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'''नागार्जुन''' (जन्म- [[30 जून]], [[1911]], [[दरभंगा ज़िला]], [[बिहार]], -  मृत्यु- [[5 नवंबर]], [[1998]], दरभंगा ज़िला, बिहार) प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि हैं। नागार्जुन ने [[1945]] ई. के आसपास साहित्य सेवा के क्षेत्र में क़दम रखा।  
'''नागार्जुन''' (जन्म- [[30 जून]], [[1911] -  मृत्यु- [[5 नवंबर]], [[1998]]) प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि हैं। नागार्जुन ने [[1945]] ई. के आसपास साहित्य सेवा के क्षेत्र में क़दम रखा। शून्यवाद के रूप में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। नागार्जुन का असली नाम 'वैद्यनाथ मिश्र' था। [[हिन्दी साहित्य]] में उन्होंने 'नागार्जुन' तथा [[मैथिली भाषा|मैथिली]] में 'यात्री' उपनाम से रचनाएँ कीं।   
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
शून्यवाद के रूप में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। हिन्दी साहित्य में उन्होंने 'नागार्जुन' तथा मैथिली में 'यात्री' उपनाम से रचनाएँ कीं।
30 जून सन् 1911 के दिन [[ज्येष्ठ]] [[मास]] की [[पूर्णिमा]] का [[चन्द्रमा]] [[हिन्दी]] काव्य जगत् के उस दिवाकर के उदय का साक्षी था, जिसने अपनी फ़क़ीरी और बेबाक़ी से अपनी अनोखी पहचान बनाई। [[कबीर]] की पीढ़ी का यह महान कवि नागार्जुन के नाम से जाना गया। [[मधुबनी ज़िला|मधुबनी ज़िले]] के सतलखा गाँव की धरती बाबा नागार्जुन की जन्मभूमि बन कर धन्य हो गई। ‘यात्री’ आपका उपनाम था और यही आपकी प्रवृत्ति की संज्ञा भी थी। परंपरागत प्राचीन पद्धति से [[संस्कृत]] की शिक्षा प्राप्त करने वाले बाबा नागार्जुन हिन्दी, मैथिली, संस्कृत तथा [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] में कविताएँ लिखते थे। मैथिली भाषा में लिखे गए आपके काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी काव्य-मंच पर अपनी सत्यवादिता और लाग-लपेट से रहित कविताएँ लम्बे युग तक गाने के बाद 5 नवम्बर सन् 1998 को [[ख्वाजा सराय]], [[दरभंगा]], [[बिहार]] में यह रचनाकार हमारे बीच से विदा हो गया।<ref>{{cite web |url=http://kavyanchal.com/parichay/?p=221 |title=नागार्जुन |accessmonthday=31 जनवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=काव्यांचल |language=हिंदी }}</ref>
==साहित्यिक परिचय==
उनके स्वयं कहे अनुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि किसी छिटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। सो कुल मिलाकर तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित ही मानना चाहिए। हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं। यह सर्वविदित है। उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नही जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। अबतक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है। अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है। फटेहाली महज कोई बौद्धिक प्रदर्शन है। इस पथ को प्रशस्त करने का भी मैथिली-श्रेय यात्री जी को ही है।
====मैथिली-भाषा आंदोलन====
इनके पूर्व तक, मैथिली लेखक-कवि के लिए भले मैथिली-भाषा-आंदोलन की ऐतिहासिक विवशता रही हो, लेकिन कवि-लेखक बहुधा इस बात और व्यवहार पर आत्ममुग्ध ढंग से सक्रिय थे कि ‘साइकिल की हैंडिल मे अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में अपना जीवन दान कर दिया। इसके बदले में किसी प्राप्ति की आशा नहीं रखी। मातृभाषा की सेवा के बदले कोई दाम क्या मैथिली और हिंदी का भाषिक विचार उनका हू-बहू वैसा नहीं पाया गया जैसा आम तौर से इन दोनों ही भाषाओं के इतिहास-दोष या राष्ट्रभाषा बनाम मातृभाषा की द्वन्द्वात्मकता में देखने-मानने का चलन है।<ref>{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF#.UQptdx0X5bt |title=नागार्जुन/परिचय |accessmonthday=31 जनवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गद्यकोश |language=हिंदी }}</ref>
 
