण्डहरों से उठाकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों में प्रतिष्ठित किया। वह अन्य भाषाओं के समकक्ष बैठने की अधिकारिणी हुई। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इनको 'साहित्य वाचस्पति' और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने 'डी.लिट्.' की उपाधि देकर आपकी सेवाओं का महत्त्व स्वीकार किया।
==निधन==
जीवन के अंतिम वर्षों में श्यामसुंदर दास बीमार पड़े तो फिर उठ न सके। सम्वत 2002 ([[1945]] ई.) के लगभग उनका स्वर्गवास हो गया।<ref name="aa"/>


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12:15, 27 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

श्यामसुन्दर दास
पूरा नाम डॉ.श्यामसुन्दर दास
जन्म 1875 ई.
जन्म भूमि वाराणसी, भारत
मृत्यु 1945 ई.
मृत्यु स्थान भारत
अभिभावक लाला देवी दास खन्ना
कर्म भूमि वाराणसी
कर्म-क्षेत्र अध्यापक, सम्पादक, साहित्यकार, लेखक
मुख्य रचनाएँ 'चन्द्रावली' अथवा 'नासिकेतोपाख्यान', रामचरितमानस, पृथ्वीराज रासो, अशोक की धर्मालिपियाँ, रानी केतकी की कहानी, भाषा पत्र बोध, 'हिन्दी कुसुमावली'
विषय ग्रंथ, पुस्तक, पत्रिका, अनुवाद
शिक्षा स्नातक
उपाधि 'साहित्य वाचस्पति' और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 'डी.लिट.'
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

डॉ.श्यामसुन्दर दास (जन्म- 1875 ई., काशी; मृत्यु- 1945 ई.) ने जिस निष्ठा से हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिये लेखन कार्य किया और उसे कोश, इतिहास, काव्यशास्‍त्र भाषाविज्ञान, अनुसंधान पाठ्यपुस्तक और सम्पादित ग्रन्थों से सजाकर इस योग्य बना दिया कि वह इतिहास के खंडहरों से बाहर निकलकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों तक पहुँची।

जीवन परिचय

श्यामसुन्दर दास का जन्म सन् 1875 ई. काशी (वाराणसी) में हुआ था। इनके पूर्वज लाहौर के निवासी थे और पिता लाला देवी दास खन्ना काशी में कपड़े का व्यापार करते थे। इन्होंने 1897 ई. में बी.ए. पास किया था। यह 1899 ई. में हिन्दू स्कूल में कुछ दिनों तक अध्यापक रहे। उसके बाद लखनऊ के कालीचरन स्कूल में बहुत दिनों तक हैडमास्टर रहे। सन् 1921 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए।

अनन्य निष्ठा

श्यामसुन्दर दास जी की प्रारम्भ से ही हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा थी। नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 16 जुलाई, सन् 1893 ई. को इन्होंने विद्यार्थी काल में ही अपने दो सहयोगियों रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिव कुमार सिंह की सहायता से की थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आने के पूर्व इन्होंने हिन्दी साहित्य की सर्वतोमुखी समृद्धि के लिए न्यायालयों में हिन्दी प्रवेश का आन्दोलन (1900 ई.), हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज (1899 ई.), आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना (1903 ई.), प्राचीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन सभा-भवन का निर्माण (1902 ई.), 'सरस्वती पत्रिका' का सम्पादन (1900 ई.) तथा शिक्षास्तर के अनुरूप पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया था। निश्चित योजना और अदम्य साहस के अभाव में अनेक दिशाओं में एक साथ सफलतापूर्वक कार्य आरम्भ करना सम्भव नहीं था। यह आजीवन एक गति से साहित्य सेवा में लगे रहे।

कृतियाँ

श्यामसुन्दर दास जी ने परिचयात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखने के साथ ही कई दर्जन पुस्तकों का संपादन किया। पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। श्यामसुन्दर दास की साहित्य-कृतियाँ निम्नलिखित हैं।

