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#यही गणना व्यवहार रूप से [[कुषाण|कुषाणों]] एवं [[सातवाहन|सातवाहनों]] के कालों तक चलती गयी और शासन-वर्ष ही प्रयोग में लाये जाते रहे। सैकड़ों वर्षों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत प्रयोग में आते रहे, इससे काल निर्णय एवं इतिहास में बड़े-बड़े भ्रम उपस्थित हो गए हैं।<ref> संवतों की सूचियों के विषय में [[कनिंघम]] कृत 'इण्डियन एराज़'; स्वामिकन्नु पिल्लई कृत 'इण्डियन एफेमेरिस' (जिल्द 1, भाग 1, पृ0 53-55); बी0 बी0 केतकर कृत 'इण्डियन एण्ड फॉरेन क्रोनोलॉजी' (पृ0 171-172); पी0 सी0 सेनगुप्त कृत 'ऐश्येण्ट इण्डिएन एराज़' (पृ0 222-238); डा. मेघनाथ साहा का लेख 'साइंस एण्ड कल्चर' (1952, कलकत्ता, पृ0 116) तथा कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी (1955) देखे जा सकते हैं।</ref>
#यही गणना व्यवहार रूप से [[कुषाण|कुषाणों]] एवं [[सातवाहन|सातवाहनों]] के कालों तक चलती गयी और शासन-वर्ष ही प्रयोग में लाये जाते रहे। सैकड़ों वर्षों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत प्रयोग में आते रहे, इससे काल निर्णय एवं इतिहास में बड़े-बड़े भ्रम उपस्थित हो गए हैं।<ref> संवतों की सूचियों के विषय में [[कनिंघम]] कृत 'इण्डियन एराज़'; स्वामिकन्नु पिल्लई कृत 'इण्डियन एफेमेरिस' (जिल्द 1, भाग 1, पृ0 53-55); बी0 बी0 केतकर कृत 'इण्डियन एण्ड फॉरेन क्रोनोलॉजी' (पृ0 171-172); पी0 सी0 सेनगुप्त कृत 'ऐश्येण्ट इण्डिएन एराज़' (पृ0 222-238); डा. मेघनाथ साहा का लेख 'साइंस एण्ड कल्चर' (1952, कलकत्ता, पृ0 116) तथा कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी (1955) देखे जा सकते हैं।</ref>
==संवत के प्रकार==
==संवत के प्रकार==
*[[अलबेरूनी|अल्बरूनी]] <ref>(सचौ, जिल्द 2, पृ0 5)</ref> ने पाँच संवतों के नाम दिए हैं, यथा -
*[[अलबेरूनी|अल्बरूनी]] <ref>सचौ, जिल्द 2, पृ0 5)</ref> ने पाँच संवतों के नाम दिए हैं, यथा -
#श्रीहर्ष,  
#श्रीहर्ष,  
#विक्रमादित्य,  
#विक्रमादित्य,  

12:17, 27 जुलाई 2011 का अवतरण

काल-गणना में कल्प, मन्वन्तर, युग आदि के पश्चात संवत्सर का नाम आता है। युग भेद से सत युग में ब्रह्म-संवत, त्रेता में वामन-संवत, परशुराम-संवत (सहस्त्रार्जुन-वध से) तथा श्री राम-संवत (रावण-विजय से), द्वापर में युधिष्ठिर-संवत और कलि में विक्रम, विजय, नागार्जुन और कल्कि के संवत प्रचलित हुए या होंगे।

भारत में जन्म-पत्रिकाओं में संवतो का प्रयोग लगभग 2000 वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। संवत का प्रयोग हिन्दू-सिथियनों द्वारा, जिन्होंने आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत में लगभग ई. पू. 100 एवं 100 ई. के बीच शासन किया, उनके वृत्तान्तों में हुआ। यह बात केवल भारत में ही नहीं पायी गयी, प्रत्युत मिस्र, बेबिलोन, यूनान एवं रोम में संवत का लगातार प्रयोग बहुत बाद में जाकर प्रारम्भ हुआ।

