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दास कौन थे? साधारणत: दासों और दस्युओं को एक मान लिया जाता है। किन्तु दस्युहत्या शब्द के प्रयोग तो हैं, पर दासहत्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। आर्यों के अंतर्जातीय युद्धों में दासों को सहायक सेना के रूप में दिखाया गया है। अपव्रत, अन्यव्रत आदि के रूप में उनका वर्णन नहीं किया गया है। तीन स्थलों पर ‘दासों विशों’ का उल्लेख किया गया है; <ref>ऋग्वेद, II. 11.4, IV. 28.4 और VI. 25.2; दत्त : ‘स्टडीज़ इन हिन्दू सोशल पालिटी’, पृष्ठ 334, बी.एन. दत्त का विचार है कि ऋग्वेद VI. 25.2 में दासविश् का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि दास को वैश्य कोटि में रखा गया है। किन्तु चूँकि उस समय वैश्य समाज के एक वर्ग के रूप में नहीं थे, इसीलिए यहाँ विश् को एक जनजाति विशेष माना जा सकता है।</ref> और सबसे बढ़कर तो यह कि एक सीथियन जनजाति - ईरानी दहे<ref>ऋग्वेद, VI, I, 357, ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्', जाति और भाषा की दृष्टि से दहे ईरानियों के बहुत निकट रहे होंगे, किन्तु यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हो पाया है; वही, त्सिम्मर ने हेरोडोट्स के दआई या दाअई, i. 126 को तूरानियन जनजाति का बताया है।</ref> से उनको अभिन्न दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से दासों और दस्युओं का अन्तर स्पष्ट है : दस्युओं और वैदिक आर्यों में समानता की बात बहुत ही कम आती है।<ref>शेफर : ‘एथनोग्राफ़ी इन एनशिएंट इण्डिया’, पृष्ठ 32, कहा गया है कि सामाजिक स्तर पर दास और आर्य का स्थान दस्यु भीलों से ऊपर था।</ref> इसके विपरीत, दास सम्भवत: उन मिश्रित भारतीय आर्यों के अग्रिम दस्ते थे, जो उसी समय भारत आए, जब केसाइट बेबीलोनिया पहुँचे थे (1750 ई. पू.)। पुरातात्विकों का अनुमान है कि उत्तर फ़ारस से भारत की ओर लोगों का प्रस्थान या तो निरन्तर होता रहा अथवा उनका आगमन मुख्यत: दो बार हुआ था, जिनमें पहला आगमन 2000 ई. पू. के तुरन्त बाद हुआ था।<ref>स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, जिल्द XXIV, सं. 96, 218 लाल : एनशिएंट इण्डिया, दिल्ली, सं. 9, पृष्ठ 90-91. लाल का कथन है कि दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में शाही टुंप (आधनिक बलूचिस्तान) में और दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के उत्तरार्द्ध में फ़ोर्ट मुनरो (अफ़ग़ानिस्तान) में लोग झुंड के झुंड आए।</ref> शायद इसी कारण से आर्यों ने दासों के प्रति मेल-मिलाप की नीति अपनाई और दिवोदास, बलबुथ एवं एवं तरुक्ष जैसे उनके सरदार आर्यों के दल में आसानी से आत्मसात किए जा सके। अंतर्जातीय संघर्षों में अधिकतर आर्यों के सहायक के रूप में दासों के उल्लेख का भी यही कारण है। इससे लगता है कि ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग भारत के आर्येतर निवासियों के बीच नहीं, बल्कि भारतीय आर्यों से सम्बद्ध लोगों के बीच प्रचलित था। ऋग्वेद के उत्तरवर्ती काल में दास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होने लगा था, जिससे न केवल मूल भारोपीय दासों के वंशजों, बल्कि दस्यु और राक्षस जैसे आर्य पूर्व लोगों और आर्य समुदाय के उन सदस्यों का भी बोध होता होगा, जो अपने आन्तरिक संघर्षों के कारण अकिंचनता या ग़ुलामी की स्थिति में पहुँच गए थे।
दास कौन थे? साधारणत: दासों और दस्युओं को एक मान लिया जाता है। किन्तु दस्युहत्या शब्द के प्रयोग तो हैं, पर दासहत्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। आर्यों के अंतर्जातीय युद्धों में दासों को सहायक सेना के रूप में दिखाया गया है। अपव्रत, अन्यव्रत आदि के रूप में उनका वर्णन नहीं किया गया है। तीन स्थलों पर ‘दासों विशों’ का उल्लेख किया गया है; <ref>ऋग्वेद, II. 11.4, IV. 28.4 और VI. 25.2; दत्त : ‘स्टडीज़ इन हिन्दू सोशल पालिटी’, पृष्ठ 334, बी.एन. दत्त का विचार है कि ऋग्वेद VI. 25.2 में दासविश् का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि दास को वैश्य कोटि में रखा गया है। किन्तु चूँकि उस समय वैश्य समाज के एक वर्ग के रूप में नहीं थे, इसीलिए यहाँ विश् को एक जनजाति विशेष माना जा सकता है।</ref> और सबसे बढ़कर तो यह कि एक सीथियन जनजाति - ईरानी दहे<ref>ऋग्वेद, VI, I, 357, ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्', जाति और भाषा की दृष्टि से दहे ईरानियों के बहुत निकट रहे होंगे, किन्तु यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हो पाया है; वही, त्सिम्मर ने हेरोडोट्स के दआई या दाअई, i. 126 को तूरानियन जनजाति का बताया है।</ref> से उनको अभिन्न दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से दासों और दस्युओं का अन्तर स्पष्ट है : दस्युओं और वैदिक आर्यों में समानता की बात बहुत ही कम आती है।<ref>शेफर : ‘एथनोग्राफ़ी इन एनशिएंट इण्डिया’, पृष्ठ 32, कहा गया है कि सामाजिक स्तर पर दास और आर्य का स्थान दस्यु भीलों से ऊपर था।</ref> इसके विपरीत, दास सम्भवत: उन मिश्रित भारतीय आर्यों के अग्रिम दस्ते थे, जो उसी समय भारत आए, जब केसाइट बेबीलोनिया पहुँचे थे (1750 ई. पू.)। पुरातात्विकों का अनुमान है कि उत्तर फ़ारस से भारत की ओर लोगों का प्रस्थान या तो निरन्तर होता रहा अथवा उनका आगमन मुख्यत: दो बार हुआ था, जिनमें पहला आगमन 2000 ई. पू. के तुरन्त बाद हुआ था।<ref>स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, जिल्द XXIV, सं. 96, 218 लाल : एनशिएंट इण्डिया, दिल्ली, सं. 9, पृष्ठ 90-91. लाल का कथन है कि दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में शाही टुंप (आधनिक बलूचिस्तान) में और दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के उत्तरार्द्ध में फ़ोर्ट मुनरो (अफ़ग़ानिस्तान) में लोग झुंड के झुंड आए।</ref> शायद इसी कारण से आर्यों ने दासों के प्रति मेल-मिलाप की नीति अपनाई और दिवोदास, बलबुथ एवं एवं तरुक्ष जैसे उनके सरदार आर्यों के दल में आसानी से आत्मसात किए जा सके। अंतर्जातीय संघर्षों में अधिकतर आर्यों के सहायक के रूप में दासों के उल्लेख का भी यही कारण है। इससे लगता है कि ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग भारत के आर्येतर निवासियों के बीच नहीं, बल्कि भारतीय आर्यों से सम्बद्ध लोगों के बीच प्रचलित था। ऋग्वेद के उत्तरवर्ती काल में दास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होने लगा था, जिससे न केवल मूल भारोपीय दासों के वंशजों, बल्कि दस्यु और राक्षस जैसे आर्य पूर्व लोगों और आर्य समुदाय के उन सदस्यों का भी बोध होता होगा, जो अपने आन्तरिक संघर्षों के कारण अकिंचनता या ग़ुलामी की स्थिति में पहुँच गए थे।


