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भारत
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[[मुग़ल काल|प्रारम्भिक मुग़ल काल]] '''·''' [[मुग़ल काल 2|अफ़ग़ान और हुमायुँ]] '''·''' [[मुग़ल काल 3|शेरशाह का शासन]] '''·''' [[मुग़ल काल 4|अकबर-प्रारम्भिक काल]] '''·''' [[मुग़ल काल 5|अकबर-प्रशासन]]  
एशिया महाद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित तीन प्रायद्वीपों में मध्यवर्ती और सबसे बड़ा पायद्वीप । यह त्रिभुजाकार है। हिमालय पर्वत श्रृंखला को इस त्रिभुज का आधार और कन्याकुमारी को उसका शीर्षबिन्दू कहा जा सकता है। इसके उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में हिन्द महासागर स्थित है। ऊँचे-ऊँचे पर्वतों ने इसे उत्तर-पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान तथा उत्तर-पूर्व में बर्मो से अलग कर दिया है। यह स्वतंत्र भौगोलिक इकाई है। इसका क्षेत्रफल 17,09,500 वर्ग मील तथा 1951 ई0 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 44,68,300 है (1971 ई0 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या अब 54,69,55,945 है)। प्राकृतिक दृष्टि से इसे तीन क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है—हिमालय क्षेत्र, उत्तर का मैदान जिससे होकर सिंधू, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ बहती हैं, दक्षिण का पठार, जिसे विंध्य पर्वतमाला उत्तर के मैदान से अलग करती है। इसकी विशाल जनसंख्या दो सौ से अधिक बोलियाँ बोलती है और संसार के सभी मुख्य धर्मों को मानने वाले यहाँ मिलते हैं। अंग्रेजी में इस देश का नाम 'इंडिया' सिंधू के फ़ारसी रूपांतरण के आधार पर यूनानियों के द्वारा प्रचलित 'हंडस' ना से पड़ा। मूल रूप से इस देश का नाम प्रागैतिहासिक काल के राजा भरत के आधार पर भारतवर्ष है। अब इसका क्षेत्रफल संकुचित हो गया है और इस प्रायद्वीप के दो छोटे-छोटे क्षेत्रों पाकिस्तान तथा बंगलादेश को इससे पृथक करके शेष भू-भाग को भारत कहते हैं। 'हिन्दुस्तान' नाम सही तौर से केवल गंगा के उत्तरी मैदान के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है जहाँ हिन्दी बोली जाती है। इसे भारत अथवा इंडिया पर्याय नहीं माना जा सकता।
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भारत की आधारधूत एकता उसकी विशिष्ट संस्कृति तथा सभ्यता पर आधारित है। यह इस बात से प्रकट है कि हिन्दू धर्म सारे देश में फैला हुआ है। संस्कृत को सब देवभाषा स्वीकार करते हैं। जिन सात नदियों को पवित्र माना जाता है उनमें सिंधू पंजाब में बहती है और कावेरी दक्षिण में, इसी प्रकार जिन सात पुरियों को पवित्र माना जाता है उनमें हरिद्वार उत्तर प्रदेश में स्थित है और कांची सुदूर दक्षिण में। भारत के सभी सार्वभीम राजाओं की आकांक्षा रही है कि उनके राज्य का विस्तार आसेतु हिमालय हो। परन्तु इतने बड़े देश को जो वास्तव में एक उपमहाद्वीप है और क्षेत्रफल में पश्चिमी रूस को छोड़कर सारे यूरोप के बराबर है, एक राजनीतिक इकाई बनाये रखना अत्यन्त कठिन है। वास्तव में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटिश शासकों की स्थापना से पूर्व सारा देश बहुत थोड़े काल को छोड़कर, कभी एक साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहा। ब्रिटिश काल में सारे देश में एक समान शासन व्यवस्था करके तथा अंग्रेजों को सारे देश में प्रशासन और शिक्षा की समान भाषा बनाकर पूरे देश को एक राजनीतिक इकाई बना दिया गया। परन्तु यह एकता एक शताब्दी के अन्दर ही भंग हो गयी। 1947 ई0 में जब भारत स्वाधीन हुआ, उसे विभाजित करके सिंधू, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, पश्चिमी पंजाब (यह भाग अब पाकिस्तान कहलाता है), पूर्वी तथा उत्तरी बंगाल (यह भाग अब बांगलादेश कहलाता  है) उससे अलग कर दिया गया।
 
भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई0 पूर्व तथा 1500 ई0 पूर्व के बीच सिंधू घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से उत्कृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों का था। आर्यों द्वारा वे क्रमिक रीति से उत्तर से दक्षिण की ओर खदेड़ दिये गए। जहाँ दीर्घ काल तक उनका प्रधान्य रहा। बाद में उन्होंने आर्यों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। उनसे विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लिये और अब वे महान् भारतीय राष्ट्र के अंग हैं। द्रविड़ों के अलावा देश में और मूल जातियाँ थी, जिनमें से कुछ का प्रतिनिधित्व मुण्डा, कोल, भील आदि जनजातियाँ करती हैं जो मोन-ख्मेर वर्ग की भाषाएँ बोलती हैं। भारतीय आर्यों का प्राचीनतम साहित्य हमें वेदों में विशेष रूप से ऋग्वेद में मिलता है, जिसका रचनाकाल कुछ विद्वान् तीन हजार ई0 पू0 मानते हैं। वेदों में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है। आर्यों ने इस देश को कोई राजनीतिक एकता प्रदान नहीं की। यद्यपि उन्होंने उसे एक पुष्ट दर्शन और धर्म प्रदान किया, जो हिन्दू धर्म के नाम से प्रख्यात है और कम से कम चार हजार वर्ष से अक्षुण्ण है।
प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई0 पू0 है, जब मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई0 पू0 तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत काबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था, जिनके नाम निम्नोक्त थेः-
 
अंग (पूर्वी बिहार), मगध (दक्षिणी बिहार), काशी (बनारस), कोशल (अवध), वृजि (उत्तरी बिहार), मल्ल (गोरखपुर), चेदि (बुंदेलखण्ड), वत्स (इलाहाबाद), कुरु (थानेश्वर तथा दिल्ली क्षेत्र), पंचाल (बरेली तथा बदायूँ), मत्स्य (जयपुर), शौरसेन (मथुरा), अश्मक (गोदावरी के तट पर), अवन्ती (मालवा), गंधार (पेशावर क्षेत्र), तथा कम्बोज (कश्मीर तथा अफगानिस्तान)। इन राज्यों मे आपस में बराबर लड़ाई होती रहती थी। छठीं शताब्दी ई0 पू0 के मध्य में बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के राज्य काल में मगध ने काशी  तथा कोशल पर अधिकार करने के बाद अपनी सीमाओं का विस्तर आरम्भ किया। इन्हीं दोनों मगध राजाओं के राज्यकाल में वर्धमान महावीर ने जैन धर्म तथा गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का उपदेश दिया। बाद मे काल में मगध राज्य का विस्तार जारी रहा और चौथी शताब्दी ई0 पू0 के अंत में नन्द राजाओं के शासनकाल में उसका विस्तार बंगाल से लेकर पंजाब में व्यास नदी के तट तक सारे उत्तरी भारत में हो गया।
 
