"भीमराव आम्बेडकर": अवतरणों में अंतर
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1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था '''जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा।''' वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने जीवनपर्यंत अछूतोद्वार के लिए कार्य किया। जब [[गाँधी]] ने दलितों को अल्पसंख्यकों की तरह पृथक निर्वाचन मंडल देने के ब्रिटिश नीति के खिलाफ़ आमरण अनशन किया। सन् 1927 में उन्होंने हिन्दुओं द्वारा निजी सम्पत्ति घोषित सार्वजनिक तालाब से पानी लेने के लिए अछूतों को अधिकार दिलाने के लिए एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया। उन्होंने सन् 1937 में बंबई उच्च न्यायालय में यह मुकदमा जीता।<br /><blockquote><span style="color: #cc8736">आम्बेडकर ने [[ॠग्वेद]] से उद्धरण देकर दिखाया है कि आर्य गौर वर्ण के और श्याम वर्ण के भी थे। अश्विनी देवों ने श्याव और रुक्षती का विवाह कराया। श्याव श्याम वर्ण का है और रुक्षती गौर वर्ण की है। अश्विनी वंदना की रक्षा करते हैं और वह गौर वर्ण की है। एक प्रार्थना में ॠषि कहते हैं कि उन्हें पिशंग वर्ण अर्थात भूरे रंग का पुत्र प्राप्त हो। आम्बेडकर का निष्कर्ष है: इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक आर्यों में रंगभेद की भावना नहीं थी। होती भी कैसे? वे एक रंग के थे ही नहीं। कुछ गोरे थे, कुछ काले थे, कुछ भूरे थे। [[दशरथ]] के पुत्र [[राम]] श्याम वर्ण के थे। इसी तरह यदुवंशी [[कृष्ण]] भी श्याम वर्ण के थे। ॠग्वेद के अनेक मंत्रों के रचनाकार दीर्घतमस हैं। उनके नाम से ही प्रतीत होता है, वे श्याम वर्ण के थे। [[आर्य|आर्यों]] में एक प्रसिद्ध ॠषि [[कण्व]] थे। ॠग्वेद में उनका जो विवरण मिलता है, उससे ज्ञात होता है, वे श्याम वर्ण के थे। इसी तरह आम्बेडकर ने इस धारणा का खंडन किया कि आर्य गोरी नस्ल के ही थे।</span></blockquote><br /> | 1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था '''जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा।''' वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने जीवनपर्यंत अछूतोद्वार के लिए कार्य किया। जब [[गाँधी]] ने दलितों को अल्पसंख्यकों की तरह पृथक निर्वाचन मंडल देने के ब्रिटिश नीति के खिलाफ़ आमरण अनशन किया। सन् 1927 में उन्होंने हिन्दुओं द्वारा निजी सम्पत्ति घोषित सार्वजनिक तालाब से पानी लेने के लिए अछूतों को अधिकार दिलाने के लिए एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया। उन्होंने सन् 1937 में बंबई उच्च न्यायालय में यह मुकदमा जीता।<br /><blockquote><span style="color: #cc8736">आम्बेडकर ने [[ॠग्वेद]] से उद्धरण देकर दिखाया है कि आर्य गौर वर्ण के और श्याम वर्ण के भी थे। अश्विनी देवों ने श्याव और रुक्षती का विवाह कराया। श्याव श्याम वर्ण का है और रुक्षती गौर वर्ण की है। अश्विनी वंदना की रक्षा करते हैं और वह गौर वर्ण की है। एक प्रार्थना में ॠषि कहते हैं कि उन्हें पिशंग वर्ण अर्थात भूरे रंग का पुत्र प्राप्त हो। आम्बेडकर का निष्कर्ष है: इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक आर्यों में रंगभेद की भावना नहीं थी। होती भी कैसे? वे एक रंग के थे ही नहीं। कुछ गोरे थे, कुछ काले थे, कुछ भूरे थे। [[दशरथ]] के पुत्र [[राम]] श्याम वर्ण के थे। इसी तरह यदुवंशी [[कृष्ण]] भी श्याम वर्ण के थे। ॠग्वेद के अनेक मंत्रों के रचनाकार दीर्घतमस हैं। उनके नाम से ही प्रतीत होता है, वे श्याम वर्ण के थे। [[आर्य|आर्यों]] में एक प्रसिद्ध ॠषि [[कण्व]] थे। ॠग्वेद में उनका जो विवरण मिलता है, उससे ज्ञात होता है, वे श्याम वर्ण के थे। इसी तरह आम्बेडकर ने इस धारणा का खंडन किया कि आर्य गोरी नस्ल के ही थे।</span></blockquote><br /> | ||