यदि आर्यों की संख्या कम होती तो पराजित लोगों पर नए अल्पसंख्यक उच्च वर्गीय शासक के रूप में अपने को स्थापित करते जैसा कि हित्तियों (हिट्टाइट), कसाइटों और मितन्नी ने पश्चिम एशिया में किया था। किन्तु ऋग्वैदिक प्रमाण इस बात के प्रतिकूल हैं।<ref>वैदिक इंडेक्स, ii, पृष्ठ 255, ऋग्वेद, VI. 44.11, देखें, वर्ण शब्द।</ref> न केवल पराजित लोगों की जन-हत्या, बल्कि कितनी ही आर्य जनजातियों की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है।<ref>आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, ऋग्वैदिक जातियों के लिये देखें, पृष्ठ 245-248 और वैदिक कालीन जातियों के लिए पृष्ठ 252-262.</ref> फिर, भारत के बहुत बड़े हिस्से में आर्य भाषाओं के प्रचलन से भी यह अनुमान किया जा सकता है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बड़ी तादाद में आए थे। आगे चलकर बताया गया है कि उत्तर भारत की आबादी में वैश्यों के साथ-साथ शूद्रों की संख्या बहुत अधिक थी, किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, कि वे आर्येतर भाषाएँ बोलते थे। दूसरी ओर, शूद्र के लिए यज्ञ में प्रयुक्त सम्बोधन से स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक काल में शूद्र आर्यों की भाषा समझते थे।<ref>[[शतपथ ब्राह्मण]], I. 1.4.11-12.</ref> इस सम्बन्ध में महाभारत की एक अनुश्रुति महत्वपूर्ण है : ‘ब्रह्मा ने वेद के प्रतीकस्वरूप सरस्वती का निर्माण पहले चारों वर्णों के लिए किया, किन्तु शूद्र धनलिप्सा में पड़कर आज्ञानांधकार में डूब गए और वेद के प्रति उनका अधिकार जाता रहा।’ <ref>महाभारत, शान्ति पर्व, 181.15, ‘वर्णश्चत्वार : एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती, विहिता ब्रह्मणा पूर्वा लोभात्वज्ञानतां गत:’।</ref> वेबर की दृष्टि में इस कंडिका से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन युग में शूद्र आर्यों की भाषा बोलते थे।<ref>वेबर, इंडिश स्टुडियेन, II, 94 पाद टिप्पणी</ref> सम्भव है कि कुछ स्वस्थानिक जनजातियों ने अपनी बोली के बदले आर्यों की बोली अपना ली हो, जैसे आधुनिक युग में बिहार की कई जनजातियों ने अपनी भाषा को छोड़कर कुर्माली और सदाना जैसी आर्य बोलियाँ अपना ली हैं। किन्तु उन्होंने जिन लोगों की भाषा अपनाई, उनकी अपेक्षा इन आदिवासियों की संख्या अवश्य ही कम रही होगी। आधुनिक युग में भी, जबकि आर्यभाषा बोलने वालों को अपनी भाषा और संस्कृति का प्रसार करने के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वे आर्येतर भाषाओं को मिटा नहीं पाए हैं। इन आर्येतर भाषाओं में कुछ तो अपनी सशक्त वर्णनशीलता सिद्ध कर चुकी हैं।
ऊपर बताये गए तथ्यों के आधार पर यह कहना दुस्साहस नहीं होगा कि आर्य बड़ी तादाद में भारत आए। बैरी जनजातियों के साथ मिश्रण के बावजूद, आर्य सरदारों और पुरोहितों की संख्या बहुत कम रही होगी। कालक्रम से आर्य जनजातियों के अधिकांश लोग पशुपालक और किसान बन गए और कुछ लोग श्रमिक बन गए। पर ऋग्वेद काल में आर्थिक और सामाजिक विशिष्टीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में थी। इस जनजातिप्रधान समाज में सैनिक नेताओं को अतिरिक्त अनाज या मवेशी प्राप्त करने के नियत और नियमित साधन प्राय: नहीं थे, जिससे वे और उनके धार्मिक समर्थक अपना निर्वाह और समुन्नति कर सकते। यह समाज मुख्यत: घुमन्तु और पशुचारी था, और इसमें कृषि अथवा एक जगह बसने की प्रधानता नहीं थी। अतएव अनाज की चर्चा दान के रूप में भी नहीं आई है, और कर देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। युद्ध में पराजित लोगों से उपहार के रूप में या लूटपाट से जो सम्पत्ति आर्य समुदाय को प्राप्त होती थी, वही उनकी आमदनी थी और प्राय: इस सम्पत्ति में भी उन्हें जनजाति के सदस्यों को हिस्सा देना पड़ता था।<ref>आर.एस. शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 434-5; XXXIX, 418-9).</ref> ऋग्वेद में केवल बलि ही एक शब्द है, जो एक प्रकार से कर का द्योतक है। साधारणतया इसका तात्पर्य है, ‘देवता को अर्पित चढ़ावा’,<ref>ऋग्वेद, I. 70.9; V. 1.10; VIII. 100.9.</ref> किन्तु इसका प्रयोग राजा को दिये गए उपहार के रूप में किया जाता है।<ref>ऋग्वेद, VII. 6.5; X. 173.6, बलिहृत (कर देना).</ref> अनुमान है कि बलि का भुगतान करना ऐच्छिक था, <ref>वैदिक इंडेक्स, II. 62. त्सिम्मर के विचार।</ref> क्योंकि लोगों से इसकी वसूली के लिए कोई करवसूली संगठन नहीं था। जनजातीय राजा द्वारा अपने योद्धाओं और पुरोहितों को अनाज या भूमि के दान का दृष्टान्त नहीं मिलता। इसका कारण शायद यह था कि भूमि पूरे जनसमुदाय की सम्पत्ति थी। ऋग्वैदिक समाज एक प्रकार का समतावादी समाज था, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि पुरुष या स्त्री, प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही वैरदेय प्राप्त करने का परंपरासिद्ध अधिकार प्राप्त था, <ref>मैक्समूलर : ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट’, XXXII. 361. ऋग्वेद का अनुवाद, V. 61.8.</ref> जो एक सौ गायों के बराबर था।<ref>वैदिक इंडेक्स, II. 331.</ref>
सारांश यह कि ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में वर्णित समाज में गहरे वर्गभेद का अभाव था, जैसा सामान्यतया प्रारम्भिक आदिम समाजों में देखने को मिलता है।<ref>लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ द सोशल क्लासेज’,, पृष्ठ 5-12 में दिए गए उदाहरण। उन्होंने पूर्व भारत के नागाओं और कूकियों में वर्गभेद के अभाव का भी उल्लेख किया है (पृष्ठ 11)।</ref> प्राय: पुराणों में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के विषय में जो अनुमान किये गए हैं, वे उस स्थिति का ही उल्लेख करते हैं। इन अनुमानों के अनुसार त्रेता युग का आरम्भ होने तक न तो कोई वर्णव्यवस्था थी, न कोई व्यक्ति लालची था और न ही लोगों में दूसरे की वस्तु चुरा लेने की प्रवृत्ति थी।<ref>वायु पुराण, I. VIII. 60; देखें, दीघ निकाय, अगञ्ञसुत्त, ‘वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च न तदासन्नसंकर: न लिप्सन्ति हि तेऽन्योन्यन्नानुगृहणन्ति चैव हि’।</ref> किन्तु अति प्राचीन काल में भी सैनिकों, नेताओं और पुरोहितों के मंथर उदभव के साथ-साथ खेतिहर किसान और हस्तकलाओं का व्यवसाय करने वाले कारीगर या शिल्पी जैसे वर्गों का भी उदभव हुआ। बुनकर (जुलाहे), चर्मकार, बढ़ई और चित्रकार के लिए एक ही ढंग के शब्दों का प्रयोग उनके भारोपीय उदभव का संकेत देता है।<ref>कार्ल डार्लिंग : ‘ए डिक्शनरी ऑफ़ सिलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज’, चर्म (चर्मन् के लिए देखें पृष्ठ 40, बुनाई के लिए पृष्ठ 408, तक्षन् के लिए पृष्ठ 589-90 और वेणीकार के लिए पृष्ठ 621-22; चाइंल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86.)</ref> रथ के लिए एक भारोपीय शब्द के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि भारोपीय लोग रथ का निर्माण करना जानते रहे होंगे।<ref>चाइल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86 और 92.</ref> किन्तु ऋग्वेद में जहाँ पहले के अनेकानेक परिच्छेदों में बढ़ई के कार्य की चर्चा हुई है, वहीं रथकार शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई पड़ता।<ref>ऋग्वेद, IV. 35.6, 36.5; VI. 32.1.</ref> अथर्ववेद से संकेत मिलता है कि रथनिर्माता (रथकार) और धातुकर्म करने वाले (कर्मार) को समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसी ग्रन्थ के आरम्भिक भाग में नवनिर्वाचित राजा पर्णमणि (पादपीयताबीज) से प्रार्थना करता है कि वह आसपास रहने वाले कुशल रथ निर्माताओं और धातुकर्म करने वालों के बीच उसकी स्थिति सुदृढ़ करने में सहायक हों। प्रार्थना का उद्देश्य शिल्पियों को राजा का सहायक बनाना है<ref>अथर्ववेद, III 5.6; ‘ये धीवानो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण: उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वम् सर्वानकृण्वभितो जनान्’। यहाँ ब्लूमफ़ील्ड के अनुवाद का अनुसरण किया गया है। व्हिटने ने ब्लूमफ़ील्ड जैसा ही अनुवाद प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्होंने सायण के विचारानुसार उपस्तिन् को प्रजा के अर्थ में लिया है। सायण धीवान: और मनीषिण: को अलग-अलग संज्ञा मानते हैं, जिनका अर्थ मछुआ और बुद्धिजीवी किया गया है। पैप्प. ग्रन्थ में थोड़ा सा पाठभेद है, ‘ये तक्षाणो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण:, सर्वांस तान्पर्ण रंघयोपस्तिं कृणु मेदिनम्’। III. 13.7.</ref> और इस दृष्टि से वे राजाओं, राजविधाताओं, सूतों और दलपतियों (ग्रामणी) के समकक्ष मालूम पड़ते हैं, <ref>‘वेदिक इंडेक्स’, I. पृष्ठ 247; सम्भवत: वह असैनिक और सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों के लिए गाँव का प्रधान था।</ref> जो सब राजा के आसपास रहते हैं और जो राजा के सहायक माने जाते हैं।<ref>अथर्ववेद, III. 5.7.</ref>


==टीका टिप्पणी==
==टीका टिप्पणी==
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13:54, 31 अगस्त 2011 का अवतरण

उत्पत्ति 1847 ई. में रौथ ने संकेत किया था कि शूद्र आर्यों के समाज से बाहर के रहे होंगे।[1] उस समय से सामान्यतया यह विचारधारा चली आ रही है कि ब्राह्मणकालीन समाज का चौथा वर्ण मुख्यतया आर्येतर लोगों का था, जिनकी वैसी स्थिति आर्य विजेताओं ने बना रखी थी।[2] यूरोप के 'गौरांग' और एशिया तथा अफ़्रीका के 'गौरांगेतर' लोगों के बीच हुए संघर्ष से साम्य के आधार पर इस विचारधारा की पुष्टि की जाती रही है।

वेदों में शूद्र

यदि दास और दस्यु दोनों आर्येत्तर भाषा बोलने वाले भारत के मूल निवासी हों[3], तो उपर्युक्त विचारधारा के पक्ष में ऋग्वेद से प्रमाण प्रस्तुत करना सम्भव है। इस ग्रन्थ के अनेक सूक्तों में, जिन्हें अथर्ववेद में भी दुहराया गया है, आर्यों के देवता इन्द्र को दासों के विजेता के रूप में चित्रित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दास मनुष्य ही रहे होंगे। वेदों में कहा गया है कि, इन्द्र ने अधम दास वर्ण को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया था।[4] विश्व-नियंता की हैसियत से दासों को पराधीन बनाने का भार उनके ऊपर है[5], और उनसे यह अनुरोध भी किया जाता है कि वे इन दासों का विनाश करने के लिए तैयार रहें।[6] ऋग्वैदिक स्तुतियों में बार-बार इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे दास जनजाति (विशु) का विध्वंस करें।[7] इन्द्र के बारे में यह भी कहा गया है कि उसने दस्युओं को सभी अच्छे गुणों से वंचित रखा है और दासों को अपने वश में किया है।[8]

दस्यु और दास

वेदों में दासों की अपेक्षा दस्युओं के विनाश और उन्हें पराधीन बनाने की चर्चा अधिक है। कहा गया है कि दस्युओं को मारकर इन्द्र ने आर्य वर्ण की रक्षा की है।[9] स्तुतियों में उससे अनुरोध किया गया है कि वह दस्युओं से युद्ध करे, ताकि आर्यों की शक्ति बढ़ सके।[10] महत्व की बात है कि दस्युओं की हत्या की चर्चा कम से कम बारह जगहों पर हुई है, जिनमें से अधिकांश हत्याएँ इन्द्र के द्वारा ही बताई गई हैं।[11] इसके विपरीत यद्यपि दासों की हत्या के अलग-अलग प्रसंग भी आए हैं, किन्तु ‘दासहत्या’ शब्द कहीं पर भी नहीं मिलता है। इससे पता चलता है कि दास और दस्यु पर्यायवाची नहीं थे और आर्य दस्युओं का विनाश निर्ममतापूर्वक करते थे, पर दासों के प्रति उनकी नीति नरम थी।

आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनमें मुख्यत: शत्रुओं के क़िलों और दीवारों से घिरी बस्तियों को ध्वस्त किया गया। दासों और दस्युओं, दोनों ही के क़ब्ज़े में अनेक क़िलाबन्द बस्तियाँ थी[12] जिनका सम्बन्ध भी सामान्यतया आर्यों के शत्रुओं के साथ जोड़ा जाता है।[13] मालूम होता है कि घुम्मकड़ आर्यों की आँखें दुश्मनों की बस्तियों में संचित सम्पत्ति पर लगी हुई थी और उन्हें हड़पने के लिए दोनों में निरन्तर ही संघर्ष होता रहता था।[14] उपासक की कामना रहती थी कि सभी ऐसे लोगों को मार दिया जाए जो यज्ञ, हवन आदि नहीं करते हैं और उन्हें मार देने के बाद उनकी सारी सम्पत्ति लोगों में बाँट दी जाए।[15] दस्युओं को सम्पत्तिशाली[16] होने पर भी यज्ञ न करने वाला[17] कहा गया है।[18] दो ऐसे दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है जो धनलोलुप माने गए हैं।[19] कामना की गई है कि इन्द्र[20] दासों की शक्ति को क्षीण करें और उनकी एकत्रित सम्पत्ति लोगों में बाँट दें। दस्युओं के पास स्वर्ण और हीरा - जवाहरात भी थे, जिनके चलते प्राय: आर्यों का मन और भी ललच गया।[21] किन्तु आर्य जैसी पशुपालक जाति को मुख्यतया अपने दुश्मनों के पशुधन का अधिक लोभ था। तर्क दिया जाता है कि ‘कीकट’[22] गाय को रखने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि वे यज्ञ में गव्य[23] का उपयोग नहीं करते।[24] दूसरी ओर यह भी सम्भव है कि आर्यों के शत्रु उनके घोड़ों और रथों को अधिक महत्व देते थे। ऋग्वेद में एक कथा आई है कि असुरों ने राजर्षि दधीचि के नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया था, किन्तु जब असुर लौट रहे थे तो इन्द्र ने उन्हें घेरकर पराजित किया और उनसे मवेशी, घोड़े तथा रथ छीनकर राजर्षि को वापस कर दिए।[25]

आर्यों का जनजातीय जीवन

दस्युओं के रहन-सहन के ढंग से भी आर्य उनके बैरी बन गए। ऐसा लगता है कि आर्यों का पशुपालन आधारित जनजातीय और अस्थायी जीवनक्रम देशीय संस्कृति के स्थायी एवं शहरी जीवन से बेमेल था।[26] आर्यों का जीवन प्रधानतया जनजातीय जीवन था, जो गण, सभा, समिति और विदथ जैसी विभिन्न सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से रूपायित हुआ है और जिसमें यज्ञ का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। किन्तु दस्युओं को यज्ञ से कोई सरोकार नहीं था। दासों के साथ भी यही बात थी, क्योंकि इन्द्र के बारे में बताया गया है कि वह दास और आर्य का विभेद करते हुए यज्ञस्थल में आता था।[27] ऋग्वेद के सातवें मंडल का एक सम्पूर्ण सूक्त अक्रतुन, अश्रद्धान्, अयज्ञान् और अयज्वान: जैसे विशेषणों की श्रृंखला मात्र है। इनका प्रयोग दस्युओं के लिए पुरज़ोर तौर पर यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि उनको यज्ञ पसन्द नहीं था।[28] इन्द्र से कहा गया है कि वे यज्ञपरायण आर्य और यज्ञविमुख दस्युओं के बीच अन्तर करें।[29] ‘अनिंद्र’[30] शब्द का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया गया है, [31] और अनुमानत: इससे दस्युओं, दासों और सम्भवत: कुछ भिन्न मतावलम्बी आर्यों का बोध होता है। आर्यों के कथनानुसार दस्यु तिलस्मी जादू करते थे।[32] ऐसा मत अथर्ववेद में विशेष रूप से व्यक्त किया गया है। यहाँ दस्युओं को भूत - पिशाच के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उन्हें यज्ञ - स्थल से भगाने की चेष्टा की गई है।[33] कहा जाता है कि ‘अंगिरस’ मुनि के पास एक परम शक्तिशाली रक्षा कवच[34] था, जिससे वह दस्युओं के क़िले को ध्वस्त कर सकते थे।[35] ऋग्वैदिक काल में उन्होंने जो लड़ाइयाँ लड़ी थीं, उनके कारण ही अथर्ववेद में दस्युओं को दुष्टात्मा के रूप में चित्रित किया गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ईश्वर के निन्दक दस्युओं को बलि वेदी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए।[36] ऐसा विश्वास था कि दस्यु विश्वासघाती होते हैं, वे आर्यों की तरह धर्म-कर्म नहीं करते और उनमें मानवता नहीं होती।[37]

आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में अन्तर

आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में जो अन्तर है, उससे आर्यों के व्रत, जिसका अर्थ सामान्यत: जीवन का सुनिश्चित ढंग होता है, के प्रति दस्युओं की क्या दृष्टि थी, इसका पता चलता है।[38] यदि व्रत और व्रात, जिसका अर्थ जनजातीय दल या समूह होता है, के बीच सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव हो तो यह कहा जा सकता है कि व्रत शब्द का अर्थ जनजातीय क़ानून या प्रथा है। दस्युओं को साधारणत: अव्रत[39] और अन्यव्रत[40] कहा गया है। ‘अपव्रत’ शब्द का प्रयोग दो स्थलों पर हुआ है, जो प्राय: दस्युओं और भिन्न मत रखने वाले आर्यों के लिए है।[41] ध्यान देने की बात है कि दासों के लिए इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग नहीं हुआ है, जिससे मालूम होता है कि वे दस्युओं की अपेक्षा आर्यों के तौर-तरीक़े अधिक पसन्द करते थे।

रंग का अन्तर

ऐसा लगता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में रंग का अन्तर था। आर्य, जो मानव[42] कहे जाते थे और अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे, कभी-कभी काले रंग वाले मनुष्यों[43] की बस्तियों में आग लगा देते थे और वे लोग संघर्ष किए बिना ही अपना सर्वस्व छोड़कर भाग खड़े होते थे।[44] आर्य देवता सोम को काले वर्ण के लोगों का हिंसक कहा गया है, जो दस्यु होते थे।[45] इन्द्र को भी काले रंग के राक्षसों[46] से संघर्ष करना पड़ा था, [47] और एक स्थल पर उन्हें पचास हज़ार काले वर्ण वालों[48] की हत्या का श्रेय दिया गया है, जिन्हें काले वर्ण का राक्षस मानते हैं।[49] इन्द्र का असुरों की काली चमड़ी उधेड़ते हुए चित्रण किया गया है।[50] इन्द्र का एक वीरतापूर्ण कार्य, जिसका कुछ ऐतिहासिक आधार हो सकता है, कृष्ण नामक योद्धा के साथ उनका युद्ध है।

कहा जाता है कि जब कृष्ण ने अपनी दस हज़ार सेना के साथ अंशुमती या यमुना पर खेमा गिराया तब इन्द्र ने मरुतों[51] को संगठित किया और पुरोहित देव बृहस्पति की सहायता से अदेवी: विश: के साथ युद्ध किया।[52] अदेवी: विश: का अर्थ सायण ने काले रंग का असुर बताया है।[53] कृष्ण को श्याम वर्ण का आर्येतर योद्धा बताया गया है, जो यादव जाति का था।[54] यह सम्भव मालूम पड़ता है, क्योंकि परवर्ती अनुश्रुति है कि इन्द्र और कृष्ण में बड़ी शत्रुता थी। ऐसा प्रसंग आया है जिसमें कृष्णगर्भा के मारे जाने की चर्चा है, जिसका अर्थ संशयपूर्वक सायण ने कृष्ण नामक असुर की गर्भवती पत्नियाँ बताया है।[55] इसी प्रकार से इन्द्र द्वारा कृष्णयोनि: दासी: के विनाश का भी उल्लेख है।[56] सायण की उर्वर कल्पना ने उन्हें निकृष्ट जाति की आसुरी सेना[57] माना है, किन्तु विल्सन कृष्ण को श्याम वर्ण का द्योतक मानते हैं। यदि विल्सन का अर्थ सही माना जाए तो यह स्पष्ट है कि दास काले रंग के होते थे। किन्तु हो सकता है कि उन्हें उसी प्रकार काले रंग का कहा गया हो, जिस प्रकार दस्युओं और आर्यों के अन्य शत्रुओं को कहा गया है। उपर्युक्त प्रसंगों से निस्संदेह यह स्पष्ट होता है कि अग्नि और सोम के उपासक आर्यों को भारत के काले लोगों से युद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद में एक प्रसंग आया है, जिसमें ‘पुरुकुत्स’ का पुत्र ‘त्रसदस्यु’ नामक वैदिक योद्धा काले रंग के लोगों के नेता के रूप मे वर्णित है।[58] इससे यह स्पष्ट होता है कि उसने उन लोगों पर अपनी धाक जमा रखी थी।

यदि दस्युओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त अनास[59] शब्द का अर्थ नासाविहीन या चिपटी नाकवाला किया जाए और दासों के प्रसंग में प्रयुक्त वृषशिप्र शब्द[60] का अर्थ ‘वृषभ ओष्ठवाला’ या उभरे ओठोंवाला माना जाए तो यह माजूल पड़ेगा कि मुखाकृतियों की दृष्टि से आर्यों के शत्रु उनसे भिन्न प्रकार के थे।

­ऋग्वेद में ‘मृध्रवाक’ शब्द का प्रयोग विभिन्न रूप में छ: स्थलों पर हुआ है, [61] जिससे पता चलता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में बोलचाल की रीति भिन्न थी। यह दो स्थलों पर दस्युओं का विशेषण है।[62] सायण ने इसका अर्थ ‘विद्वेषपूर्ण वचन’ वाला किया है, और गेल्डनर ने इसे ‘झूठ बोलने वाले’ का पर्याय माना है।[63] इससे पता चलता है कि आर्यों और दस्युओं में कोई भाषाजन्य अन्तर था और दस्यु अपनी अनुचित वाणी से आर्यों की भावना को चोट पहुँचाते थे। अत: आर्यों और उनके दुश्मनों के बीच युद्ध में यद्यपि मुख्य प्रश्न पशु, रथ और अन्य प्रकार की सम्पत्ति को दखल करने का रहता था, फिर भी जाति, धर्म और बोलचाल की रीति में अन्तर होने के कारण भी उनके सम्बन्ध कटु बने रहते थे।

यदि ऋग्वेद में दास और दस्यु शब्द के प्रयोग की आपेक्षिक मात्रा से कोई निष्कर्ष निकाला जा सके, तो जान पड़ता है कि दस्युगण, जिनकी चर्चा चौरासी बार हुई है, स्पष्टत: दासों से अधिक संख्या में थे, जिनका उल्लेख इकसठ बार हुआ है।[64] दस्युओं के साथ युद्ध में अधिक रक्तपात हुआ। अपने विस्तार की आरम्भिक अवस्था में आर्यों को जीविकोपार्जन के लिए पशुधन की अकांक्षा रहती थी। इसलिए स्वभावतया उन्होंने नागर जीवन और संगठित कृषि का महत्व समझा।[65] ऐसा जान पड़ता है कि आर्यों के आने के पहले की नगर बस्तियाँ पूर्णत: ध्वस्त हो गई थीं। युद्ध में शत्रुओं से अपहृत वस्तुओं, ख़ासकर मवेशियों के कारण सरदारों और पुरोहितों की शक्ति बढ़ी होगी और वे ‘विश्’ से ऊपर उठे होंगे। बाद में क्रमश: उन्होंने समझा होगा कि पुरानी संस्कृति के किसानों से श्रमिकों का कार्य लिया जा सकता है और उनसे कृषि कार्य कराया जा सकता है। साथ ही अपनी जनजाति के लोगों से भी श्रमिकों का काम लेना उन्होंने धीरे-धीरे आरम्भ किया होगा।

आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच तो संघर्ष चल ही रहा था, आर्य जनजातीय समाज में भी आन्तरिक द्वन्द्व विद्यमान था। एक युद्धगीत में ‘मन्यु’,-मूर्तिमान क्रोध से याचना की गई है कि वे आर्य और दास दोनों तरह के शत्रुओं को पराजित करने में सहायक हों।[66] इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे ईश्वर से आस्था नहीं रखने वालों दासों और आर्यों से युद्ध करें; ये इन्द्र के अनुयायियों के शत्रु के रूप में वर्णित है।[67] ऋग्वेद में एक स्थल पर कहा गया है कि इन्द्र और वरुण ने सुदास के विरोधी दासों और आर्यों का संहार कर उसकी रक्षा की।[68] सज्जन और धर्मपरायण लोगों की ओर से दो मुख्य ऋग्वैदिक देवताओं, अग्नि और इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वे आर्यों और दासों के दुष्टतापूर्ण कार्यों और अत्याचारों का शमन करें।[69] क्योंकि आर्य स्वयं मानवजाति के दुश्मन थे, अत: आश्चर्य नहीं की इन्द्र ने दासों के साथ-साथ आर्यों का भी विनाश किया होगा।[70] विल्सन ने ऋग्वेद के एक परिच्छेद का जैसा अनुवाद किया है, उसे यदि स्वीकार किया जाए तो उसमें इन्द्र की भरपूर प्रशंसा की गई है, क्योंकि उन्होंने सप्तसिंधु (सात नदियों) के तट पर राक्षसों और आर्यों से लोगों की रक्षा की। उनसे यह भी अनुरोध किया गया है कि वे दासों को अस्त्र-शस्त्र विहीन कर दें।[71] ऋग्वेद में आर्य शब्द का प्रयोग छत्तीस बार हुआ है, जिनमें से नौ स्थलों पर बताया गया है कि स्वयं आर्यों में भी आपसी मतभेद थे।[72] शत्रु आर्यों की दस्युओं के साथ एक स्थल पर चर्चा है और पाँच स्थलों पर दासों के साथ, जिससे यह पता चलता है कि आर्यों के एक समूह से दस्युओं की अपेक्षा दासों का सम्बन्ध अच्छा था। आर्यों के अपने आपसी संघर्ष में दास स्वभावत: आर्यों के मित्र और सहयोगी थे। इसीलिए आर्यों के समाज का जनजातीय आधार धीरे-धीरे क्षीण होने लगा और आर्यों तथा दासों के विलयन की क्रिया को बल मिला। ऋग्वेद के आरम्भिक भाग में ऐसे पाँच प्रसंग आए हैं, जिनसे पता चलता है कि आन्तरिक संघर्षों की परम्परा बहुत ही पुरानी थी।

आर्यों में बहुत पहले जो आन्तरिक संघर्ष हुए थे, उनका सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण ‘दाशराज्ञ’ युद्ध है, जो ऋग्वेद में एकमात्र महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। गेल्डनर के अनुसार ऋग्वेद, मण्डल सात का तैंतीसवाँ सूक्त, जिसमें इस युद्ध की चर्चा की गई है, प्रारम्भिक काल से सम्बन्धित है।[73] दस राजाओं का युद्ध मुख्यत: ऋग्वेद कालीन आर्यों की दो मुख्य शाखाओं ‘पुरुओं’ और ‘भारतों’ के बीच हुआ था, जिसमें आर्येतर लोग भी सहायक के रूप में सम्मिलित हुए होंगे।[74] ऋग्वेद का सुविख्यात नायक सुदास् भारतों का नेता था और पुरोहित वसिष्ठ उसके सहायक थे। इनके शत्रु थे, पाँच प्रसिद्ध जनजातियाँ यथा, ‘अनु’, ‘द्रुह्यु’, ‘यदु’, ‘तुर्वशस्’ और ‘पुरु’ तथा पाँच गौण जनजातियाँ यथा, ‘अलिन’, ‘पक्थ’, ‘भलानस्’, ‘शिव’ और ‘विषाणिन’ के दस राजा। विरोधी गुट के सूत्रधार ऋषि विश्वामित्र थे और उसका नेतृत्व पुरुओं ने किया था। दास काले रंग के होते थे।[75] ऐसा प्रतीत होता है कि इस युद्ध में आर्यों की लघुतर जनजातियों ने अपना अलग अस्तित्व बनाए रखने का स्मरणीय प्रयास किया। पर सुदास् के नेतृत्व में भारतों ने पुरुष्णि नदी (रावी नदी) के किनारे पर उन्हें पूरी तरह से हरा दिया। इन पराजित आर्यों के साथ कैसा व्यवहार किया गया, इसका कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु अनुमान है कि उनके प्रति भी वैसा ही व्यवहार किया गया होगा, जैसा आर्येत्तर लोगों के साथ किया गया था।

यह असम्भव नहीं कि इस तरह के और भी कई अंतर्जातीय संघर्ष हुए हों, जिनका कोई वृत्तांत हमें उपलब्ध नहीं। ऐसे संघर्षों के संकेत उन प्रसंगों में मिलते हैं, जिनमें आर्यों को देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित व्रतों का भंजक माना गया है। पी. वी. काणे ने ऋग्वेद से पाँच अंश उद्धृत किए हैं, जिनका ऐसा अर्थ लगाया जा सकता है।[76] आदियुगीन ऋषि अथर्वण ने वरुण के साथ हुए संभाषण में यह दावा किया है कि मैं जो नियम बनाऊँगा उसका उल्लंघन कोई भी दास, जो आर्य से भिन्न हो, नहीं कर सकता चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो।[77] म्यूर ने ऋग्वेद से ऐसे अट्ठावन अंश उद्धृत किए हैं, जिनमें आर्य समुदाय के सदस्यों की धार्मिक शत्रुता या उदासीनता की भर्त्सना की गई है।[78] इनमें से बहुत-से परिच्छेद ऋग्वेद के मूल भाग (मंडल दो से आठ) में उपलब्ध हैं और उनसे पता चलता है कि आदिकाल में आर्यों की स्थिति कैसी थी। इनमें से कई अंश उन अनुदार व्यक्तियों के विरुद्ध हैं, जिन्हें अराधसम्[79] या अपृणत: [80] कहा गया है। एक स्थल पर इन्द्र को समृद्ध व्यक्तियों (एथमानद्विट्) का, सम्भवत: उन समृद्ध आर्यों का जिन्होंने उसकी कोई सेवा नहीं की थी, दुश्मन बताया गया है।[81] दास और आर्य अपनी सम्पत्ति छिपाकर रखते थे, जिसके चलते उनका विरोध होता था।[82] कहा जाता है कि अग्नि ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए समतल भूमि और पहाड़ियों में स्थित सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर लिया और अपनी प्रजा के दास तथा शत्रुओं को हराया।[83] इन अंशों में यह बताया गया है कि जो आर्य दुश्मन समझे जाते थे, उनकी सम्पत्ति भी (अनुमानत: मवेशी) छीन ली जाती थी और उन्हें आर्येतर लोगों की भाँति कंगाल बना दिया जाता था।

कई अनुच्छेदों में पणियों के रूप में विख्यात लोगों के प्रति सामान्यत: शत्रुतापूर्ण भाव देखने को मिलता है।[84] म्यूर ने उन्हें कंजूस माना है।[85] वैदिक इंडेक्स के प्रणेताओं के अनुसार ऋग्वेद में ‘पणि’ शब्द उस व्यक्ति का द्योतक है, जो कि सम्पत्तिवान हो, पर न तो ईश्वर को हव्य अर्पित करता हो और न ही पुरोहितों को दक्षिणा देता हो, फलत: संहिता के रचयिताओं की घृणा का पात्र हो।[86] एक अनुच्छेद में उन्हें ‘बेकनाट’ या सूदखोर (?) बताया गया है, जिन्हें इन्द्र ने पराजित किया था।[87] पणि यज्ञ करने के लिए सक्षम थे और वैरदेय (वरगेल्ड) पाने के अधिकारी भी थे। इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि वे आर्य-समुदाय के ही सदस्य थे।[88] हिलब्रांट उन्हें पर्णियों से अभिन्न मानते हैं।[89] पर्णि दहे अर्थात् अश्वारोही और लड़ाकू सीथियन जनजातियों के विशाल समुदाय के अंग थे।[90] वैदिक इंडेक्स के प्रणेता समझते हैं कि यह शब्द इतना व्यापक है कि इससे आदिवासी या विद्वेषी आर्य जनजातियों का भी बोध होता है।[91] जिन परिच्छेदों में पणियों को कंजूस बताया गया है और साधारणत: अनुदार व्यक्तियों की निंदा की गई है, उनमें से कुछ दान लोभी पुरोहितों के इशारे पर लिखे गए होंगे। किन्तु उनसे सामान्यतया पता चलता है कि अपने बांधवों का गला दबाकर भी सम्पत्ति इकट्ठा करने की प्रवृत्ति कुछ आर्यों में पाई जाती थी। ऐसे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी एकत्रित सम्पत्ति में से इन्द्र तथा अन्य देवताओं को यज्ञ में धनराशि अर्पित करें, जिससे इस धन में दूसरों को कुछ हिस्सा मिल सके[92] और जनसमुदाय को बार-बार सहभोज का अवसर मिले। पर लूट के धन का अधिकांश अंश जब वे लोग अपने पास रखने लगे तो आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म हुआ।

आर्यों के अन्य जनजातियों के साथ उनके अन्तर जनजातीय संघर्षों के कारण समाज विश्रृंखल होता गया और जैसे-जैसे पशुपालन की अपेक्षा कृषि ज़ोर पकड़ती गई, सामाजिक वर्गों की स्थापना हुई। यद्यपि ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग आर्य[93] और दास[94] के लिए हुआ है। किन्तु इससे किसी ऐसे श्रम-विभाजन का संकेत नहीं मिलता जो परवर्ती काल में समाज के व्यापक वर्गीकरण का आधार हुआ। आर्य वर्ण और दास वर्ण दो वृहद जनजातीय समूह थे, जो सामाजिक वर्गों के रूप में विघटित हो रहे थे। आर्यों के सम्बन्ध में इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। सेनार्ट की आलोचना करते हुए ओल्डेनबर्ग ने ठीक ही कहा है कि ऋग्वेद में जाति (कास्ट) की चर्चा नहीं है, [95] किन्तु इस संकलन से आरम्भिक अवस्था में सामाजिक वर्गभेद के धीरे-धीरे पनपने का आभास मिलता है। उसमें ‘ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग पन्द्रह बार और क्षत्रिय शब्द का प्रयोग नौ बार हुआ है। फिर भी, ‘जन’ और ‘विश्’[96] जैसे शब्दों के बार-बार दुहराये जाने और उनके रीति-रिवाजों से पता चलता है कि ऋग्वैदिक समाज जनजातीय था। हमें मालूम नहीं कि जब आर्य भारत में पहली बार आए तो उनके पास दास थे या नहीं। कीथ का विचार है कि वैदिक युग के भारतीय प्रधानतया पशुचारी थे।[97] कम से कम ऋग्वेद के आरम्भिक भागों में वर्णित आर्यों के बारे में यह समीचीन है। मानव संबंधी अनुसंधानों से पता चलता है कि कुछ पशुचारी जनजातियाँ भी दास रखती हैं, हालाँकि अपेक्षित अर्थ में दासप्रथा का अधिक विकसित रूप कृषक जनजातियों में दिखाई पड़ता है।[98]

