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==जामा मस्जिद बुरहानपुर== | |||
[[बुरहानपुर]] दक्षिण [[भारत]] का प्राचीन नगर है, जिसे 'नासिरउद्दीन फ़ारूक़ी' बादशाह ने सन 1406 ई. में आबाद किया था। [[फ़ारूक़ी वंश|फ़ारूक़ी]] शासनकाल में अनेक इमारतें और मस्जिदें बनाई गई थीं। इनमें सबसे सर्वश्रेष्ठ इमारत '''जामा मस्जिद''' है, जो अपनी पायेदारी और सुंदरता की दृष्टि से सारे भारत में अपना विशेष स्थान एवं महत्व रखती है। यह मस्जिद निर्माण कला की दृष्टि से एक उत्तम उदाहरण है। प्राचीन काल में बुरहानपुर की अधिकतर आबादी उत्तर दिशा में थी। इसीलिए फ़ारूक़ी शासनकाल में बादशाह 'आजम हुमायूं' की बेगम 'रूकैया' ने 936 हिजरी सन 1529 ई. में मोहल्ला इतवारा में एक मस्जिद बनवायी थी, जिसे [[बीबी की मस्जिद]] कहते हैं। यह शहर बुरहानपुर की पहली जामा मस्जिद थी। धीरे-धीरे शहर की आबादी में विस्तार होता गया। लोग चारों तरफ़ बसने लगे, तो यह मस्जिद शहर से एक तरफ़ पड गई, जिससे जुमा शुक्रवार की नमाज़ पढने के लिये लोगों को परेशानी होने लगी थी। | |||
==इतिहास== | |||
'आदिलशाह फ़ारूक़ी', जो उस समय सूबा [[ख़ानदेश]] का बादशाह था, नेकदिल और धर्मपालक था। उसने लोगों की पेरशानी को दूर करने के लिये शहर के मध्य में जामा मस्जिद बनाने का आदेश जारी किया था। शहर के प्रत्येक भाग के लोग एक ही समय में और आसानी से निर्धारित समय पर नमाज़ के लिए पहुँच सकें, इस हेतु यह सोचा गया था। सन 1590 ई. में इस मस्जिद की आधारशिला रखी गई थी। पाँच वर्ष तक रात-दिन निर्माण कार्य होने के पश्चात सन 1595 ई. में यह भव्य मस्जिद बनकर तैयार हुई। यह मस्जिद [[देल्ली]] की [जामा मस्जिद दिल्ली|जामा मस्जिद]] की तरह बनाई गई है। इसके चारों तरफ़ दुकानें और चौक है, जहाँ काफ़ी चहल-पहल रहती है। | |||
====निर्माण शैली==== | |||
मस्जिद में प्रवेश करने के लिए पूर्व में एक भव्य ऊँचा दरवाज़ा है, जो हुजरों के साथ बनवाया गया था। इसकी लंबाई 34 फ़ुट और चौडाई 12 फ़ुट है। इसमें [[जहाँगीर]] बादशाह के युग के किवाड़ लगे हैं। प्रारंभ में यह दरवाज़ा 12 फ़ुट ऊँचा था, जो मस्जिद की भव्यता को देखते हुए छोटा था। सन 1282 हिजरी में [[भोपाल]] की बेगम 'सिंकंदर जहाँ साहिबाँ' हज क लिए [[बम्बई]] (वर्तमान मुम्बई) जा रही थीं। रास्ते में दो तीन-दिन [[बुरहानपुर]] में रूकी थीं। उन्होंने इस दरवाज़े को मस्जिद के लायक न पाकर पुराने दरवाज़े के आगे 12 गुना 8 ज़मीन पर बढाकर नया शानदार दरवाज़ा बनवाया था, जिसकी ऊँचाई लगभग 25 फ़ुट है। यह पत्थरों द्वारा बनाया गया है। इसकी छत पर अति सुंदर बेल-बूटों की चित्रकारी की गई है। मुख्य द्वार से आगे तीन ओर 22 हुजरे (कोस्ट) दिखाई देते हैं। ये हुजरे [[मुग़ल]] शासन काल में सुबेदार [[रहीम|मिर्ज़ा अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना]] ने 'हज़रत मीर नोमान नक्शबंदी' के कहने से और उनकी निगरानी में तैयार करवाया था। वे ही उस समय मस्जिद के इमाम और प्रबंधक के पद पर नियुक्त थे। अब्दुल रहीम उनका बहुत आदर करते थे। थोड़ा और आगे जाने पर सामने 'मजारात' दिखाई देती है। ये मजारात मस्जिद के राजगीर प्रबंधक एवं वक्तागणों की है। | |||