आम्बेडकर ने मंदिरों में अछूतों के प्रवेश करने के अधिकार को लेकर भी संघर्ष किया। वह लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलन के शिष्टमंडल के भी सदस्य थे, जहाँ उन्होंने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग की। महात्मा गांधी ने इसे हिंदू समाज में विभाजक मानते हुए विरोध किया।<br /><blockquote><span style="color: #cc8736">1931 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को सम्बोधित करते हुए आम्बेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में कहा: ब्रिटिश पार्लियामेंट और प्रवक्ताओं ने हमेशा यह कहा है कि वे दलित वर्गों के ट्रस्टी हैं। मुझे विश्वास है, कि यह बात सभ्य लोगों की वैसी झूठी बात नहीं है जो आपसी सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए कही जाती है। मेरी राय में किसी भी सरकार का यह निश्चित कर्तव्य होगा कि जो धरोहर उसके पास है, उसे वह गँवा न दे। यदि ब्रिटिश सरकार हमें उन लोगों की दया के भरोसे छोड़ देती है जिन्होंने हमारी खुशहाली की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया, तो यह बहुत बड़ी गद्दारी होगी। हमारी तबाही और बर्बादी की बुनियाद पर ही ये लोग धनीमानी और बड़े बने हैं।<ref>डॉ॰ बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज; खण्ड-2 पृष्ठ 598</ref></span></blockquote><br />सन् 1932 में पूना समझौते में गांधी और आम्बेडकर, आपसी विचार–विमर्श के बाद एक मध्यमार्ग पर सहमत हुए। आम्बेडकर ने शीघ्र ही हरिजनों में अपना नेतृत्व स्थापित कर लिया और उनकी ओर से कई पत्रिकाएं निकालीं; वह हरिजनों के लिए सरकारी विधान परिषदों में विशेष प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में भी सफल हुए। आम्बेडकर ने हरिजनों का पक्ष लेने के महात्मा गांधी के दावे को चुनौती दी और व्हॉट कांग्रेस ऐंड गांधी हैव डन टु द अनटचेबल्स (सन् 1945) नामक लेख लिखा। सन् 1947 में आम्बेडकर भारत सरकार के कानून मंत्री बने। उन्होंने भारत के संविधान की रूपरेखा बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें उन्होंने अछूतों के साथ भेदभाव को प्रतिबंधित किया और चतुराई से इसे संविधान सभा द्वारा पारित कराया। सरकार में अपना प्रभाव घटने से निराश होकर उन्होंने सन् 1951 में त्यागपत्र दे दिया। सन् 1956 में वह [[नागपुर]] में एक समारोह में अपने दो लाख अछूत साथियों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध बन गए, क्योंकि छुआछूत अब भी [[हिंदू धर्म]] का अंग बनी हुई थी। डॉक्टर आम्बेडकर को सन् 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। | आम्बेडकर ने मंदिरों में अछूतों के प्रवेश करने के अधिकार को लेकर भी संघर्ष किया। वह लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलन के शिष्टमंडल के भी सदस्य थे, जहाँ उन्होंने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग की। महात्मा गांधी ने इसे हिंदू समाज में विभाजक मानते हुए विरोध किया।<br /><blockquote><span style="color: #cc8736">1931 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को सम्बोधित करते हुए आम्बेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में कहा: ब्रिटिश पार्लियामेंट और प्रवक्ताओं ने हमेशा यह कहा है कि वे दलित वर्गों के ट्रस्टी हैं। मुझे विश्वास है, कि यह बात सभ्य लोगों की वैसी झूठी बात नहीं है जो आपसी सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए कही जाती है। मेरी राय में किसी भी सरकार का यह निश्चित कर्तव्य होगा कि जो धरोहर उसके पास है, उसे वह गँवा न दे। यदि ब्रिटिश सरकार हमें उन लोगों की दया के भरोसे छोड़ देती है जिन्होंने हमारी खुशहाली की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया, तो यह बहुत बड़ी गद्दारी होगी। हमारी तबाही और बर्बादी की बुनियाद पर ही ये लोग धनीमानी और बड़े बने हैं।