इसमें सन्देह नहीं कि हड़प्पा समुदाय की शहरी आबादी में जो आर्थिक विषमता थी, वह लगभग वर्गभेद जैसी थी।[99] व्हीलर की राय है कि हड़प्पा और मेसोपोटामिया के निवासियों के बीच दास व्यापार भी हुआ करता था।[100] यह मानना युक्तिसंगत है कि हड़प्पा की शहरी आबादी का विकास निकटवर्ती देहातों के किसानों द्वारा अतिरिक्त कृषि उत्पादनों की आपूर्ति के बिना नहीं हो सकता था। सिंधु घाटी का राजनीतिक ढाँचा सुमेर के राजनीतिक ढाँचे जैसा माना गया है, जहाँ पुरोहित राजा आज्ञाशील प्रजा पर सुगठित अफ़सरशाही के माध्यम से राज्य करता था।[101] हमें मालूम नहीं कि हड़प्पा समाज के विभिन्न वर्गों और लोगों के साथ दस्युओं और दासों का कैसा सम्बन्ध था। जो भी हो, ऋग्वैदिक आर्यों के आने के पहले सैंधव सभ्यता प्राय: नष्ट हो चुकी थी। गंगा की घाटी में आर्य ज्यों-ज्यों पूरब की ओर बढ़ते गए, उन्हें सम्भवतया ताँबे के हथियार रखने वाले लोगों का मुकाबला करना पड़ा, जो उस क्षेत्र के प्राचीन निवासी थे।[102] हो सकता है कि ताम्रयुग के अन्य लोगों की भाँति ये लोग भी वर्गों में बँटे रहे होंगे। तथ्य उपलब्ध न रहने के कारण हड़प्पा समाज के बचे हुए लोगों और आर्यों के बीच क्या आदान-प्रदान हुए, यह कहना कठिन है। चाहे ये अनार्य जो भी हों, ऋग्वेद से तो लगता है कि उनके धन को आर्यों ने अवश्य लूटा। युद्ध में अपहरण की गई सम्पत्ति से जनजाति के नेताओं का ऐश्वर्य और सामाजिक दर्जा अवश्य ही बढ़ा होगा और उन्होंने मवेशी और दासियों का दान कर पुरोहितों का संरक्षण किया होगा। ऋग्वेद की दानस्तुति से यह स्पष्ट है। इस प्रकार ऋग्वेद में रथ पर जाते हुए यजमान को ‘धनवान, दाता और सभाओं में संस्तुत’ के रूप में चित्रित किया गया है।[103]

ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों के विस्तार के पहले दौर में बस्तियों और दस्युओं जैसे लोगों का विनाश इतना अधिक किया गया कि नए समाज में आर्यों के विलयन हेतु उत्तर-पश्चिमी भारत में बहुत कम ही लोग बच रहे होंगे, हालाँकि बाद में उनके विस्तार के क्रमों में ऐसी स्थिति नहीं भी रही होगी। एक ओर तो बचे हुए लोगों में से अधिकांश लोगों और विशेषत: अपेक्षाकृत पिछड़े वर्ग के लोगों को दासता स्वीकार करनी पड़ी होगी तथा दूसरी ओर आर्यों के समाज में ‘विश्’ की सहज प्रवृत्ति यही रही होगी कि निम्न वर्ग में विलयन करें। आर्य पुरोहितों और योद्धाओं की प्रवृत्ति प्राचीन समाज के उच्च वर्ग से मिल जाने की रही होगी। दो ऐसे प्रसंग मिले हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि कुछ मामलों में आर्य के दुश्मनों को इस नए और मिश्रित समाज में ऊँचा दर्जा दिया गया था। एक स्थल पर कहा गया है कि इन्द्र ने दासों को आर्य में परिवर्तित किया।[104] सायण की टीका के अनुसार उन्हें आर्यों के जीवन के तौर-तरीके सिखाए जाते थे। एक अन्य प्रसंग में चर्चा आई है कि इन्द्र ने दस्युओं को आर्य की उपाधि से वंचित कर दिया।[105] क्या इससे यह अनुमान किया जाए कि कुछ दस्युओं को आर्य की हैसियत देकर फिर उन्हें अपने आर्यविरोधी कार्यकलापों के कारण उससे वंचित कर दिया गया होगा ? इन तथ्यों के आधार पर हम अनुमान करते हैं कि बैरियों के बचे हुए पुरोहितों और प्रमुखों को आर्यों के नए समाज में उनके उपयुक्त स्थान (सम्भवत: निम्नतर कोटि का) दिया गया होगा।

कहा गया है कि ब्राह्मणवाद आर्यों से पूर्व की संस्था है।[106] सारे पुरोहित वर्ग के विषय में यह कहना कठिन है। लैटिन फ्लामेन रोमन राजाओं द्वारा स्थापित एक प्रकार के पुरोहित पद का अभिधान है, जिसका समीकरण ब्राह्मण शब्द से किया गया है।[107] इस समानता के अतिरिक्त वेदकालीन भारत के अथर्वन पुरोहित और ईरान के अथर्वन की सुपरिचित समानता है। किन्तु फिर भी एक प्रमुख आपत्ति का उत्तर देना शेष रह जाता है। कीथ का कहना है कि ऋग्वैदिक मान्यता और वैदिक देवताओं की अपेक्षाकृत बहुलता पुरोहितों के कठिन प्रयास और अपरिमित समन्वयवाद का परिणाम रही होगी।[108] इतना ही नहीं वेदों और महाकाव्यों की परम्परा से पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं, जिनसे पता चलता है कि इन्द्र ब्राह्मणघाती थे और उनका मुख्य दुश्मन ‘वृत्र’ ब्राह्मण था।[109] इससे यह परिकल्पना पुष्ट होती है कि विकसित पुरोहित प्रथा आर्यों के पहले की प्रथा थी, जिससे निष्कर्ष निकल सकता है कि जो लोग पराजित हुए वे सभी दास या शूद्र नहीं बना लिए गए। अतएव, यद्यपि ब्राह्मणवाद भारोपीय संस्था था, फिर भी आर्य विजेताओं के पुरोहित वर्ग में अधिकांश विजित जाति के लोग लिये गए होंगे।[110] उनका अनुपात क्या रहा होगा, यह बताने के लिए कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यपूर्व पुरोहितों को इस नए समाज में स्थान मिला था। यह सोचना ग़लत होगा कि सभी काले लोगों को शूद्र बना लिया गया था, क्योंकि ऐसे प्रसंग आए हैं, जिनमें काले ऋषियों की भी चर्चा है। ऋग्वेद में ‘अश्विनी’ के सम्बन्ध में जो वर्णन किया गया है, उसके अनुसार उन्होंने काले वर्ण के (श्यावाय) कण्व को गौरवर्ण की स्त्रियाँ प्रदान की थीं।[111] सम्भवत: कण्व को कृष्ण भी कहा गया है[112] और वे इन युग्म देवों को सम्बोधित सूक्तों (ऋग्वेद के मंडल आठ, सूक्त पचासी और छियासी) के द्रष्टा हैं। शायद कण्व को ही पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कृष्ण ऋषि के रूप में चित्रित किया गया है।[113] इसी प्रकार ऋग्वेद की एक ऋचा में गायक के रूप में वर्णित ‘दीर्घतमस’ काले रंग का रहा होगा, अगर यह नाम उसे काले वर्ण के कारण मिला हो।[114] यह महत्वपूर्ण है कि ऋग्वेद के कई अनुच्छेदों में वह केवल मातृमूलक नाम ‘मामतेय’ से ही चर्चित है। बाद की एक अनुश्रुति यह भी है कि उसने उशिज से विवाह किया, जो एक दास की लड़की थी और उससे काक्षीवंत् उत्पन्न हुआ।[115] पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में ऋषि दिवोदास को, जिनके नाम से ध्वनित होता है कि वे दास वंश के थे, [116] नई ऋचाओं का रचयिता बताया गया है[117] तथा दसवें मंडल में उसके सूक्त बयालिस-चौवालिस के लेखक अंगिरस को कृष्ण कहा गया है।[118] चूँकि ऊपर बताए गए अधिकांश निर्देश ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पड़ते हैं, इसीलिए यह स्पष्ट होगा कि ऋग्वैदिक काल के अन्तिम चरण में नवगठित आर्य समुदाय में कुछ काले ऋषियों और दास पुरोहितों का प्रवेश हो रहा था।

इसी प्रकार मालूम पड़ता है कि कुछ पराजित सरदारों को नए समाज में उच्च स्थान दिया गया था। दास के प्रमुखों - यथा बलबूथ और तरुक्ष से पुरोहितों ने जो उपहार ग्रहण किया, उसके चलते इन लोगों की बड़ी सराहना हुई और नए समाज में उनका दर्जा भी बढ़ा। दास उपहार प्रस्तुत करने की स्थिति में थे और उन्हें दानी समझा जाता था। यह निष्कर्ष 'दश् धातु' के अर्थ से ही निकाला जा सकता है, जिससे दास संज्ञा का निर्माण हुआ है।[119] बाद में भी विलयन की प्रक्रिया चलती रही, क्योंकि बाद के साहित्य में इस अनुश्रुति का उल्लेख है कि प्रतर्दन दैवोदासि इन्द्रलोक गए[120], और ऐतिहासिक दृष्टि से इन्द्र आर्य आक्रमणकारियों के नामधारी शासक थे।

प्राचीन ग्रन्थ इस तथ्य पर विशेष प्रकाश नहीं डालते कि सामान्य आर्यजन (विश्) और प्राचीन समाज के अवशिष्ट लोगों का आत्मसातीकरण किस प्रकार हुआ। सम्भवत: अधिकांश लोग आर्यों के समाज के चौथे वर्ण में मिला लिये गए। किन्तु पुरुष सूक्त को छोड़कर ऋग्वेद में शूद्र वर्ण का कोई प्रमाण नहीं है। हाँ, ऋग्वैदिक काल के आरम्भ में दासियों का छोटा सा आज्ञानुवर्ती समुदाय विद्यमान था। अनुमानत: आर्यों के जो शत्रु थे, उनमें पुरुषों के मारे जाने पर उनकी पत्नियाँ दासता की स्थिति में पहुँच गईं। कहा गया है कि पुरुकुत्स के बेटे त्रसदस्यु ने उपहार के रूप में पचास दासियाँ दीं।[121] अथर्ववेद के आरम्भिक अंशों में भी दासियों के सम्बन्ध में प्रमाण मिलते हैं। उसमें दासी का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उसके अनुसार उसके हाथ भीगे रहते थे, वह ओखल - मूसल कूटती थी[122] तथा गाय के गोबर[123] पर पानी छिड़कती थी। इससे पता चलता है कि वह घरेलू कार्य करती थी। इस संहिता में काली दासी का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है।[124] सन्दर्भों से पता चलता है कि आरम्भिक वैदिक समाज में दासियों से गृहकार्य कराया जाता था। दासी शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि वे पराजित दासों की स्त्रियाँ थीं।

गुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग अधिकांशत: ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पाया जाता है। प्रथम मंडल में दो जगह[125] दशम मंडल में एक जगह[126] और अष्टम मंडल में जो अतिरिक्त सूक्त (बालखिल्य) जोड़े गए हैं, उनमें से एक जगह[127] इसका प्रसंग आया है। इस प्रकार का एकमात्र प्राचीन प्रसंग आठवें मंडल में पाया जाता है।[128] ऋग्वेद में कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता, जिसका अर्थ दास लगाया जा सकता हो। इससे स्पष्ट है कि आरम्भिक ऋग्वेद काल में शायद ही पुरुष दास रहे होंगे।

उत्तर-ऋग्वेद काल में दासों की संख्या और स्वरूप के बारे में जो प्रसंग आए हैं, उनसे केवल धुँधला-सा चित्र उभरता है। बालखिल्य में सौ दासों की चर्चा आई है, जिन्हें गदहे और भेड़ की कोटि में रखा गया है।[129] बाद के एक अन्य प्रसंग में आए ‘दासप्रवर्ग’ का अर्थ सम्पत्ति या दासों का समूह किया जा सकता है।[130] इससे यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल के अन्त में दासों की संख्या बढ़ रही थी। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उन्हें किसी उत्पादन कार्य में लगाया जाता था। सम्भवत: उन्हें घरेलू नौकर की तरह रखा जाता था, जिसका मुख्य कार्य अपने मालिक की सेवा करना था, जो या तो सरदार या फिर पुरोहित होते थे। सामान्यत: ऐसे मालिक दीर्घतमस के पास दास थे।[131] इन दासों को मुक्त हाथ से किसी के भी हाथ सौंपा जा सकता था।[132] ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऋण नहीं चुका पाता था, तो उसे दास बना लिया जाता था, [133] पर ऋण में पैसे नहीं दिए जाते थे, क्योंकि सिक्के का प्रचलन नहीं था। वास्तव में दास नाम से ही प्रकट होता है कि वैदिक काल में दासता का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत युद्ध था। दास जनजाति के लोग युद्ध में विजित होने पर भी दास के नाम से ही पुकारे जाते थे, पर इससे उनकी गुलामी का बोध होता था।

दास कौन थे? साधारणत: दासों और दस्युओं को एक मान लिया जाता है। किन्तु दस्युहत्या शब्द के प्रयोग तो हैं, पर दासहत्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। आर्यों के अंतर्जातीय युद्धों में दासों को सहायक सेना के रूप में दिखाया गया है। अपव्रत, अन्यव्रत आदि के रूप में उनका वर्णन नहीं किया गया है। तीन स्थलों पर ‘दासों विशों’ का उल्लेख किया गया है; [134] और सबसे बढ़कर तो यह कि एक सीथियन जनजाति - ईरानी दहे[135] से उनको अभिन्न दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से दासों और दस्युओं का अन्तर स्पष्ट है : दस्युओं और वैदिक आर्यों में समानता की बात बहुत ही कम आती है।[136] इसके विपरीत, दास सम्भवत: उन मिश्रित भारतीय आर्यों के अग्रिम दस्ते थे, जो उसी समय भारत आए, जब केसाइट बेबीलोनिया पहुँचे थे (1750 ई. पू.)। पुरातात्विकों का अनुमान है कि उत्तर फ़ारस से भारत की ओर लोगों का प्रस्थान या तो निरन्तर होता रहा अथवा उनका आगमन मुख्यत: दो बार हुआ था, जिनमें पहला आगमन 2000 ई. पू. के तुरन्त बाद हुआ था।[137] शायद इसी कारण से आर्यों ने दासों के प्रति मेल-मिलाप की नीति अपनाई और दिवोदास, बलबुथ एवं एवं तरुक्ष जैसे उनके सरदार आर्यों के दल में आसानी से आत्मसात किए जा सके। अंतर्जातीय संघर्षों में अधिकतर आर्यों के सहायक के रूप में दासों के उल्लेख का भी यही कारण है। इससे लगता है कि ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग भारत के आर्येतर निवासियों के बीच नहीं, बल्कि भारतीय आर्यों से सम्बद्ध लोगों के बीच प्रचलित था। ऋग्वेद के उत्तरवर्ती काल में दास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होने लगा था, जिससे न केवल मूल भारोपीय दासों के वंशजों, बल्कि दस्यु और राक्षस जैसे आर्य पूर्व लोगों और आर्य समुदाय के उन सदस्यों का भी बोध होता होगा, जो अपने आन्तरिक संघर्षों के कारण अकिंचनता या ग़ुलामी की स्थिति में पहुँच गए थे।

यदि आर्यों की संख्या कम होती तो पराजित लोगों पर नए अल्पसंख्यक उच्च वर्गीय शासक के रूप में अपने को स्थापित करते जैसा कि हित्तियों (हिट्टाइट), कसाइटों और मितन्नी ने पश्चिम एशिया में किया था। किन्तु ऋग्वैदिक प्रमाण इस बात के प्रतिकूल हैं।[138] न केवल पराजित लोगों की जन-हत्या, बल्कि कितनी ही आर्य जनजातियों की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है।[139] फिर, भारत के बहुत बड़े हिस्से में आर्य भाषाओं के प्रचलन से भी यह अनुमान किया जा सकता है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बड़ी तादाद में आए थे। आगे चलकर बताया गया है कि उत्तर भारत की आबादी में वैश्यों के साथ-साथ शूद्रों की संख्या बहुत अधिक थी, किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, कि वे आर्येतर भाषाएँ बोलते थे। दूसरी ओर, शूद्र के लिए यज्ञ में प्रयुक्त सम्बोधन से स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक काल में शूद्र आर्यों की भाषा समझते थे।[140] इस सम्बन्ध में महाभारत की एक अनुश्रुति महत्वपूर्ण है : ‘ब्रह्मा ने वेद के प्रतीकस्वरूप सरस्वती का निर्माण पहले चारों वर्णों के लिए किया, किन्तु शूद्र धनलिप्सा में पड़कर आज्ञानांधकार में डूब गए और वेद के प्रति उनका अधिकार जाता रहा।’ [141] वेबर की दृष्टि में इस कंडिका से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन युग में शूद्र आर्यों की भाषा बोलते थे।[142] सम्भव है कि कुछ स्वस्थानिक जनजातियों ने अपनी बोली के बदले आर्यों की बोली अपना ली हो, जैसे आधुनिक युग में बिहार की कई जनजातियों ने अपनी भाषा को छोड़कर कुर्माली और सदाना जैसी आर्य बोलियाँ अपना ली हैं। किन्तु उन्होंने जिन लोगों की भाषा अपनाई, उनकी अपेक्षा इन आदिवासियों की संख्या अवश्य ही कम रही होगी। आधुनिक युग में भी, जबकि आर्यभाषा बोलने वालों को अपनी भाषा और संस्कृति का प्रसार करने के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वे आर्येतर भाषाओं को मिटा नहीं पाए हैं। इन आर्येतर भाषाओं में कुछ तो अपनी सशक्त वर्णनशीलता सिद्ध कर चुकी हैं।

ऊपर बताये गए तथ्यों के आधार पर यह कहना दुस्साहस नहीं होगा कि आर्य बड़ी तादाद में भारत आए। बैरी जनजातियों के साथ मिश्रण के बावजूद, आर्य सरदारों और पुरोहितों की संख्या बहुत कम रही होगी। कालक्रम से आर्य जनजातियों के अधिकांश लोग पशुपालक और किसान बन गए और कुछ लोग श्रमिक बन गए। पर ऋग्वेद काल में आर्थिक और सामाजिक विशिष्टीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में थी। इस जनजातिप्रधान समाज में सैनिक नेताओं को अतिरिक्त अनाज या मवेशी प्राप्त करने के नियत और नियमित साधन प्राय: नहीं थे, जिससे वे और उनके धार्मिक समर्थक अपना निर्वाह और समुन्नति कर सकते। यह समाज मुख्यत: घुमन्तु और पशुचारी था, और इसमें कृषि अथवा एक जगह बसने की प्रधानता नहीं थी। अतएव अनाज की चर्चा दान के रूप में भी नहीं आई है, और कर देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। युद्ध में पराजित लोगों से उपहार के रूप में या लूटपाट से जो सम्पत्ति आर्य समुदाय को प्राप्त होती थी, वही उनकी आमदनी थी और प्राय: इस सम्पत्ति में भी उन्हें जनजाति के सदस्यों को हिस्सा देना पड़ता था।[143] ऋग्वेद में केवल बलि ही एक शब्द है, जो एक प्रकार से कर का द्योतक है। साधारणतया इसका तात्पर्य है, ‘देवता को अर्पित चढ़ावा’,[144] किन्तु इसका प्रयोग राजा को दिये गए उपहार के रूप में किया जाता है।[145] अनुमान है कि बलि का भुगतान करना ऐच्छिक था, [146] क्योंकि लोगों से इसकी वसूली के लिए कोई करवसूली संगठन नहीं था। जनजातीय राजा द्वारा अपने योद्धाओं और पुरोहितों को अनाज या भूमि के दान का दृष्टान्त नहीं मिलता। इसका कारण शायद यह था कि भूमि पूरे जनसमुदाय की सम्पत्ति थी। ऋग्वैदिक समाज एक प्रकार का समतावादी समाज था, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि पुरुष या स्त्री, प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही वैरदेय प्राप्त करने का परंपरासिद्ध अधिकार प्राप्त था, [147] जो एक सौ गायों के बराबर था।[148]

