"वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग": अवतरणों में अंतर
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14:04, 4 फ़रवरी 2011 का अवतरण
स्थिति
ज्योतिर्लिंगों की गणना में श्री वैद्यनाथ शिवलिंग का नौवाँ स्थान बताया गया है। भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर अवस्थित है, उसे वैद्यनाथधाम कहा जाता है। यह स्थान झारखण्ड प्रान्त, पूर्व में बिहार प्रान्त के सन्थाल परगना के दुमका नामक जनपद में पड़ता है।
कैसे पहुँचे
यह जसीडीह रेलवे स्टेशन से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है तथा सड़क मार्ग से भी यहाँ पहुँचने की अच्छी व्यवस्था है।
स्थिति
पुराणों में ‘परल्यां वैद्यनाथं च’ ऐसा उल्लेख मिलता है, जिसके आधार पर कुछ लोग वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का स्थान परलीग्राम को बताते हैं। 'परलीग्राम' निज़ाम हैदराबाद क्षेत्र के अंतर्गत पड़ता है। हैदराबाद शहर से जो रेलगार्ग परभनी जंक्शन की ओर जाता है, उस परभनी जंक्शन से परली स्टेशन के लिए रेल की एक उप शाखा जाति है। इसी परली स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर परलीग्राम है, जिसके पास ही ‘श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। यहाँ का मन्दिर अत्यन्त पुराना है, जिसका जीर्णोद्धार रानी अहिल्याबाई ने कराया था। यह मन्दिर एक पहाड़ी के ऊपर निर्मित है। पहाड़ी से नीचे एक छोटी नदी भी बहती है तथा एक छोट-सा शिवकुण्ड भी है। पहाड़ी के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। लोगों की मान्यता है कि परली ग्राम के पास स्थित वैद्यनाथ ही वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है।
शिव पुराण के अनुसार
मान्य ग्रन्थ प्राचीन शिव पुराण के अनुसार झारखण्ड प्रान्त के जसीडीह रेलवे स्टेशन के समीप स्थित देवघर का श्री वैद्यनाथ शिवलिंग ही वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है–
वैद्यनाथावतारो हि नवमस्तत्र कीर्तित:।
आविर्भूतो रावणार्थं बहुलीलाकर: प्रभु:।।
तदानयनरूपं हि व्याजं कृत्वा महेश्वर:।
ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण चिताभूमौ प्रतिष्ठित:।।
वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोऽभूज्जगत्त्रये।
दर्शनात्पूजनाद्भभक्या भुक्तिमुक्तिप्रद: स हि।।[1]
वैद्यनाथ नौवाँ ज्योतिर्लिंग
श्री शिव महापुराण के उपर्युक्त द्वादश ज्योतिर्लिंग की गणना के क्रम मे श्री वैद्यनाथ को नौवाँ ज्योतिर्लिंग बताया गया है। स्थान का संकेत करते हुए लिखा गया है कि ‘चिताभूमौ प्रतिष्ठित:’। इसके अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी ‘वैद्यनाथं चिताभूमौ’ ऐसा लिखा गया है। ‘चिताभूमौ’ शब्द का विश्लेषण करने पर परली के वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंगों में नहीं आते हैं, इसलिए उन्हें वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मानना उचित नहीं है। सन्थाल परगना जनपद के जसीडीह रेलवे स्टेशन के समीप देवघर पर स्थित स्थान को चिताभूमि कहा गया है। जिस समय भगवान शंकर सती के शव को अपने कन्धे पर रखकर इधर-उधर उन्मत्त की तरह घूम रहे थे, उसी समय इस स्थान पर सती का हृत्पिण्ड अर्थात हृदय भाग गलकर गिर गया था। भगवान शकर ने सती के उस हृत्पिण्ड का दाह-संस्कार उक्त स्थान पर किया था, जिसके कारण इसका नाम ‘चिताभूमि’ पड़ गया। श्री शिव पुराण में एक निम्नलिखित श्लोक भी आता है, जिससे वैद्यनाथ का उक्त चिताभूमि में स्थान माना जाता है।
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:।
वैद्यनाथेति सम्प्रोच्य नत्वा नत्वा दिवं ययु:।।
अर्थात ‘देवताओं ने भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन किया और उसके बाद उनके लिंग की प्रतिष्ठा की। देवगण उस लिंग को ‘वैद्यनाथ’ नाम देकर उसे नमस्कार करते हुए स्वर्गलोक को चले गये।’
वैद्यनाथ की स्थापना
वैद्यनाथ लिंग की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की। उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिया। इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे। प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया। उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा। रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें। शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा। जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में ‘चिताभूमि’ में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई। उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया। वह लिंग वहीं अचल हो गया। वापस आकर रावण ने काफ़ी ज़ोर लगाकर उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा, किन्तु वह असफल रहा। अन्त में वह निराश हो गया और उस शिवलिंग पर अपने अँगूठे को गड़ाकर (अँगूठे से दबाकर) लंका के लिए ख़ाली हाथ ही चल दिया। इधर ब्रह्मा, विष्णु इन्द्र आदि देवताओं ने वहाँ पहुँच कर उस शिवलिंग की विधिवत पूजा की। उन्होंने शिव जी का दर्शन किया और लिंग की प्रतिष्ठा करके स्तुति की। उसके बाद वे स्वर्गलोक को चले गये।
यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुकूल फल देने वाला है। इस वैद्यनाथ धाम में मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर एक विशाल सरोवर है, जिस पर पक्के घाट बने हुए हैं। भक्तगण इस सरोवर में स्नान करते हैं। यहाँ तीर्थपुरोहितों (पण्डों) के हज़ारों घाट हैं, जिनकी आजीविका मन्दिर से ही चलती है। परम्परा के अनुसार पण्डा लोग एक गहरे कुएँ से जल भरकर ज्योतिर्लिंग को स्नान कराते हैं। अभिषेक के लिए सैकड़ों घड़े जल निकाले जाते हैं। उनकी पूजा काफ़ी लम्बी चलती है। उसके बाद ही आम जनता को दर्शन-पूजन करने का अवसर प्राप्त होता है।
यह ज्योतिर्लिंग रावण के द्वारा दबाये जाने के कारण भूमि में दबा है तथा उसके ऊपरी सिरे में कुछ गड्ढा सा बन गया है। फिर भी इस शिवलिंग मूर्ति की ऊँचाई लगभग ग्यारह अंगुल है। सावन के महीने में यहाँ मेला लगता है और भक्तगण दूर-दूर से काँवर में जल लेकर बाबा वैद्यनाथ धाम (देवघर) आते हैं। वैद्यनाथ धाम में अनेक रोगों से छुटकारा पाने हेतु भी बाबा का दर्शन करने श्रद्धालु आते हैं। ऐसी प्रसिद्धि है कि श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की लगातार आरती-दर्शन करने से लोगों को रोगों से मुक्ति मिलती है।
कोटि रूद्र संहिता के अनुसार
श्री शिव महापुराण के कोटि रूद्र संहिता में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार लिखी गई है–
राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था। एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया। राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।
वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था। इन तीन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए। ऐसा कहा जाता है कि दुष्ट आत्माओं द्वारा भगवान को रिझाना बड़ा कठिन होता है। कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब रावण अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा। वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और उस पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटता तथा भगवान को समर्पित कर देता था। इस प्रकार क्रमश: उसने अपने नौ मस्तक काट डाले। जब वह अन्तिम अपना दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब तक भक्त वत्सल भगवान महेश्वर उस पर सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गये। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को स्वस्थ करते हुए उन्हें पूर्ववत जोड़ दिया।
भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– ‘देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।’ इस प्रकार रावण के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये। उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– ‘राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो’–
प्रसन्नोभव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम्।
सफलं कुरू मे कामं त्वामहं शरणं गत:।।
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन स:।
प्रत्युवाच विचेतस्क: संकटं परमं गत:।।
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया।
नीयतां स्वगृहे मे हि सदभक्त्या लिंगमुत्तमम्।।
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै।
स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरू।।[2]
भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहता हुआ राक्षसराज रावण उस शिवलिंग को साथ लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया। भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) की प्रबल इच्छा हुई। सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाल के हाथ में पकड़ा कर स्वयं पेशाब करने के लिए बैठ गया। एक मुहूर्त बीतने के बाद वह ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं पृथ्वी में स्थिर हो गया।
जब शिवलिंग लोक-कल्याण की भावना से वहीं स्थिर हो गया, तब निराश होकर रावण अपनी राजधानी की ओर चल दिया। उसने राजधानी में पहुँचकर शिवलिंग की सारी घटना अपनी पत्नी मंदोदरी] से बतायी। देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये। भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की। सभी ने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया–
तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै।
रावण: स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम्।।
तच्छुत्वा सकला देवा: शक्राद्या मुनयस्तथा।
परस्परं समामन्त्र्य शिवसक्तधियोऽमला:।।
तस्मिन् काले सुरा: सर्वे हरिब्रह्मदयो मुने।
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषत:।।
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:।
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा – नत्वा दिवं ययु:।।[3]
इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया। जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है।
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