"शिवलिंग": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Neelkantheshwar-Temple-Mathura-3.jpg|शिवलिंग, नीलकन्ठेश्वर महादेव मन्दिर, [[मथुरा]]<br /> Shivling, Neelkantheshwar Mahadev Temple, Mathura|left|thumb|200px]] | [[चित्र:Neelkantheshwar-Temple-Mathura-3.jpg|शिवलिंग, नीलकन्ठेश्वर महादेव मन्दिर, [[मथुरा]]<br /> Shivling, Neelkantheshwar Mahadev Temple, Mathura|left|thumb|200px]] | ||
उन्हें धनुष उठाए देख [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] भयभीत होकर कांपने लगी। देवताओं के यज्ञ में, [[वायु देव|वायु]] की गति के रुकने, समिधा आदि के प्रज्वलित न होने, [[सूर्य देवता|सूर्य]], [[चंद्र देवता|चंद्र]] आदि के श्रीहीन होने से व्याघात उत्पन्न हो गया। देवता भयातुर हो उठे। रुद्र ने भयंकर बाण से यज्ञ का हृदय भेद दिया- वह मृग का रूप धारण कर वहां से भाग चला। रुद्र ने उसका पीछा किया- वह मृगशिरा [[नक्षत्र]] के रूप में आकाश में प्रकाशित होने लगा। रुद्र उसका पीछा रकते हुए आर्द्रा नक्षत्र के रूप में प्रतिभासित हुए। यज्ञ के समस्त अवयव वहां से पलायन करने लगे। रुद्र ने सविता की दोनों बांहें काट डालीं तथा भग की आंखें और पूषा के दांत तोड़ डाले। भागते हुए देवताओं का उपहास करते हुए शिव ने धनुष की कोटि का सहारा ले सबको वहीं रोक दिया। तदनंतर देवताओं की प्रेरणा से वाणी ने महादेव के धनुष की प्रत्यंचा काट डाली, अत: धनुष उछलकर पृथ्वी पर जा गिरा। तब सब देवता मृग-रूपी यज्ञ को लेकर शिव की शरण में पहुंचें शिव ने उन सब पर कृपा कर अपना कोप समुद्र में छोड़ दिया जो बड़वानल बनकर निरंतर उसका जल सोखता है। शिव ने पूषा को दांत, भग की आंखें तथा सविता को बांहें प्रदान कर दीं तथा जगत एक बार फिर से सुस्थिर हो गया।< | उन्हें धनुष उठाए देख [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] भयभीत होकर कांपने लगी। देवताओं के यज्ञ में, [[वायु देव|वायु]] की गति के रुकने, समिधा आदि के प्रज्वलित न होने, [[सूर्य देवता|सूर्य]], [[चंद्र देवता|चंद्र]] आदि के श्रीहीन होने से व्याघात उत्पन्न हो गया। देवता भयातुर हो उठे। रुद्र ने भयंकर बाण से यज्ञ का हृदय भेद दिया- वह मृग का रूप धारण कर वहां से भाग चला। रुद्र ने उसका पीछा किया- वह मृगशिरा [[नक्षत्र]] के रूप में आकाश में प्रकाशित होने लगा। रुद्र उसका पीछा रकते हुए आर्द्रा नक्षत्र के रूप में प्रतिभासित हुए। यज्ञ के समस्त अवयव वहां से पलायन करने लगे। रुद्र ने सविता की दोनों बांहें काट डालीं तथा भग की आंखें और पूषा के दांत तोड़ डाले। भागते हुए देवताओं का उपहास करते हुए शिव ने धनुष की कोटि का सहारा ले सबको वहीं रोक दिया। तदनंतर देवताओं की प्रेरणा से वाणी ने महादेव के धनुष की प्रत्यंचा काट डाली, अत: धनुष उछलकर पृथ्वी पर जा गिरा। तब सब देवता मृग-रूपी यज्ञ को लेकर शिव की शरण में पहुंचें शिव ने उन सब पर कृपा कर अपना कोप समुद्र में छोड़ दिया जो बड़वानल बनकर निरंतर उसका जल सोखता है। शिव ने पूषा को दांत, भग की आंखें तथा सविता को बांहें प्रदान कर दीं तथा जगत एक बार फिर से सुस्थिर हो गया।<ref>महाभारत, सौप्तिकपर्व, अध्याय 17-18</ref> | ||