==कृतियाँ==
==कृतियाँ==
 
नागार्जुन के गीतों में काव्य की पीड़ा जिस लयात्मकता के साथ व्यक्त हुई है, वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देती। आपने काव्य के साथ-साथ गद्य में भी लेखनी चलाई। आपके अनेक हिन्दी उपन्यास, एक मैथिली उपन्यास तथा संस्कृत भाषा से हिन्दी में अनूदित ग्रंथ भी प्रकाशित हुए। काव्य-जगत् को आप एक दर्जन काव्य-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली कविता संग्रह तथा एक संस्कृत काव्य ‘धर्मलोक शतकम्’ थाती के रूप में देकर गए। प्रकाशित कृतियों में पहला वर्ग उपन्यासों का है।
प्रकाशित कृतियों में पहला वर्ग उपन्यासों का है।
====उपन्यास====
====<u>उपन्यास</u>====
*'रतिनाथ की चाची' ([[1948]] ई.)
*'रतिनाथ की चाची' ([[1948]] ई.)
*'बलचनमा' ([[1952]] ई.)
*'बलचनमा' ([[1952]] ई.)
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*'वरुण के बेटे' (1957 ई.)
*'वरुण के बेटे' (1957 ई.)
इन औपन्यासिक कृतियों में नागार्जुन सामाजिक समस्याओं के सधे हुए लेखक के रूप में सामने आते हैं। जनपदीय संस्कृति और लोक जीवन उनकी कथा-सृष्टि का चौड़ा फलक है। उन्होंने कहीं तो आंचलिक परिवेश में किसी ग्रामीण परिवेश के सुख-दु:ख की कहानी कही हैं, कहीं मार्क्सवादी सिद्धान्तो की झलक देते हुए सामाजिक आन्दोलनों का समर्थन किया है और कहीं-कहीं समाज में व्याप्त शोषण वृत्ति एवं धार्मिक सामाजिक कृतियों पर कुठाराघात किया है। इन सन्दर्भों में नागार्जुन की 'बाबा वटेश्वरनाथ' रचना उल्लेखनीय एवं परिपुष्ट कृति है। इसमें ज़मींदारी उन्मूलन के बाद की सामाजिक समस्याओं एवं ग्रामीण परिस्थितियों का अंकन हुआ है। और निदान रूप में समाजवादी संगठन द्वारा व्यापक संघर्ष की परिकल्पा की गई है। कथा के प्रस्तुतीकरण के लिए व्यवहृत किये जाने तक एक अभिनव रोचक शिल्प की दृष्टि से भी नागार्जुन का यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण है।
इन औपन्यासिक कृतियों में नागार्जुन सामाजिक समस्याओं के सधे हुए लेखक के रूप में सामने आते हैं। जनपदीय संस्कृति और लोक जीवन उनकी कथा-सृष्टि का चौड़ा फलक है। उन्होंने कहीं तो आंचलिक परिवेश में किसी ग्रामीण परिवेश के सुख-दु:ख की कहानी कही हैं, कहीं मार्क्सवादी सिद्धान्तो की झलक देते हुए सामाजिक आन्दोलनों का समर्थन किया है और कहीं-कहीं समाज में व्याप्त शोषण वृत्ति एवं धार्मिक सामाजिक कृतियों पर कुठाराघात किया है। इन सन्दर्भों में नागार्जुन की 'बाबा वटेश्वरनाथ' रचना उल्लेखनीय एवं परिपुष्ट कृति है। इसमें ज़मींदारी उन्मूलन के बाद की सामाजिक समस्याओं एवं ग्रामीण परिस्थितियों का अंकन हुआ है। और निदान रूप में समाजवादी संगठन द्वारा व्यापक संघर्ष की परिकल्पा की गई है। कथा के प्रस्तुतीकरण के लिए व्यवहृत किये जाने तक एक अभिनव रोचक शिल्प की दृष्टि से भी नागार्जुन का यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण है।
====<u>कविता</u>====
====कविता====
नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है। उनकी अनेक कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 'युगधारा' (1952) उनका प्रारम्भिक काव्य संकलन है। इधर की कविताओं का एक संग्रह 'सतरंगे पंखोंवाली' प्रकाशित हुआ है। कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रगतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी हैं। उनकी अनेक कविताएँ प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण इस प्रकार के सहज भाव सौंदर्य से दीप्त हो उठी हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में शिष्ट गम्भीर तथा सूक्ष्म चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से भी नागार्जुन की कुछ रचनाएँ अपनी एक अलग पहचान रखती हैं। इन्होंने कहीं-कहीं सरस मार्मिक प्रकृति चित्रण भी किया है।  
नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है। उनकी अनेक कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 'युगधारा' (1952) उनका प्रारम्भिक काव्य संकलन है। इधर की कविताओं का एक संग्रह 'सतरंगे पंखोंवाली' प्रकाशित हुआ है। कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रगतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी हैं। उनकी अनेक कविताएँ प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण इस प्रकार के सहज भाव सौंदर्य से दीप्त हो उठी हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में शिष्ट गम्भीर तथा सूक्ष्म चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से भी नागार्जुन की कुछ रचनाएँ अपनी एक अलग पहचान रखती हैं। इन्होंने कहीं-कहीं सरस मार्मिक प्रकृति चित्रण भी किया है।  
==भाषा==
==नागार्जुन रचनावली==
नागार्जुन की भाषा लोक भाषा के निकट है। कुछ कविताओं में संस्कृत के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है। किन्तु अधिकतर कविताओं और उपन्यासों की भाषा सरल है। तदभव तथा ग्रामीण शब्दों के प्रयोग के कारण इसमें एक विचित्र प्रकार की मिठास आ गई है।
सात बृहत् खंडों में प्रकाशित नागार्जुन रचनावली है जिसका एक खंड यात्री समग्र जो मैथिली समेत बांग्ला, संस्कृत आदि भाषाओं में लिखित रचनाओं का है। मैथिली कविताओं की अब तक प्रकाशित यात्री  जी की दोनों पुस्तकें क्रमशः ‘चित्रा’ और ‘पत्राहीन नग्न गाछ’ (साहित्य अकादेमी पुरस्कृत) समेत उनकी समस्त छिटफुट मैथिली कविताओं के संग्रह हैं।
==शैली==
==भाषा शैली==
नागार्जुन की शैलीगत विशेषता भी यही है। वे लोकमुख की वाणी बोलना चाहते हैं।
नागार्जुन की भाषा लोक भाषा के निकट है। कुछ कविताओं में संस्कृत के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है। किन्तु अधिकतर कविताओं और उपन्यासों की भाषा सरल है। तदभव तथा ग्रामीण शब्दों के प्रयोग के कारण इसमें एक विचित्र प्रकार की मिठास आ गई है। नागार्जुन की शैलीगत विशेषता भी यही है। वे लोकमुख की वाणी बोलना चाहते हैं।
==मृत्यु==
==मृत्यु==
नागार्जुन की मृत्यु [[5 नवंबर]], [[1998]] ई. को [[ख्वाजा सराय]], [[दरभंगा]], बिहार, भारत में हुई थी।
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13:23, 31 जनवरी 2013 का अवतरण