सारांश यह कि ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में वर्णित समाज में गहरे वर्गभेद का अभाव था, जैसा सामान्यतया प्रारम्भिक आदिम समाजों में देखने को मिलता है।[149] प्राय: पुराणों में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के विषय में जो अनुमान किये गए हैं, वे उस स्थिति का ही उल्लेख करते हैं। इन अनुमानों के अनुसार त्रेता युग का आरम्भ होने तक न तो कोई वर्णव्यवस्था थी, न कोई व्यक्ति लालची था और न ही लोगों में दूसरे की वस्तु चुरा लेने की प्रवृत्ति थी।[150] किन्तु अति प्राचीन काल में भी सैनिकों, नेताओं और पुरोहितों के मंथर उदभव के साथ-साथ खेतिहर किसान और हस्तकलाओं का व्यवसाय करने वाले कारीगर या शिल्पी जैसे वर्गों का भी उदभव हुआ। बुनकर (जुलाहे), चर्मकार, बढ़ई और चित्रकार के लिए एक ही ढंग के शब्दों का प्रयोग उनके भारोपीय उदभव का संकेत देता है।[151] रथ के लिए एक भारोपीय शब्द के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि भारोपीय लोग रथ का निर्माण करना जानते रहे होंगे।[152] किन्तु ऋग्वेद में जहाँ पहले के अनेकानेक परिच्छेदों में बढ़ई के कार्य की चर्चा हुई है, वहीं रथकार शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई पड़ता।[153] अथर्ववेद से संकेत मिलता है कि रथनिर्माता (रथकार) और धातुकर्म करने वाले (कर्मार) को समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसी ग्रन्थ के आरम्भिक भाग में नवनिर्वाचित राजा पर्णमणि (पादपीयताबीज) से प्रार्थना करता है कि वह आसपास रहने वाले कुशल रथ निर्माताओं और धातुकर्म करने वालों के बीच उसकी स्थिति सुदृढ़ करने में सहायक हों। प्रार्थना का उद्देश्य शिल्पियों को राजा का सहायक बनाना है[154] और इस दृष्टि से वे राजाओं, राजविधाताओं, सूतों और दलपतियों (ग्रामणी) के समकक्ष मालूम पड़ते हैं, [155] जो सब राजा के आसपास रहते हैं और जो राजा के सहायक माने जाते हैं।[156]

