"ग़ालिब": अवतरणों में अंतर
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'''मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब'''' | '''मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान''', जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, [[उर्दू]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनका जन्म [[आगरा]] में [[27 दिसम्बर]], 1797 में हुआ था। उनके दादा 'मिर्ज़ा कोकब ख़ान' समरकंद से [[भारत]] आए थे। बाद में वे [[लाहौर]] में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा कोकब ख़ान के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर [[हैदराबाद]] से होते हुए अलवर के राजा बख्तावर सिंह के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चाचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे। जब मिर्ज़ा ग़ालिब 13 वर्ष के थे, तब उनका निकाह 'नवाब इलाही बख्श ख़ान' की बेटी 'उमराव बेगम' से हुआ। उनके सात बच्चे भी हुए थे, पर इन सातों बच्चों की भी एक के बाद एक मोत हो गई। मिर्ज़ा की निजी ज़िंदगी सचमुच दर्द की एक लम्बी दास्ताँ थी। तभी तो उन्होंने लिखा था कि- | ||
<blockquote><poem>'''दिल ही''' तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों, | |||
== | रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों.</poem></blockquote> | ||
ग़ालिब का | ==शिक्षा== | ||
'''मिर्ज़ा ग़ालिब का लालन-पालन ननिहाल''' में हुआ। एक विद्वान मिर्ज़ा मुअज्ज़म ने इन्हें शिक्षा दी। इन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में एक पारसी [[मुसलमान]] 'अब्दुस्समद' से दो वर्ष तक फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की। उर्दू एवं फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे शायर हो गये थे। | |||
==प्राध्यापकी से इन्कार== | |||
'''जागीर के बदले में मिर्ज़ा को जो पेंशन''' मिलती थी, वह सन 1829 में बंद हो गई। इसके लिए यह [[कलकत्ता]] गए और दो वर्ष इसमें व्यतीत कर असफल लौट आए। लौटते समय यह [[बनारस]] तथा [[लखनऊ]] होते हुए गए थे। [[अवध]] के शाह 'नसीरुद्दीन हैदर' ने एक कसीदे पर प्रसन्न होकर इन्हें पाँच सौ रुपए वार्षिक वृत्ति नियत की थी। सन 1841 ई. में [[दिल्ली]] कॉलेज की फ़ारसी की प्राध्यापकी इन्होंने इस कारण अस्वीकर कर दी कि, आगरा सरकार के सेक्रेटरी ने इनको उचित सम्मान नहीं दिया था। जब ग़ालिब पालकी में सवार होकर कॉलेज पहुँचे थे, तब वहाँ पर कोई भी उनके स्वागत और आगवानी के लिए गेट पर नहीं आया। इस पर ग़ालिब भी कॉलेज के अंदर नहीं गए। उन्होंने कहा कि, मेरे स्वागत के लिए कोई बाहर नहीं आया, इसलिए मैं भी अंदर नहीं जाऊँगा। मैं ये नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि, मुझे लगा था कि इससे मेरे खानदान की इज्ज़त बढ़ेगी, इसलिए नहीं की इज्ज़त में कमी आ जाए। ग़ालिब अपनी यह बात कहकर वहाँ से वापस चले आए। | |||
==पदवी तथा मासिक वृत्ति== | |||
'''सन 1841 में दिल्ली के दरबार से इन्हें''' 'नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निज़ाम जंग पदवी' और पचास रुपए मासिक वृत्ति मिली। रामपुर के नवाब 'यूसुफ़ अली ख़ाँ' इनके शिष्य हो चुके थे। सन 1849 ई. में यह रामपुर गए और कुछ दिन रहकर दिल्ली लौट आए। इन्हें वहाँ से एक सौ रुपए मासिक मिलता था। इनकी पेंशन भी इसी समय मिलने लगी, जिससे यह अंत तक [[दिल्ली]] ही में रहे। | |||
==काव्यशैली में परिवर्तन== | |||
