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गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
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==ताजमहल पर कविता== | |||
(कैमरा लेकर ताजमहल जाइए, इस रचना के अनुसार फ़ोटो खींचिए, ट्रांस्पेरैंसीज़ बनवाइए, स्लाइड प्रोजैक्टर पर सबको दिखाइए, साथ में नाटकीय कौशल से कविता सुनाइए। ये सब न करें तो इतना कीजिए, कल्पना में आनंद लीजिए) | |||
{| width="100%" class="bharattable-pink" border="1" | |||
|+'''संगमरमर का संगीत''' | |||
|- valign="top" | |||
| class="bgjeevni2"| | |||
;पात्र- स्वर-1, स्वर-2, गायक, महिला, गाइड, अनुकूल ध्वनि एवं संगीत | |||
<poem>'''स्वर- (1)''' यमुना की सांवली लहरें | |||
[[वृन्दावन]] निधिवन के | |||
कुंज लता गुंजों को पार कर | |||
जब बढ़ती हैं, आगे | |||
रास रचाती हुई | |||
[[बाँसुरी]] गुंजाती हुई | |||
[[गाय|गायों]]-सी रंभाती हुई | |||
और आगे | |||
तो यकायक ठिठक जाते हैं | |||
लहरों के पांव | |||
बढ़ते हैं संभल- संभल।</poem> | |||
(पानी में ताजमहल के लहराते बिम्ब। हालांकि समझ में नहीं आ रहा कि ताजमहल ही है।) | |||
<poem>किसने खिलाए ये [[सफ़ेद रंग|सफ़ेद]] कमल? | |||
किसने बिखराया है | |||
धारा पर पारा | |||
इतना सारा!</poem> | |||
(पानी में ताजमहल का स्पष्ट बिम्ब, फिर स्थित ताज।) | |||
<poem>'''स्वर- (2)''' तुम तो अपने दामन में | |||
प्यार को समेट कर लाई हो लहरो। | |||
समा लो अपने अंदर मेरा भी अक्स। | |||
मैं भी तो वहीं हूँ | |||
मुजस्सम प्यार | |||
तुम्हारी धार का कगार।</poem> | |||
(ताज की दीवारों के दृश्य) | |||
<poem>'''स्वर-(1)''' बाँसुरी की गूंज में | |||
घुल जाते हैं | |||
प्यार के सितार के स्वर | |||
और बजने लगते हैं | |||
दिल के दमामे। </poem> | |||
(गुम्बद का आंतरिक स्वरूप) | |||
<poem>नाद गूँज उठता है | |||
आकाश तक। </poem> | |||
(क़ब्रों के विविध कोण) | |||
;'''गायक'''- (मसनवी शैली में गायन) | |||
<poem>यादगारे उल्फ़ते शाहे जहां | |||
रोज़- ए- मुमताज़ फ़िरदौस आशियाँ | |||
फ़न्ने तामीरान की तकमील ताज | |||
दर्दो- अहसासात की तश्कील ताज।</poem> | |||
(ताज के बाहर सड़क पर विदेशी महिला और भारतीय गाइड) | |||
<poem>'''गाइड-''' ऐक्सक्यूज़ मी मैडम! | |||
नीड अ गाइड? | |||
'''महिला-''' नो, थैंक्स। </poem> | |||
(सीढ़ियों से चढ़कर ताज का चबूतरा) | |||
<poem>'''गाइड-''' हां तो हज़रात! | |||
ताज की कहानी इतनी लम्बी है | |||
सुनाना शुरू करूं | |||
तो हो जाएगी रात | |||
लेकिन दास्तान ख़तम नहीं होगी। | |||
पांच सदियों पुरानी ये कहानी, | |||