टीका टिप्पणी

  1. आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84
  2. वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10
  3. जे. म्यूर: ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स’, 2, पृष्ठ 387. म्यूर का विचार है कि यह बताने के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि वे आर्यों से भिन्न थे।
  4. ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’ अथर्ववेद, XX, 34. 4.
  5. ऋग्वेद, V. 34.6-‘यशावशं नयति दासमार्य:’
  6. ऋग्वेद, II. 13.8.-‘दासवेशाय चाव:’ सायण ने इसकी टीका दासों के विनाश के रूप में की है, किन्तु वैदिक इंडेक्स, I, 358, इसे दास का नाम मानता है।
  7. ऋग्वेद, II. 11.4; VI. 25.2; और X. 148.2
  8. ऋग्वेद, IV. 28.4
  9. ऋग्वेद, III. 34.9- हत्वी दस्यून प्रार्यं वर्णमावत; अथर्ववेद, XX. 11.9 (पिप्पलाद संस्करण में नहीं)
  10. ऋग्वेद, I, अथर्ववेद XX. 20.4
  11. ऋग्वेद, I. 51.5-6, 103.4; X.95.7, 99.7 में दस्यता शब्द आया है, दस्युधुन शब्द ऋग्वेद, VI. 16.10 में, दस्युहन शब्द ऋग्वेद, X. 47.4 में दस्युहंतम् शब्द ऋग्वेद, IV. 16.15, VIII. 39.8 में आया है और वाजसनेयी संहिता, XI. 34 में उसकी पुनरावृत्ति की गई है। आर्यों और दस्युओं में शत्रुता के कई प्रसंग आए हैं, यथा, ऋग्वेद, V. 7.10, VII. 5.6 आदि। ऋग्वेद, 1.100. 12, VI. 45.24; VIII. 76.11, 77.3 में इंद्र को दस्युहा कहा गया है। इंद्र द्वारा दस्युओं की हत्या के ऐसे ही कई प्रसंग अथर्ववेद III. 10-12; VIII. 8.5, 7; IX. 2.17 और 18; X. 3. 11; XIX. 46.2, XX. 11.6; 21.4, 29.4, 34.10, 37.4, 42.2, 64.3, 78.3 में आए हैं और अग्नि द्वारा दस्युओं की हत्या के प्रसंग अथर्ववेद में I. 7. 1. XI. 1.2 में आए हैं। अथर्ववेद, VI. 32.3 में मन्यु को दस्युहा कहा गया है।
  12. ऋग्वेद, I. 103.3; II. 19.6; IV. 30.20; VI. 20.10, 31.4.
  13. ऋग्वेद, I. 33.13, 53.8; VIII. 17.4.
  14. ऋग्वेद, IV. 30.13; V. 40.6; X. 69.6.
  15. ऋग्वेद, 176.4, 'अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदो हते'.
  16. धनिन:
  17. अक्रतु
  18. ऋग्वेद, I. 33.4.
  19. ऋग्वेद,VI. 47.21.
  20. ऋग्वेद, VIII. 40.6, 'वयं तदस्य सम्भृतं वसु इद्रेण विभजेमहि'.
  21. ऋग्वेद, I. 33.7-8.
  22. हरियाणा में रहने वाली एक जाति
  23. दुग्धोत्पादित वस्तुओं
  24. ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्'
  25. ऋग्वेद, II. 15.4.
  26. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I पृ. 90-91.
  27. ऋग्वेद, X. 86.19; अथर्ववेद, XX. 126.19.
  28. ऋग्वेद, VII. 6.3.
  29. ऋग्वेद, I. 51.8.
  30. इन्द्र को न मानने वाला
  31. ऋग्वेद, I. 133.1; V. 2.3; VII. 1.8.16; X. 27.6; X. 48.7.
  32. ऋग्वेद, IV. 16.9.
  33. अथर्ववेद, II. 14.5.
  34. ताबीज
  35. अथर्ववेद, X. 6.20.
  36. अथर्ववेद, XII. 1.37.
  37. ऋग्वेद, X. 22.8.
  38. पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. पृ. 12.
  39. ऋग्वेद, I. 51.8-9; I. 101.2; I. 175.3; VI. 14.3; IX. 41.2. किन्तु ‘अव्रत’ शब्द का प्रयोग कहीं पर भी दास के लिए नहीं किया गया है।
  40. ऋग्वेद, VIII. 70.11; X. 22.8.
  41. ऋग्वेद, V. 42.9; V. 40.6 में ‘अपव्रत’ शब्द का अर्थ काला माना गया है।
  42. मानुषी प्रजा
  43. असिक्नीविश:
  44. ऋग्वेद, VII. 5.2-3.। गेल्डर का अनुवाद; बी. लाल : ‘एनशियंट इण्डिया’, 9, पृ. 88. राणा घुंडई III. में हड़प्पा संस्कृति का अन्त भीषण अग्निकांड में हुआ।
  45. ऋग्वेद, IX, 41.1-2. ‘ध्नन्त: कृष्णं आप त्वचं....साह्वाम्से दास्युमव्रतम्’.
  46. त्वचमसिक्नीम्
  47. ऋग्वेद, IX. 73.5.
  48. कृष्ण
  49. ऋग्वेद, IV. 16.13. किन्तु गेल्डनर ने इस सन्दर्भ में राक्षस का ज़िक्र नहीं किया है।
  50. ऋग्वेद, I. 130.8.
  51. आर्यविश्
  52. ऋग्वेद, VIII, 96.13-15. ‘अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे धारयतल्वम्, तित्विषाण:; विशो अदेविर्भ्या चरन्तिर् बृहस्पतिना युजेन्द्र: ससाहे’.
  53. कृष्णरूपा: असुरसेना:।
  54. कोसंबी : ‘जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी’, बम्बई, न्यू सीरीज, XXVII, 43.
  55. ऋग्वेद, I. 101.1. ‘य: कृष्णगर्भनिरहन्नृजिश्वाना’.
  56. ऋग्वेद, 20.7. ‘सवृत्रहेन्द्र: कृष्णयोनि: पुरन्दर ओदासीरैर्याद्वि’....सायण की टीका.। किन्तु गेल्डनर का सुझाव है कि दासों में पुर: अंतर्निहित है और कवि गर्भाधान की बात सोचता है।
  57. निकृष्ट जाती:.....आसुरी: सेना:
  58. ऋग्वेद, VIII. 19.36-37.
  59. ऋग्वेद, V. 29.10. सायण अनास की व्याख्या वाणीविहीन (आस्यरहित) के अर्थ में करते हैं।
  60. ऋग्वेद, VII 99.4.
  61. ऋग्वेद, I. 174.2; V. 29.10, 32.8; VII. 6.3, 18.13. चार स्थानों पर नहीं, जैसा कि ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 71 में है।
  62. ऋग्वेद, V. 29.10; VII. 6.3.
  63. ऋग्वेद, I. 174.2.
  64. यह गिनती विश्वबंधु शास्त्री के वैदिक कोश पर आधारित है।
  65. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I, पृष्ठ 8. व्हीलर की राय है कि असभ्य खानाबदोशों (अर्थात् आर्यों) की चढ़ाई के कारण संगठित कृषि बिखर गई, पर अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं, जिनक आधार पर कहा जाए कि सैंधव शहरी सभ्यता के लोगों और आर्यों के बीच जमकर लड़ाई हुई।
  66. ऋग्वेद, X 83.1. ‘साह्यम दासमार्यं त्वयायुजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता’, जो अथर्ववेद, IV. 32.1 जैसा ही है।
  67. ऋग्वेद, X. 38.3; देखें अथर्ववेद, XX. 36.10.
  68. ऋग्वेद, VII. 83.1. ‘दासाच वृत्रा हतमार्याणि च सुदासम् इन्द्रावरुणावसावतम्’।
  69. ऋग्वेद, VI. 60.6.
  70. ऋग्वेद, VI. 33.3; ऋग्वेद X. 102.3.
  71. ऋग्वेद, VIII. 24.27. ‘य ऋक्षादंहसो मुचद्योवार्यात् सप्तसिन्धुषु; वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनम्;’ गेल्डनर इस परिच्छेद का अर्थ लगाते हैं कि इंद्र ने दासों के अस्त्रों को आर्यों से विमुख कर दिया है।
  72. ऋग्वेद, VI. 33.3; 60.6; VII. 83.1; VIII. 24.27 (विवादास्पद कंडिका); X. 38.3, 69.6, 83.1, 86.19, 102.3. इनमें से चार निर्देशों को अंबेडकर ने सही रूप में उद्धृत किया है। अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़ पृष्ठ 83-4.
  73. वैदिक इंडेक्स, I. , ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’
  74. ऋग्वेद, VII. 33.2-5, 83.8. वास्तविक युद्ध-स्तुति ऋग्वेद, VII. 18 में है।
  75. आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, पृष्ठ 245.। अन्य आर्यों के प्रति बैरभाव के कारण पुरुओं को ऋग्वेद, XII. 18.13 में मृध्रवाच: कहा गया है।
  76. पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. 11.)
  77. अथर्ववेद, V. 11.3; पैप्पलाद, VIII. 1.3. ‘नमे दासोनार्यों महीत्वा व्रतं मीमाय यदहम् धरिष्ये’।
  78. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.
  79. ऋग्वेद, I. 84.8.
  80. ऋग्वेद, VI. 44.11.
  81. ऋग्वेद, VI. 47.16; जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.)
  82. ऋग्वेद, VIII. 51.9. ‘यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवाधिपा अरि:’ इस अनुच्छेद पर सायण की टिप्पणी में, और वाजसनेयी संहिता, XXXIII. के एक ऐसे ही अनुच्छेद पर उवट तथा महीधर की टिप्पणी में भी दास को ‘आर्य’ का विशेषण माना गया है, किन्तु गेल्डनर (ऋग्वेद, VIII. 51.9) आर्य और दास को दो अलग-अलग संज्ञा मानते हैं। हर हालत में यह स्पष्ट है कि आर्यों का भी विरोध होता था।
  83. ऋग्वेद, X. 69.6. ‘समज्रया पर्वत्या वसूनि दासा वृत्राण्यार्या जिगेथ’
  84. ऋग्वेद, I. 124.10; 182.3; IV. 25.7, 51.3; V. 34.7; VI. 13.3, 53.6-7.
  85. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.
  86. वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 471.
  87. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294., ऋग्वेद, VIII. 66.10.
  88. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  89. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  90. गीर्समन, ईरान, पृष्ठ 243.
  91. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  92. ऋग्वेद, VIII. 40.6.
  93. ऋग्वेद, III. 34.9.
  94. ऋग्वेद, I. 104.2; III. 34.9. ‘देवासो मन्युं दासस्य श्चमन्ते न आवक्षन्त्सुविताय वर्णम्’
  95. साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन मेर्ग्रेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, II. 272.
  96. जन का उल्लेख लगभग 275 बार और विश् का उल्लेख 170 बार हुआ है।
  97. ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया, पृष्ठ 99.
  98. लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ दी सोशल क्लासेज’, पृष्ठ 230.
  99. चाइल्ड : द मोस्ट एनशिएंट ईस्ट, पृष्ठ 175.
  100. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, (सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I), पृष्ठ 94.
  101. मैके : ‘अर्ली इंडस सिविलिजेशंस’, पृष्ठ XII-XIII.
  102. लाल : ‘एनशिएंट इण्डिया’, सं. 9, पृष्ठ 93.
  103. ऋग्वेद, II. 27.12.
  104. ऋग्वेद, VI. 22.1. ‘यया दासार्न्याणि वृत्र करो वज्रिन्त्सुलूका नाहुषाणि’।
  105. ऋग्वेद, X. 49.3. ‘अहं शूष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्य नाम दस्यवे’।
  106. पार्जिटर : ‘एनशिएंट इण्डियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन’, पृष्ठ 306-8.
  107. ड्युमेजिल : ‘फ्लामेन ब्राह्मण’, अध्याय II. और III. एक अन्य निर्देश के लिए देखें, पाल थिमे; (साइटशिफ्ट डेर डोय्वेन मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, एन. एफ. 27 पृष्ठ 91-129)
  108. ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, I. 103
  109. डब्ल्यू, रयूबेन : ‘इन्द्राज़ फाइट अगेन्स्ट वृत्र इन द महाभारत’ (एस. के. बेल्वल्कर कमेमोरेशन वॉल्यूम, पृष्ठ 116-8), धर्मानंद कोसंबी, ‘भगवान बुद्ध’, पृष्ठ 24
  110. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, न्यू सीरीज, XXII. 35)
  111. ऋग्वेद I. 117-8. किन्तु सायण ‘श्यावाय’ को ‘कुष्ठरोगेण श्यामवर्णाय’ बताते हैं।
  112. ऋग्वेद, VIII. 85.3-4. ऋग्वेद, VIII. 50.10 में भी कण्व का उल्लेख है।
  113. ऋग्वेद, I. 116-23; ऋग्वेद I. 117.7 । पार्जिटर मानते हैं कि काण्वायन ही वास्तविक ब्राह्मण हैं : डायनेस्टीज़ ऑफ़ द कलि एज, पृष्ठ 35.
  114. ऋग्वेद, I. 158.6. अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़?, पृष्ठ 77.
  115. ‘वैदिक इंडेक्स’, I. 366.। शतपथ ब्राह्मण, XIV. 9.4.15 में एक ऐसी माँ का वर्णन आया है, जो काले रंग के बालक की आकांक्षा रखती है, जिसे वेद का ज्ञान हो।
  116. वैदिक इंडेक्स, I. 363., हिलब्रांट का सुझाव
  117. ऋग्वेद, I. 130.10.
  118. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ एशियाटिक सोसायटी, बम्बई न्यू सीरीज, XXVI. 44.)
  119. मोनियर-विलियम्स : संस्कृत - इंग्लिश डिक्शनरी, देखें दास, दाश।
  120. कौषतकि उपनिषद III. 1. वैदिक इंडेक्स में उद्धृत, II. 30.
  121. ऋग्वेद, VIII. 19.36.
  122. अथर्ववेद, XII. 3.13; पैप्प, XVII. 37.3, ‘यद्वा दास्यार्द्रहस्ता समंत उलूखलं मुसलम् शुम्भताप:’।
  123. अथर्ववेद, XII. 4.9; पैप्प. के एक ऐसे ही परिच्छेद XVII. 16.9 में दासी शब्द के स्थान पर देवी लिया गया है।
  124. अथर्ववेद, V. 13.8.
  125. ऋग्वेद, I. 92.8, 158.5 गेल्डनर के अनुवाद के अनुसार।
  126. ऋग्वेद, X. 62.10.
  127. ऋग्वेद, VIII. 56.3.
  128. ऋग्वेद, VII. 86.7.। हिलब्रांट इसे संदिग्ध मानते हैं। उन्होंने ग़लत ढंग से VII. 86.3 में ‘कदाचित’ जोड़ दिया है, जो होना चाहिए VII. 86.7. ‘साइटश्रिफ्ट फ्यूर इंडोलोगिअ उंड ईरोनिस्टिक लाइपत्सिख्’ III. 16.
  129. ऋग्वेद, VIII. 56.3. ‘शतं में गर्दभानां शतमूर्णावतीनां, शत दासा अति स्रज:’ 100 रूढ़ संख्या हो सकती है।
  130. ऋग्वेद, I. 92.8. ‘उषसिआमस्यां यषसंसुवीरं दासप्रवर्ग रयिमश्व बुध्यम्’।
  131. ऋग्वेद, I. 158.5-6.
  132. ऋग्वेद, X. 62.10. ‘उत् दासा परिविधेऽस्मद् दिष्टि गोपरिणसा: यदुस् तुर्वश् च मामहे’।
  133. ऋग्वेद, X. 34.4.
  134. ऋग्वेद, II. 11.4, IV. 28.4 और VI. 25.2; दत्त : ‘स्टडीज़ इन हिन्दू सोशल पालिटी’, पृष्ठ 334, बी.एन. दत्त का विचार है कि ऋग्वेद VI. 25.2 में दासविश् का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि दास को वैश्य कोटि में रखा गया है। किन्तु चूँकि उस समय वैश्य समाज के एक वर्ग के रूप में नहीं थे, इसीलिए यहाँ विश् को एक जनजाति विशेष माना जा सकता है।
  135. ऋग्वेद, VI, I, 357, ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्', जाति और भाषा की दृष्टि से दहे ईरानियों के बहुत निकट रहे होंगे, किन्तु यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हो पाया है; वही, त्सिम्मर ने हेरोडोट्स के दआई या दाअई, i. 126 को तूरानियन जनजाति का बताया है।
  136. शेफर : ‘एथनोग्राफ़ी इन एनशिएंट इण्डिया’, पृष्ठ 32, कहा गया है कि सामाजिक स्तर पर दास और आर्य का स्थान दस्यु भीलों से ऊपर था।
  137. स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, जिल्द XXIV, सं. 96, 218 लाल : एनशिएंट इण्डिया, दिल्ली, सं. 9, पृष्ठ 90-91. लाल का कथन है कि दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में शाही टुंप (आधनिक बलूचिस्तान) में और दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के उत्तरार्द्ध में फ़ोर्ट मुनरो (अफ़ग़ानिस्तान) में लोग झुंड के झुंड आए।
  138. वैदिक इंडेक्स, ii, पृष्ठ 255, ऋग्वेद, VI. 44.11, देखें, वर्ण शब्द।
  139. आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, ऋग्वैदिक जातियों के लिये देखें, पृष्ठ 245-248 और वैदिक कालीन जातियों के लिए पृष्ठ 252-262.
  140. शतपथ ब्राह्मण, I. 1.4.11-12.
  141. महाभारत, शान्ति पर्व, 181.15, ‘वर्णश्चत्वार : एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती, विहिता ब्रह्मणा पूर्वा लोभात्वज्ञानतां गत:’।
  142. वेबर, इंडिश स्टुडियेन, II, 94 पाद टिप्पणी
  143. आर.एस. शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 434-5; XXXIX, 418-9).
  144. ऋग्वेद, I. 70.9; V. 1.10; VIII. 100.9.
  145. ऋग्वेद, VII. 6.5; X. 173.6, बलिहृत (कर देना).
  146. वैदिक इंडेक्स, II. 62. त्सिम्मर के विचार।
  147. मैक्समूलर : ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट’, XXXII. 361. ऋग्वेद का अनुवाद, V. 61.8.
  148. वैदिक इंडेक्स, II. 331.
  149. लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ द सोशल क्लासेज’,, पृष्ठ 5-12 में दिए गए उदाहरण। उन्होंने पूर्व भारत के नागाओं और कूकियों में वर्गभेद के अभाव का भी उल्लेख किया है (पृष्ठ 11)।
  150. वायु पुराण, I. VIII. 60; देखें, दीघ निकाय, अगञ्ञसुत्त, ‘वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च न तदासन्नसंकर: न लिप्सन्ति हि तेऽन्योन्यन्नानुगृहणन्ति चैव हि’।
  151. कार्ल डार्लिंग : ‘ए डिक्शनरी ऑफ़ सिलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज’, चर्म (चर्मन् के लिए देखें पृष्ठ 40, बुनाई के लिए पृष्ठ 408, तक्षन् के लिए पृष्ठ 589-90 और वेणीकार के लिए पृष्ठ 621-22; चाइंल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86.)
  152. चाइल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86 और 92.
  153. ऋग्वेद, IV. 35.6, 36.5; VI. 32.1.
  154. अथर्ववेद, III 5.6; ‘ये धीवानो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण: उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वम् सर्वानकृण्वभितो जनान्’। यहाँ ब्लूमफ़ील्ड के अनुवाद का अनुसरण किया गया है। व्हिटने ने ब्लूमफ़ील्ड जैसा ही अनुवाद प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्होंने सायण के विचारानुसार उपस्तिन् को प्रजा के अर्थ में लिया है। सायण धीवान: और मनीषिण: को अलग-अलग संज्ञा मानते हैं, जिनका अर्थ मछुआ और बुद्धिजीवी किया गया है। पैप्प. ग्रन्थ में थोड़ा सा पाठभेद है, ‘ये तक्षाणो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण:, सर्वांस तान्पर्ण रंघयोपस्तिं कृणु मेदिनम्’। III. 13.7.
  155. ‘वेदिक इंडेक्स’, I. पृष्ठ 247; सम्भवत: वह असैनिक और सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों के लिए गाँव का प्रधान था।
  156. अथर्ववेद, III. 5.7.