"बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-3 ब्राह्मण-8": अवतरणों में अंतर
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13:43, 13 अक्टूबर 2011 का अवतरण
- बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय तीसरा का यह आठवाँ ब्राह्मण है।
- सभा की अनुमति लेकर वाचक्रवी गार्गी ने दो प्रश्न याज्ञवल्क्य से पुन: पूछे। यहाँ उन्हीं का वर्णन है।
गार्गी—'हे ऋषिवर! जो द्युलोक से ऊपर है और पृथ्वी लोक से नीचे है तथा 'द्यु' और 'पृथ्वी' के मध्य भाग में स्थित है और जो स्वयं 'द्यु' और 'पृथ्वी' है तथा जो स्वयं भूत, भविष्य और वर्तमान है, वह किसमें ओत-प्रोत है?'
याज्ञवल्क्य—'हे गार्गी! द्युलोक से ऊपर, पृथ्वी से नीचे तथा 'द्यु' औ पृथ्वी के मध्य भाग में जो स्थित है और जो स्वयं भी 'द्यु' और 'पृथ्वी' है और जो भूत, भविष्य और वर्तमान कहलाता है, वह आकाश में ओत-प्रोत है।'
गार्गी—'हे ऋषिवर! तो फिर यह आकाश किसमें ओतप्रोत है?'
याज्ञवल्क्य—'हे गार्गी! उस तत्त्व को ब्रह्मवेत्ता 'अक्षर' कहते हैं। वह न स्थूल है, न सूक्ष्म है, न छोटा है, न लम्बा है, न लाल है, न चिकना है, न छाया है, न अन्धकार है, न वायु है और न आकाश है। वह गन्ध और रस से हीन है। वह बिना नेत्रों के, बिना कानों के, बिना वाणी के, बिना मन के, बिना तेज़ के, बिना प्राण है और उसका न कोई मुख है, न उसका कोई माप है और उसका आदि-अन्त भी नहीं है। वह न भीतर है, न बाहर है, न कुछ खाता है और न कोई उसे भक्षण कर सकता है। हे गार्गी! इस 'अक्षरब्रह्म' के अनुशासन में सूर्य, चन्द्र, द्युलोक, पृथ्वी, निमेष, मुहूर्त, रात-दिन, अर्धमास, मास, ऋतु संवत्सर आदि स्थित हैं। इसी अक्षर के अनुशासन में विभिन्न नदियां पर्वतों से निकलकर पूर्व-पश्चिम दिशाओं में बहती हैं। इस अक्षरब्रह्म के अनुशासन में ही उस 'परब्रह्म' की- मानव ही नहीं- देवता भी प्रशंसा करते हैं।'
याज्ञवल्क्य ने पुन: कहा-'हे गार्गी! इस 'अक्षरब्रह्म' को न जानकर, जो इस लोक में यज्ञादि कर्मकाण्ड करता है, हज़ारों वर्षों तक तप करके पुण्य अर्जित करते हैं, वे सभी नाशवान हैं। इस 'अक्षरब्रह्म' (अविनाशी) को जाने बिना, जो इस लोक से जाते हैं, वे 'कृपण' हैं, किन्तु जो इसे जानकर इस लोक से प्रयाण करते हैं, वे 'ब्राह्मण' हैं। हे गार्गी! यह 'अक्षरब्रह्म' स्वयं दृष्टि का विषय नहीं है, किन्तु सभी को देखने वाला है। वह सबकी सुनता है, सबका ज्ञाता है। इसी 'अक्षरब्रह्म' में यह आकाश तत्त्व ओत-प्रोत है।'
तब गार्गी ने सभासदों से कहा कि आप में से किसी में इतनी सामर्थ्य नहीं है, जो इस ब्रह्मज्ञानी को जीत सके। ऐसा कहकर वह मौन हो गयी। गार्गी के कथन को सभी ने स्वीकार किया, किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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