<ref>डॉ॰ बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज; खण्ड-2 पृष्ठ 598</ref></span></blockquote><br />सन् 1932 में [[पूना]] समझौते में गांधी और आम्बेडकर, आपसी विचार–विमर्श के बाद एक मध्यमार्ग पर सहमत हुए। आम्बेडकर ने शीघ्र ही हरिजनों में अपना नेतृत्व स्थापित कर लिया और उनकी ओर से कई पत्रिकाएं निकालीं; वह हरिजनों के लिए सरकारी विधान परिषदों में विशेष प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में भी सफल हुए। आम्बेडकर ने हरिजनों का पक्ष लेने के महात्मा गांधी के दावे को चुनौती दी और व्हॉट कांग्रेस ऐंड गांधी हैव डन टु द अनटचेबल्स (सन् 1945) नामक लेख लिखा। सन् 1947 में आम्बेडकर भारत सरकार के कानून मंत्री बने। उन्होंने भारत के संविधान की रूपरेखा बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें उन्होंने अछूतों के साथ भेदभाव को प्रतिबंधित किया और चतुराई से इसे संविधान सभा द्वारा पारित कराया। सरकार में अपना प्रभाव घटने से निराश होकर उन्होंने सन् 1951 में त्यागपत्र दे दिया। सन् 1956 में वह [[नागपुर]] में एक समारोह में अपने दो लाख अछूत साथियों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध बन गए, क्योंकि छुआछूत अब भी [[हिंदू धर्म]] का अंग बनी हुई थी। डॉक्टर आम्बेडकर को सन् 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। | ||
==राजनीतिक जीवन== | ==राजनीतिक जीवन== |
11:32, 25 अप्रैल 2010 का अवतरण
भीमराव आम्बेडकर / Bhimrao Ambedkar / Ambedkar
भीमराव आम्बेडकर एक बहुजन राजनीतिक नेता, और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। आम्बेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली, और भारतीय समाज मे सर्वत्र व्याप्त जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष मे बिता दिया। हिंदू धर्म मे मानव समाज को चार वर्णों मे वर्गीकृत किया है। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आंदोलन को प्रारंभ करने का श्रेय भी जाता है। आम्बेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है जो भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है।
जीवनी
डॉ॰ भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 में हुआ था। 1956 में उनका देहान्त हुआ। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई मुरबादकर की 14वीं व अंतिम संतान थे। उनका परिवार मराठी था और वो अंबावडे नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले मे है, से संबंधित था। अनेक समकालीन राजनीतिज्ञों को देखते हुए उनकी जीवन-अवधि कुछ कम थी। वे महार जाति के थे जो अछूत कहे जाते थे। किन्तु इस अवधी में भी उन्होंने अध्ययन, लेखन, भाषण और संगठन के बहुत से काम किए जिनका प्रभाव उस समय की और बाद की राजनीति पर है। भीमराव आम्बेडकर का जन्म निम्न वर्ण की महार जाति में हुआ था। उस समय अंग्रेज़ निम्न वर्ण की जातियों से नौजवानों को फौज में भर्ती कर रहे थे। आम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और भीमराव के पिता रामजी आम्बेडकर ब्रिटिश फौज में सूबेदार थे और कुछ समय तक एक फौजी स्कूल में अध्यापक भी रहे। उनके पिता ने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। वह शिक्षा का महत्व समझते थे और भीमराव की पढ़ाई लिखाई पर उन्होंने बहुत ध्यान दिया।
शिक्षा
अछूत समझी जाने वाली जाति में जन्म लेने के कारण अपने स्कूली जीवन में आम्बेडकर को अनेक अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा। इन सब स्थितियों का धैर्य और वीरता से सामना करते हुए उन्होंने स्कूली शिक्षा समाप्त की। फिर कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई। इस बीच पिता का हाथ तंग हुआ। खर्चे की कमी हुई। एक मित्र उन्हें बड़ौदा के शासक गायकवाड़ के यहाँ ले गए। गायकवाड़ ने उनके लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था कर दी और आम्बेडकर ने अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी की। 1907 में मैट्रिकुलेशन पास करने के बाद बड़ौदा महाराज की आर्थिक सहायता से वे एलिफिन्सटन कॉलेज से 1912 में ग्रेजुएट हुए।
1913 और 15 के बीच जब आम्बेडकर कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे थे, तब एम.ए. की परीक्षा के एक प्रश्न पत्र के बदले उन्होंने प्राचीन भारतीय व्यापार पर एक शोध प्रबन्ध लिखा था। इस में उन्होंने अन्य देशों से भारत के व्यापारिक सम्बन्धों पर विचार किया है। इन व्यापारिक सम्बन्धों की विवेचना के दौरान भारत के आर्थिक विकास की रूपरेखा भी बन गई है। यह शोध प्रबन्ध रचनावली के 12वें खण्ड में प्रकाशित है।