'''मिर्ज़ा ग़ालिब ने''' [[फ़ारसी भाषा]] में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह [[देवता|देव]] की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा उर्दू की ‘दीवाने ग़ालिब’ ही है। इन्होंने जब [[उर्दू]] में कविता करना आरंभ किया, उसमें फ़ारसी शब्दावली तथा योजनाएँ इतनी भरी रहती थीं कि, वह अत्यंत क्लिष्ट हो जाती थी। इनके भावों के विशेष उलझे होने से इनके शेर पहेली बन जाते थे। अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न एक नया मार्ग निकालने की धुन में यह नित्य नए प्रयोग कर रहे थे। किंतु इन्होंने शीघ्र ही समय की आवश्यकता को समझा और स्वयं ही अपनी काव्यशैली में परिवर्तन कर डाला तथा पहले की बहुत-सी कविताएँ नष्ट कर क्रमश: नई कविता में ऐसी सरलता ला दी कि, वह सबके समझने योग्य हो गई। | |||
ग़ालिब की कविता में प्राचीन बातों के सिवा उनके अपने समय के समाज की प्रचलित बाते भी हैं और इससे भी बढ़कर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, जो पहले पहल उर्दू कविता में दिखलाई पड़ता है। धर्म तथा समाज के बँधें नियमों तथा रीतियों की हँसी उड़ाने का इनमें साहस था और यह अपने समय के तथा भविष्य में आनेवाले समाज को अच्छी प्रकार समझते थे। यह मानव जीवन तथा कविता के संबंध को जानते थे और इन सबके वर्णन के लिए इनकी शैली ऐसी अनोखी तथा तीखी थी, जो न पहले और न बाद में दिखलाई पड़ी। मानव जीवन के प्रति इनके विचार बहुत अच्छे हैं, यह जीवनसंघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। यह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते हैं। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में यह अत्यंत निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्रतत्र झलकती रहती हैं। यह मदिराप्रेमी थे इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता। | |||
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==बेहतरीन शायर== | ==बेहतरीन शायर== | ||
मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है। | मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है। |
10:43, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण
ग़ालिब
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पूरा नाम | मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' |
जन्म | 27 दिसम्बर 1797 |
जन्म भूमि | आगरा, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 15 फ़रवरी, 1869 |
पति/पत्नी | उमरो बेगम |
कर्म भूमि | दिल्ली |
कर्म-क्षेत्र | शायर |
मुख्य रचनाएँ | 'दीवाने-ग़ालिब', 'उर्दू-ए-हिन्दी', 'उर्दू-ए-मुअल्ला', 'नाम-ए-ग़ालिब', 'लतायफे गैबी', 'दुवपशे कावेयानी' आदि। |
विषय | उर्दू शायरी |
भाषा | उर्दू और फ़ारसी भाषा |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान, जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनका जन्म आगरा में 27 दिसम्बर, 1797 में हुआ था। उनके दादा 'मिर्ज़ा कोकब ख़ान' समरकंद से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा कोकब ख़ान के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा बख्तावर सिंह के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चाचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे। जब मिर्ज़ा ग़ालिब 13 वर्ष के थे, तब उनका निकाह 'नवाब इलाही बख्श ख़ान' की बेटी 'उमराव बेगम' से हुआ। उनके सात बच्चे भी हुए थे, पर इन सातों बच्चों की भी एक के बाद एक मोत हो गई। मिर्ज़ा की निजी ज़िंदगी सचमुच दर्द की एक लम्बी दास्ताँ थी। तभी तो उन्होंने लिखा था कि-
दिल ही तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों,
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों.