यूनानी इतिहासकारों के द्वारा वर्णित 'प्रेसिआई' देश का राजा इतना शक्तिशाली था कि सिकन्दर की सेनाएँ व्यास पार करके प्रेसिआई देश में नहीं घुस सकीं और सिकन्दर, जिसने 326 ई0 में पंजाब पर हमला किया, पीछे लौटने के लिए विवश हो गया। वह सिंधू के मार्ग से पीछे लौट गया। इस घटना के बाद ही मगध पर चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग 322 ई0 पू0-298 ई0 पू0) ने पंजाब में सिकन्दर जिन यूनानी अधिकारियों को छोड़ गया था, उन्हें निकाल बाहर किया और बाद में एक युद्ध में सिकन्दर के सेनापति सेल्युकस को हरा दिया। सेल्युकस ने हिन्दूकुश तक का सारा प्रदेश वापस लौटा कर चन्द्रगुप्त मौर्य से संधि कर ली। चन्द्रगुप्त ने सारे उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने सम्भ्वतः दक्षिण भी विजय कर लिया। वह अपने इस विशाल साम्राज्य पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन करता था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र वैभव और समृद्धि में सूसा और एकबताना नगरियों को भी मात करती थी। उसका पौत्र अशोक था, जिसने कलिंग (उड़ीसा) को जीता। उसका साम्राज्य हिमालय के पादमूल से लेकर दक्षिण में पन्नार नदी तक तथा उत्तर पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर उत्तर-पूर्व में आसाम की सीमा तक विस्तृत था। उसने अपने विशाल साम्राज्य के समय साधनों को मनुष्यों तथा पशुओं के कल्याण कार्यों तथा बौद्ध धर्म के प्रसार में लगाकर अमिट यश प्राप्त किया। उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भिक्षुओं को मिस्र, मकदूनिया तथा कोरिन्थ (प्राचीन यूनान की विलास नगरी) जैसे दूर-दराज स्थानों में भेजा और वहाँ लोकोपकारी कार्य करवाये। उसके प्रयत्नों से बौद्ध धर्म विश्वधर्म बन गया। परन्तु उसकी युद्ध से विरत रहने की शान्तिपूर्ण नीति ने उसके वंश की शक्ति क्षीण कर दी और लगभग आधी शताब्दी के बाद पुष्यमित्र ने उसका उच्छेद कर दिया। पुष्यमित्र ने शुगवंश (लगभग 185 ई0 पू0- 73 ई0 पू0) की स्थापनी की, जिसका उच्छेद कराववंश (लगभग  73 ई0 पू0-28 ई0 पू0) ने कर दिया।
मौर्यवंश के पतन के बाद मगध की शक्ति घटने लगी और सातवाहन राजाओं के नेतृत्व में मगध साम्राज्य दक्षिण से अलग हो गया। सातवाहन वंश को आन्ध्र वंश भी कहते हैं और उसने 50 ई0 पू0 से 225 ई0 तक राज्य किया। भारत में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के अभाव में बैक्ट्रिया और पार्थिया के राजाओं ने उत्तरी भारत पर आक्रमण शुरू कर दिये। इन आक्रमणकारी राजाओं में मिनाण्डर सबसे विख्यात है। इसके बाद ही शक राजाओं के आक्रमण शुरू हो गये और महाराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा मथुरा शक क्षत्रपों के शासन  में आ गये। इस तरह भारत की जो राजनीतिक एकता भंग हो गयी थी, वह ईसवीं पहली शताब्दी में कदफिसस प्रथम द्वारा कुषाण वंश की शुरूआत से फिर स्थापित हो गयी। इस वंश ने तीसरी शताब्दी ईसवीं के मध्य तक उत्तरी भारत पर राज्य किया। <br />
इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क (लगभग 120-144 ई0) था, जिसकी राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर थी। उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और अश्वघोष, नागार्जुन तथा चरक जैसे भारतीय विद्वानों को संरक्षण दिया। कुषाणवंश का अजात कारणों से तीसरी शताब्दी के मध्य तक पतन हो गया। इसके बाद भारतीय इतिहास का अंधकार युग आरम्भ होता है। जो चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्तवंश के उदस से समाप्त हुआ।
लगभग 320 ई0 पू0 में चन्द्रगुप्त ने गुप्तवंश का प्रचलित किया और पाटलिपुत्र को फिर से अपनी राजधानी बनाया। गुप्त वंश में एक के बाद एक चार महान शक्तिशाली राजा हुए, जिन्होंने सारे उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य विस्तृत कर लिया और दक्षिण के कई राज्यों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उन्होंने हिन्दू धर्म को राज्य धर्म बनाया, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता बरती और ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, वास्तुकला और चित्रकला की उन्नति की। इसी युग में कालिदास, आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर हुए। रामायण, महाभारत, पुराणों तथा मनुसंहिता को भी इसी युग में वर्तमान रूप प्राप्त हुआ। चीनी यात्री फाह्यान ने 401 से 410 ई0 के बीच भारत की यात्रा की और उसने उस काल का रोचक वर्णन किया है। उसका मत है कि उस काल में देश में पूरा रामराज्य था। स्वाभाविक रूप से गुप्त युग को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है और उसकी तुलना एथेन्स के परीक्लीज युग से की जाती है। (पेरीक्लीज (लगभग 492-529 ई0 पू0) एथेन्स का महान राजनेता तथा सेनापति था। उसके प्रशासकाल (460-429 ई0 पू0) में एथेन्स उन्नति के शिखर पर पहुँच गया।)
आंतरिक विघटन तथा हूणों के आक्रमणों के फलस्वरूप छठी शताब्दी में गुप्त वंश का पतन हो गया। परन्तु सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हर्षवर्धन ने एक दूसरा साम्राज्य खड़ा कर दिया, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। यह साम्राज्य सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। दक्षिण में चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय ने उसका साम्राज्य नर्मदा तट से आग बढ़ने से रोक दिया था। चीनी यात्री ह्वयुएनत्सांग उसके राज्यकाल में भारत आया था और उसने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है कि हर्षवर्धन बड़ा प्रतापी और शक्तिशाली राजा है। वह 646 ई0 में निस्संतान मर गया और उसके बाद सारे उत्तरी भारत में फिर से अव्यवस्था फैल गयी।
इस अव्यवस्था के फलस्वरूप राजवंशों का उदय हुआ, जो अपने को राजपूत कहते थे। इनमें पंजाब का हिन्दूशाही राजवंश, गुजरात का गुर्जर-प्रतिहार राजवंश, अजमेर का चौहान वंश, कन्नौज का गहदवाल वंश तथा मगध और बंगाल का पाल वंश था। दक्षिण में भी सातवाहन वंश के पतन के बाद इसी प्रकार सत्ता का विघटन हो गया। उड़ीसा के गंग वंश जिसने पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर बनवाया, वातापी के चालुक्यवंश, जिसके राज्यकाल में अजन्ता के कुछ गुफा चित्र बने तथा कांची के पल्लववंश ने, जिसकी स्मृति उस काल में बनवाये गये कुछ प्रसिद्ध मन्दिरों में सुरक्षित है, दक्षिण को आपस में बांट लिया और परस्पर युद्धों में एक दूसरे का नाश कर दिया। इसके बाद मान्यखेट अथवा मालखड़ के राष्ट्रकूट वंश का उदय हुआ, जिसका उच्छेद पुर ने चालुक्य वंश की एक नवीन शाखा ने कर दिया। जिसने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। उसका उच्छेद देवगिरि के यादवों तथा द्वारसमुद्र के होमसल वंश ने कर दिया। सुदूर दक्षिण में चेर, पाड्य और चोल राज्यों का उदय हुआ, जिनमें से अंतिम राज्य सबसे अधिक चला। इस तरह सारे भारत में अनैक्य व्याप्त हो गया।
इस बीच 712 ई0 में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-कासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई0 में शहाबुद्दीन मुहम्मदगोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में सुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और गजनी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई0 के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली। फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।
फ़ारस तथा पश्चिम एशिया के दूसरे राज्यों की तरह मुसलमानों को भारत में शीघ्रता से सफलता नहीं मिली। यद्यपि सिंध पर अरब मुसलमानों का शीघ्रता से क़ब्ज़ा हो गया, परन्तु वहाँ से वे लगभग चार शताब्दियों तक आगे नहीं बढ़ पाये। उत्तर-पश्चिम के मुसलमान आक्रमणकारियों को भी भारत ने लगभग तीन शताब्दियों तक रोके रखा। शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का दिल्ली जीतने का पहला प्रयास विफल हुआ और पृथ्वीराज ने 1190 ई0 में तराईन की पहली लड़ाई में उसे हरा दिया। वह 1193 ई0 में तराईन की दूसरी लड़ाई में ही पृथ्वीराज को हराने में सफल हुआ। इस विजय के बाद शहाबुद्दीन और उसके सेनापतियों ने उत्तरी भारत के दूसरे हिन्दू राजाओं को भी हरा दिया और वहाँ मुसलमानी शासन स्थापित कर दिया। इस तरह तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता में उत्तरी भारत की राजनीतिक एकता फिर से स्थापित हो गई।
दक्षिण एक और शताब्दी तक स्वतंत्र रहा, किन्तु सुल्तान ख़िलजी के राज्यकाल में दक्षिण भी दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया और इस तरह चौदहवीं शताब्दी में कुछ काल के लिए सारे भारत का शासन फिर से एक केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत आ गया। परन्तु दिल्ली सल्तनत का शीघ्र ही पतन शुरू हो गया और 1336 ई0 में दक्षिण में हिन्दुओं का एक विशाल राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी विजयनगर थी। बंगाल (1338 ई0), जौनपुर (1393 ई0), गुजरात तथा दक्षिण के मध्यवर्ती भाग में भी बहमनी सल्तनत (1347 ई0) के नाम से स्वतंत्र मुसलमानी राज्य स्थापित हो गया। 1398 ई0 में तैमूर ने भारत पर हमला किया और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे लूटा। उसके हमले से दिल्ली की सल्तनत जर्जर हो गयी।
   
दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई0 में बाबर ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने पानीपत की  पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुग़ल वंश की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई0 तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जज़िया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं। राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके लड़के जहाँगीर जहाँ पौत्र शाहजहाँ क राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने ताज का निर्माण कराया, परन्तु कनदहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु औरंगज़ेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, बुंदेलखण्ड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। महाराष्ट्र में शिवाजी ने 1707 ई0 में औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। औरंगज़ेब अन्तिम महान मुग़ल बादशाह था। उसके उत्तराधिकारी अत्यन्त निर्बल और अयोग्य थे, उनके वज़ीर विश्वासघाती थे। फ़ारस के नादिरशाह ने मुग़ल बादशाहत पर सबसे सांघातिक प्रहार किया। उसने 1739 ई0 में भारत पर चढ़ाई की और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे निर्दयता से पूरी तरह लूटा। उसके हमले से मुग़ल साम्राज्य पूरी तरह जर्जर हो गया और इसके बाद शीघ्रता से उसका विघटन हो गया। अवध, बंगाल तथा दक्षिण के मुसलमान सूबेदारों ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। राजपूत राजा भी अर्द्ध-स्वतंत्र हो गये। पेशवा बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठों ने मुग़ल साम्राज्य के खंडहरों पर हिन्दू पद पादशाह की स्थापना का प्रयास किया।
 
परन्तु यह सम्भव नहीं हो सका। फिरंगी लोग समुद्री मार्गों से भारत की जमीन पर पैर जमा चुके थे। अकबर से लेकर औरंगज़ेब तक मुग़ल बादशाहों ने भारत के इस नये मार्ग का महत्व नहीं समझा। इनमें से कोई इन नवांगतुकों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का अनुमान नहीं लगा सका और उनके जंगी बेड़े का मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली भारतीय जंगी बेड़ा तैयार करने की आवश्यकता को अनुभव नहीं कर सका। इस तरह भारतीयों की ओर से किसी प्रतिरोध का सामना किये बग़ैर सबसे पुर्तगाली भारत पहुँचे। उसके बाद डच, अंग्रेज, फ्राँसीसी आये। सोलहवीं शताब्दी में इन फिरंगियों में आपस में लड़ाइयाँ होती रही, जो अधिकांश समुद्र में हुई। डच और अंग्रेजों ने मिलकर सबसे पहले पुर्तगालियों की सामुद्रिक शक्ति को समाप्त किया। इसके बाद डच लोगों को पता चला कि उनके लिए भारत की अपेक्षा मसाले वाले द्वीपों से व्यापार करना अधिक लाभदायी है। इस तरह भारत में सिर्फ अंग्रेज और फ्राँसीसी लोगों के बीच प्रतिद्वन्द्विता हुई।
 
अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों की भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई0 में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की दूसरी लड़ाई छेड़ी। एक साल के बाद कर्नाटक की दूसरी लड़ाई शुरू हुई। जिसमें फ्राँसीसी गवर्नर डूप्ले ने पहली लड़ाई से सबक लेते हुए न केवल कर्नाटक के प्रशासन पर, बल्कि निज़ाम के राज्य पर भी फ्राँस का राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करने की कोशिश की। परन्तु अंग्रेजों ने उसकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होने दी। अंग्रेजों को बंगाल में भारी सफलता मिली थी। बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के केवल पचास वर्ष बाद 1757 ई0 में राबर्ट क्लाइब के नेतृत्व में अंग्रेजों ने नवाब सिराजुद्दोला के विरुद्ध विश्वासघातपूर्ण राजद्रोहात्मक षड़यंत्र रचकर प्लासी की लड़ाई जीत ली और बंगाल को एक प्रकार से अपनी मुट्ठी में कर लिया। उन्होंने बंगाल की गद्दी पर एक कठपुतली नवाब मीर ज़ाफ़र को बिठा दिया। इसके बाद एक के बाद, तेज़ी से कई घटनाएँ घटीं।
अहमद शाह अब्दाली ने 1748 से 1760 ई0 के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई0 में पानीपत की तीसरी लड़ाई जीत कर मुग़ल साम्राज्य का फातिहा पढ़ दिया। उसन दिल्ली पर दखल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौका खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फतह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फायदा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।
 
बंगाल के साधनों से बलशाली होकर अंग्रेजों ने 1760 ई0 में वाण्डीवाश की लड़ाई में फ्राँसीसियों को हरा दिया और 1762 ई0 में उनस पांडेचेरी ले लिया। इस प्रकार उन्होंने भारत में फ्राँसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त कर दी। 1764 ई0 में अंग्रजों ने बक्सर की लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह और अवध के नवाब की सम्मिलित सेना को हरा दिया और 1765 ई0 में बादशाह से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली। इसके फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी को पहली बार बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार के प्रशासन का क़ानूनी अधिकार मिल गया। कुछ इतिहासकार इसे भारत में ब्रिटिश राज्य का प्रारम्भ मानते हैं। 1773 ई0 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने एक रेग्युलेटिंग एक्ट पास करके भारत में ब्रिटिश प्रशासन को व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया। इस एक्ट के अंतर्गत भारत में कम्पनी क्षेत्रों का प्रशासन गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की कौंसिल गठित की गयी। एक्ट में बंगाल के गवर्नर को गवर्नर-जनरल का पद प्रदान किया गया और कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की भी स्थापना की गयी। वारेन हेस्टिग्स, जो उस समय बंगाल का गवर्नर था, 1773 ई0 में पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया।
 
1773 ई0 से 1947 ई0 तक का काल, जब भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ और भारत स्वाधीन हुआ, दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला, कम्पनी का शासनकाल, जो 1858 ई0 तक चला और दूसरा, 1858 से 1947 ई0 तक का काल, जब भारत का शासन सीधे ब्रिटेन द्वारा होने लगा।
कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों के हाथों मे रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों के साथ तीन, बर्मा तथा सिखों के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। उसने जिन फौजों से लड़ाई की उनमें से अधिकांश भारतीय सिपाही थे और लड़ाई का खर्च पूरी तरह भारतीय करदाता को उठाना पड़ा। इन लड़ाइयों के फलस्वरूप 1857 ई0 तक सारे भारत पर सीधे कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो गया। दो-तिहाई भारत पर देशी राज्यों का शासन बना रहा। परन्तु उन्होंने कम्पनी का सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ तथा आश्रित मित्र राजा के रूप में अपनी रियासत का शासन चलाते रहे।
इस काल में सती प्रथा का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गय। अंग्रेजी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में कदम उठाये गये, अंग्रेजी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान जाब्ता दीवानी और जाब्ता फौजदारी कानून लागू कर दिया गया, जिससे सारे देश में एकता की नयी भावना पैदा हो गयी। परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेजों के हाथों में रहा। 1833  के चार्टर एक्ट के विपरीत ऊँचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया गया। भाप से चलने वाले जहाजों और रेलगाड़ियों का प्रचलन, ईसाई मिशनरियों द्वारा आक्षेपजनक रीति से ईसाई धर्म का प्रचार, लार्ड डलहौजी द्वारा जब्ती का सिद्धांत लागू करके अथवा कुशासन के आधार पर कुछ पुरानी देशी रियासतों की जब्ती तथा ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों की शिकायतें—इन सब कारणों ने मिलकर सारे भारत में एक गहरे असंतोष की आग धधका दी, जो 1857-58 ई0 में गदर के रूप में भड़क उठी।
अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को गदर से अलग रखा। देश की अधिकांश जनता ने भी इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया। फलस्वरूप कम्पनी को बल पूर्वक गदर को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु गदर के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा। महारानी बिक्टोरिया ने एक घोषणा पत्र जारी करके अपनी भारतीय प्रजा को उसके कुछ अधिकारों तथा कुछ स्वाधीनताओं के बारे में आश्वासन दिया।
इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई0) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधी) कहा जाने लगा। लार्ड कैनिंग पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है—भारत में राष्ट्रवादी भावना का उदय और 1947 ई0 में भारत की स्वाधीनता के रूप में अंतिम विजय। 1857 ई0 में कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद शिक्षा का प्रसार होने लगा तथा 1869 ई0 में स्वेज नहर खुलने के बाद इंग्लैण्ड तथा यूरोप से निकट सम्पर्क स्थापित हो जाने से भारत में नये मध्यवर्ग का विकास हुआ। यह मध्य वर्ग पश्चिमी दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र के विचारों से प्रभावित था और ब्रिटिश शासन में भारतीयों को जो नीचा दर्जा मिला हुआ था, उससे रुष्ट था। ब्रिटिश में स्थापित शान्ति के फलस्वरूप यह वर्ग सारे भारत को एक देश तथा समस्त भारतीयों को एक कौम मानने लगा और ब्रिटेन की भाँति संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना उसका लक्ष्य बन गया। वह एक ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस करने लगा जो समस्त भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सक। इसके फलस्वरूप 1885 ई0 में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई0 में कलकत्ता में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। लार्ड डफरिन ने कांग्रेस पर व्यग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया जिसे सिर्फ खुर्दवीन से देखा जा सकता है। लार्ड लैन्सडाउन ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, लार्ड कर्जन ने उसका खुलेआम मजाक उड़ाया तथा लार्ड मिन्टो द्वितीय ने 1909 के इंडियन कौंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुपात से अनुचित रीति से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस जिन्दा रही।