नागार्जुन
नागार्जुन
नागार्जुन
पूरा नाम वैद्यनाथ मिश्र
अन्य नाम नागार्जुन, यात्री
जन्म 30 जून, 1911
जन्म भूमि दरभंगा ज़िला, बिहार
मृत्यु 5 नवंबर, 1998
मृत्यु स्थान दरभंगा ज़िला, बिहार
पति/पत्नी अपराजिता देवी
मुख्य रचनाएँ रतिनाथ की चाची (1948 ई.), बलचनमा (1952 ई.), नयी पौध (1953 ई.), बाबा वटेश्वरनाथ (1954 ई.), दुखमोचन (1957 ई.), वरुण के बेटे (1957 ई.)
पुरस्कार-उपाधि 1969 साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1994 साहित्य अकादमी फैलोशिप
प्रसिद्धि लेखक और कवि
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी नागार्जुन की भाषा लोक भाषा के निकट है। कुछ कविताओं में संस्कृत के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है।
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इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

नागार्जुन (जन्म- 30 जून, [[1911] - मृत्यु- 5 नवंबर, 1998) प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि हैं। नागार्जुन ने 1945 ई. के आसपास साहित्य सेवा के क्षेत्र में क़दम रखा। शून्यवाद के रूप में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। नागार्जुन का असली नाम 'वैद्यनाथ मिश्र' था। हिन्दी साहित्य में उन्होंने 'नागार्जुन' तथा मैथिली में 'यात्री' उपनाम से रचनाएँ कीं।

जीवन परिचय

30 जून सन् 1911 के दिन ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा हिन्दी काव्य जगत् के उस दिवाकर के उदय का साक्षी था, जिसने अपनी फ़क़ीरी और बेबाक़ी से अपनी अनोखी पहचान बनाई। कबीर की पीढ़ी का यह महान कवि नागार्जुन के नाम से जाना गया। मधुबनी ज़िले के सतलखा गाँव की धरती बाबा नागार्जुन की जन्मभूमि बन कर धन्य हो गई। ‘यात्री’ आपका उपनाम था और यही आपकी प्रवृत्ति की संज्ञा भी थी। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने वाले बाबा नागार्जुन हिन्दी, मैथिली, संस्कृत तथा बांग्ला में कविताएँ लिखते थे। मैथिली भाषा में लिखे गए आपके काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी काव्य-मंच पर अपनी सत्यवादिता और लाग-लपेट से रहित कविताएँ लम्बे युग तक गाने के बाद 5 नवम्बर सन् 1998 को ख्वाजा सराय, दरभंगा, बिहार में यह रचनाकार हमारे बीच से विदा हो गया।[1]

साहित्यिक परिचय

उनके स्वयं कहे अनुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि किसी छिटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। सो कुल मिलाकर तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित ही मानना चाहिए। हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं। यह सर्वविदित है। उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नही जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। अबतक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है। अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है। फटेहाली महज कोई बौद्धिक प्रदर्शन है। इस पथ को प्रशस्त करने का भी मैथिली-श्रेय यात्री जी को ही है।

मैथिली-भाषा आंदोलन

इनके पूर्व तक, मैथिली लेखक-कवि के लिए भले मैथिली-भाषा-आंदोलन की ऐतिहासिक विवशता रही हो, लेकिन कवि-लेखक बहुधा इस बात और व्यवहार पर आत्ममुग्ध ढंग से सक्रिय थे कि ‘साइकिल की हैंडिल मे अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में अपना जीवन दान कर दिया। इसके बदले में किसी प्राप्ति की आशा नहीं रखी। मातृभाषा की सेवा के बदले कोई दाम क्या मैथिली और हिंदी का भाषिक विचार उनका हू-बहू वैसा नहीं पाया गया जैसा आम तौर से इन दोनों ही भाषाओं के इतिहास-दोष या राष्ट्रभाषा बनाम मातृभाषा की द्वन्द्वात्मकता में देखने-मानने का चलन है।[2]

कृतियाँ

नागार्जुन के गीतों में काव्य की पीड़ा जिस लयात्मकता के साथ व्यक्त हुई है, वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देती। आपने काव्य के साथ-साथ गद्य में भी लेखनी चलाई। आपके अनेक हिन्दी उपन्यास, एक मैथिली उपन्यास तथा संस्कृत भाषा से हिन्दी में अनूदित ग्रंथ भी प्रकाशित हुए। काव्य-जगत् को आप एक दर्जन काव्य-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली कविता संग्रह तथा एक संस्कृत काव्य ‘धर्मलोक शतकम्’ थाती के रूप में देकर गए। प्रकाशित कृतियों में पहला वर्ग उपन्यासों का है।

उपन्यास

  • 'रतिनाथ की चाची' (1948 ई.)
  • 'बलचनमा' (1952 ई.)
  • 'नयी पौध' (1953 ई.)
  • 'बाबा वटेश्वरनाथ' (1954 ई.)
  • 'दुखमोचन' (1957 ई.)
  • 'वरुण के बेटे' (1957 ई.)