हुज़ूर आगे आ जाइए, | |||
आज भी ज़िंदा है। | |||
ज़माना गौर से सुन रहा है | |||
पर जी नहीं भरता है। </poem> | |||
(ताजमहल के विभिन्न शॉट्स, कमैण्ट्री के अनुसार) | |||
<poem>ख़ुदा मालूम | |||
इसके मरमरी ज़िस्म में | |||
क्या- क्या है | |||
पर इतना कहूँगा | |||
कि चित्रकार की नज़र है | |||
शायर का दिल है | |||
बहारों का नग़मा है। | |||
ताज क्या है | |||
क़ुदरत की हथेली में | |||
खिला हुआ इक फूल है वक़्त के रुख़सार पर | |||
ठहरा हुआ आंसू है हुज़ूर | |||
हुस्नो-जमाल का जलवा है | |||
इतना ख़ूबसूरत इतना नाज़ुक | |||
इतना मुक़म्मल | |||
इतना पाकीज़ा है हुज़ूर | |||
कि बाज़-वक़्त डर लगता | |||
छूने में | |||
कि मैला न हो जाए।</poem> | |||
'''दर्शक-''' गाइड हैं कि शायर हैं? | |||
<poem>'''गाइड-''' हुज़ूर आप कुछ भी कहें | |||
शायरी तो इनसानी हाथों ने की है | |||
इसे बनाकर | |||
जनाबेआली। | |||
गोया बनाने वालों ने | |||
संगमरमर में इक हसीन | |||
ख़्वाब लिख डाला है।</poem> | |||
(ताजमहल के विभिन्न शॉट्स, कथ्य से मेल खाते हुए।) | |||
<poem>तामीर का यानी निर्माण का | |||
काम शुरू हुआ | |||
सोलह सौ बत्तीस में | |||
और सजावट को | |||
आख़िरी चमक दी गई | |||
सोलह सौ तिरपन में | |||
इस तरह कुल जमा | |||
बाईस साल लगे | |||
और चौबीस हज़ार लोगों के | |||
अड़तालीस हज़ार हाथ | |||
इसे बनाते रहे। | |||
शुरू के पांच साल तो लग गए | |||
ज़मीन को यक़सार करने में | |||
टीलों को काटने में | |||
गड्ढों को भरने में। | |||
फिर सिलसिला शुरू हुआ | |||
सामान के आमद का | |||
ऊँटों का, हाथियों का | |||
घोड़ों का, ख़च्चरों का। | |||
मुसल्सल सिलसिला हुज़ूर! | |||
तराई के पेड़ों से | |||
संदल, आबनूस, देवदार | |||
शीशम और साल लाया गया | |||
चारकोह मकराना से | |||
सफ़ेद संगमरमर मंगवाया गया। | |||
[[उदयपुर]] से काला पत्थर | |||
बड़ौदा से बुंदकीदार-खुरदरा | |||
कांगड़ा से सुरमई | |||
आंध्रा के कड़प्पा से चितकबरा | |||
बग़दाद से अक़ीक़ | |||
तब्दकमाल से फ़ीरोज़ा | |||
दरिया- ए- शोर से मूँगा | |||
लंका से लाजोर्द | |||
यमन से लालयमनी | |||
दरिया-ए-नील से लहसीना, | |||
और न जाने कहाँ-कहाँ से, | |||
पतूनिया, तवाई, मूसा, मीना। | |||
अजूबा, नख़ूद, रखाम, गोरी | |||
पंखनी, गोडा, याक़ूत, बिल्लौरी। | |||
खट्टू, नीलम, जमर्रुद, गार | |||
हीरा, संख, मरवारीद, जदबार। | |||
पुखराज है, बादल है, गोडा है | |||
इतने पत्थर हैं कि | |||
गिनती भी थक जाए | |||
गिनाते-गिनाते, | |||
ज़माना गुज़र जाए बताते-बताते।</poem> | |||
(फ़व्वारों के पास पार्क) | |||
<poem> | |||
और देखिए | |||
यहीं कहीं | |||