06:52, 19 मई 2010 का अवतरण

भारत

एशिया महाद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित तीन प्रायद्वीपों में मध्यवर्ती और सबसे बड़ा पायद्वीप । यह त्रिभुजाकार है। हिमालय पर्वत श्रृंखला को इस त्रिभुज का आधार और कन्याकुमारी को उसका शीर्षबिन्दू कहा जा सकता है। इसके उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में हिन्द महासागर स्थित है। ऊँचे-ऊँचे पर्वतों ने इसे उत्तर-पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान तथा उत्तर-पूर्व में बर्मो से अलग कर दिया है। यह स्वतंत्र भौगोलिक इकाई है। इसका क्षेत्रफल 17,09,500 वर्ग मील तथा 1951 ई0 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 44,68,300 है (1971 ई0 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या अब 54,69,55,945 है)। प्राकृतिक दृष्टि से इसे तीन क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है—हिमालय क्षेत्र, उत्तर का मैदान जिससे होकर सिंधू, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ बहती हैं, दक्षिण का पठार, जिसे विंध्य पर्वतमाला उत्तर के मैदान से अलग करती है। इसकी विशाल जनसंख्या दो सौ से अधिक बोलियाँ बोलती है और संसार के सभी मुख्य धर्मों को मानने वाले यहाँ मिलते हैं। अंग्रेजी में इस देश का नाम 'इंडिया' सिंधू के फ़ारसी रूपांतरण के आधार पर यूनानियों के द्वारा प्रचलित 'हंडस' ना से पड़ा। मूल रूप से इस देश का नाम प्रागैतिहासिक काल के राजा भरत के आधार पर भारतवर्ष है। अब इसका क्षेत्रफल संकुचित हो गया है और इस प्रायद्वीप के दो छोटे-छोटे क्षेत्रों पाकिस्तान तथा बंगलादेश को इससे पृथक करके शेष भू-भाग को भारत कहते हैं। 'हिन्दुस्तान' नाम सही तौर से केवल गंगा के उत्तरी मैदान के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है जहाँ हिन्दी बोली जाती है। इसे भारत अथवा इंडिया पर्याय नहीं माना जा सकता।

भारत की आधारधूत एकता उसकी विशिष्ट संस्कृति तथा सभ्यता पर आधारित है। यह इस बात से प्रकट है कि हिन्दू धर्म सारे देश में फैला हुआ है। संस्कृत को सब देवभाषा स्वीकार करते हैं। जिन सात नदियों को पवित्र माना जाता है उनमें सिंधू पंजाब में बहती है और कावेरी दक्षिण में, इसी प्रकार जिन सात पुरियों को पवित्र माना जाता है उनमें हरिद्वार उत्तर प्रदेश में स्थित है और कांची सुदूर दक्षिण में। भारत के सभी सार्वभीम राजाओं की आकांक्षा रही है कि उनके राज्य का विस्तार आसेतु हिमालय हो। परन्तु इतने बड़े देश को जो वास्तव में एक उपमहाद्वीप है और क्षेत्रफल में पश्चिमी रूस को छोड़कर सारे यूरोप के बराबर है, एक राजनीतिक इकाई बनाये रखना अत्यन्त कठिन है। वास्तव में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटिश शासकों की स्थापना से पूर्व सारा देश बहुत थोड़े काल को छोड़कर, कभी एक साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहा। ब्रिटिश काल में सारे देश में एक समान शासन व्यवस्था करके तथा अंग्रेजों को सारे देश में प्रशासन और शिक्षा की समान भाषा बनाकर पूरे देश को एक राजनीतिक इकाई बना दिया गया। परन्तु यह एकता एक शताब्दी के अन्दर ही भंग हो गयी। 1947 ई0 में जब भारत स्वाधीन हुआ, उसे विभाजित करके सिंधू, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, पश्चिमी पंजाब (यह भाग अब पाकिस्तान कहलाता है), पूर्वी तथा उत्तरी बंगाल (यह भाग अब बांगलादेश कहलाता है) उससे अलग कर दिया गया।

भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई0 पूर्व तथा 1500 ई0 पूर्व के बीच सिंधू घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से उत्कृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों का था। आर्यों द्वारा वे क्रमिक रीति से उत्तर से दक्षिण की ओर खदेड़ दिये गए। जहाँ दीर्घ काल तक उनका प्रधान्य रहा। बाद में उन्होंने आर्यों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। उनसे विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लिये और अब वे महान् भारतीय राष्ट्र के अंग हैं। द्रविड़ों के अलावा देश में और मूल जातियाँ थी, जिनमें से कुछ का प्रतिनिधित्व मुण्डा, कोल, भील आदि जनजातियाँ करती हैं जो मोन-ख्मेर वर्ग की भाषाएँ बोलती हैं। भारतीय आर्यों का प्राचीनतम साहित्य हमें वेदों में विशेष रूप से ऋग्वेद में मिलता है, जिसका रचनाकाल कुछ विद्वान् तीन हजार ई0 पू0 मानते हैं। वेदों में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है। आर्यों ने इस देश को कोई राजनीतिक एकता प्रदान नहीं की। यद्यपि उन्होंने उसे एक पुष्ट दर्शन और धर्म प्रदान किया, जो हिन्दू धर्म के नाम से प्रख्यात है और कम से कम चार हजार वर्ष से अक्षुण्ण है।

प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई0 पू0 है, जब मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई0 पू0 तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत काबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था, जिनके नाम निम्नोक्त थेः-

अंग (पूर्वी बिहार), मगध (दक्षिणी बिहार), काशी (बनारस), कोशल (अवध), वृजि (उत्तरी बिहार), मल्ल (गोरखपुर), चेदि (बुंदेलखण्ड), वत्स (इलाहाबाद), कुरु (थानेश्वर तथा दिल्ली क्षेत्र), पंचाल (बरेली तथा बदायूँ), मत्स्य (जयपुर), शौरसेन (मथुरा), अश्मक (गोदावरी के तट पर), अवन्ती (मालवा), गंधार (पेशावर क्षेत्र), तथा कम्बोज (कश्मीर तथा अफगानिस्तान)। इन राज्यों मे आपस में बराबर लड़ाई होती रहती थी। छठीं शताब्दी ई0 पू0 के मध्य में बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के राज्य काल में मगध ने काशी तथा कोशल पर अधिकार करने के बाद अपनी सीमाओं का विस्तर आरम्भ किया। इन्हीं दोनों मगध राजाओं के राज्यकाल में वर्धमान महावीर ने जैन धर्म तथा गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का उपदेश दिया। बाद मे काल में मगध राज्य का विस्तार जारी रहा और चौथी शताब्दी ई0 पू0 के अंत में नन्द राजाओं के शासनकाल में उसका विस्तार बंगाल से लेकर पंजाब में व्यास नदी के तट तक सारे उत्तरी भारत में हो गया।

