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|+'''रचनाऐं'''
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! '''ये गजरे तारों वाले'''   
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|<poem>इस सोते संसार बीच,
जग कर, सज कर रजनी बाले।
कहाँ बेचने ले जाती हो,
ये गजरे तारों वाले?
मोल करेगा कौन,
सो रही हैं उत्सुक आँखें सारी।
मत कुम्हलाने दो,
सूनेपन में अपनी निधियाँ न्यारी॥
निर्झर के निर्मल जल में,
ये गजरे हिला हिला धोना।
लहर हहर कर यदि चूमे तो,
किंचित् विचलित मत होना॥
होने दो प्रतिबिम्ब विचुम्बित,
लहरों ही में लहराना।
'लो मेरे तारों के गजरे'
निर्झर-स्वर में यह गाना॥
यदि प्रभात तक कोई आकर,
तुम से हाय! न मोल करे।
तो फूलों पर ओस-रूप में
बिखरा देना सब गजरे॥</poem>         
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! '''ये गजरे तारों वाले'''   
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|<poem>धूम्र जिसके क्रोड़ में है, उस अनल का हाथ हूँ मैं,
नव प्रभा लेकर चला हूँ, पर जलन के साथ हूँ मैं
सिद्धि पाकर भी, तुम्हारी साधना का..
ज्वलित क्षण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ
 
व्योम के उर में, अपार भरा हुआ है जो अँधेरा
और जिसने विश्व को, दो बार क्या सौ बार घेरा
उस तिमिर का नाश करने के लिए,
मैं अटल प्रण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ।
 
शलभ को अमरत्व देकर,प्रेम पर मरना सिखाया
सूर्य का संदेश लेकर,रात्रि के उर में समाया
पर तुम्हारा स्नेह खोकर भी
तुम्हारी ही शरण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ।</poem>         
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! '''खोलो प्रियतम खोलो द्वार...'''
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|<poem>शिशिर कणों से लदी हुई
कमली के भीगे हैं सब तार
चलता है पश्चिम का मारुत
ले कर शीतलता का भार
 
अरुण किरण सम कर से छू लो
खोलो प्रियतम खोलो द्वार....
 
डरो ना इतना धूल धूसरित
होगा नहीं तुम्हारा द्वार
धो डाले हैं इनको प्रियतम
इन आँखों से आँसू ढ़ार


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अरुण किरण सम कर से छू लो
खोलो प्रियतम खोलो द्वार...</poem>  
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07:08, 2 अप्रैल 2011 का अवतरण

रचनाऐं
ये गजरे तारों वाले

इस सोते संसार बीच,
जग कर, सज कर रजनी बाले।
कहाँ बेचने ले जाती हो,
ये गजरे तारों वाले?
मोल करेगा कौन,
सो रही हैं उत्सुक आँखें सारी।
मत कुम्हलाने दो,
सूनेपन में अपनी निधियाँ न्यारी॥
निर्झर के निर्मल जल में,
ये गजरे हिला हिला धोना।
लहर हहर कर यदि चूमे तो,
किंचित् विचलित मत होना॥
होने दो प्रतिबिम्ब विचुम्बित,
लहरों ही में लहराना।
'लो मेरे तारों के गजरे'
निर्झर-स्वर में यह गाना॥
यदि प्रभात तक कोई आकर,
तुम से हाय! न मोल करे।
तो फूलों पर ओस-रूप में
बिखरा देना सब गजरे॥

ये गजरे तारों वाले

धूम्र जिसके क्रोड़ में है, उस अनल का हाथ हूँ मैं,
नव प्रभा लेकर चला हूँ, पर जलन के साथ हूँ मैं
सिद्धि पाकर भी, तुम्हारी साधना का..
ज्वलित क्षण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ

व्योम के उर में, अपार भरा हुआ है जो अँधेरा
और जिसने विश्व को, दो बार क्या सौ बार घेरा
उस तिमिर का नाश करने के लिए,
मैं अटल प्रण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ।

शलभ को अमरत्व देकर,प्रेम पर मरना सिखाया
सूर्य का संदेश लेकर,रात्रि के उर में समाया
पर तुम्हारा स्नेह खोकर भी
तुम्हारी ही शरण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ।

खोलो प्रियतम खोलो द्वार...

शिशिर कणों से लदी हुई
कमली के भीगे हैं सब तार
चलता है पश्चिम का मारुत
ले कर शीतलता का भार

अरुण किरण सम कर से छू लो
खोलो प्रियतम खोलो द्वार....

डरो ना इतना धूल धूसरित
होगा नहीं तुम्हारा द्वार
धो डाले हैं इनको प्रियतम
इन आँखों से आँसू ढ़ार

अरुण किरण सम कर से छू लो
खोलो प्रियतम खोलो द्वार...