====श्रेष्ठ स्थापत्य निर्माण==== | |||
उत्तर दक्षिण में दो विशाल हौज हैं, जो 30 गुना 30 फ़ुट के हैं। एक हौज मस्जिद के निर्माता आदिलशाह फ़ारूक़ी ने बनवाया था और दूसरा हौज जहाँगीर के शासनकाल में अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना ने बनवाया था। इन हौजों में लाल बाग़ ख़ूनी भंडारा से जामा मस्जिद तक भूमिगत पक्की नालियों द्वारा [[जल]] पहुँचाया गया था। अब यह व्यवस्था समाप्त हो गई है। अब इन हौजों में नलों द्वारा पानी भरा जाता है। मस्जिद से लगा हुआ विशाल सेहन है, जिसकी लंबाई उत्तर दक्षिण में160 फ़ुट और चौडाई कमानों से कारज तक 117 फ़ुट है, जिसे अबदुल रहीम ख़ानख़ाना ने सन 1024 हिजरी में बनवाया था। नवीन फ़र्श 1352 हिजरी मे बनाया गया है। सेहन के उत्तर दक्षिण में भव्य मीनारें हैं, जो एक जैसे आकार की बनी हैं। ये मीनारें ज़मीन से ऊपरी कलश तक 130 फ़ुट ऊँची हैं। इतने ऊँचे मीनार देखकर इंसान आश्चर्यचकित हो जाता है। मीनार के उपर जाने के लिए चक्करदार सीढियाँ हैं। इन मीनारों पर चढकर शहर का दृश्य अधिक आकर्षक दिखता है। दूर दूर तक गांव साफ नजर आते हैं। इसके मीनार दिल्ली की जामा मस्जिद की मीनारों से ऊँचे हैं। | |||
यह मस्जिद पूर्णतः 'संगेखारा' नामक पत्थर से निर्मित की गई है। बताया जाता है कि इस मस्जिद के निर्माण के लिए बड़े परिश्रम से मांडवगढ़ की पहाड़ियों से इन पत्थरों को मंगवाया गया था। पत्थर मंगवाने में जो ख़र्च हुआ, वह उस समय के [[सोना|सोने]] के समतुल्य मूल्य का था। यह शानदार मस्जिद 15 सुंदर कमानों पर आधारित है। इसके प्रत्येक स्तंभ के उपरी भाग पर बहुत ही सुंदर [[सूरजमुखी|सूरजमुखी फूल]] खोदे गए हैं, जो उत्कृष्ट शिल्पकारी के नमूने हैं। मस्जिद की लंबाई अंदर से 148 फ़ुट और चौडाई 52 फ़ुट है। यह इमारत 70 स्तंभों पर स्थित है। पत्थरों को इस प्रकार रखा गया है कि जैसे-जैसे पत्थर ऊपर उठते जाते हैं, वैसे-वैसे कमानों के साथ अपने आप छत तैयार हो जाती है। कमानें स्वयं छत हैं, उसका आधार भी है। बनावट की दृष्टि मे इस प्रकार की छत सम्पूर्ण [[भारत]] में कहीं भी देखने को नहीं मिलती। मस्जिद की लम्बाई में 5 दालान और चौडाई में 15 दालान हैं। लम्बाई वाले प्रत्येक दालान में 500 आदमी आसानी से नमाज़ पढ़ सकते हैं। हर दालान के सिरे पर उजालदान (रौशनदान) बनाये गये हैं। दीवार की मोटाई 5 फ़ुट है। दीवारों के ऊपर चारों ओर पत्थर के सुंदर कंगूरे कुरेदे गये हैं। बाहर की ओर मस्जिद की दीवार 25 फ़ुट लंबी है। दीवार पर छोटे-छोटे मेहराबनुमा चिरागदान बनाये गये हैं। मस्जिद के अंदर पश्चिम दिशा की दीवार पर 15 मेहराबें