"सदस्य:गोविन्द राम/sandbox4": अवतरणों में अंतर
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==चतुर्दश शिलालेख== | ==चतुर्दश शिलालेख== | ||
गिरनार का द्वितीय शिलालेख | *गिरनार का द्वितीय शिलालेख | ||
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| पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।] | | पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।] | ||
| मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये। | | मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये। | ||
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*गिरनार का तृतीय शिलालेख | |||
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|+ गिरनार | |||
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! शिलालेख | |||
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| 1. | |||
| देवानंप्रियो पियदसि राजा एवं आह [।] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [।] | |||
| देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा दी गयी- | |||
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| 2. | |||
| सर्वत विजिते मम युता च राजूके प्रादेसिके च पंचसु वासेसु अनुसं- | |||
| मेरे विजित (राज्य) में सर्वत्र युक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [शासन सम्बन्धी] कामों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही | |||
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| 3. | |||
| यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा- | |||
| इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान (दौरे) को बाहर निकलें [ताकि देखें] | |||
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| 4. | |||
| य पि कंमाय [।] साधु मातिर च पितरि च सुस्त्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण- | |||
| माता और पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों, प्रशंसितों (या परचितों), सम्बन्धियों तथा ब्राह्मणों [और] | |||
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| 5. | |||
| समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [।] | |||
| श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों (जीवों) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है। | |||
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| 6. | |||
| परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [।] | |||
| परिषद भी युक्तों को [इसके] हेतु (कारण, उद्देश्य) और व्यंजन (अर्थ) के अनुसार गणना (हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण) की आज्ञा देगी। | |||
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12:02, 8 सितम्बर 2011 का अवतरण
कलिंग शिलाअभिलेख
क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
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1. | देवानं हेवं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं [ किं ] ति कं कमन | देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है- समापा में महामात्र (तोसली संस्करण में- कुमार और महामात्र) राजवचन द्वारा (यों) कहे जायँ- जो कुछ मैं देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा |
चतुर्दश शिलालेख
- गिरनार का द्वितीय शिलालेख
क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
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1. | सर्वत विजिततम्हि देवानं प्रियस पियदसिनो राञो | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के विजित (राज्य) में सर्वत्र तथा |
2. | एवमपि प्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब- | ऐसे ही जो (उसके) अंत (प्रत्यंत) हैं यथा-चोड़ (चोल), पाँड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र (एवं) ताम्रपर्णी तक (और) |
3. | पंणी अंतियोको योनराजा ये वा पि तस अंतियोकस सामीपं | अतियोक नामक यवनराज, तथा जो भी अन्य इस अंतियोक के आसपास (समीप) राजा (हैं, उनके यहाँ) सर्वत्र |
4. | राजनों सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा दो (प्रकार की) चिकित्साएँ (व्यवस्थित) हुई- |
5. | मनुस-चिकीछाच पशु-चिकिछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च। | मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। मनुष्योपयोगी और |
6. | पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] | पशु-उपयोगी जो औषधियाँ भी जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लायी गयीं और रोपी गयीं। |
7. | मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] | इसी प्रकार मूल और फल जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और रोपे गये। |
8. | पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।] | मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये। |
- गिरनार का तृतीय शिलालेख
क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
---|---|---|
1. | देवानंप्रियो पियदसि राजा एवं आह [।] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [।] | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा दी गयी- |
2. | सर्वत विजिते मम युता च राजूके प्रादेसिके च पंचसु वासेसु अनुसं- | मेरे विजित (राज्य) में सर्वत्र युक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [शासन सम्बन्धी] कामों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही |
3. | यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा- | इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान (दौरे) को बाहर निकलें [ताकि देखें] |
4. | य पि कंमाय [।] साधु मातिर च पितरि च सुस्त्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण- | माता और पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों, प्रशंसितों (या परचितों), सम्बन्धियों तथा ब्राह्मणों [और] |
5. | समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [।] | श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों (जीवों) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है। |
6. | परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [।] | परिषद भी युक्तों को [इसके] हेतु (कारण, उद्देश्य) और व्यंजन (अर्थ) के अनुसार गणना (हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण) की आज्ञा देगी। |