सम्पादित ग्रन्थ
सन कृतियाँ
1901 'चन्द्रावली' अथवा 'नासिकेतोपाख्यान'
1903 छत्र प्रकाश
1904 रामचरितमानस
1904 पृथ्वीराज रासो
1906 हिन्दी वैज्ञानिक कोश
1906 वनिता विनोद
1906 इन्द्रावती भाग 1
1908 हम्मीर रासो
1908 शकुन्तला नाटक
1911 प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लेखावली
1908 बाल विनोद
1916 हिन्दी शब्द सागर' खण्ड 1-4
1920 मेघदूत
1921 दीनदयाल गिरि ग्रन्थावली
1921 परमाल रासो
1923 अशोक की धर्मालिपियाँ
1925 रानी केतकी की कहानी
1927 भारतेन्दु नाटकावली
1928 कबीर ग्रन्थावली
1930 राधाकृष्ण ग्रन्थावली
1933 सतसई सप्तक
1933 द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ
1933 रत्नाकर
1935 बाल शब्द सागर
1945 त्रिधारा
- नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (1-18 भाग)
- 'मनोरंजन पुस्तक माला' (1-50 संख्या)
1900 सरस्वती
पुस्तक संग्रह
सन कृतियाँ
1902 भाषा सार संग्रह' भाग 1
1902 भाषा पत्र बोध
1903 प्राचीन लेख मणिमाला
1902 आलोक चित्रण
1904 आलोक चित्रण
1905 हिन्दी प्राइमर
1905 हिन्दी की पहली पुस्तक
1906 हिन्दी ग्रामर
1908 गवर्नमेण्ट आफ़ इण्डिया
1908 हिन्दी संग्रह
1908 बालक विनोद
1919 सरल संग्रह
1919 नूतन संग्रह
1919 अनुलेख माला
1923 'नयी हिन्दी रीडर' भाग 6, 7
1925 'हिन्दी संग्रह' भाग 1, 2
1925 'हिन्दी कुसुम संग्रह' भाग 1,2
1927 'हिन्दी कुसुमावली'
1927 हिन्दी प्रोज सेलेक्शन
1928 'साहित्य सुमन' भाग 1-4
1931 गद्य रत्नावली
1932 साहित्य प्रदीप
1936 'हिन्दी गद्य कुसुमावली' भाग 1, 2
1939 हिन्दी प्रवेशिका पद्यावली
1945 हिन्दी गद्य संग्रह
1945 साहित्यिक लेख
मौलिक कृतियाँ
सन कृतियाँ
1896 नागरी वर्णमाला
1900- 1905 हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों का वार्षिक खोज विवरण
1906- 1908 हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज
1909 'हिन्दी कोविद रत्नमाला' भाग 1, 2
1923 साहित्यलोचन
1924 भाषा विज्ञान
1924 हिन्दी भाषा का विकास
1923 हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण
1925 गद्य कुसुमावली
1927 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
1930 हिन्दी भाषा और साहित्य
1931 गोस्वामी तुलसीदास
1931 रूपक रहस्य
1935 भाषा रहस्य' भाग 1
1940 हिन्दी गद्य के निर्माता' भाग 1,2
1942 मेरी आत्म कहानी

उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त इनके विभिन्न विषयों पर लिखे गये स्फुट निबन्धों और विभिन्न सम्मेलनों के अवसर पर दी गयी वक्तृताओं की सम्मिलित संख्या 41 है। इस विस्तृत सामग्री का अनुशीलन करने से स्पष्ट है कि इनकी सतर्क दृष्टि हिन्दी के समस्त अभावों को लक्ष्य कर रही थी और यह पूरी निष्ठा से उन्हें दूर करने में प्रयत्नशील थे।

गद्य साधना

श्यामसुंदर दास के समय में उपन्यास, नाटक, काव्य और कथा आदि क्षेत्रों में द्रुतगति से साहित्य निर्माण हो रहा था, पर अनुसन्धान, भाषा विज्ञान और साहित्या लोचन आदि विषयों पर किसी का ध्यान नहीं गया। इस प्रकार इन्होंने पहली बार इस क्षेत्र में पदार्पण कर हिंदी की आवश्यकताओं को पूर्ण किया। अंग्रेज़ी साहित्य के ज्ञाता होने के कारण इन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य का आधार लेकर अनुसन्धान, भाषा विज्ञान , साहित्यालोचन, कवि समीक्षा और नाट्यशास्त्र जैसे गूढ़ और गंभीर विषयों पर हिंदी में लिखा। अंग्रेज़ी की समीक्षात्मक पुस्तकों का भावापहरण होने के कारण इनके सैद्धांतिक ग्रंथों में भले ही मौलिकता की कमी हो, पर विवेचना का ढंग तो सर्वथा इनका निजी है और तत्कालीन परिस्थितियों व युग में इसके अतिरिक कोई मार्ग भी न था। इस प्रकार यह हिंदी के मौलिक आलोचक थे।

भाषा शैली

श्यामसुंदर दास ने शुद्ध साहित्यिक हिंदी का प्रयोग किया तथा विदेशी शब्दों को भी हिंदी के सांचे में ढाल लिया। इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम और प्रचलित तद्भव शब्दों की अधिकता है। उर्दू शब्दों को भी ग्रहण करने के पूर्व उन्होंने हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुसार उनके रूप और ध्वनि में परिवर्तन किया। उनकी भाषा क्लिष्ट और जटिल नहीं है तथा सर्वत्र सुगठित और सुलझी हुई है। गूढ़ से गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में उनकी भाषा सफल रही। भाषा गंभीर और संयत होते हुए भी धारावाहिक प्रवाह लिए हुए है। श्यामसुंदर दास जी ने शैली को भाषा का व्यक्तिगत प्रयोग माना, अतः शैली विषयक उनका मंतव्य भाषा विवेचन के प्रसंग में आ गया है। इनकी शैली में सरलता और सुबोधता का सहज गुण है, जो विषयानुरूप सर्वत्र यथावसर परिवर्तनशील रही। इनके निबंध प्राय: तीन प्रकार के हैं, तदनुरूप इनकी लेखनी शैली भी तीन प्रकार की हो गयी है- व्याख्यात्मक, विचारात्मक और गवेषणात्मक, किन्तु बाबू जी मूलतः व्यास शैली के ही लेखक रहे।[1]

