"रेबीज़": अवतरणों में अंतर

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;रेबीज़ का फैलाव और रोग संक्रमण
;रेबीज़ का फैलाव और रोग संक्रमण
ज़ाहिर है रेबीज़ ग्रस्त जानवरो के काटने या फिर खुले घाव को चाटने से भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले लेता है। ऐसे एनीमल को इसीलियें रेबिड एनीमल कहा जाता है। आम तौर पर स्ट्रीट डॉग्स वैसे कुत्ते बिल्ली, बन्दर, कभी कभार रीछ, भेड़िया, अफ्रिका और एशिया में पाए जाने वाली जंगली कुत्तो की एक नस्ल जो मरे हुए पशुओं पर ही ज़िंदा रहती है (हयेना) को भी यह रोग हो जाता है और इन रेबिड जानवरो के काटने, आदमी के खुले जख्मो को चाटने से यह रोग मनुष्यों को हो जाता है।
ज़ाहिर है रेबीज़ ग्रस्त जानवरो के काटने या फिर खुले घाव को चाटने से भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले लेता है। ऐसे जानवर को इसीलियें रेबिड एनीमल कहा जाता है। आम तौर पर स्ट्रीट डॉग्स वैसे कुत्ते बिल्ली, बन्दर, कभी कभार रीछ, भेड़िया, अफ्रिका और एशिया में पाए जाने वाली जंगली कुत्तो की एक नस्ल, जो मरे हुए पशुओं पर ही ज़िंदा रहती है (हयेना) को भी यह रोग हो जाता है और इन रेबिड जानवरो के काटने, आदमी के खुले जख्मो को चाटने से यह रोग मनुष्यों को हो जाता है।


तकरीबन तीस लाख लोग हर साल इन जानवरो के काटे जाने पर रेबीज़ के टीके लगवातें हैं।  
तकरीबन तीस लाख लोग हर साल इन जानवरो के काटे जाने पर रेबीज़ के टीके लगवातें हैं।  


बुनियादी तौर पर यह पशुओं का ही रोग है। जंगली पशुओं और गली मोहल्ले के कुत्तों में यह अकसर देखा जाता है। इन रेबिड जानवरो की लार में ही इसका वायरस (विषाणु) पाया जाता है। इसीलिए इनके काटने के अलावा वायरस इसके चाटने से भी कटी फटी त्वचा में दाखिल हो सकता है। दाखिल होते ही यह मनुष्य के कनेक्तिव टिश्युज (आबन्धी ऊतकों ) में द्विगुणित होने लगता है, मल्टीप्लाई करता है पेशियों में पहुंचता है स्नायु में दाखिल होकर यह हमारे दिमाग तक अपनी पहुँच बनाता है और यहाँ पर एक बार फिर अपनी जरूरत पूरी करता है, ज़मके मल्टीप्लाई करता है। दिमाग से यह इसके विषाणु नर्व्ज़ से होते हुए अन्य अंगों तक पहुंचतें हैं। लार ग्रंथियों तक भी आखिरकार आ ही जाते हैं।  
बुनियादी तौर पर यह पशुओं का ही रोग है। जंगली पशुओं और गली मोहल्ले के कुत्तों में यह अकसर देखा जाता है। इन रेबिड जानवरो की लार में ही इसका वायरस (विषाणु) पाया जाता है। इसीलिए इनके काटने के अलावा वायरस इसके चाटने से भी कटी फटी त्वचा में दाखिल हो सकता है। दाखिल होते ही यह मनुष्य के कनेक्तिव टिश्युज (आबन्धी ऊतकों ) में द्विगुणित होने लगता है, मल्टीप्लाई करता है, पेशियों में पहुंचता है। स्नायु में दाखिल होकर यह हमारे दिमाग तक अपनी पहुँच बनाता है और यहाँ पर एक बार फिर अपनी जरूरत पूरी करता है, ज़मके मल्टीप्लाई करता है। दिमाग से यह इसके विषाणु नर्व्ज़ से होते हुए, अन्य अंगों तक पहुंचतें हैं। लार ग्रंथियों तक भी आखिरकार आ ही जाते हैं।  