यूनानी इतिहासकारों के द्वारा वर्णित 'प्रेसिआई' देश का राजा इतना शक्तिशाली था कि सिकन्दर की सेनाएँ व्यास पार करके प्रेसिआई देश में नहीं घुस सकीं और सिकन्दर, जिसने 326 ई0 में पंजाब पर हमला किया, पीछे लौटने के लिए विवश हो गया। वह सिंधू के मार्ग से पीछे लौट गया। इस घटना के बाद ही मगध पर चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग 322 ई0 पू0-298 ई0 पू0) ने पंजाब में सिकन्दर जिन यूनानी अधिकारियों को छोड़ गया था, उन्हें निकाल बाहर किया और बाद में एक युद्ध में सिकन्दर के सेनापति सेल्युकस को हरा दिया। सेल्युकस ने हिन्दूकुश तक का सारा प्रदेश वापस लौटा कर चन्द्रगुप्त मौर्य से संधि कर ली। चन्द्रगुप्त ने सारे उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने सम्भ्वतः दक्षिण भी विजय कर लिया। वह अपने इस विशाल साम्राज्य पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन करता था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र वैभव और समृद्धि में सूसा और एकबताना नगरियों को भी मात करती थी। उसका पौत्र अशोक था, जिसने कलिंग (उड़ीसा) को जीता। उसका साम्राज्य हिमालय के पादमूल से लेकर दक्षिण में पन्नार नदी तक तथा उत्तर पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर उत्तर-पूर्व में आसाम की सीमा तक विस्तृत था। उसने अपने विशाल साम्राज्य के समय साधनों को मनुष्यों तथा पशुओं के कल्याण कार्यों तथा बौद्ध धर्म के प्रसार में लगाकर अमिट यश प्राप्त किया। उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भिक्षुओं को मिस्र, मकदूनिया तथा कोरिन्थ (प्राचीन यूनान की विलास नगरी) जैसे दूर-दराज स्थानों में भेजा और वहाँ लोकोपकारी कार्य करवाये। उसके प्रयत्नों से बौद्ध धर्म विश्वधर्म बन गया। परन्तु उसकी युद्ध से विरत रहने की शान्तिपूर्ण नीति ने उसके वंश की शक्ति क्षीण कर दी और लगभग आधी शताब्दी के बाद पुष्यमित्र ने उसका उच्छेद कर दिया। पुष्यमित्र ने शुगवंश (लगभग 185 ई0 पू0- 73 ई0 पू0) की स्थापनी की, जिसका उच्छेद कराववंश (लगभग 73 ई0 पू0-28 ई0 पू0) ने कर दिया।

मौर्यवंश के पतन के बाद मगध की शक्ति घटने लगी और सातवाहन राजाओं के नेतृत्व में मगध साम्राज्य दक्षिण से अलग हो गया। सातवाहन वंश को आन्ध्र वंश भी कहते हैं और उसने 50 ई0 पू0 से 225 ई0 तक राज्य किया। भारत में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के अभाव में बैक्ट्रिया और पार्थिया के राजाओं ने उत्तरी भारत पर आक्रमण शुरू कर दिये। इन आक्रमणकारी राजाओं में मिनाण्डर सबसे विख्यात है। इसके बाद ही शक राजाओं के आक्रमण शुरू हो गये और महाराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा मथुरा शक क्षत्रपों के शासन में आ गये। इस तरह भारत की जो राजनीतिक एकता भंग हो गयी थी, वह ईसवीं पहली शताब्दी में कदफिसस प्रथम द्वारा कुषाण वंश की शुरूआत से फिर स्थापित हो गयी। इस वंश ने तीसरी शताब्दी ईसवीं के मध्य तक उत्तरी भारत पर राज्य किया।
इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क (लगभग 120-144 ई0) था, जिसकी राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर थी। उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और अश्वघोष, नागार्जुन तथा चरक जैसे भारतीय विद्वानों को संरक्षण दिया। कुषाणवंश का अजात कारणों से तीसरी शताब्दी के मध्य तक पतन हो गया। इसके बाद भारतीय इतिहास का अंधकार युग आरम्भ होता है। जो चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्तवंश के उदस से समाप्त हुआ।

लगभग 320 ई0 पू0 में चन्द्रगुप्त ने गुप्तवंश का प्रचलित किया और पाटलिपुत्र को फिर से अपनी राजधानी बनाया। गुप्त वंश में एक के बाद एक चार महान शक्तिशाली राजा हुए, जिन्होंने सारे उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य विस्तृत कर लिया और दक्षिण के कई राज्यों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उन्होंने हिन्दू धर्म को राज्य धर्म बनाया, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता बरती और ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, वास्तुकला और चित्रकला की उन्नति की। इसी युग में कालिदास, आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर हुए। रामायण, महाभारत, पुराणों तथा मनुसंहिता को भी इसी युग में वर्तमान रूप प्राप्त हुआ। चीनी यात्री फाह्यान ने 401 से 410 ई0 के बीच भारत की यात्रा की और उसने उस काल का रोचक वर्णन किया है। उसका मत है कि उस काल में देश में पूरा रामराज्य था। स्वाभाविक रूप से गुप्त युग को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है और उसकी तुलना एथेन्स के परीक्लीज युग से की जाती है। (पेरीक्लीज (लगभग 492-529 ई0 पू0) एथेन्स का महान राजनेता तथा सेनापति था। उसके प्रशासकाल (460-429 ई0 पू0) में एथेन्स उन्नति के शिखर पर पहुँच गया।) आंतरिक विघटन तथा हूणों के आक्रमणों के फलस्वरूप छठी शताब्दी में गुप्त वंश का पतन हो गया। परन्तु सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हर्षवर्धन ने एक दूसरा साम्राज्य खड़ा कर दिया, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। यह साम्राज्य सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। दक्षिण में चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय ने उसका साम्राज्य नर्मदा तट से आग बढ़ने से रोक दिया था। चीनी यात्री ह्वयुएनत्सांग उसके राज्यकाल में भारत आया था और उसने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है कि हर्षवर्धन बड़ा प्रतापी और शक्तिशाली राजा है। वह 646 ई0 में निस्संतान मर गया और उसके बाद सारे उत्तरी भारत में फिर से अव्यवस्था फैल गयी।