हैं। हर एक मेहराब पर अत्यंत ही सुंदर नक़्क़ाशी खोदी गयी है। मध्य भाग की कमान पर जो शिल्प कला प्रदर्शित है, वह आश्चर्यचकित करने वाली है। पत्थर पर इतना सूक्ष्म काम बस देखते ही बनता है। इस कमान के पास तीन सीढ़याँ बनी हैं। इस पर खड़े होकर संबोधन किया जाता है। इस पर बैठकर अथवा खड़ा होने पर मस्जिद में बैठे हुए लोगों को आसानी से देखा जा सकता है और उन तक आवाज़ सरलता से पहुँच जाती है। | |||
मस्जिद की इस मध्य कमान के ऊपरी भाग पर अरबी भाषा में अत्यंत सुंदर ढंग से आलेख खुदा है। यह लेख आदिल शाह युग का है। इसमें कुरान शरीफ की आयतों का अर्थ, हदीस पाक जिसमें मस्जिद निर्माण किये जाने का महत्व, निर्माणकर्ता बादशाह का नाम, इमारत की सुंदरता की सराहना मस्जिद के शिलान्यास सन तथा अंत में लेख खोदने वालों का नाम, अंकित है। | |||
दूसरा शिला लेख मस्जिद के उत्तरी भाग के कोने वाली मेहराब के ऊपरी भाग मं अरबी भाषा में है। इस में भी कुरान पाक की आयतें, हदीस पाक हैं बाद में फ़ारूक़ी बादशाह की वंशावली हैं अंतः में मस्जिद का निर्माण का सन अंकित है। | |||
तीसरा लेख इसी अरबी लेख नीचे है। यह संस्कृत भाषा और प्राचीन देवनागरी लिपि में खुदा है। यह छः लाईन में है। इस में कुरान की आयते और हदीस पाक का अनुवाद बाद में फ़ारूख़ी बादशाहों का वंश विवरण अंकित है। अत में मस्जिद का निर्माण सन् महिना , दिन, पल घडी अंकित है। अतः मूल आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है। | |||
'' स्वस्ति श्री संवत् 1646 वर्षे, शके 1511 विरोध संवत्सरे पौष, मास, शुक्ल पक्षे 10 घटिस है का हश्या, शुभ 24 योगे वाणिज्य करणे। स्पिन दिन रात्रि, घटी 11 समय कन्या लगने श्री मुबारक शाह सुत श्री एदल शाह राज्ञी यसी तिरियं निर्माता स्वधर्म पालनार्थम ''। यह शिला लेख बादशाहों की धम्र निरपेक्षता का उज्जवल प्रमाण है। इस प्रकार का संस्कृत और अरबी का आलेख असीरगढ की जामा मस्जिद में भी उत्कीर्ण है। | |||
चौथा शिलालेख मस्जिद की दक्षिण मीनार पर हैं यह फ़ारसी (परसियन) में है जिसमें अकबर बादशाह के बुरहानपुर आने और उनके द्वारा असीरगढ पर विजय प्राप्त करने तथा बहादुरशाह फ़ारूक़ी की आज्ञापालन आदि का वर्णन हैं इसकेक बाद अकबर बादशाह की लाहौर रवानगी का वर्णन है तथा इस लेख को लिखने वाले लेखक मोहम्मद मासूम का नाम अंकित है। | |||
इस लेख से हमें ज्ञात होता है कि अकबर ने असीरगढ की विजय के बाद बाद बुरहानपुर में एक माह बीस दिन विसा किया था। इस मस्जिद में महान सूफी, संतों, मौलवियों एवं हाफिजों ने इमामत की है, जिनमें हजरत मी नोमान नकशबंदी, हजरत खवाजा हाशम कशमी रै. के नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने यहां गुरूपद संभाला था। यह मस्जिद शिल्पकला का अद्धूत ननूना है। मस्जिद की उत्कृष्ट कला, कारीगरों के कौशल, पत्थरों पर उत्कीर्ण फूल नक्काशी को देखकर ऐसा प्रतीती होता है कि मस्जिद को सांचे में ढाल कर रखाा गया हो। सैकडों वर्ष व्यतीत हो जाने के प्श्चात भी इमारत में कहीं भी दरार अथवा छिद्र तक नहीं है। |