काटने के दस दिन बाद से तीन साल तक भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले सकता है। आम तौर पर यह अवधि एक से तीन माह ही होती है। बच्चों में यह अवधि (इन्क्यूबेशन पीरियड और भी कम रहता है)। रेबीज़ के विषाणु लार के अलावा रेबीज़ ग्रस्त मरीज़ के अन्य स्रावों में भी आ जाते हैं, इसलिए तीमारदार को भी पूरी एहतियात के साथ खुद को बचाए रहना पड़ता है।
काटने के दस दिन बाद से तीन साल तक भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले सकता है। आम तौर पर यह अवधि एक से तीन माह ही होती है। बच्चों में यह अवधि (इन्क्यूबेशन पीरियड और भी कम रहता है)। रेबीज़ के विषाणु लार के अलावा रेबीज़ ग्रस्त मरीज़ के अन्य स्रावों में भी आ जाते हैं, इसलिए तीमारदार को भी पूरी एहतियात के साथ खुद को बचाए रहना पड़ता है।
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पानी पीने से लेरिंक्स (स्वर पेटी, जहां स्वर-तंत्री यानी वोकल कोर्ड्स होतीं हैं) की एंठन पैदा होती है और इसीलिए मरीज़ पानी से खौफ खाने लगता है। यहाँ तक की पानी आवाज़ और पानी को देखना भी उसमे खौफ पैदा करता है। मरीज़ हाई-ड्रो-फोबिया से ग्रस्त हो जाता है।
पानी पीने से लेरिंक्स (स्वर पेटी, जहां स्वर-तंत्री यानी वोकल कोर्ड्स होतीं हैं) की एंठन पैदा होती है और इसीलिए मरीज़ पानी से खौफ खाने लगता है। यहाँ तक की पानी आवाज़ और पानी को देखना भी उसमे खौफ पैदा करता है। मरीज़ हाई-ड्रो-फोबिया से ग्रस्त हो जाता है।


मृत्यु की वजह रिस्पाय्रेत्री अरेस्ट बनती है सांस की धौंकनी रुक जाती है।
मृत्यु की वजह रिस्पाय्रेत्री अरेस्ट बनती है अर्थात सांस की धौंकनी रुक जाती है।


कुछ मरीज़ लकवा ग्रस्त हो जाते हैं, फालिज या पेरेलेसिस की चपेट में आ जाते हैं। बेशक जीवन के आखिरी क्षण तक यह चेतन्य बने रहतें हैं। जो बच जाते हैं, वह कोमा में चले जाते हैं। गहन देख रेख के अभाव में सभी मरीज़ 1-3 सप्ताह में शरीर छोड़ जाते हैं।
कुछ मरीज़ लकवा ग्रस्त हो जाते हैं, फालिज या पेरेलेसिस की चपेट में आ जाते हैं। बेशक जीवन के आखिरी क्षण तक यह चेतन्य बने रहतें हैं। जो बच जाते हैं, वह कोमा में चले जाते हैं। गहन देख रेख के अभाव में सभी मरीज़ 1-3 सप्ताह में शरीर छोड़ जाते हैं।

19:28, 3 मार्च 2011 का अवतरण

रेबीज़ / स्केयरी कन्सिक्युवेंसिज़

रेबीज़ एक खतरनाक रोग है। रेबीज़ जिसे जलांतक (जल भीती या हाई-ड्रो-फोबिया) भी कहा जाता है। क्योंकि इस रोग में मरीज़ पानी भी नहीं पी पाता है। पानी के देखने से भी उसे आकस्मिकतौर पर दौरा पड़ जाता है।