इस अव्यवस्था के फलस्वरूप राजवंशों का उदय हुआ, जो अपने को राजपूत कहते थे। इनमें पंजाब का हिन्दूशाही राजवंश, गुजरात का गुर्जर-प्रतिहार राजवंश, अजमेर का चौहान वंश, कन्नौज का गहदवाल वंश तथा मगध और बंगाल का पाल वंश था। दक्षिण में भी सातवाहन वंश के पतन के बाद इसी प्रकार सत्ता का विघटन हो गया। उड़ीसा के गंग वंश जिसने पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर बनवाया, वातापी के चालुक्यवंश, जिसके राज्यकाल में अजन्ता के कुछ गुफा चित्र बने तथा कांची के पल्लववंश ने, जिसकी स्मृति उस काल में बनवाये गये कुछ प्रसिद्ध मन्दिरों में सुरक्षित है, दक्षिण को आपस में बांट लिया और परस्पर युद्धों में एक दूसरे का नाश कर दिया। इसके बाद मान्यखेट अथवा मालखड़ के राष्ट्रकूट वंश का उदय हुआ, जिसका उच्छेद पुर ने चालुक्य वंश की एक नवीन शाखा ने कर दिया। जिसने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। उसका उच्छेद देवगिरि के यादवों तथा द्वारसमुद्र के होमसल वंश ने कर दिया। सुदूर दक्षिण में चेर, पाड्य और चोल राज्यों का उदय हुआ, जिनमें से अंतिम राज्य सबसे अधिक चला। इस तरह सारे भारत में अनैक्य व्याप्त हो गया।

इस बीच 712 ई0 में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-कासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई0 में शहाबुद्दीन मुहम्मदगोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में सुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और गजनी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई0 के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली। फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।

फ़ारस तथा पश्चिम एशिया के दूसरे राज्यों की तरह मुसलमानों को भारत में शीघ्रता से सफलता नहीं मिली। यद्यपि सिंध पर अरब मुसलमानों का शीघ्रता से क़ब्ज़ा हो गया, परन्तु वहाँ से वे लगभग चार शताब्दियों तक आगे नहीं बढ़ पाये। उत्तर-पश्चिम के मुसलमान आक्रमणकारियों को भी भारत ने लगभग तीन शताब्दियों तक रोके रखा। शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का दिल्ली जीतने का पहला प्रयास विफल हुआ और पृथ्वीराज ने 1190 ई0 में तराईन की पहली लड़ाई में उसे हरा दिया। वह 1193 ई0 में तराईन की दूसरी लड़ाई में ही पृथ्वीराज को हराने में सफल हुआ। इस विजय के बाद शहाबुद्दीन और उसके सेनापतियों ने उत्तरी भारत के दूसरे हिन्दू राजाओं को भी हरा दिया और वहाँ मुसलमानी शासन स्थापित कर दिया। इस तरह तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता में उत्तरी भारत की राजनीतिक एकता फिर से स्थापित हो गई। दक्षिण एक और शताब्दी तक स्वतंत्र रहा, किन्तु सुल्तान ख़िलजी के राज्यकाल में दक्षिण भी दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया और इस तरह चौदहवीं शताब्दी में कुछ काल के लिए सारे भारत का शासन फिर से एक केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत आ गया। परन्तु दिल्ली सल्तनत का शीघ्र ही पतन शुरू हो गया और 1336 ई0 में दक्षिण में हिन्दुओं का एक विशाल राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी विजयनगर थी। बंगाल (1338 ई0), जौनपुर (1393 ई0), गुजरात तथा दक्षिण के मध्यवर्ती भाग में भी बहमनी सल्तनत (1347 ई0) के नाम से स्वतंत्र मुसलमानी राज्य स्थापित हो गया। 1398 ई0 में तैमूर ने भारत पर हमला किया और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे लूटा। उसके हमले से दिल्ली की सल्तनत जर्जर हो गयी।

दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई0 में बाबर ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुग़ल वंश की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई0 तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जज़िया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं। राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके लड़के जहाँगीर जहाँ पौत्र शाहजहाँ क राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने ताज का निर्माण कराया, परन्तु कनदहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु औरंगज़ेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, बुंदेलखण्ड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। महाराष्ट्र में शिवाजी ने 1707 ई0 में औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। औरंगज़ेब अन्तिम महान मुग़ल बादशाह था। उसके उत्तराधिकारी अत्यन्त निर्बल और अयोग्य थे, उनके वज़ीर विश्वासघाती थे। फ़ारस के नादिरशाह ने मुग़ल बादशाहत पर सबसे सांघातिक प्रहार किया। उसने 1739 ई0 में भारत पर चढ़ाई की और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे निर्दयता से पूरी तरह लूटा। उसके हमले से मुग़ल साम्राज्य पूरी तरह जर्जर हो गया और इसके बाद शीघ्रता से उसका विघटन हो गया। अवध, बंगाल तथा दक्षिण के मुसलमान सूबेदारों ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। राजपूत राजा भी अर्द्ध-स्वतंत्र हो गये। पेशवा बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठों ने मुग़ल साम्राज्य के खंडहरों पर हिन्दू पद पादशाह की स्थापना का प्रयास किया।

परन्तु यह सम्भव नहीं हो सका। फिरंगी लोग समुद्री मार्गों से भारत की जमीन पर पैर जमा चुके थे। अकबर से लेकर औरंगज़ेब तक मुग़ल बादशाहों ने भारत के इस नये मार्ग का महत्व नहीं समझा। इनमें से कोई इन नवांगतुकों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का अनुमान नहीं लगा सका और उनके जंगी बेड़े का मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली भारतीय जंगी बेड़ा तैयार करने की आवश्यकता को अनुभव नहीं कर सका। इस तरह भारतीयों की ओर से किसी प्रतिरोध का सामना किये बग़ैर सबसे पुर्तगाली भारत पहुँचे। उसके बाद डच, अंग्रेज, फ्राँसीसी आये। सोलहवीं शताब्दी में इन फिरंगियों में आपस में लड़ाइयाँ होती रही, जो अधिकांश समुद्र में हुई। डच और अंग्रेजों ने मिलकर सबसे पहले पुर्तगालियों की सामुद्रिक शक्ति को समाप्त किया। इसके बाद डच लोगों को पता चला कि उनके लिए भारत की अपेक्षा मसाले वाले द्वीपों से व्यापार करना अधिक लाभदायी है। इस तरह भारत में सिर्फ अंग्रेज और फ्राँसीसी लोगों के बीच प्रतिद्वन्द्विता हुई।

अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों की भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई0 में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की दूसरी लड़ाई छेड़ी। एक साल के बाद कर्नाटक की दूसरी लड़ाई शुरू हुई। जिसमें फ्राँसीसी गवर्नर डूप्ले ने पहली लड़ाई से सबक लेते हुए न केवल कर्नाटक के प्रशासन पर, बल्कि निज़ाम के राज्य पर भी फ्राँस का राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करने की कोशिश की। परन्तु अंग्रेजों ने उसकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होने दी। अंग्रेजों को बंगाल में भारी सफलता मिली थी। बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के केवल पचास वर्ष बाद 1757 ई0 में राबर्ट क्लाइब के नेतृत्व में अंग्रेजों ने नवाब सिराजुद्दोला के विरुद्ध विश्वासघातपूर्ण राजद्रोहात्मक षड़यंत्र रचकर प्लासी की लड़ाई जीत ली और बंगाल को एक प्रकार से अपनी मुट्ठी में कर लिया। उन्होंने बंगाल की गद्दी पर एक कठपुतली नवाब मीर ज़ाफ़र को बिठा दिया। इसके बाद एक के बाद, तेज़ी से कई घटनाएँ घटीं।

अहमद शाह अब्दाली ने 1748 से 1760 ई0 के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई0 में पानीपत की तीसरी लड़ाई जीत कर मुग़ल साम्राज्य का फातिहा पढ़ दिया। उसन दिल्ली पर दखल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौका खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फतह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फायदा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।

बंगाल के साधनों से बलशाली होकर अंग्रेजों ने 1760 ई0 में वाण्डीवाश की लड़ाई में फ्राँसीसियों को हरा दिया और 1762 ई0 में उनस पांडेचेरी ले लिया। इस प्रकार उन्होंने भारत में फ्राँसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त कर दी। 1764 ई0 में अंग्रजों ने बक्सर की लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह और अवध के नवाब की सम्मिलित सेना को हरा दिया और 1765 ई0 में बादशाह से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली। इसके फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी को पहली बार बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार के प्रशासन का क़ानूनी अधिकार मिल गया। कुछ इतिहासकार इसे भारत में ब्रिटिश राज्य का प्रारम्भ मानते हैं। 1773 ई0 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने एक रेग्युलेटिंग एक्ट पास करके भारत में ब्रिटिश प्रशासन को व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया। इस एक्ट के अंतर्गत भारत में कम्पनी क्षेत्रों का प्रशासन गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की कौंसिल गठित की गयी। एक्ट में बंगाल के गवर्नर को गवर्नर-जनरल का पद प्रदान किया गया और कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की भी स्थापना की गयी। वारेन हेस्टिग्स, जो उस समय बंगाल का गवर्नर था, 1773 ई0 में पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया।

1773 ई0 से 1947 ई0 तक का काल, जब भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ और भारत स्वाधीन हुआ, दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला, कम्पनी का शासनकाल, जो 1858 ई0 तक चला और दूसरा, 1858 से 1947 ई0 तक का काल, जब भारत का शासन सीधे ब्रिटेन द्वारा होने लगा। कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों के हाथों मे रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों के साथ तीन, बर्मा तथा सिखों के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। उसने जिन फौजों से लड़ाई की उनमें से अधिकांश भारतीय सिपाही थे और लड़ाई का खर्च पूरी तरह भारतीय करदाता को उठाना पड़ा। इन लड़ाइयों के फलस्वरूप 1857 ई0 तक सारे भारत पर सीधे कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो गया। दो-तिहाई भारत पर देशी राज्यों का शासन बना रहा। परन्तु उन्होंने कम्पनी का सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ तथा आश्रित मित्र राजा के रूप में अपनी रियासत का शासन चलाते रहे।

इस काल में सती प्रथा का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गय। अंग्रेजी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में कदम उठाये गये, अंग्रेजी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान जाब्ता दीवानी और जाब्ता फौजदारी कानून लागू कर दिया गया, जिससे सारे देश में एकता की नयी भावना पैदा हो गयी। परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेजों के हाथों में रहा। 1833 के चार्टर एक्ट के विपरीत ऊँचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया गया। भाप से चलने वाले जहाजों और रेलगाड़ियों का प्रचलन, ईसाई मिशनरियों द्वारा आक्षेपजनक रीति से ईसाई धर्म का प्रचार, लार्ड डलहौजी द्वारा जब्ती का सिद्धांत लागू करके अथवा कुशासन के आधार पर कुछ पुरानी देशी रियासतों की जब्ती तथा ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों की शिकायतें—इन सब कारणों ने मिलकर सारे भारत में एक गहरे असंतोष की आग धधका दी, जो 1857-58 ई0 में गदर के रूप में भड़क उठी।

अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को गदर से अलग रखा। देश की अधिकांश जनता ने भी इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया। फलस्वरूप कम्पनी को बल पूर्वक गदर को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु गदर के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा। महारानी बिक्टोरिया ने एक घोषणा पत्र जारी करके अपनी भारतीय प्रजा को उसके कुछ अधिकारों तथा कुछ स्वाधीनताओं के बारे में आश्वासन दिया।

इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई0) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधी) कहा जाने लगा। लार्ड कैनिंग पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है—भारत में राष्ट्रवादी भावना का उदय और 1947 ई0 में भारत की स्वाधीनता के रूप में अंतिम विजय। 1857 ई0 में कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद शिक्षा का प्रसार होने लगा तथा 1869 ई0 में स्वेज नहर खुलने के बाद इंग्लैण्ड तथा यूरोप से निकट सम्पर्क स्थापित हो जाने से भारत में नये मध्यवर्ग का विकास हुआ। यह मध्य वर्ग पश्चिमी दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र के विचारों से प्रभावित था और ब्रिटिश शासन में भारतीयों को जो नीचा दर्जा मिला हुआ था, उससे रुष्ट था। ब्रिटिश में स्थापित शान्ति के फलस्वरूप यह वर्ग सारे भारत को एक देश तथा समस्त भारतीयों को एक कौम मानने लगा और ब्रिटेन की भाँति संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना उसका लक्ष्य बन गया। वह एक ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस करने लगा जो समस्त भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सक। इसके फलस्वरूप 1885 ई0 में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई0 में कलकत्ता में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। लार्ड डफरिन ने कांग्रेस पर व्यग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया जिसे सिर्फ खुर्दवीन से देखा जा सकता है। लार्ड लैन्सडाउन ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, लार्ड कर्जन ने उसका खुलेआम मजाक उड़ाया तथा लार्ड मिन्टो द्वितीय ने 1909 के इंडियन कौंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुपात से अनुचित रीति से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस जिन्दा रही।