बताशे और बारीक़ रेत के | |||
टीले लगे होंगे | |||
ईंटों की भट्टियाँ खुदी होंगी | |||
मसाले के लिए | |||
गुड़ की भेलियां, उड़द की दाल | |||
और पटसन से | |||
मैदान अट गया होगा जनाब। | |||
अब तो यहाँ | |||
नज़र के लिए नज़ारे हैं | |||
नहर है, फ़व्वारे हैं। | |||
लेकिन सोचिए | |||
वो भी क्या नज़ारा होगा।</poem> | |||
(एरियल शॉट्स ताज और पास की बस्ती / सूर्यास्त और धुएं की पृष्ठभूमि में ताज के शॉट्स।) | |||
<poem>जब सूरज के आने और जाने की | |||
परवाह किए बिना | |||
मेमारों, संगतराशों, फ़नकारों ने | |||
इसे बनवाया होगा। | |||
इधर ढेर सारा धुआँ निकलता होगा | |||
भट्टियों की चिमनियों से। | |||
उधर ताजगंज की | |||
मज़दूर झोंपड़ियों के | |||
हज़ारों चूल्हों से | |||
थोड़ा- सा धुआं उठता होगा। | |||
इधर ईंटें, उधर रोटियों पकती होंगी | |||
इधर कीलें तो उधर | |||
ज़िंदगी ठुकती होंगी।</poem> | |||
(सामान्य चाल से ताजमहल की परिक्रमा के बदलते हुए दृश्य।) | |||
<poem>एक दिलचस्प वाक़्या सुनिए जनाब | |||
चलते-चलते सुनिए | |||
सुनाता हूं जनाब। | |||
एक बार एक ख़ास मेमार | |||
यानी इंजीनियर | |||
तीन महीने की छुट्टी पर गया। | |||
गया गया तो ऐसा गया | |||
कि नहीं लौटा छः महीने तक | |||
तलाशी हुई, मुनादी फिरी | |||
लेकिन कोई ख़बर नहीं मिली | |||
पूरा साल बीता तो | |||
खुद-ब-खुद लौट आए मियाँ, | |||
बोले- ख़ता माफ़ हो शाहे जहाँ। | |||
ख़ाकसार के एक साल तक | |||
ग़ायब रहने की | |||
मस्लेहात ये थी कि | |||
बुनियाद पर | |||
जाड़ा, गरमी, बरसात | |||
तीनों मौसम गुज़र जाएं | |||
ताकि बुनियाद मज़बूत हो। | |||
मैं अगर यहीं रहता | |||
तो आपकी उतावली के आगे | |||
ये सब कैसे कहता।</poem> | |||
(कमैण्ट्री के अनुसार ताज के शॉट्स) <div style="text-align:right; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''क्रमश...'''</div> | |||
| class="bgjeevni2"| | |||
<poem> | |||
<div style="text-align:right; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''...शेष भाग'''</div> | |||
ख़ैर साहब, | |||
मैं भी भटक जाता हूँ | |||
क़िस्सों में अटक जाता हूँ | |||
ताज का कुल रक़बा बयालीस एकड़ है | |||
सदर दरवाज़े की चौड़ाई साढ़े दस फिट | |||
ऊँचाई अस्सी फिट है | |||
कमरे की छत के ऊपर | |||
भूल- भुलैया है | |||
चार कमरे, बाईस बुर्जियाँ | |||
चार छोटे गुम्बद हैं | |||
और संगमरमर के चबूरते के | |||
चारों कोनों पे जो | |||
चार मीनारें हैं | |||
हुज़ूर क्या ख़ूबसूरत ऊँचाइयां हैं | |||
एक सौ बासठ फिट छः इंच।</poem> | |||
(ताज की दीवारों पर लिखावट) | |||
<poem>सजावट के लिए | |||