रेबीज़ का फैलाव और रोग संक्रमण

ज़ाहिर है रेबीज़ ग्रस्त जानवरो के काटने या फिर खुले घाव को चाटने से भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले लेता है। ऐसे जानवर को इसीलियें रेबिड एनीमल कहा जाता है। आम तौर पर स्ट्रीट डॉग्स वैसे कुत्ते बिल्ली, बन्दर, कभी कभार रीछ, भेड़िया, अफ्रिका और एशिया में पाए जाने वाली जंगली कुत्तो की एक नस्ल, जो मरे हुए पशुओं पर ही ज़िंदा रहती है (हयेना) को भी यह रोग हो जाता है और इन रेबिड जानवरो के काटने, आदमी के खुले जख्मो को चाटने से यह रोग मनुष्यों को हो जाता है।

तकरीबन तीस लाख लोग हर साल इन जानवरो के काटे जाने पर रेबीज़ के टीके लगवातें हैं।

बुनियादी तौर पर यह पशुओं का ही रोग है। जंगली पशुओं और गली मोहल्ले के कुत्तों में यह अकसर देखा जाता है। इन रेबिड जानवरो की लार में ही इसका वायरस (विषाणु) पाया जाता है। इसीलिए इनके काटने के अलावा वायरस इसके चाटने से भी कटी फटी त्वचा में दाखिल हो सकता है। दाखिल होते ही यह मनुष्य के कनेक्तिव टिश्युज (आबन्धी ऊतकों ) में द्विगुणित होने लगता है, मल्टीप्लाई करता है, पेशियों में पहुंचता है। स्नायु में दाखिल होकर यह हमारे दिमाग तक अपनी पहुँच बनाता है और यहाँ पर एक बार फिर अपनी जरूरत पूरी करता है, ज़मके मल्टीप्लाई करता है। दिमाग से यह इसके विषाणु नर्व्ज़ से होते हुए, अन्य अंगों तक पहुंचतें हैं। लार ग्रंथियों तक भी आखिरकार आ ही जाते हैं।

काटने के दस दिन बाद से तीन साल तक भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले सकता है। आम तौर पर यह अवधि एक से तीन माह ही होती है। बच्चों में यह अवधि (इन्क्यूबेशन पीरियड और भी कम रहता है)। रेबीज़ के विषाणु लार के अलावा रेबीज़ ग्रस्त मरीज़ के अन्य स्रावों में भी आ जाते हैं, इसलिए तीमारदार को भी पूरी एहतियात के साथ खुद को बचाए रहना पड़ता है।

लक्षण

रेबीज़ एक खतरनाक रोग है। एक बार हो जाए फिर ईश्वर ही मालिक है। मृत्यु अवश्यम-भावी है। आदमी में इस रोग के कई चरण दिखलाई देतें हैं।

मसल्स की आकस्मिक ट्विचिंग (एक दम से पेशी का सिकुड़ना जिस पर मरीज़ का कोई बस नहीं रहता), नर्व्ज़ (स्नायु) और पेशी में पीड़ा, बेहद हो सकती है। ज्वर, सिरदर्द के अलावा जनरल मेलिस दिखलाई देगी भूख गायब हो जायेगी। मरीज़ एक दम से बे-चैनी अनुभव करेगा, बेहद उत्तेजित और चिड-चिडा हो जाएगा। हाइपर एक्टिव होने के अलवा ज्यादातर मामलों में मरीज़ का व्यवहार अजीबो गरीब और फ्यूरियस दिखलाई देगा।

प्रकाश और आवाज़ दोनों ही आकस्मिक दौरे (रोग के बेहद बढ़ने की वजह बन सकतें हैं)। स्पर्श भी बेहद सीज़र्स की वजह बन सकता है। एक साथ मिलकर भी ये कारक सीज़र्स की वजह बन सकतें हैं।