कुछ साल बड़ौदा राज्य की सेवा करने के बाद उनको गायकवाड़-स्कालरशिप प्रदान किया गया जिसके सहारे उन्होंने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. (1915) किया। इसी क्रम में वे प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री सेलिगमैन के प्रभाव में आए। सेलिगमैन के मार्गदर्शन में आम्बेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से 1917 में पी एच. डी. की उपाधी प्राप्त कर ली। उनके शोध का विषय था -'नेशनल डेवलेपमेंट फॉर इंडिया : ए हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी'। इसी वर्ष उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में दाखिला लिया लेकिन साधनाभाव में अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। कुछ दिनों तक वे बड़ौदा राज्य के मिलिटरी सेक्रेटरी थे। फिर वे बड़ौदा से बम्बई आ गए। कुछ दिनों तक वे सिडेनहैम कॉलेज, बम्बई में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भी रहे। डिप्रेस्ड क्लासेज कांफरेंस से भी जुड़े और सक्रिय राजनीति में भागीदारी शुरू की। कुछ समय बाद उन्होंने लंदन जाकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की। इस तरह विपरीत परिस्थिति में पैदा होने के बावजूद अपनी लगन और कर्मठता से उन्होंने एम.ए., पी एच. डी., एम. एस. सी., बार-एट-लॉ की डिग्रियाँ प्राप्त की। इस तरह से वे अपने युग के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे राजनेता एवं विचारक थे। उनको आधुनिक पश्चिमी समाजों की संरचना की समाज-विज्ञान, अर्थशास्त्र एवं कानूनी दृष्टि से व्यवस्थित ज्ञान था। अछूतों के जीवन से उन्हें गहरी सहानुभूति थी। उनके साथ जो भेदभाव बरता जाता था, उसे दूर करने के लिए उन्होंने आन्दोलन किया और उन्हें संगठित किया।
कार्यकारिणी सदस्य
1926 में वह बम्बई की विधान सभा के सदस्य नामित किए गए। उसके बाद वह निर्वाचित भी हुए। क्रमश: ऊपर चढ़ते हुए सन् 42-46 के दौर में वह गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी की सदस्यता तक पहुँचे। भारत के स्वाधीन होने पर जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विधि मंत्री हुए। बाद में विरोधी दल के सदस्य के रूप में उन्होंने काम किया। भारत के संविधान के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी। वह संविधान विशेषज्ञ थे। अनेक देशों के संविधानों का अध्ययन उन्होंने किया था। भारतीय संविधान का मुख्य निर्माता उन्हीं को माना जाता है। उन्होंने जो कुछ लिखा, उसका गहरा सम्बन्ध आज के भारत और इस देश के इतिहास से है। शूद्रों के उद्धार के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया, पर उनका लेखन केवल शूद्रों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने दर्शन, इतिहास, राजनीति, आर्थिक विकास आदि अनेक समस्याओं पर विचार किया जिनका सम्बन्ध सारे देश की जनता से है। अंग्रेजी में उनकी रचनावली 'डॉ॰ बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज' नाम से महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। हिन्दी में उनकी रचनावली 'बाबा साहब डॉक्टर आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय' के नाम से भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है।
रचनावली
अंग्रेजी में उनकी रचनावली 'डॉ॰ बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज' नाम से महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। हिन्दी में उनकी रचनावली 'बाबा साहब डॉक्टर आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय' के नाम से भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। अनेक बड़े विचारकों और विद्वानों की तरह वह समस्याओं पर निरन्तर विचार करते रहते थे। 1946 में शूद्रों पर उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई। शूद्रों के बारे में जो बहुत तरह की धारणाएँ प्रचलित थीं, उनका उचित खण्डन करते हुए आम्बेडकर ने लिखा: शूद्रों के लिए कहा जाता है कि वे अनार्य थे, आर्यों के शत्रु थे। आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेद के ॠषि शूद्रों के लिए गौरव की कामना क्यों करते हैं? शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा क्यों प्रकट करते हैं? शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास ॠग्वेद के मन्त्रों के रचनाकार कैसे हुए? शूद्रों के लिए कहा जाता है, उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास ने अश्वमेध कैसे किया? शतपथ ब्राह्मण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है? और उसे कैसे सम्बोधन करना चाहिए, इसके लिए शब्द भी बताता है। शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं है। यदि आरम्भ से ही ऐसा था तो इस बारे में विवाद क्यों उठा? बदरि और संस्कार गणपति क्यों कहते हैं कि उसे उपनयन का अधिकार है? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह सम्पत्ति संग्रह नहीं कर सकता। ऐसा था तो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनी और समृद्ध शूद्रों का उल्लेख कैसे है? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह राज्य का पदाधिकारी नहीं हो सकता। ऐसा था तो महाभारत में राजाओं के मंत्री शूद्र थे, ऐसा क्यों कहा गया? शूद्र के लिए कहा जाता है कि सेवक के रूप में तीनों वर्णों की सेवा करना उसका काम है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुए जैसा कि सुदास के उदाहरण से, तथा सायण द्वारा दिए गए अन्य उदाहरणों से मालूम होता है?उन्होंने कई पुस्तकें लिखने की योजना बनाई थी, पुस्तकों के कुछ अध्याय लिखे थे, कुछ पूरे और कुछ अधूरे। रचनावली के तीसरे खंड में ऐसी कुछ सामग्री पहली बार प्रकाशित हुई है। इस सामग्री के बारे में सम्पादकों ने भूमिका में जो कुछ कहा है, उससे यही पत चलता है कि 1956 में डॉ॰ आम्बेडकर के निधन से उनका बहुत सा काम अधूरा रह गया।
सामाजिक सुधार
बी. आर. आम्बेडकर के नेतृत्व में उन्होंने अपना संघर्ष तेज कर दिया। सामाजिक समानता के लिए वे प्रयत्नशील हो उठे। आम्बेडकर ने 'ऑल इण्डिया क्लासेस एसोसिएशन' का संगठन किया। दक्षिण भारत में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में गैर-ब्राह्मणों ने 'दि सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट' प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उन भेदभावों को दूर करना था जिन्हें ब्राह्मणों ने उन पर थोप दिया था। सम्पूर्ण भारत में दलित जाति के लोगों ने उनके मन्दिरों में प्रवेश-निषेध एवं इस तरह के अन्य प्रतिबन्धों के विरुद्ध अनेक आन्दोलनों का सूत्रपात किया। परन्तु विदेशी शासन काल में अस्पृश्यता विरोधी संघर्ष पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया। विदेशी शासकों को इस बात का भय था कि ऐसा होने से समाज का परम्परावादी एवं रूढ़िवादी वर्ग उनका विरोधी हो जाएगा। अत: क्रान्तिकारी समाज-सुधार का कार्य केवल स्वतन्त्र भारत की सरकार ही कर सकती थी। पुन: सामाजिक पुनरुद्वार की समस्या राजनीतिक एवं आर्थिक पुनरुद्वार की समस्याओं के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई थी। जैसे, दलितों के सामाजिक पुनरुत्थान के लिए उनका आर्थिक पुनरुत्थान आवश्यक था। इसी प्रकार इसके लिए उनके बीच शिक्षा का प्रसार और राजनीतिक अधिकार भी अनिवार्य थे।
Nobody can remove your grivance as well as you can and you can not remove these unless you get political power into your hands... We must have a government in which men in power will not be afraied to amend the social and economic code of life which the dictates of justice and expendiencey so urgently call for. This role the British Government will never be able to play. It is only a government which is of the people, for the people and by the people, in other words, it is only the 'Swaraj' Government that will make it possible.--Dr. B. R. Ambedkar
1950 के संविधान द्वारा ही अन्तिम रूप से अस्पृश्यता को समाप्त किया जा सकता।
In the constitution of 1950 it has been declared that 'Untouchability' is abolished and its practice in any form is forbidden. The endorsment of any disability arising out of 'Untouchability' shall be an offence punishable in accordance with Law.