12:03, 21 जून 2011 का अवतरण
जामा मस्जिद बुरहानपुर
बुरहानपुर दक्षिण भारत का प्राचीन नगर है, जिसे 'नासिरउद्दीन फ़ारूक़ी' बादशाह ने सन 1406 ई. में आबाद किया था। फ़ारूक़ी शासनकाल में अनेक इमारतें और मस्जिदें बनाई गई थीं। इनमें सबसे सर्वश्रेष्ठ इमारत जामा मस्जिद है, जो अपनी पायेदारी और सुंदरता की दृष्टि से सारे भारत में अपना विशेष स्थान एवं महत्व रखती है। यह मस्जिद निर्माण कला की दृष्टि से एक उत्तम उदाहरण है। प्राचीन काल में बुरहानपुर की अधिकतर आबादी उत्तर दिशा में थी। इसीलिए फ़ारूक़ी शासनकाल में बादशाह 'आजम हुमायूं' की बेगम 'रूकैया' ने 936 हिजरी सन 1529 ई. में मोहल्ला इतवारा में एक मस्जिद बनवायी थी, जिसे बीबी की मस्जिद कहते हैं। यह शहर बुरहानपुर की पहली जामा मस्जिद थी। धीरे-धीरे शहर की आबादी में विस्तार होता गया। लोग चारों तरफ़ बसने लगे, तो यह मस्जिद शहर से एक तरफ़ पड गई, जिससे जुमा शुक्रवार की नमाज़ पढने के लिये लोगों को परेशानी होने लगी थी।
इतिहास
'आदिलशाह फ़ारूक़ी', जो उस समय सूबा ख़ानदेश का बादशाह था, नेकदिल और धर्मपालक था। उसने लोगों की पेरशानी को दूर करने के लिये शहर के मध्य में जामा मस्जिद बनाने का आदेश जारी किया था। शहर के प्रत्येक भाग के लोग एक ही समय में और आसानी से निर्धारित समय पर नमाज़ के लिए पहुँच सकें, इस हेतु यह सोचा गया था। सन 1590 ई. में इस मस्जिद की आधारशिला रखी गई थी। पाँच वर्ष तक रात-दिन निर्माण कार्य होने के पश्चात सन 1595 ई. में यह भव्य मस्जिद बनकर तैयार हुई। यह मस्जिद देल्ली की [जामा मस्जिद दिल्ली|जामा मस्जिद]] की तरह बनाई गई है। इसके चारों तरफ़ दुकानें और चौक है, जहाँ काफ़ी चहल-पहल रहती है।
निर्माण शैली
मस्जिद में प्रवेश करने के लिए पूर्व में एक भव्य ऊँचा दरवाज़ा है, जो हुजरों के साथ बनवाया गया था। इसकी लंबाई 34 फ़ुट और चौडाई 12 फ़ुट है। इसमें जहाँगीर बादशाह के युग के किवाड़ लगे हैं। प्रारंभ में यह दरवाज़ा 12 फ़ुट ऊँचा था, जो मस्जिद की भव्यता को देखते हुए छोटा था। सन 1282 हिजरी में भोपाल की बेगम 'सिंकंदर जहाँ साहिबाँ' हज क लिए बम्बई (वर्तमान मुम्बई) जा रही थीं। रास्ते में दो तीन-दिन बुरहानपुर में रूकी थीं। उन्होंने इस दरवाज़े को मस्जिद के लायक न पाकर पुराने दरवाज़े के आगे 12 गुना 8 ज़मीन पर बढाकर नया शानदार दरवाज़ा बनवाया था, जिसकी ऊँचाई लगभग 25 फ़ुट है। यह पत्थरों द्वारा बनाया गया है। इसकी छत पर अति सुंदर बेल-बूटों की चित्रकारी की गई है। मुख्य द्वार से आगे तीन ओर 22 हुजरे (कोस्ट) दिखाई देते हैं। ये हुजरे मुग़ल शासन काल में सुबेदार मिर्ज़ा अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना ने 'हज़रत मीर नोमान नक्शबंदी' के कहने से और उनकी निगरानी में तैयार करवाया था। वे ही उस समय मस्जिद के इमाम और प्रबंधक के पद पर नियुक्त थे। अब्दुल रहीम उनका बहुत आदर करते थे। थोड़ा और आगे जाने पर सामने 'मजारात' दिखाई देती है। ये मजारात मस्जिद के राजगीर प्रबंधक एवं वक्तागणों की है।
