"वाद्य यंत्र": अवतरणों में अंतर
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[[गुजरात]] तथा दक्षिणी भारत में प्रचलित इस यंत्र में लगभग तीस सेंटीमीटर के दो लकड़ी के डंडों को बजाकर ध्वनि निकाली जाती है। | [[गुजरात]] तथा दक्षिणी भारत में प्रचलित इस यंत्र में लगभग तीस सेंटीमीटर के दो लकड़ी के डंडों को बजाकर ध्वनि निकाली जाती है। | ||
[[चित्र: | [[चित्र:Musical-Instruments-National-Museum-Delhi-1.jpg|thumb|300px|अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र, [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]]] | ||
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[[केरल]] का यह वाद्य नारियल के पते के डंठल को [[धनुष]] की आकृति में मोड़कर बनाया जाता है। | [[केरल]] का यह वाद्य नारियल के पते के डंठल को [[धनुष]] की आकृति में मोड़कर बनाया जाता है। |
11:27, 18 मई 2011 का अवतरण
संगीत में गायन तथा नृत्य के साथ-साथ वादन का भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वादन का तात्पर्य विशिष्ट पद्धति से निर्मित किसी वाद्य यंत्र पर थाप देकर, फूंककर या तारों में कम्पन उत्पन्न करके लयबद्ध तरीके से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न करना है। स्पष्ट है कि वादन के लिए किसी वाद्य-यंत्र का होना आवश्यक है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रों का विकास हुआ है जिनको मुख्य रूप से चार वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- घन-वाद्य: जिसमें डंडे, घंटियों, मंजीरे आदि शामिल किये जाते हैं जिनको आपस में ठोककर मधुर ध्वनि निकाली जाती है।
- अवनद्ध-वाद्य या ढोल: जिसमें वे वाद्य आते हैं, जिनमें किसी पात्र या ढांचे पर चमड़ा मढ़ा होता है जैसे- ढोलक।
- सुषिर-वाद्य: जो किसी पतली नलिका में फूंक मारकर संगीतमय ध्वनि उत्पन्न करने वाले यंत्र होते हैं, जैसे- बांसुरी।
- तत-वाद्य: जिसमें वे यंत्र शामिल होते हैं, जिनसे तारों में कम्पन्न उत्पन्न करके संगीतमय ध्वनि निकाली जाती है, जैसे- सितार।
प्रमुख वाद्य यंत्रों का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है-
घन वाद्य
- कोलु या डांडिया
गुजरात तथा दक्षिणी भारत में प्रचलित इस यंत्र में लगभग तीस सेंटीमीटर के दो लकड़ी के डंडों को बजाकर ध्वनि निकाली जाती है।
- विल्लु कोट्टु या ओण विल्लु
केरल का यह वाद्य नारियल के पते के डंठल को धनुष की आकृति में मोड़कर बनाया जाता है।
- डहारा या लड्ढीशाह
कश्मीर घाटी में फकीरों के हाथ में देखे जाने वाले इस यंत्र में लगभग पौन मीटर लम्बी लोह की छड़ में धातु के अनेक छल्ले लगे होते हैं जिसे हिलाकर बजाया जाता है।
- सोंगकोंग
असम की नागा जनजातियों द्वारा प्रयुक्त यह यंत्र किसी मोटी लकड़ी को भीतर से खोखला बनाकर उसके एक सिरे पर भैंस के सिर की आकृति बना दी जाती है।
- टक्का
असम में प्रचलित यह एक मीटर लंबा बांस का टुकड़ा होता है जिसमें लम्बाई में कई दरार बनाये होते हैं। इसे हाथ पर पीटकर बजाया जाता है।
- मुख चंग
इस यंत्र में एक गोलाकार चौखट होता है, जिसके भीतर एक जीभ होती है, जिसे मुख से पकड़कर हाथ की ऊंगलियों से झंकृत करके मधुर ध्वनि निकाली जाती है।
- थाली, जागंटे या सीमू
यह थाली नुमा एक घंटा होता है, जिसे छड़ी से पीटकर बजाया जाता है। उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में प्रचलित सीमू में मध्य में थोड़ा उभार होता है।
- चिमटा
लगभग एक मीटर लम्बे लोहे के चिमटे की दोनों भुजाओं पर पीतल के छोटे-छोटे चक्के कुछ ढीलेपन के साथ लगाकर इस यंत्र का निर्माण किया जाता। इसे हिलाकर या हाथ पर मारकर बजाया जाता है।
5 सेंटीमीटर से लेकर 30 सेंटीमीटर तक व्यास वाले दो समतल प्लेट या गहरी घंटी द्वारा बने इस वाद्य यंत्र के अनेक रूप हैं जैसे जाल्रा, करताल, बौर ताल(असम) आदि।
- गिलबड़ा
आंध्र प्रदेश की चेंचु जनजाति द्वारा प्रयुक्त इस यंत्र का निर्माण अनेक सूखे हुए फलों जिनमें बीज होते हैं, को एक साथ बांधकर किया जाता है तथा उन्हें लय ताल में हिलाकर मधुर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
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