आयतों और सूरतों को | |||
'ख़त्ते-सुल्स' में तरशवाया गया है। | |||
'ख़त्ते-सुल्स' यानि | |||
लिखावट का एक तरीक़ा | |||
ख़िंचावट और बांकपन ऐसा | |||
लिखावट में कि | |||
हुस्न में इज़ाफ़ा हो।</poem> | |||
<poem>तराशे हुए गुलदस्ते | |||
और बेलबूटे | |||
दीवारों को सजा रहे हैं, | |||
मज़ार की ओर झुके हुए | |||
मुस्कुराते फूल खिलती हुई कलियाँ | |||
और तरोताज़ा पत्ते | |||
महसूस यूँ होता है जैसे | |||
लगातार कोर्निश बजा रहे हैं।</poem> | |||
<poem>ये जो देख रहे हैं | |||
संगमरमर की जाली, | |||
पहले यहाँ | |||
सोने की थी जनाबेआली! | |||
चालीस हज़ार तोले की थी | |||
लेकिन हटा ली। | |||
मौजूदा जाली को ही देखिए | |||
ग़ैरमामूली फूल-पत्ते और सुराहियाँ | |||
गुलबूटे और प्यालियाँ | |||
जाली के आर-पार हैं, | |||
जो पसीना बहा है | |||
इस कमाने फ़न के लिए | |||
देखने वाले उस पर निसार हैं।</poem> | |||
(ताज की जाली / गुम्बद / क़ब्र / कलस / मस्जिद- मेहमान-खाने के विभिन्न दृश्य।) | |||
<poem>जाली के बीचों-बीच | |||
मुमताज की क़ब्र है | |||
पहलू में ही शाहजहां की | |||
दोनों मिलकर अकेले में | |||
बातें करते होंगे | |||
जाने कहाँ-कहाँ की।</poem> | |||
<poem>एक शायर ने लिखा है- | |||
'ताजमहल से पूछ के देखो | |||
कैसी थी मुमताज महल | |||
शाहजहां का लहजा बनकर | |||
पत्थर-पत्थर बोलेगा'। | |||
बोलते हैं हुज़ूर ये पत्थर | |||
ये गुम्बद, ये कलस | |||
ये मीनारें, ये गुल बूटे | |||
सब मिलकर बोलते हैं। | |||
मग़रिब की तरफ़ देख मुन्नी | |||
मस्जिद है | |||
मशरिक़ में इसके जवाब में | |||
मेहमानख़ाना है। | |||
शाहजहाँ यही पे अपने | |||
मेहमानों को लाता होगा | |||
और मेरी तरह | |||
इसकी ख़ूबियाँ बताता होगा</poem> | |||
(गुम्बद / चाँद का क़ायदा / लट्टू / सुराही / चाँद) | |||
<poem>ख़ैर, | |||
अब देखिए ताज का ये गुम्बद | |||
बज़ाहिर छोटा नज़र आता है | |||
लेकिन काफ़ी बलंद है | |||
बलंदी है साढ़े तीस फिट | |||
चाँद का क़ायदा साढ़े आठ फिट | |||
लट्टू का क़तर साढ़े चार फिट | |||
लट्टू की सुराही साढ़े चार फिट | |||
सुराही पर का लट्टू पौने पाँच फिट | |||
कलस का वज़न बत्तीस मन है | |||
और कलस के चाँद पर | |||
लिखा हुआ है | |||
क़लम-ए- तय्यबा-</poem> | |||
;'''गायक-''' (अजान के स्वर) | |||
<poem>ला इलाह- इल्लल्लाह | |||
मोहम्मदुर्रसूलुल्लाह।</poem> | |||
(सीढ़ियाँ उतरकर दीवार के सहारे-सहारे के दृश्य) | |||
<poem>'''गाइड-''' ये तो बलंदी देखी | |||
गहराई में जाएं तो हुज़ूर | |||
वहाँ पानी है | |||
हाँ जनाब ताज की बुनियाद में | |||
चालीस कुएँ हैं। | |||