श्रेष्ठ स्थापत्य निर्माण
उत्तर दक्षिण में दो विशाल हौज हैं, जो 30 गुना 30 फ़ुट के हैं। एक हौज मस्जिद के निर्माता आदिलशाह फ़ारूक़ी ने बनवाया था और दूसरा हौज जहाँगीर के शासनकाल में अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना ने बनवाया था। इन हौजों में लाल बाग़ ख़ूनी भंडारा से जामा मस्जिद तक भूमिगत पक्की नालियों द्वारा जल पहुँचाया गया था। अब यह व्यवस्था समाप्त हो गई है। अब इन हौजों में नलों द्वारा पानी भरा जाता है। मस्जिद से लगा हुआ विशाल सेहन है, जिसकी लंबाई उत्तर दक्षिण में160 फ़ुट और चौडाई कमानों से कारज तक 117 फ़ुट है, जिसे अबदुल रहीम ख़ानख़ाना ने सन 1024 हिजरी में बनवाया था। नवीन फ़र्श 1352 हिजरी मे बनाया गया है। सेहन के उत्तर दक्षिण में भव्य मीनारें हैं, जो एक जैसे आकार की बनी हैं। ये मीनारें ज़मीन से ऊपरी कलश तक 130 फ़ुट ऊँची हैं। इतने ऊँचे मीनार देखकर इंसान आश्चर्यचकित हो जाता है। मीनार के उपर जाने के लिए चक्करदार सीढियाँ हैं। इन मीनारों पर चढकर शहर का दृश्य अधिक आकर्षक दिखता है। दूर दूर तक गांव साफ नजर आते हैं। इसके मीनार दिल्ली की जामा मस्जिद की मीनारों से ऊँचे हैं।
यह मस्जिद पूर्णतः 'संगेखारा' नामक पत्थर से निर्मित की गई है। बताया जाता है कि इस मस्जिद के निर्माण के लिए बड़े परिश्रम से मांडवगढ़ की पहाड़ियों से इन पत्थरों को मंगवाया गया था। पत्थर मंगवाने में जो ख़र्च हुआ, वह उस समय के सोने के समतुल्य मूल्य का था। यह शानदार मस्जिद 15 सुंदर कमानों पर आधारित है। इसके प्रत्येक स्तंभ के उपरी भाग पर बहुत ही सुंदर सूरजमुखी फूल खोदे गए हैं, जो उत्कृष्ट शिल्पकारी के नमूने हैं। मस्जिद की लंबाई अंदर से 148 फ़ुट और चौडाई 52 फ़ुट है। यह इमारत 70 स्तंभों पर स्थित है। पत्थरों को इस प्रकार रखा गया है कि जैसे-जैसे पत्थर ऊपर उठते जाते हैं, वैसे-वैसे कमानों के साथ अपने आप छत तैयार हो जाती है। कमानें स्वयं छत हैं, उसका आधार भी है। बनावट की दृष्टि मे इस प्रकार की छत सम्पूर्ण भारत में कहीं भी देखने को नहीं मिलती। मस्जिद की लम्बाई में 5 दालान और चौडाई में 15 दालान हैं। लम्बाई वाले प्रत्येक दालान में 500 आदमी आसानी से नमाज़ पढ़ सकते हैं। हर दालान के सिरे पर उजालदान (रौशनदान) बनाये गये हैं। दीवार की मोटाई 5 फ़ुट है। दीवारों के ऊपर चारों ओर पत्थर के सुंदर कंगूरे कुरेदे गये हैं। बाहर की ओर मस्जिद की दीवार 25 फ़ुट लंबी है। दीवार पर छोटे-छोटे मेहराबनुमा चिरागदान बनाये गये हैं। मस्जिद के अंदर पश्चिम दिशा की दीवार पर 15 मेहराबें हैं। हर एक मेहराब पर अत्यंत ही सुंदर नक़्क़ाशी खोदी गयी है। मध्य भाग की कमान पर जो शिल्प कला प्रदर्शित है, वह आश्चर्यचकित करने वाली है। पत्थर पर इतना सूक्ष्म काम बस देखते ही बनता है। इस कमान के पास तीन सीढ़याँ बनी हैं। इस पर खड़े होकर संबोधन किया जाता है। इस पर बैठकर अथवा खड़ा होने पर मस्जिद में बैठे हुए लोगों को आसानी से देखा जा सकता है और उन तक आवाज़ सरलता से पहुँच जाती है।