छुआछूत को अवैध घोषित किया गया। अब कुएँ, तालाबों, स्नान घाटों, होटल, सिनेमा आदि पर इस आधार पर प्रतिबन्ध नहीं लगाए जा सकते थे। संविधान में लिखित 'डायरेक्टिव प्रिंसीपुल्स' में भी इन बातों पर जोर दिया गया।
One of the Directive Principles it has laid down for the guidance of future governments says: 'The state shall strive to promote the welfare of the people by securing and protecting as effectively as it may a social order in which justice, social, economic and political, shall inform all the institutions of the national life.'
दु:ख तो इस बात का है कि इन सबके बावजूद आज भी जाति प्रथा हमारे बीच और विशेष रूप से ग्रामीण समाज में जीवित है और इससे समाज और देश को काफी हानि हो रही है।
छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष
1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा। वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने जीवनपर्यंत अछूतोद्वार के लिए कार्य किया। जब गाँधी ने दलितों को अल्पसंख्यकों की तरह पृथक निर्वाचन मंडल देने के ब्रिटिश नीति के खिलाफ़ आमरण अनशन किया। सन् 1927 में उन्होंने हिन्दुओं द्वारा निजी सम्पत्ति घोषित सार्वजनिक तालाब से पानी लेने के लिए अछूतों को अधिकार दिलाने के लिए एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया। उन्होंने सन् 1937 में बंबई उच्च न्यायालय में यह मुकदमा जीता।
आम्बेडकर ने ॠग्वेद से उद्धरण देकर दिखाया है कि आर्य गौर वर्ण के और श्याम वर्ण के भी थे। अश्विनी देवों ने श्याव और रुक्षती का विवाह कराया। श्याव श्याम वर्ण का है और रुक्षती गौर वर्ण की है। अश्विनी वंदना की रक्षा करते हैं और वह गौर वर्ण की है। एक प्रार्थना में ॠषि कहते हैं कि उन्हें पिशंग वर्ण अर्थात भूरे रंग का पुत्र प्राप्त हो। आम्बेडकर का निष्कर्ष है: इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक आर्यों में रंगभेद की भावना नहीं थी। होती भी कैसे? वे एक रंग के थे ही नहीं। कुछ गोरे थे, कुछ काले थे, कुछ भूरे थे। दशरथ के पुत्र राम श्याम वर्ण के थे। इसी तरह यदुवंशी कृष्ण भी श्याम वर्ण के थे। ॠग्वेद के अनेक मंत्रों के रचनाकार दीर्घतमस हैं। उनके नाम से ही प्रतीत होता है, वे श्याम वर्ण के थे। आर्यों में एक प्रसिद्ध ॠषि कण्व थे। ॠग्वेद में उनका जो विवरण मिलता है, उससे ज्ञात होता है, वे श्याम वर्ण के थे। इसी तरह आम्बेडकर ने इस धारणा का खंडन किया कि आर्य गोरी नस्ल के ही थे।
आम्बेडकर ने मंदिरों में अछूतों के प्रवेश करने के अधिकार को लेकर भी संघर्ष किया। वह लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलन के शिष्टमंडल के भी सदस्य थे, जहाँ उन्होंने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग की। महात्मा गांधी ने इसे हिंदू समाज में विभाजक मानते हुए विरोध किया।
1931 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को सम्बोधित करते हुए आम्बेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में कहा: ब्रिटिश पार्लियामेंट और प्रवक्ताओं ने हमेशा यह कहा है कि वे दलित वर्गों के ट्रस्टी हैं। मुझे विश्वास है, कि यह बात सभ्य लोगों की वैसी झूठी बात नहीं है जो आपसी सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए कही जाती है। मेरी राय में किसी भी सरकार का यह निश्चित कर्तव्य होगा कि जो धरोहर उसके पास है, उसे वह गँवा न दे। यदि ब्रिटिश सरकार हमें उन लोगों की दया के भरोसे छोड़ देती है जिन्होंने हमारी खुशहाली की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया, तो यह बहुत बड़ी गद्दारी होगी। हमारी तबाही और बर्बादी की बुनियाद पर ही ये लोग धनीमानी और बड़े बने हैं।[1]
सन् 1932 में पूना समझौते में गांधी और आम्बेडकर, आपसी विचार–विमर्श के बाद एक मध्यमार्ग पर सहमत हुए। आम्बेडकर ने शीघ्र ही हरिजनों में अपना नेतृत्व स्थापित कर लिया और उनकी ओर से कई पत्रिकाएं निकालीं; वह हरिजनों के लिए सरकारी विधान परिषदों में विशेष प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में भी सफल हुए। आम्बेडकर ने हरिजनों का पक्ष लेने के महात्मा गांधी के दावे को चुनौती दी और व्हॉट कांग्रेस ऐंड गांधी हैव डन टु द अनटचेबल्स (सन् 1945) नामक लेख लिखा। सन् 1947 में आम्बेडकर भारत सरकार के कानून मंत्री बने। उन्होंने भारत के संविधान की रूपरेखा बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें उन्होंने अछूतों के साथ भेदभाव को प्रतिबंधित किया और चतुराई से इसे संविधान सभा द्वारा पारित कराया। सरकार में अपना प्रभाव घटने से निराश होकर उन्होंने सन् 1951 में त्यागपत्र दे दिया। सन् 1956 में वह नागपुर में एक समारोह में अपने दो लाख अछूत साथियों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध बन गए, क्योंकि छुआछूत अब भी हिंदू धर्म का अंग बनी हुई थी। डॉक्टर आम्बेडकर को सन् 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