  • ज्योतिर्विदाभरण में [1] कलियुग के 6 व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिन्होंने संवत चलाये थे, यथा-
  1. युधिष्ठर,
  2. विक्रम,
  3. शालिवाहन,
  4. विजयाभिनन्दन,
  5. नागार्जुन एवं
  6. कल्की,
  • यह क्रम से 3044, 135, 18000, 10000, 400000 एवं 821 वर्षों तक चलते रहे। प्रचीन देशों में संवत का लगातार प्रयोग नहीं था, केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते थे।

  1. अशोक के आदेश लेखनों में केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त है।
  2. कौटिल्य [2] ने मालगुज़ारी संग्रह करने वाले की कार्य व्यवस्था करने के लिए कालों की ओर भी, संकेत किया है, जिनसे मालगुज़ारी एकत्र करने वाले सम्बन्धित थे, जैसे - राजवर्ष, मास, पक्ष, दिन आदि।[3]
  3. फ्लीट, शामशास्त्री आदि ने वचन को कई ढंग से अनूदित किया है। विभिन्न अर्थों का कारण है 'व्युष्ट' शब्द का प्रयोग। 'व्युष्ट' का शाब्दिक अर्थ है 'प्रातःकाल या प्रकाश' और यहाँ तात्पर्य है 'वर्ष का प्रथम दिन, जो शुभ माना जाता है।' [4] लेखक इस कथन का अनुवाद इस प्रकार करता है, "राजवर्ष, मास, पक्ष, दिन, शुभ (वर्ष का प्रथम दिन), तीन ऋतुओं, यथा वर्षा, हेमन्त, ग्रीष्म के तीसरे एवं सातवें पक्ष में एक दिन (30 में) कम है, अन्य पक्ष पूर्ण हैं (मास में पूर्ण 30 दिन हैं), मलमास (अधिक मास) पृथक (कालावधि) है। ये सभी वे काल हैं, जिन्हें मालगुज़ारी संग्रह करने वाला ध्यान में रखेगा।[5]
  4. यही गणना व्यवहार रूप से कुषाणों एवं सातवाहनों के कालों तक चलती गयी और शासन-वर्ष ही प्रयोग में लाये जाते रहे। सैकड़ों वर्षों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत प्रयोग में आते रहे, इससे काल निर्णय एवं इतिहास में बड़े-बड़े भ्रम उपस्थित हो गए हैं।[6]