कुओं में तीन हज़ार छः सौ | |||
लट्ठे उतारे गए। | |||
ऐसे लट्ठे जो जितना पानी में रहें | |||
और ज़्यादा मज़बूत बनें। | |||
दरअसल यही तो ताज के | |||
अहसास की भी बुनियाद है, | |||
जिसमें दिल की | |||
गीली हलचल है | |||
और प्यार की फरियाद है।</poem> | |||
(ताज का बारीक़ काम) | |||
<poem>बहुत प्यार से बनाया है ताज को | |||
मेमारों फ़नकारों ने | |||
शिल्पकला का ऐसा नमूना | |||
कि जिस हिस्से को | |||
जितने ग़ौर से देखने जाइए | |||
उसमें छिपी नज़ाकतें | |||
ख़ुद-ब-ख़ुद | |||
जल्वा दिखाने दिखाने लगेंगी, | |||
महीन डालियों के पेचोख़म | |||
नाज़ुक फूलों की पंखुरियाँ | |||
आपसे बतियाने लगेंगी।</poem> | |||
(दीवारों पर लिखावट) | |||
<poem> | |||
और ये आड़े-तिरछे ख़ुतूत | |||
इनको इस तरह मिलाया है कि | |||
जोड़ दिखाई नहीं देता | |||
और दाँतों तले उंगली तो | |||
तब दबाएंगे, | |||
जब अस्सी फ़िट ऊँची लिखावट को | |||
यहीं से देखकर | |||
सामने की लिखावट के | |||
बराबर पाएँगे। | |||
ताज के मेमारों ने | |||
भारतीय गणित विद्या और | |||
ज्यामिति पढ़ी थी | |||
इसीलिए उनमें | |||
नापजोख और पैमाइश की | |||
तमीज़ बड़ी थी।</poem> | |||
(ताज की अलग-अलग शिल्पकारियाँ) | |||
<poem> | |||
जात-पांत का भेद नहीं था | |||
बनाने वालों में | |||
उनकी [[कला]], उनका हुनर ही | |||
उनका धरम था | |||
या कहें करम का धरम था। | |||
मौ. शरीफ़ कलस-साज़ थे समरकंद के | |||
मौ. हनीफ़ मेमार थे कंधार के | |||
इस्माइल ख़ाँ रूमी गुम्बद-साज़ थे [[दिल्ली]] के | |||
चिरंगी लाल, छोटे लाल | |||
मनोहर सिंह मन्नू लाल ने | |||
की थी पच्चीकारी | |||
अता मुहम्मद जाटमल | |||
शंकर मुहम्मद जोरावर ने गुलकारी | |||
उस्ताद आफ़न्दी नक्शा-नवीस थे | |||
उस्ताद ईसा राजगीर | |||
उस्ताद मनोहर बढ़ई | |||
सितार ख़ाँ ख़ुशनवीस थे। | |||
ख़ुशनवीस माने सुंदर लिखने वाले | |||
और ख़ुशनवीस क्या थे | |||
ख़ुशनसीब थे | |||
कितनी आँखें देखती हैं | |||
हुस्नो जमाल को | |||
कितने दिल सहराते हैं | |||
कला के कमाल को | |||
पाकीज़गी और रूहानियत का जैसे | |||
साकार रूप तलाशा गया हो, | |||
फूल की पंखुरियों से गोया | |||
हीरे का महल तराशा गया हो।</poem> | |||
<poem>सदक़े इन फ़नकारों की | |||
उंगलियों के | |||
सदक़े उनकी छैनियों के | |||
सदक़े इंसान की उन कोशिशों के | |||
जो [[दूध]] में नहाए ख़्वाब जैसा | |||
ताज बना सकती हैं, | |||
सदक़े उनकी मेहनत के | |||
जो संगमरमर का | |||
[[संगीत]] सुना सकती हैं। | |||
</poem> | |||
(सूर्यास्त के समय लौंग शॉट में ताज) | |||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"><poem>फ़रिशतो ढांक दो | |||