==सती वियोग में शिव== | ==सती वियोग में शिव== | ||
[[चित्र:Chinta-Haran-Ashram-1.jpg|शिवलिंग, चिन्ता हरण आश्रम, [[महावन]]<br /> Shivling, Chinta Haran Ashram, Mahavan|thumb|200px]] | [[चित्र:Chinta-Haran-Ashram-1.jpg|शिवलिंग, चिन्ता हरण आश्रम, [[महावन]]<br /> Shivling, Chinta Haran Ashram, Mahavan|thumb|200px]] | ||
[[सती]] की मृत्यु के उपरांत उनके वियोग में शिव नग्न रूप में भटकने लगे। वन में घूमते शिव को देख मुनिपत्नियां आसक्त होकर उनसे चिपट गयीं। यह देखकर मुनिगण रुष्ट हो उठे। उनके शाप से शिव का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा। लिंग पाताल पहुंच गया। शिव क्रोधवश तरह-तरह की लीला करने लगे। पृथ्वी पर प्रलय के चिह्न दिखायी दिए। देवताओं ने शिव से प्रार्थना की कि वे लिंग धारण करें। वे उसकी पूजा का आदेश देकर अंतर्धान हो गये। कालांतर में प्रसन्न होकर उन्होंने लिंग धारण कर लिया तथा वहां पर प्रतिमा बनाकर पूजा करने का आदेश दिया।< | [[सती]] की मृत्यु के उपरांत उनके वियोग में शिव नग्न रूप में भटकने लगे। वन में घूमते शिव को देख मुनिपत्नियां आसक्त होकर उनसे चिपट गयीं। यह देखकर मुनिगण रुष्ट हो उठे। उनके शाप से शिव का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा। लिंग पाताल पहुंच गया। शिव क्रोधवश तरह-तरह की लीला करने लगे। पृथ्वी पर प्रलय के चिह्न दिखायी दिए। देवताओं ने शिव से प्रार्थना की कि वे लिंग धारण करें। वे उसकी पूजा का आदेश देकर अंतर्धान हो गये। कालांतर में प्रसन्न होकर उन्होंने लिंग धारण कर लिया तथा वहां पर प्रतिमा बनाकर पूजा करने का आदेश दिया।<ref>शिव पुराण, पूर्वार्द्ध, 3 । 5-6</ref> | ||
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14:46, 1 जून 2010 का अवतरण
- आदिकाल में ब्रह्मा ने सबसे पहले महादेव जी से संपूर्ण भूतों की सृष्टि करने के लिए कहा। स्वीकृति देकर शिव भूतगणों के नाना दोषों को देख जल में मग्न हो गये तथा चिरकाल तक तप करते रहे। ब्रह्मा ने बहुत प्रतीक्षा के उपरांत भी उन्हें जल में ही पाया तथा सृष्टि का विकास नहीं देखा तो मानसिक बल से दूसरे भूतस्त्रष्टा को उत्पन्न किया। उस विराट पुरुष ने कहा- 'यदि मुझसे ज्येष्ठ कोई नहीं हो तो मैं सृष्टि का निर्माण करूंगा।' ब्रह्मा ने यह बताकर कि उस 'विराट पुरुष' से ज्येष्ठ मात्र शिव हैं, वे जल में ही डूबे रहते हैं, अत: उससे सृष्टि उत्पन्न करने का आग्रह किया है। उसने चार प्रकार के प्राणियों का विस्तार किया। सृष्टि होते ही प्रजा भूख से पीड़ित हो प्रजापति को ही खाने की इच्छा से दौड़ी। तब आत्मरक्षा के निमित्त प्रजापति ने ब्रह्मा से प्रजा की आजीविका निर्माण का आग्रह किया। ब्रह्मा ने अन्न, औषधि, हिंसक पशु के लिए दुर्बल जंगल-प्राणियों आदि के आहार की व्यवस्था की। उत्तरोत्तर प्राणी समाज का विस्तार होता गया। शिव तपस्या समाप्त कर जल से निकले तो विविध प्राणियों को निर्मित देख क्रुद्ध हो उठे तथा उन्होंने अपना लिंग काटकर फेंक दिया जो कि भूमि पर जैसा पड़ा था, वैसा ही प्रतिष्ठित हो गया। ब्रह्मा ने पूछा-'इतना समय जल में रहकर आपने क्या किया, और लिंग उत्पन्न कर इस प्रकार क्यों फेंक दिया?'