शिक्षा
मिर्ज़ा ग़ालिब का लालन-पालन ननिहाल में हुआ। एक विद्वान मिर्ज़ा मुअज्ज़म ने इन्हें शिक्षा दी। इन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में एक पारसी मुसलमान 'अब्दुस्समद' से दो वर्ष तक फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की। उर्दू एवं फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे शायर हो गये थे।
प्राध्यापकी से इन्कार
जागीर के बदले में मिर्ज़ा को जो पेंशन मिलती थी, वह सन 1829 में बंद हो गई। इसके लिए यह कलकत्ता गए और दो वर्ष इसमें व्यतीत कर असफल लौट आए। लौटते समय यह बनारस तथा लखनऊ होते हुए गए थे। अवध के शाह 'नसीरुद्दीन हैदर' ने एक कसीदे पर प्रसन्न होकर इन्हें पाँच सौ रुपए वार्षिक वृत्ति नियत की थी। सन 1841 ई. में दिल्ली कॉलेज की फ़ारसी की प्राध्यापकी इन्होंने इस कारण अस्वीकर कर दी कि, आगरा सरकार के सेक्रेटरी ने इनको उचित सम्मान नहीं दिया था। जब ग़ालिब पालकी में सवार होकर कॉलेज पहुँचे थे, तब वहाँ पर कोई भी उनके स्वागत और आगवानी के लिए गेट पर नहीं आया। इस पर ग़ालिब भी कॉलेज के अंदर नहीं गए। उन्होंने कहा कि, मेरे स्वागत के लिए कोई बाहर नहीं आया, इसलिए मैं भी अंदर नहीं जाऊँगा। मैं ये नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि, मुझे लगा था कि इससे मेरे खानदान की इज्ज़त बढ़ेगी, इसलिए नहीं की इज्ज़त में कमी आ जाए। ग़ालिब अपनी यह बात कहकर वहाँ से वापस चले आए।
पदवी तथा मासिक वृत्ति
सन 1841 में दिल्ली के दरबार से इन्हें 'नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निज़ाम जंग पदवी' और पचास रुपए मासिक वृत्ति मिली। रामपुर के नवाब 'यूसुफ़ अली ख़ाँ' इनके शिष्य हो चुके थे। सन 1849 ई. में यह रामपुर गए और कुछ दिन रहकर दिल्ली लौट आए। इन्हें वहाँ से एक सौ रुपए मासिक मिलता था। इनकी पेंशन भी इसी समय मिलने लगी, जिससे यह अंत तक दिल्ली ही में रहे।
काव्यशैली में परिवर्तन
मिर्ज़ा ग़ालिब ने फ़ारसी भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह देव की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा उर्दू की ‘दीवाने ग़ालिब’ ही है। इन्होंने जब उर्दू में कविता करना आरंभ किया, उसमें फ़ारसी शब्दावली तथा योजनाएँ इतनी भरी रहती थीं कि, वह अत्यंत क्लिष्ट हो जाती थी। इनके भावों के विशेष उलझे होने से इनके शेर पहेली बन जाते थे। अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न एक नया मार्ग निकालने की धुन में यह नित्य नए प्रयोग कर रहे थे। किंतु इन्होंने शीघ्र ही समय की आवश्यकता को समझा और स्वयं ही अपनी काव्यशैली में परिवर्तन कर डाला तथा पहले की बहुत-सी कविताएँ नष्ट कर क्रमश: नई कविता में ऐसी सरलता ला दी कि, वह सबके समझने योग्य हो गई।
ग़ालिब की कविता में प्राचीन बातों के सिवा उनके अपने समय के समाज की प्रचलित बाते भी हैं और इससे भी बढ़कर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, जो पहले पहल उर्दू कविता में दिखलाई पड़ता है। धर्म तथा समाज के बँधें नियमों तथा रीतियों की हँसी उड़ाने का इनमें साहस था और यह अपने समय के तथा भविष्य में आनेवाले समाज को अच्छी प्रकार समझते थे। यह मानव जीवन तथा कविता के संबंध को जानते थे और इन सबके वर्णन के लिए इनकी शैली ऐसी अनोखी तथा तीखी थी, जो न पहले और न बाद में दिखलाई पड़ी। मानव जीवन के प्रति इनके विचार बहुत अच्छे हैं, यह जीवनसंघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। यह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते हैं। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में यह अत्यंत निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्रतत्र झलकती रहती हैं। यह मदिराप्रेमी थे इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।
बेहतरीन शायर
मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है।
ग़ालिब का दीवान
उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
रचनाएं
ग़ालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है।
- उर्दू-ए-हिन्दी तथा
- उर्दू-ए-मुअल्ला पत्र संग्रह के इनके दो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इनके अलावा ग़ालिब की अन्य गद्य रचनाएँ
- नाम-ए-ग़ालिब,
- लतायफे गैबी,
- दुवपशे कावेयानी आदि हैं।
इनकी रचनाओं में देश की तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है।
निधन
ग़ालिब 72 वर्ष की आयु में परलोक सिधारे।
बाहरी कड़ियाँ
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