अभावों की पूर्ति

श्यामसुन्दर दास बहुत अच्छे प्रबन्धक थे। इन्होंने विविध क्षेत्रों में हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिए आवश्यक सामग्री प्रस्तुत कर देने की चेष्टा की है। इसीलिए यह पूरी शक्ति का प्रयोग किसी एक क्षेत्र में नहीं कर सके हैं। इसीलिए लेखक के रूप में, आलोचक के रूप में, सम्पादक के रूप में, काव्यकृतियों और सिद्धान्तों के व्याख्याता के रूप में या भाषा-तत्त्ववेत्ता के रूप में, चाहे जिस रूप में देखा जाए, सर्वत्र यही स्थिति है, किन्तु इससे इनका महत्त्व या मूल्य कम नहीं होता है। कृति का मूल्य बहुत कुछ उसमें निहित रचनाविवेक और दृष्टिकोण पर आधृत होता है। “हिन्दी आलोचना का सैद्धान्तिक आधार संस्कृत और अंग्रेज़ी दोनों की काव्य शास्त्रीय मान्यताओं के समन्वय में प्रस्तुत होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास निर्माण में कवियों के इतिवृत्त के साथ युगानुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों का विवेचन तथा काव्य और कला में तात्विक एकता होने के कारण, काव्य विकास के साथ कला विकास का अध्ययन भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सम्पादन में कृतियों की प्राचीनतम प्रति को अन्य भाषाओं का सामान्य परिचय और हिन्दी के ऐतिहासिक विकास का ज्ञान होना चाहिए”- रचना और अध्ययन का यह विवेक श्यामसुन्दरदास की बहुत बड़ी देन है।

दृष्टिकोण

अभावों की शीघ्रातिशीघ्र पूर्ति को लक्ष्य में रखकर नियोजित ढंग से होने वाले निर्माण कार्य में व्यापकता, वैविध्य और स्थूल उपयोगिता का दृष्टिकोण ही प्रधान होता है। श्यामसुन्दर दास के सामने भी यही दृष्टिकोण था, इसीलिए इनमें मौलिकता और गहराई का अपेक्षाकृत अभाव है। व्यक्ति का मूल्य युग की सापेक्षता में ही आँका जाना चाहिए। इनकी बुद्धि विमल, दृष्टि साफ, हृदय उदार और दृष्टिकोण समन्वयवादी था। साहित्य और भाषा सभी के संघटन में इन्होंने औचित्य और सामंजस्य का ध्यान रखा है। हिन्दी भाषा के संघटन के सम्बन्ध में विचार करते हुए इन्होंने हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत और अरबी- फ़ारसी के शब्दों को भी ग्रहण करने की बात कही है। किन्तु वरीयता के क्रम से पहला स्थान शुद्ध हिन्दी शब्दों को, दूसरा संस्कृत के सुगम शब्दों को और तीसरा फ़ारसी आदि विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों को दिया है। भाषासम्बन्धी यह दृष्टिकोण सभी विवेकशील व्यक्तियों को मान्य हैं।

व्यावहारिक आलोचना

श्यामसुन्दर दास व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में भी सामंजस्य को लेकर चले हैं। इसीलिए इनकी आलोचना पद्धति में ऐतिहासिक व्याख्या, विवेचना, तुलना, निष्कर्ष, निर्णय आदि अनेक तत्त्व सन्निहित हैं। विदेशी साहित्य के प्रभाव से आक्रान्त हिन्दी जनता को इनके जैसे उदार, विवेकशील, सतर्क, कर्मठ, स्वाभिमानी और समन्वयवादी नेता के कुशल नेतृत्व की ही आवश्यकता थी। अपने जीवन के पचास वर्षों में अनवरत रूप से हिन्दी की सेवा करते हुए इन्होंने इसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र, भाषा विज्ञान, शोधकार्य, उपयोगी साहित्य, पाठ्य पुस्तक और सम्पादित ग्रन्थ आदि से समृद्ध किया, उसके महत्त्व की प्रतिष्ठा की, उसकी आवाज़ को जन-जन तक पहुँचाया। उसे खण्डहरों से उठाकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों में प्रतिष्ठित किया। वह अन्य भाषाओं के समकक्ष बैठने की अधिकारिणी हुई। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इनको 'साहित्य वाचस्पति' और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने 'डी.लिट्.' की उपाधि देकर आपकी सेवाओं का महत्त्व स्वीकार किया।

निधन

जीवन के अंतिम वर्षों में श्यामसुंदर दास बीमार पड़े तो फिर उठ न सके। सम्वत 2002 (1945 ई.) के लगभग उनका स्वर्गवास हो गया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 बाबू श्यामसुंदर दास (हिन्दी) राजभाषा हिन्दी। अभिगमन तिथि: 13 अप्रॅल, 2015।

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