"श्याम चालीसा": अवतरणों में अंतर

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जय हो सुंदर श्याम हमारे, मोर मुकुट मणिमय हो धारे |
जय हो सुंदर श्याम हमारे, मोर मुकुट मणिमय हो धारे |

15:09, 14 फ़रवरी 2011 का अवतरण

कृष्ण
Krishna

जय हो सुंदर श्याम हमारे, मोर मुकुट मणिमय हो धारे |
कानन के कुंडल मन मोहे, पीत वस्त्र कटि बंधन सोहे |
गल में सोहत सुंदर माला, सांवरी सूरत भुजा विशाला |
तुम हो तीन लोक के स्वामी, घट घट के हो अंतरयामी |
पदम नाभ विष्णु अवतारी, अखिल भुवन के तुम रखवारी |
खाटू में प्रभु आप बिराजे, दर्शन करत सकल दुख भाजे |
रजत सिंहासन आय सोहते, ऊपर कलशा स्वर्ण मोहते |
अगम अनूप अच्युत जगदीशा, माधव सुर नर सुरपति ईशा |
बाज नौबत शंख नगारे, घंटा झालर अति झनकारे |
माखन मिश्री भोग लगावे, नित्य पुजारी चंवर ढुलावे |
जय जय कार होत सब भारी, दुख बिसरत सारे नर नारी |
जो कोई तुमको मन से ध्याता, मनवाछिंत फल वो नर पाता |
जन मन गण अधिनायक तुम हो, मधु मय अमृत वाणी तुम हो |
विद्या के भंडार तुम्ही हो, सब ग्रथंन के सार तुम्ही हो |
आदि और अनादि तुम हो, कविजन की कविता में तुम हो |
नील गगन की ज्योति तुम हो, सूरत चांद सितारे तुम हो |
तुम हो एक अरु नाम अपारा, कण कण में तुमरा विस्तारा |
भक्तों के भगवान तुम्हीं हो, निर्बल के बलवान तुम्हीं हो |
तुम हो श्याम दया के सागर, तुम हो अनंत गुणों के सागर |
मन दृढ राखि तुम्हें जो ध्यावे, सकल पदारथ वो नर पावे |
तुम हो प्रिय भक्तों के प्यारे, दीन दुख जन के रखवारे |
पुत्रहीन जो तुम्हें मनावें, निश्च्य ही वो नर सुत पावें |
जय जय जय श्री श्याम बिहारी, मैं जाऊं तुम पर बलिहारी |
जन्म मरण सों मुक्ति दीजे, चरण शरण मुझको रख लीजे |
प्रात: उठ जो तुम्हें मनावें, चार पदारथ वो नर पावें |
तुमने अधम अनेकों तारे, मेरे तो प्रभु तुम्ही सहारे |
मैं हूं चाकर श्याम तुम्हारा, दे दो मुझको तनिक सहारा |
कोढि जन आवत जो द्रारे, मिटे कोढ भागत दुख सारे |
नयनहीन तुम्हारे ढिंग आवे, पल में ज्योति मिले सुख पावे |
मैं मूरख अति ही खल कामी, तुम जानत सब अंतरयामी |
एक बार प्रभु दरसन दीजे, यही कामना पूरण कीजे |
जब जब जनम प्रभु मैं पाऊं, तब चरणों की भक्ति पाऊं |
मैं सेवक तुम स्वामी मेरे, तुम हो पिता पुत्र हम तेरे |
मुझको पावन भक्ति दीजे, क्षमा भूल सब मेरी कीजे |
पढे श्याम चालीसा जोई, अंतर में सुख पावे सोई |
सात पाठ जो इसका करता, अन धन से भंडार है भरता |
जो चालीसा नित्य सुनावे, भूत पिशाच निकट नहिं आवे |
सहस्र बार जो इसको गावहि, निश्च्य वो नर मुक्ति पावहि |
किसी रुप में तुमको ध्यावे, मन चीते फल वो नर पावे |
 नंद बसो हिरदय प्रभु मेरे, राखोलाज शरण मैं तेरे |


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