संवत के प्रकार

  1. श्रीहर्ष,
  2. विक्रमादित्य,
  3. शक,
  4. वल्लभ एवं
  5. गुप्त संवत।
  • प्राचीन काल में भी कलियुग के आरम्भ के विषय में विभिन्न मत रहे हैं। आधुनिक मत है कि कलियुग ई. पू. 3102 में आरम्भ हुआ। इस विषय में चार प्रमुख दृष्टिकोण हैं-
  1. युधिष्ठर ने जब राज्य सिंहासनारोहण किया;
  2. यह 36 वर्ष उपरान्त आरम्भ हुआ जब कि युधिष्ठर ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित को राजा बनाया;
  3. पुराणों के अनुसार कृष्ण के देहावसान के उपरान्त यह आरम्भ हुआ।[8];
  4. वराहमिहिर के मत से युधिष्ठर-संवत का आरम्भ शक-संवत के 2426 वर्ष पहले हुआ, अर्थात दूसरे मत के अनुसार, कलियुग के 653 वर्षों के उपरान्त प्रारम्भ हुआ।
  • ऐहोल शिलालेख ने सम्भवतः दूसरे मत का अनुसरण किया है; क्योंकि उसमें शक-संवत 556 से पूर्व 3735 कलियुग संवत माना गया है।[9]
  • पश्चात्कालीन ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुसार कलियुग संवत के 3719 वर्षों के उपरान्त शक संवत का आरम्भ हुआ। [10]
  • कलियुग संवत के विषय में सबसे प्राचीन संकेत आर्यभट्ट द्वारा दिया गया है। उन्होंने कहा है कि जब वे 23 वर्ष के थे तब कलियुग के 3600 वर्ष व्यतीत हो चुके थे अर्थात वे 476 ई. में उत्पन्न हुए।
  • एक चोल वृत्तान्तालेखन कलियुग संवत 4044 (943 ई.) का है। [11], जहाँ बहुत-से शिलालेखों में उल्लिखित कलियुग संवत का विवेचन किया गया है।
  • मध्यकाल के भारतीय ज्योतिषियों ने माना है कि कलियुग एवं कल्प के प्रारम्भ में सभी ग्रह, सूर्य एवं चन्द्र को मिलाकर चैत्र शुक्ल-प्रतिपदा को रविवार के सूर्योदय के समय एक साथ एकत्र थे।[12]
  • बर्गेस एवं डा. साहा जैसे आधुनिक लेखक इस कथन को केवल कल्पनात्मक मानते हैं। किन्तु प्राचीन सिद्धान्त लेखकों के कथन को केवल कल्पना मान लेना उचित नहीं है। यह सम्भव है कि सिद्धान्त लेखकों के समक्ष कोई अति प्राचीन परम्परा रही हो।[13]
  • प्रत्येक धार्मिक कृत्य के संकल्प में कृत्यकर्ता को काल के बड़े भागों एवं विभागों को श्वेतावाराह कल्प के आरम्भ से कहना पड़ता है, यथा वैवस्वत मन्वन्तर, कलियुग का प्रथम चरण, भारत में कृत्य करने की भौगोलिक स्थिति, सूर्य, बृहस्पति एवं अन्य ग्रहों वाली राशियों के नाम, वर्ष का नाम, मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के नाम।
  • देवल का कथन है कि यदि कृत्यकर्ता मास, पक्ष, तिथि, (कृत्य के) अवसर का उल्लेख नहीं करता तो वह कृत्य का फल नहीं प्राप्त करेगा [14]। यह है भारतीयों के धार्मिक जीवन में संवतों, वर्षों एवं इनके भागों एवं विभागों की महत्ता। अतः प्रत्येक भारतीय (हिन्दू) के लिए पंचांग अनिवार्य है।

शास्त्रों में इस प्रकार भूत एवं वर्तमान काल के संवतों का वर्णन तो है ही, भविष्य में प्रचलित होने वाले संवतों का वर्णन भी है। इन संवतों के अतिरिक्त अनेक राजाओं तथा सम्प्रदायाचार्यों के नाम पर संवत चलाये गये हैं। भारतीय संवतों के अतिरिक्त विश्व में और भी धर्मों के संवत हैं। तुलना के लिये उनमें से प्रधान-प्रधान की तालिका दी जा रही है- वर्ष ईस्वी सन1,949 को मानक मानते हुए निम्न गणना की गयी है।

भारतीय-संवत

क्र0सं0

नाम

वर्तमान वर्ष

1

कल्पाब्द

1,97,29,49,050

2

सृष्टि-संवत

1,95,58,85,050

3

वामन-संवत

1,96,08,89,050

4

श्रीराम-संवत

1,25,69,050

5

श्रीकृष्ण संवत

5,175

6

युधिष्ठिर संवत

5,050

7

बौद्ध संवत

2,524

8

महावीर (जैन) संवत

2,476

9

श्रीशंकराचार्य संवत

2,229

10

विक्रम संवत

2,006

11

शालिवाहन संवत

1,871

12

कलचुरी संवत

1,701

13

वलभी संवत

1,629

14

फ़सली संवत

1,360

15

बँगला संवत

1,356

16

हर्षाब्द संवत

1,342


विदेशीय-संवत

क्र0सं0

नाम

वर्तमान वर्ष

1

चीनी सन

9,60,02,247

2

खताई सन

8,88,38,320

3

पारसी सन

1,89,917

4

मिस्त्री सन

27,603

5

तुर्की सन

7,556

6

आदम सन

7,301

7

ईरानी सन

5,954

8

यहूदी सन

5,710

9

इब्राहीम सन

4,389

10

मूसा सन

3,653

11

यूनानी सन

3,522

12

रोमन सन

2,700

13

ब्रह्मा सन

2,490

14

मलयकेतु सन

2,261

15

पार्थियन सन

2,196

16

ईस्वी सन

1,949

17

जावा सन

1,875

18

हिजरी सन

1,319


यह तुलना इस बात को तो स्पष्ट ही कर देती है कि भारतीय संवत अत्यन्त प्राचीन हैं। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं। नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया है। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।