राजनीतिक जीवन
येओला नासिक मे 13 अक्टूबर 1935 को आम्बेडकर ने एक रैली को संबोधित किया। 13 अक्टूबर 1935 को, आम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होंने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते आम्बेडकर बंबई में बस गये, उन्होंने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय मे 50000 से अधिक पुस्तकें थीं। इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर आम्बेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। आम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दु तीर्थ मे जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होंने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होंने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला मे एक सम्मेलन में बोलते हुए आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होंने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर मे कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया भी।
आम्बेडकर ने 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे आम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। आम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।
मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में प्रसिद्ध पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया। आम्बेडकर ने तीन साल पहले इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी नाम से एक दल संगठित किया था। उसने पाकिस्तान प्रस्ताव का अध्ययन करने के लिए एक समिति बनाई। इस समिति के लिए दिसम्बर 1940 तक आम्बेडकर ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली। वह 'पाकिस्तान या भारत का विभाजन' - 'पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया' - नाम से प्रकाशित हुई।
1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे थॉट्स ऑन पाकिस्तान भी शामिल है, जिसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की माँग की आलोचना की। 'वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स' (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, आम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होंने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होंने अपनी पुस्तक 'हू वर द शुद्राज़?( शुद्र कौन थे?)' के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा 'द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध)' मे आम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।
आम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी आलोचक थे। उन्होंने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की।
मेहनत मजदूरी करने वालों को पारिश्रमिक दिया जाता था, यह बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा है। शूद्रों की स्थिति का विवेचन करते हुए अक्सर इतिहासकार यही बात भूल जाते हैं। आम्बेडकर का मूल वाक्य अंग्रेजी में इस प्रकार है: Besides few slaves there was a considerable amount of free labours paid in money or food.[2]
उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ हैं और मुसलमान उन्हें 'भाईचारे' जैसे नर्म शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानों द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें 'निचले दर्जे का' माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।
हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत में छोटी जोत की समस्या बुनियादी समस्या नहीं है। बल्कि यह एक मूल समस्या से निकली हुई समस्या है। अर्थात सामाजिक अर्थव्यवस्था में असामंजस्य की समस्या है। इतनी अधिक भूमि में खेती होने के बावजूद उसकी जनसंख्या के अनुपात से बहुत कम भूमि में खेती होती है।[3]
हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होंने तर्क दिया कि हिंदूओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योंकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया। उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदू और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यन्त कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान मे रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी।
आम्बेडकर बनाम गाँधी
महात्मा गांधी के विपरीत डा. आम्बेडकर गांवों की अपेक्षा नगरों में एवं ग्रामीण शिल्पों या कृषि की व्यवस्था की तुलना में पश्चिमी समाज की औद्योगिक विकास में भारत और दलितों का भविष्य देखते थे। वे मार्क्सवादी समाजवाद की तुलना में बौद्ध मानववाद के समर्थक थे जिसके केन्द्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व की भावना है। आम्बेडकर, महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उग्र आलोचक थे। उनके समकालीनों और आधुनिक विद्वानों ने उनके महात्मा गांधी (जो कि पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने अस्पृश्यता और भेदभाव करने का मुद्दा सबसे पहले उठाया था) के विरोध की आलोचना है।
1932 में ग्राम पंचायत बिल पर बम्बई की विधान सभा में बोलते हुए आम्बेडकर ने कहा: बहुतों ने ग्राम पंचायतों की प्राचीन व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की है। कुछ लोगों ने उन्हें ग्रामीण प्रजातन्त्र कहा है। इन देहाती प्रजातन्त्रों का गुण जो भी हो, मुझे यह कहने में जरा भी दुविधा नहीं है कि वे भारत में सार्वजनिक जीवन के लिए अभिशाप हैं। यदि भारत राष्ट्रवाद उत्पन्न करने में सफल नहीं हुआ, यदि भारत राष्ट्रीय भावना के निर्माण में सफल नहीं हुआ, तो इसका मुख्य कारण मेरी समझ में ग्राम व्यवस्था का अस्तित्व है। इससे हमारे लोगों में विशिष्ट स्थानीयता की भावना भर गई उससे बड़ी नागरिक भावना के लिए थोड़ी भी जगह न रही। प्राचीन ग्राम पंचायतों की व्यवस्था के अन्तर्गत एकताबद्ध जनता के देश के बदले भारत ग्राम पंचायतों का ढीला-ढाला समुदाय बन गया। वे सब एक ही राजा की प्रजा थे, इसके सिवा उनके बीच और कोई बन्धन नहीं था।[4]
गांधी का दर्शन भारत के पारंपरिक ग्रामीण जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक, लेकिन रूमानी था, और उनका दृष्टिकोण अस्पृश्यों के प्रति भावनात्मक था उन्होंने उन्हें हरिजन कह कर पुकारा। आम्बेडकर ने इस विशेषण को सिरे से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को गांव छोड़ कर शहर जाकर बसने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।
मृत्यु
आम्बेडकर 1948 से मधुमेह से पीड़ित थे। और वो जून से अक्टूबर 1954 तक बहुत बीमार रहे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान आम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसंबर 1956 को आम्बेडकर की मृत्यु नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गई। 7 दिसंबर को चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें सैकड़ों हज़ारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों भाग लिया। एक स्मारक आम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। आम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। अपने अनुयायियों को उनका संदेश था
शिक्षित बनो !!!, संगठित रहो!!!, संघर्ष करो !!!।
उपसंहार
आम्बेडकर विधि विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, इतिहास विवेचक, और धर्म और दर्शन के विद्वान थे। उन्होंने अपने लेखन में अनेक ऐसे सूत्र दिए हैं जिनके आधार पर भारतीय इतिहास को हम पूंजीवादी विवेचकों के दुष्प्रभाव से मुक्त कर सकते हैं। उनकी एक क्रांतिकारी स्थापना यह है कि इंग्लैंड किसी तरह व्यापार में भारत से स्पर्धा न कर सकता था और माल तैयार करने वाले देश के रूप में भारत इंग्लैंड से बढ़ कर था। अंग्रेजी शासनतंत्र के विवेचन में आम्बेडकर ने अनेक ऐसे तथ्य दिए हैं जिनसे प्रमाणित होता है, अंग्रेजों ने जाति-बिरादरी की प्रथा को और कठोर बनाया, उन्होंने यहाँ का व्यापार नष्ट किया, शहरों के उद्योग-धंधे तबाह किए। लाखों कारीगर शहर छोड़कर देहात में जा बसे, वहां जमींदारों की बेगार करने पर बाध्य हुए।