पानी पीने से लेरिंक्स (स्वर पेटी, जहां स्वर-तंत्री यानी वोकल कोर्ड्स होतीं हैं) की एंठन पैदा होती है और इसीलिए मरीज़ पानी से खौफ खाने लगता है। यहाँ तक की पानी आवाज़ और पानी को देखना भी उसमे खौफ पैदा करता है। मरीज़ हाई-ड्रो-फोबिया से ग्रस्त हो जाता है।

मृत्यु की वजह रिस्पाय्रेत्री अरेस्ट बनती है अर्थात सांस की धौंकनी रुक जाती है।

कुछ मरीज़ लकवा ग्रस्त हो जाते हैं, फालिज या पेरेलेसिस की चपेट में आ जाते हैं। बेशक जीवन के आखिरी क्षण तक यह चेतन्य बने रहतें हैं। जो बच जाते हैं, वह कोमा में चले जाते हैं। गहन देख रेख के अभाव में सभी मरीज़ 1-3 सप्ताह में शरीर छोड़ जाते हैं।

रेबीज़ से बचाव

रेबिड जानवरो के काटे जाने के बाद हर चंद कोशिश यह रहनी चाहिए, विषाणु नर्व टिश्यु तक ना पहुँच पाए, इसके बाद वेक्सीन या कोई और चिकित्सा बे-असर ही सिद्ध होती है। जख्म की संभाल बेहजद जरूरी है। काटे जाने के बाद उस स्थान को कम से कम दस मिनट तक साबुन रगड़ रगड़ कर पानी से साफ़ करते रहना चाहिए। उसके बाद खुले पानी से जख्म को फ्लश करते रहिये। अब 1% सोल्यूशन बेन्ज़ल-कोनियमक्लोराइड से जख्म को इर्रिगेट करते रहिये। ऐसा करने से रेबीज़ के वायरस आम तौर पर मर जाते हैं। इसके बाद टेटनस का टीका मरीज़ को लगना ही चाहिए। एंटी-बाय्तिक्स भी डॉ की सलाह पर सही दिए जाने चाहिए। घाव के गिर्द के डेड या बेहद विक्षत ऊतकों को काटकर साफ़ कर देना चाहिए। घाव पर टाँके किसी भी हाल में नहीं लगाने हैं।

रेबीज़ के टीके

पहले रेबीज़ के टीके मरीज़ के पेट में लगते थे, जो बेहद तकलीफ देते थे, इन्हें बकरे के दिमाग से तैयार किया जाता था। ये टीके उतने असरदार भी नहीं थे। अब टिश्यु कल्चर वेक्सींस उपलब्ध हैं। यह वेक्सीनें बेशक महंगी हैं, लेकिन एक दम से सुरक्षित, पीड़ा रहित एवं कारगर रहतीं हैं।

टीका लगवाने का समय

जब कुत्ते में रोग के लक्षण दिखलाई दें (ज़ाहिर है नजर रखनी पड़ेगी कुत्ते पर, उस रेबिड एनीमल पर जिसने काटा है)। जब वह पशु दस दिनों के अन्दर ही मर जाए (आपको काटने के बाद)।

आप उसके बारे में कुछ भी ना जान सकें और वह गायब हो जाए। बिना उकसाए जब वह आपको काट ले। जब वह खुद रेबीज़ से ग्रस्त (पाजिटिव) पाया जाए। उसके मारे जाने के बाद या खुद मरने के बाद परीक्षणों से रेबीज़ की शिनाख्त हो जाए।

टीका लगवाने के एक माह बाद तक भी शराब (किसी भी रूप में एल्कोहल) का सेवन ना किया जाए। बिना वजह बेहद मानसिक और शारीरिक श्रम से बचा जाए। देर रात के बाद ना सोया जाए (टाइम से सोना जरूरी है)।

स्तिरोइड्स तथा इम्यूनो-सप्रेसर ड्रग्स का स्तेमाल ना किया। जाए टीकों का कोर्स हर हाल में पूरा किया जाए। बीच में छोड़ना खतरनाक हो सकता है। मरीज़ रोग ग्रस्त हो सकता है।


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