"सुल्तान": अवतरणों में अंतर
आदित्य चौधरी (वार्ता | योगदान) छो (Adding category Category:दिल्ली सल्तनत (को हटा दिया गया हैं।)) |
आदित्य चौधरी (वार्ता | योगदान) छो (Adding category Category:इतिहास कोश (को हटा दिया गया हैं।)) |
||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
[[Category:नया पन्ना सितंबर-2011]] | [[Category:नया पन्ना सितंबर-2011]] | ||
[[Category:दिल्ली सल्तनत]] | [[Category:दिल्ली सल्तनत]] | ||
[[Category:इतिहास कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
12:55, 7 सितम्बर 2011 का अवतरण
भारत के इतिहास में 'सुल्तान की उपाधि' तुर्की शासकों द्वारा प्रारम्भ की गयी। महमूद ग़ज़नवी ऐसा पहला शासक था, जिसने सुल्तान की उपाधि धारण की। दिल्ली में अधिकांश ने अपने को ख़लीफ़ा का नायक पुकारा, परन्तु क़ुतुबुद्दीन मुबारक़ ख़िलजी ने स्वयं को ख़लीफ़ा घोषित किया। ख़िज़्र ख़ाँ ने तैमूर के पुत्र शाहरख़ का प्रभुत्व स्वीकार किया और 'रैय्यत-ए-आला' की उपधि धारण की। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी मुबारक़ शाह ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया और 'शाह सुल्तान' की उपाधि ग्रहण की। सुल्तान केन्द्रीय प्रशासन का मुखिया होता था। सल्तनत काल में उत्तराधिकार का कोई निश्चत नियम नहीं था, किन्तु सुल्तान को यह अधिकार होता था कि, वह अपने बच्चों में किसी एक को भी अपना उत्तराधिकारी चुन सकता था। सुल्तान द्वारा चुना गया उत्तराधिकारी यदि अयोग्य है तो, ऐसी स्थिति में सरदार नये सुल्तान का चुनाव करते थे। कभी-कभी शक्ति के प्रयोग से सिंहासन पर अधिकारी किया जाता था। दिल्ली सल्तनत में सुल्तान पूर्ण रूप से निरंकुश होता था। उसकी सम्पूर्ण शक्ति सैनिक बल पर निर्भर करती थी। सुल्तान सेना का सर्वोच्च सेनापति एवं न्यायालय का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। सुल्तान ‘शरीयत’ के अधीन ही कार्य करता था।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख