"ब्रजभाषा के गद्य": अवतरणों में अंतर

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07:12, 6 जून 2011 का अवतरण

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जब हम ब्रजभाषा साहित्य कहते हैं तो, उसमें गद्य का समावेश नहीं करते। इसका कारण यह नहीं है कि, ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। वैष्णवों के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, परन्तु गद्य का प्रसार दो ही स्थितियों में होता है, या तो वह शास्त्र हो या गद्यगन्धी हो, क्योंकि इन्हीं दोनों दिशाओं में उसमें पुनरावर्तमानता होती है। छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व अपने आप बढ़ा, क्योंकि तब कंठगत करने की अपरिहार्यता नहीं रही। लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित ऐसे गद्य की रचना की और वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना, किन्तु ब्रजभाषा का स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से जो हिन्दी को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व तो था ही, सबसे बड़ा कारण था, अंग्रेज़ों के द्वारा उत्तर भारत में कचहरी भाषा के रूप में उर्दू को मान्यता देना। उर्दू को मान्यता देने के साथ-साथ फ़ारसी लिपि को भी मान्यता देना। देश की एकता और जन-भावना को देखते हुए कचहरी में देवनागरी लिपि की मान्यता के लिए स्वर्गीय मदनमोहन मालवीय द्वारा आन्दोलन चलाया गया और तब पूरी इबारत भले ही फ़ारसी-अरबी बहुल भाषा में हो, परन्तु देवनागरी के प्रयोग के लिए पहली माँग की गई। इस प्रशासनिक और न्यायालयी भाषा के प्रयोग के दबाब में खड़ी बोली हिन्दी का पनपना स्वभाविक ही था।

एक दूसरा कारण यह भी था कि शिक्षा से माध्यम के रूप में भी शिवप्रसाद गुप्त ने, जो एक मध्यम वर्ग को अपनाते हुए फ़ारसी की ओर लचती हुई हिन्दी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं। भूदेव मुखर्जी और लक्ष्मणसिंह ने उससे अलग जाकर सहज हिन्दी में शिक्षा की पुस्तकें तैयार कीं। इस शिक्षा माध्यम के दबाब में भी खड़ीबोली का साहित्यिक और परिनिष्ठित रूप विकसित हुआ। अन्तिम कारण यह था कि उद्योगीकरण और नये किस्म के राष्ट्रीयता की जागरण में व्यावसायिक संगठनों की विशेष भूमिका हुई तथा उस भूमिका के निर्वाह के लिए बाज़ारी हिन्दी का विकास हुआ। बाज़ारी हिन्दी शुरू-शुरू में एक मिली-जुली भाषा थी। बाद में यह मानक रूप ग्रहण करके आधुनिक हिन्दी बनी, परन्तु यह बाज़ारी हिन्दी ब्रजभाषा नहीं थी, यह व्यापारिक अन्त:प्रान्तीय सम्पर्क की भाषा थी। शासन की भाषा के रूप में छोटी रियासतों में जिस भाषा का प्रयोग किया जाता था, वह मानक ब्रजभाषा नहीं थी, बुन्देलखण्ड में बुन्देली थी, तो अवध में अवधी, ब्रज के क्षेत्र में ब्रज थी। अन्तिम कारण साहित्यिक ब्रजभाषा के न टिकने का यह था, इसका काव्य रूप जो एकमात्र प्रमाणिक भाषा रूप था, बहुत रूढ़िग्रस्त हो गया। इसमें एक प्रकार की जकड़न आ गई और प्रयोगशीलता भी कम हो गई। द्विजदेव जैसे एकाध अपवादों को अगर छोड़ दें तो जानदार भाषा लिखने वाले कवि कम होते गए, जैसे कोई बगीचे में बाहर आये और उतर जाए, ऐसी स्थिति हो गई।



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