- शिव ने कहा-'पितामह, मैंने जल में तपस्या से अन्न तथा औषधियां प्राप्त की हैं। इस लिंग की जब कोई आवश्यकता नहीं रही, जबकि प्रजाओं का निर्माण हो चुका है।' ब्रह्मा उनके क्रोध को शांत नहीं कर पाये। सत युग बीत जाने पर देवताओं ने भगवान का भजन करने के लिए यज्ञ की सृष्टि की। यज्ञ के लिए साधनों, हव्यों, द्रव्यों की कल्पना की। वे लोग रुद्र के वास्वविक रूप से परिचित नहीं थे, अत: उन्होंने शिव के भाग की कल्पना नहीं की। परिणामत: क्रुद्ध होकर शिव ने उनके दमन के लिए साधन जुटाने प्रारंभ कर दिये।
- यज्ञ पांच प्रकार के माने जाते हैं:
- लोक,
- क्रिया,
- सनातन गृह,
- पंचभूत तथा
- मनुष्य। रुद्र ने लोक यज्ञ तथा मनुष्य यज्ञों से पांच हाथ लंबा धनुष बनाया। पुरोहित ही उसकी प्रत्यंचा थी।
- यज्ञ के चारों अंग
- स्नान,
- दान,
- होम और
- जप शिव के कवच बने।
उन्हें धनुष उठाए देख पृथ्वी भयभीत होकर कांपने लगी। देवताओं के यज्ञ में, वायु की गति के रुकने, समिधा आदि के प्रज्वलित न होने, सूर्य, चंद्र आदि के श्रीहीन होने से व्याघात उत्पन्न हो गया। देवता भयातुर हो उठे। रुद्र ने भयंकर बाण से यज्ञ का हृदय भेद दिया- वह मृग का रूप धारण कर वहां से भाग चला। रुद्र ने उसका पीछा किया- वह मृगशिरा नक्षत्र के रूप में आकाश में प्रकाशित होने लगा। रुद्र उसका पीछा रकते हुए आर्द्रा नक्षत्र के रूप में प्रतिभासित हुए। यज्ञ के समस्त अवयव वहां से पलायन करने लगे। रुद्र ने सविता की दोनों बांहें काट डालीं तथा भग की आंखें और पूषा के दांत तोड़ डाले। भागते हुए देवताओं का उपहास करते हुए शिव ने धनुष की कोटि का सहारा ले सबको वहीं रोक दिया। तदनंतर देवताओं की प्रेरणा से वाणी ने महादेव के धनुष की प्रत्यंचा काट डाली, अत: धनुष उछलकर पृथ्वी पर जा गिरा। तब सब देवता मृग-रूपी यज्ञ को लेकर शिव की शरण में पहुंचें शिव ने उन सब पर कृपा कर अपना कोप समुद्र में छोड़ दिया जो बड़वानल बनकर निरंतर उसका जल सोखता है। शिव ने पूषा को दांत, भग की आंखें तथा सविता को बांहें प्रदान कर दीं तथा जगत एक बार फिर से सुस्थिर हो गया।[1]
सती वियोग में शिव
सती की मृत्यु के उपरांत उनके वियोग में शिव नग्न रूप में भटकने लगे। वन में घूमते शिव को देख मुनिपत्नियां आसक्त होकर उनसे चिपट गयीं। यह देखकर मुनिगण रुष्ट हो उठे। उनके शाप से शिव का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा। लिंग पाताल पहुंच गया। शिव क्रोधवश तरह-तरह की लीला करने लगे। पृथ्वी पर प्रलय के चिह्न दिखायी दिए। देवताओं ने शिव से प्रार्थना की कि वे लिंग धारण करें। वे उसकी पूजा का आदेश देकर अंतर्धान हो गये। कालांतर में प्रसन्न होकर उन्होंने लिंग धारण कर लिया तथा वहां पर प्रतिमा बनाकर पूजा करने का आदेश दिया।[2]