रूहों की चादर से इसे वरना | |||
फ़िज़ा की सांस | |||
छू-छू कर | |||
इसे मैला न कर डाले<ref>{{cite book |last=चक्रधर |first=अशोक |authorlink= |coauthors= |title=रंग जमा लो |year=2008 |publisher=डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि. |location= |id=81-7182-958-9}}</ref> | |||
</poem></div> | |||
|} |
09:20, 25 फ़रवरी 2011 का अवतरण
ताजमहल पर कविता
(कैमरा लेकर ताजमहल जाइए, इस रचना के अनुसार फ़ोटो खींचिए, ट्रांस्पेरैंसीज़ बनवाइए, स्लाइड प्रोजैक्टर पर सबको दिखाइए, साथ में नाटकीय कौशल से कविता सुनाइए। ये सब न करें तो इतना कीजिए, कल्पना में आनंद लीजिए)
स्वर- (1) यमुना की सांवली लहरें (पानी में ताजमहल के लहराते बिम्ब। हालांकि समझ में नहीं आ रहा कि ताजमहल ही है।) किसने खिलाए ये सफ़ेद कमल? (पानी में ताजमहल का स्पष्ट बिम्ब, फिर स्थित ताज।) स्वर- (2) तुम तो अपने दामन में (ताज की दीवारों के दृश्य) स्वर-(1) बाँसुरी की गूंज में (गुम्बद का आंतरिक स्वरूप) नाद गूँज उठता है (क़ब्रों के विविध कोण)
यादगारे उल्फ़ते शाहे जहां (ताज के बाहर सड़क पर विदेशी महिला और भारतीय गाइड) गाइड- ऐक्सक्यूज़ मी मैडम! (सीढ़ियों से चढ़कर ताज का चबूतरा) गाइड- हां तो हज़रात! (ताजमहल के विभिन्न शॉट्स, कमैण्ट्री के अनुसार) ख़ुदा मालूम दर्शक- गाइड हैं कि शायर हैं? गाइड- हुज़ूर आप कुछ भी कहें (ताजमहल के विभिन्न शॉट्स, कथ्य से मेल खाते हुए।) तामीर का यानी निर्माण का (फ़व्वारों के पास पार्क) और देखिए (एरियल शॉट्स ताज और पास की बस्ती / सूर्यास्त और धुएं की पृष्ठभूमि में ताज के शॉट्स।) जब सूरज के आने और जाने की (सामान्य चाल से ताजमहल की परिक्रमा के बदलते हुए दृश्य।) एक दिलचस्प वाक़्या सुनिए जनाब क्रमश...
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...शेष भाग ख़ैर साहब, (ताज की दीवारों पर लिखावट) सजावट के लिए तराशे हुए गुलदस्ते ये जो देख रहे हैं (ताज की जाली / गुम्बद / क़ब्र / कलस / मस्जिद- मेहमान-खाने के विभिन्न दृश्य।) जाली के बीचों-बीच एक शायर ने लिखा है- (गुम्बद / चाँद का क़ायदा / लट्टू / सुराही / चाँद) ख़ैर,
ला इलाह- इल्लल्लाह (सीढ़ियाँ उतरकर दीवार के सहारे-सहारे के दृश्य) गाइड- ये तो बलंदी देखी (ताज का बारीक़ काम) बहुत प्यार से बनाया है ताज को (दीवारों पर लिखावट) और ये आड़े-तिरछे ख़ुतूत (ताज की अलग-अलग शिल्पकारियाँ) जात-पांत का भेद नहीं था सदक़े इन फ़नकारों की (सूर्यास्त के समय लौंग शॉट में ताज) फ़रिशतो ढांक दो |
- ↑ चक्रधर, अशोक (2008) रंग जमा लो। डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.। 81-7182-958-9।