उज्जयिनी-सम्राट् महाराज विक्रम के इस वैज्ञानिक संवत के साथ विश्व में प्रचलित ईस्वी सन पर भी ध्यान देना चाहिये। ईस्वी सन का मूल रोमन-संवत है। पहले यूनान में ओलिम्पियद संवत था, जिसमें 360 दिन का वर्ष माना जाता था। रोम नगर की प्रतिष्ठा के दिन से वही रोमन संवत कहलाने लगा। ईस्वी सन की गणना ईसा मसीह के जन्म से तीन वर्ष बाद से की जाती है। रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने 360 दिन के बदले 365.25 दिन के वर्ष को प्रचलित किया। छठी शताब्दी में डायोनिसियस ने इस सन में फिर संशोधन किया; किंतु फिर भी प्रतिवर्ष 27 पल, 55 विपल का अन्तर पड़ता ही रहा। सन 1739 में यह अन्तर बढ़ते-बढ़ते 11 दिन का हो गया; तब पोप ग्रेगरी ने आज्ञा निकाली कि 'इस वर्ष 2 सितंबर के पश्चात 3 सितंबर को 14 सितंबर कहा जाय और जो ईस्वी सन 4 की संख्या से विभाजित हो सके, उसका फ़रवरी मास 29 दिन का हो। वर्ष का प्रारम्भ 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से माना जाय।' इस आज्ञा को इटली, डेनमार्क, हॉलैंड ने उसी वर्ष स्वीकार कर लिया। जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने सन 1759 में, इंग्लैंड ने सन 1809 में, प्रशिया ने सन 1835 में, आयरलैंड ने सन् 1839 में और रूस ने सन 1859 में इसे स्वीकार किया। इतना संशोधन होने पर भी इस ईस्वी सन में सूर्य की गति के अनुसार प्रतिवर्ष एक पल का अन्तर पड़ता है। सामान्य दृष्टि से यह बहुत थोड़ा अन्तर है, पर गणित के लिये यह एक बड़ी भूल है। 3600 वर्षों के बाद यही अन्तर एक दिन का हो जायगा और 36,000 वर्षों के बाद दस दिन का और इस प्रकार यह अन्तर चालू रहा तो किसी दिन जून का महीना वर्तमान अक्टूबर के शीतल समय में पड़ने लगेगा।


टीका टिप्पणी

  1. यह पश्चात्कालीन रचना है, जिसमें यह आया है कि यह गतकलि 3068 अर्थात् ईसा संवत् से 33 वर्ष पूर्व में निर्मित हुआ
  2. कौटिल्य अर्थशास्त्र, 2।6, पृ0 60
  3. राजवर्ष मासाः पक्षो दिवसश्च व्युष्टं वर्षाहेमन्तग्रीष्माणां तृतीयसप्तमा दिवसोनाः पक्षाः शेषा पूर्णाः पृथगधिमासक इति कालः। कौटिल्य अर्थशास्त्र (11।6, पृ0 60)।
  4. पाणिनि 5।1।96-97 -तत्र च दीयते कार्य भववत्। व्युष्टादिभ्योण्।
  5. प्राचीन कालों में वर्ष में 6 ऋतुएँ थीं, 12 मास थे और प्रत्येक मास में 30 दिन थे । अर्थशास्त्र का यहाँ कथन है कि छः पक्ष ऐसे हैं जिनमें प्रत्येक में 14 दिन हैं, अतः चन्द्र वर्ष (14×6+15×6+30×3=354) 354 दिनों का होगा। इसे सौर वर्ष के साथ चलाने के लिए अधिक मास का समावेश किया गया।
  6. संवतों की सूचियों के विषय में कनिंघम कृत 'इण्डियन एराज़'; स्वामिकन्नु पिल्लई कृत 'इण्डियन एफेमेरिस' (जिल्द 1, भाग 1, पृ0 53-55); बी0 बी0 केतकर कृत 'इण्डियन एण्ड फॉरेन क्रोनोलॉजी' (पृ0 171-172); पी0 सी0 सेनगुप्त कृत 'ऐश्येण्ट इण्डिएन एराज़' (पृ0 222-238); डा. मेघनाथ साहा का लेख 'साइंस एण्ड कल्चर' (1952, कलकत्ता, पृ0 116) तथा कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी (1955) देखे जा सकते हैं।
  7. सचौ, जिल्द 2, पृ0 5)
  8. विष्णु पुराण 4।24।108-113
  9. त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः।
    सप्ताब्दशतयुक्तेषु गतेष्वब्देषु पंञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च।
    समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम्।।