मस्जिद की इस मध्य कमान के ऊपरी भाग पर अरबी भाषा में अत्यंत सुंदर ढंग से आलेख खुदा है। यह लेख आदिल शाह युग का है। इसमें कुरान शरीफ की आयतों का अर्थ, हदीस पाक जिसमें मस्जिद निर्माण किये जाने का महत्व, निर्माणकर्ता बादशाह का नाम, इमारत की सुंदरता की सराहना मस्जिद के शिलान्यास सन तथा अंत में लेख खोदने वालों का नाम, अंकित है। दूसरा शिला लेख मस्जिद के उत्तरी भाग के कोने वाली मेहराब के ऊपरी भाग मं अरबी भाषा में है। इस में भी कुरान पाक की आयतें, हदीस पाक हैं बाद में फ़ारूक़ी बादशाह की वंशावली हैं अंतः में मस्जिद का निर्माण का सन अंकित है। तीसरा लेख इसी अरबी लेख नीचे है। यह संस्कृत भाषा और प्राचीन देवनागरी लिपि में खुदा है। यह छः लाईन में है। इस में कुरान की आयते और हदीस पाक का अनुवाद बाद में फ़ारूख़ी बादशाहों का वंश विवरण अंकित है। अत में मस्जिद का निर्माण सन् महिना , दिन, पल घडी अंकित है। अतः मूल आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है। स्वस्ति श्री संवत् 1646 वर्षे, शके 1511 विरोध संवत्सरे पौष, मास, शुक्ल पक्षे 10 घटिस है का हश्या, शुभ 24 योगे वाणिज्य करणे। स्पिन दिन रात्रि, घटी 11 समय कन्या लगने श्री मुबारक शाह सुत श्री एदल शाह राज्ञी यसी तिरियं निर्माता स्वधर्म पालनार्थम । यह शिला लेख बादशाहों की धम्र निरपेक्षता का उज्जवल प्रमाण है। इस प्रकार का संस्कृत और अरबी का आलेख असीरगढ की जामा मस्जिद में भी उत्कीर्ण है। चौथा शिलालेख मस्जिद की दक्षिण मीनार पर हैं यह फ़ारसी (परसियन) में है जिसमें अकबर बादशाह के बुरहानपुर आने और उनके द्वारा असीरगढ पर विजय प्राप्त करने तथा बहादुरशाह फ़ारूक़ी की आज्ञापालन आदि का वर्णन हैं इसकेक बाद अकबर बादशाह की लाहौर रवानगी का वर्णन है तथा इस लेख को लिखने वाले लेखक मोहम्मद मासूम का नाम अंकित है। इस लेख से हमें ज्ञात होता है कि अकबर ने असीरगढ की विजय के बाद बाद बुरहानपुर में एक माह बीस दिन विसा किया था। इस मस्जिद में महान सूफी, संतों, मौलवियों एवं हाफिजों ने इमामत की है, जिनमें हजरत मी नोमान नकशबंदी, हजरत खवाजा हाशम कशमी रै. के नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने यहां गुरूपद संभाला था। यह मस्जिद शिल्पकला का अद्धूत ननूना है। मस्जिद की उत्कृष्ट कला, कारीगरों के कौशल, पत्थरों पर उत्कीर्ण फूल नक्काशी को देखकर ऐसा प्रतीती होता है कि मस्जिद को सांचे में ढाल कर रखाा गया हो। सैकडों वर्ष व्यतीत हो जाने के प्श्चात भी इमारत में कहीं भी दरार अथवा छिद्र तक नहीं है।