इन औपन्यासिक कृतियों में नागार्जुन सामाजिक समस्याओं के सधे हुए लेखक के रूप में सामने आते हैं। जनपदीय संस्कृति और लोक जीवन उनकी कथा-सृष्टि का चौड़ा फलक है। उन्होंने कहीं तो आंचलिक परिवेश में किसी ग्रामीण परिवेश के सुख-दु:ख की कहानी कही हैं, कहीं मार्क्सवादी सिद्धान्तो की झलक देते हुए सामाजिक आन्दोलनों का समर्थन किया है और कहीं-कहीं समाज में व्याप्त शोषण वृत्ति एवं धार्मिक सामाजिक कृतियों पर कुठाराघात किया है। इन सन्दर्भों में नागार्जुन की 'बाबा वटेश्वरनाथ' रचना उल्लेखनीय एवं परिपुष्ट कृति है। इसमें ज़मींदारी उन्मूलन के बाद की सामाजिक समस्याओं एवं ग्रामीण परिस्थितियों का अंकन हुआ है। और निदान रूप में समाजवादी संगठन द्वारा व्यापक संघर्ष की परिकल्पा की गई है। कथा के प्रस्तुतीकरण के लिए व्यवहृत किये जाने तक एक अभिनव रोचक शिल्प की दृष्टि से भी नागार्जुन का यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण है।

कविता

नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है। उनकी अनेक कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 'युगधारा' (1952) उनका प्रारम्भिक काव्य संकलन है। इधर की कविताओं का एक संग्रह 'सतरंगे पंखोंवाली' प्रकाशित हुआ है। कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रगतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी हैं। उनकी अनेक कविताएँ प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण इस प्रकार के सहज भाव सौंदर्य से दीप्त हो उठी हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में शिष्ट गम्भीर तथा सूक्ष्म चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से भी नागार्जुन की कुछ रचनाएँ अपनी एक अलग पहचान रखती हैं। इन्होंने कहीं-कहीं सरस मार्मिक प्रकृति चित्रण भी किया है।

नागार्जुन रचनावली

सात बृहत् खंडों में प्रकाशित नागार्जुन रचनावली है जिसका एक खंड यात्री समग्र जो मैथिली समेत बांग्ला, संस्कृत आदि भाषाओं में लिखित रचनाओं का है। मैथिली कविताओं की अब तक प्रकाशित यात्री जी की दोनों पुस्तकें क्रमशः ‘चित्रा’ और ‘पत्राहीन नग्न गाछ’ (साहित्य अकादेमी पुरस्कृत) समेत उनकी समस्त छिटफुट मैथिली कविताओं के संग्रह हैं।

भाषा शैली

नागार्जुन की भाषा लोक भाषा के निकट है। कुछ कविताओं में संस्कृत के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है। किन्तु अधिकतर कविताओं और उपन्यासों की भाषा सरल है। तदभव तथा ग्रामीण शब्दों के प्रयोग के कारण इसमें एक विचित्र प्रकार की मिठास आ गई है। नागार्जुन की शैलीगत विशेषता भी यही है। वे लोकमुख की वाणी बोलना चाहते हैं।

मृत्यु

नागार्जुन की मृत्यु 5 नवंबर, 1998 ई. को ख्वाजा सराय, दरभंगा, बिहार, भारत में हुई थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नागार्जुन (हिंदी) काव्यांचल। अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2013।
  2. नागार्जुन/परिचय (हिंदी) गद्यकोश। अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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