    एपिग्रैफिया इण्डिका (जिल्द 4, पृ0 7)। यहाँ पर स्पष्ट रूप से कलियुग का आरम्भ महाभारत युद्ध के उपरान्त माना गया है।
  10. 'याताः षण्मनवो युगानि भमितान्यन्यद्युगांध्रित्रयं नन्दाद्रीन्दुगुणास्तवा शकनृपस्यान्ते कलेर्वत्सराः।। - सिद्धान्तशिरोमणि (1।28)। 'नन्दाद्रीन्दुगुणा' 3179 के बराबर है (नन्द=9, अद्रि=7, इन्दु=1, गुण=3)।
  11. जे0 आर0 ए0 एस0 (1911, पृ0 689-694)
  12. लंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारे प्रथमं बभूव।
    मधोः सितादेर्दिननमासवर्षयुगादिकानां युगपत् प्रवृत्तिः।।

    ग्रहगणित, मध्यमाधिकार, श्लोक 15, भास्कराचार्य;

    चैत्रसितादेरुदयाद् भानोर्दिनमासवर्ष युगकल्पाः।
    सृष्ट्यादौ लंकायां समं प्रवत्ता दिनेऽर्कस्य।। - ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (1।4)।

  13. एपिग्रैफिया इण्डिका (जिल्द 8, पृ0 261)। एपि0 इण्डिका (जिल्द 28, पृ0 36) में अर्केश्वर देव के कई पट्ट-लेख हैं जिनमें युगाब्द 4248 (कलियुग संवत) का उल्लेख है, जो 6 फ़रवरी 1148 ई. का है और 'ऐनल्स ऑफ साइंस' (जिल्द 8, संख्या 3, 1952, पृ0 221-228) जहाँ प्रो0 नेउगेबाबर एवं डा. ओ0 श्चिमड्ट का 'हिन्दू ऐस्ट्रानोमी एट न्यू मिंस्टर इन 1428' नामक लेख है, जिसमें इंग्लैण्ड के न्यूमिंस्टर स्थान में लिखित एक अज्ञात लेखक के एक प्रबन्ध की ओर संकेत किया गया है, जिसमें 1428 वर्ष एवं न्यूमिंस्टर के अक्षांश के लिए ज्योतिःशास्त्रीय गणनाएँ की गयी हैं। उस प्रबन्ध में आया है कि कतिपय अरबी लेखकों के उद्धरण हैं, जिनमें एक 'ओमर' या उमर, जो 815 में मरा, का उल्लेख है और प्रबन्ध में आया है कि एल्फैंजो ने अवतार के 3102 वर्ष पूर्व 16 फ़रवरी को बाढ़ (फ्लड) के वर्ष का आरम्भ किया; यह तिथि स्पष्ट रूप से कलियुग संवत (जिसे भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने प्रयुक्त किया है) के आरम्भ से सर्वथा मिलती-जुलती है।
  14. शान्तिमयूख, पृ0 2

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