"बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-3 ब्राह्मण-4": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "==संबंधित लेख==" to "==संबंधित लेख== {{बृहदारण्यकोपनिषद}}") |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "Category:उपनिषद" to "Category:उपनिषदCategory:संस्कृत साहित्य") |
||
पंक्ति 19: | पंक्ति 19: | ||
[[Category:बृहदारण्यकोपनिषद]] | [[Category:बृहदारण्यकोपनिषद]] | ||
[[Category:दर्शन कोश]] | [[Category:दर्शन कोश]] | ||
[[Category:उपनिषद]] | [[Category:उपनिषद]][[Category:संस्कृत साहित्य]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
13:43, 13 अक्टूबर 2011 का अवतरण
- बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय तीसरा का यह चौथा ब्राह्मण है।
मुख्य लेख : बृहदारण्यकोपनिषद
- इस ब्राह्मण में चक्र-पुत्र उषस्त ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते हैं।
उषस्त—'हे ऋषिवर! जो प्रत्यक्ष और साक्षात् 'ब्रह्मा' है और समस्त जीवों में स्थित 'आत्मा' है, उसके विषय में बताइये?'
याज्ञवल्क्य—'तुम्हारी आत्मा ही सभी जीवों के अन्तर में विराजमान है। जो प्राण के द्वारा जीवन-प्रक्रिया है, वही प्रत्यक्ष ब्रह्म का स्वरूप' आत्मा' है।'
उषस्त—'आप हमें साक्षात प्रत्यक्ष 'ब्रह्म' को और सर्वान्तर 'आत्मा' को स्पष्ट करके बतायें।'
याज्ञवल्क्य—'तुम्हारी आत्मा ही सर्वान्तर में प्रतिष्ठित है। दृष्टि देने वाले दृष्टा को देख सकना, श्रुति के श्रोता को सुन सकना, मति के मन्ता को मनन करना, विज्ञाति के विज्ञाता को जान सकना तुम्हारे लिए असम्भव है। तुम्हारी 'आत्मा' ही सर्वान्तर ब्रह्म है और शेष सब कुछ नाशवान है।' यह सुनने के बाद उषस्त मौन हो गये।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख