"अनमोल वचन 15": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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* चंदन घिसे जाने पर पुन: पुन: अधिक गंध छोड़ता है। गन्ना चूसने पर पुन: पुन: स्वादिष्ट रहता है। सोना जलाने पर पुन: पुन: सुंदर वर्ण ही रहता है। प्राणांत होने पर भी उत्तम व्यक्तियों का स्वभाव विकृत नहीं होता। ~ अज्ञात | * चंदन घिसे जाने पर पुन: पुन: अधिक गंध छोड़ता है। गन्ना चूसने पर पुन: पुन: स्वादिष्ट रहता है। सोना जलाने पर पुन: पुन: सुंदर वर्ण ही रहता है। प्राणांत होने पर भी उत्तम व्यक्तियों का स्वभाव विकृत नहीं होता। ~ अज्ञात | ||
==चाणक्य== | |||
* हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ो को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं। ~ चाणक्य | * हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ो को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं। ~ चाणक्य | ||
* प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य | * प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य | ||
* | * समुद्रों में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना वृथा है, धनाढ्यों को धन देना तथा दिन के समय दिए का जला लेना निरर्थक है। ~ चाणक्यनीति | ||
* | * जो विद्या पुस्तक में रखी हो, मस्तिष्क में संचित हो और जो धन दूसरे के हाथ में चला गया हो, आवश्यकता पड़ने पर न वह विद्या ही काम आ सकती है और न वह धन ही। ~ चाणक्य | ||
* आंख के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता, मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं दिखता। ~ चाणक्य | |||
* ईश्वर न तो काष्ठ में विद्यमान रहता है, न पाषाण में और न ही मिट्टी की मूर्ति में। वह तो भावों में निवास करता है। ~ चाणक्य | |||
* फल मनुष्य के कर्म के अधीन है, बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, फिर भी विद्वान और महात्मा लोग अच्छी तरह से विचार कर ही कोई कर्म करते हैं। ~ चाणक्य | |||
* बुद्धिमान को चाहिए कि वह धन का नाश, मन का संताप, घर के दोष, किसी के द्वारा ठगा जाना और अमानित होना-इन बातों को किसी के समक्ष न कहे। ~ चाणक्यनीति | |||
* जिस गुण का दूसरे लोग वर्णन करते हैं उससे निर्गुण भी गुणवान होता है। ~ चाणक्य | |||
* स्वयं अपने गुणों का बखान करने से इंद्र भी छोटा हो जाता है। ~ चाणक्य | |||
* गुणों से ही मनुष्य महान होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से नहीं। महल के कितने भी ऊंचे शिखर पर बैठने से भी कौआ गरुड़ नहीं हो जाता। ~ चाणक्य | |||
* गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं, जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमा वैसा वंदनीय नहीं है जैसा निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा। ~ चाणक्य | |||
* भली स्त्री से घर की रक्षा होती है। ~ चाणक्य | |||
* पानी में तेल, दुर्जन में गुप्त बात, सत्पात्र में दान और विद्वान व्यक्ति में शास्त्र का उपदेश थोड़ा भी हो, तो स्वयं फैल जाता। ~ चाणक्यनीति | |||
* तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक कि वह पास नहीं आ जाता। परंतु भय को अपने निकट देखकर प्रहार करके उसे नष्ट करना ही ठीक है। ~ चाणक्य | |||
* ब्रह्माज्ञानी को स्वर्ग तृण है, शूर को जीवन तृण है, जिसने इंद्रियों को वश में किया उसको स्त्री तृण-तुल्य जान पड़ती है, निस्पृह को जगत तृण है। ~ चाणक्य | |||
* जिस देश में मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का लाभ भी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य | |||
* दूसरों की सुन लो, लेकिन अपना फैसला गुप्त रखो। ~ चाणक्य | |||
* दूध का आश्रय लेनेवाला पानी दूध हो जाता है। ~ चाणक्यसूत्राणि | |||
* धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है, धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वाभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्यनीति | |||
* तीर्थों के सेवन का फल समय आने पर मिलता है, किंतु सज्जनों की संगति का फल तुरंत मिलता है। ~ चाणक्य | |||
* यदि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करें तो दूसरे के गुणों को मान्यता दो। ~ चाणक्य | |||
* मेहनत वह चाबी है जो किस्मत का दरवाजा खोल देती है। ~ चाणक्य | |||
* जो प्रकृति से ही महान हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक)ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती। ~ चाणक्य | |||
* प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। ~ चाणक्य | |||
* कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य | |||
* जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां धान्य भविष्य के लिए संग्रहीत किया हुआ है, जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होती- वहां मानो लक्ष्मी स्वयमेव आई हुई है। ~ चाणक्य नीति | |||
* मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो। ~ चाणक्य | |||
* शांति के समान दूसरा तप नहीं है, न संतोष से परे सुख है, तृष्णा से बढ़कर दूसरी व्याधि नहीं है, न दया से अधिक धर्म है। ~ चाणक्य | |||
* सज्जनों का सत्संग ही स्वर्ग में निवास के समान है। ~ चाणक्य | |||
* समृद्धि व्यक्तित्व की देन है, भाग्य की नहीं। ~ चाणक्य | |||
* अपमानपूर्वक जीने से अच्छा है प्राण त्याग देना। प्राण त्यागने में कुछ समय का दुख होता है, लेकिन अपमानपूर्वक जीने में तो प्रतिदिन का दुख सहना होता है। ~ चाणक्य | |||
* सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख कहां? सुख चाहने वाले को विद्या और विद्यार्थी को सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए। ~ चाणक्यनीति | |||
* शांति जैसा तप नहीं है, संतोष से बढ़कर सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर रोग नहीं है और दया से बढ़कर धर्मा नहीं है। ~ चाणक्यनीति | |||
* | ==विनोबा== | ||
* | * किसी को भी भूख-प्यास अगर न लगती तो हमें अतिथि सत्कार का मौका कैसे मिलता। ~ विनोबा | ||
* मन में | * धर्म का कार्य मनुष्य के हृदय को विशाल बनाना है। ~ विनोबा भावे | ||
* चाहे | * कलियुग में रहना है या सतयुग में: यह तो स्वयं चुनो, तुम्हारा युग तुम्हारे पास है। ~ विनोबा | ||
* | * पत्थर में ईश्वर के दर्शन करना काव्य का काम है। इसके लिए व्यापक प्रेम की आवश्यकता है। ज्ञानेश्वर महाराज भैंसे की आवाज़ में भी वेद श्रवण कर सके, इसलिए वह कवि हैं। ~ विनोबा भावे | ||
* जो नेक काम करता है और नाम की इच्छा नहीं रखता, उसकी चित्त शुद्धि होती है और उसका काम सहज ही परमात्मा को अर्पित हो जाता है। ~ विनोबा | |||
* कर्म ही मनुष्य के जीवन को पवित्र और अहिंसक बनाता है। ~ विनोबा | |||
* कर्म वह आईना है जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है। अत: हमें कर्म का एहसानमंद होना चाहिए। ~ विनोबा | |||
* काम आरंभ करने मे देर न करो। और अगर काम शुरू कर दिया है तो उसे पूरा कर के ही छोड़ो। ~ विनोबा भावे | |||
* निरहंकारिता से सेवा की कीमत बढ़ती है और अहंकार से घटती है। ~ विनोबा | |||
* जहां भगवान हैं और जहां भक्त हैं वहां सब कुछ है, लेकिन भगवान को तो हमने देखा नहीं, भक्त को हम देख सकते हैं, इसलिए हमारी निगाह में भक्त की महिमा बढ़ जाती है। ~ विनोबा | |||
* जो सेवा भावी है, उसे सेवा खोजने या पूछने की जरूरत नहीं होती। जरूरत पहचान कर वह स्वयं को वहां प्रस्तुत कर देता है। ~ विनोबा भावे | |||
* डर रखने से हम अपनी जिंदगी को बढ़ा तो नहीं सकते। डर रखने से बस इतना होता है कि हम ईश्वर को भूल जाते हैं, इंसानियत को भूल जाते हैं। ~ विनोबा भावे | |||
* त्याग पीने की दवा है, दान सिर पर लगाने की सौंठ। त्याग में अन्याय के प्रति चिढ़ है, दान में नाम का लिहाज है। ~ विनोबा भावे | |||
* सच्चा बलवान तो वही होता है, जिसने अपने मन पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया हो। ~ विनोबा भावे | |||
* स्वधर्म के प्रति प्रेम, परधर्म के प्रति आदर और अधर्म के प्रति उपेक्षा करनी चाहिए। ~ विनोबा | |||
* नम्रता की ऊंचाई का कोई नाप नहीं होता। ~ विनोबा | |||
* जिसने ज्ञान को आचरण मे उतार लिया, उसने ईश्वर को ही मूर्तिमान कर लिया। ~ विनोबा भावे | |||
* जब तक तकलीफ सहने की तैयारी नहीं होती तब तक फ़ायदा दिखाई दे ही नहीं सकता। फायदे की इमारत नुकसान की धूप में बनी है। ~ विनोबा | |||
* सेवा छोटी है या बड़ी, इसकी कीमत नहीं है। किस भावना से, किस दृष्टि से वह की जा रही है, उसकी कीमत है। ~ विनोबा | |||
* द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है। ~ विनोबा | |||
* सुधारक चाहे कितना भी श्रेष्ठ पंक्ति का क्यों न हो, जब तक जनता उसे परख नहीं लेगी, उसकी बात नहीं सुनेगी। ~ विनोबा भावे | |||
* मनुष्य जितना ज्ञान में घुल गया हो, उतना ही वह कर्म के रंग में रंग जाता है। ~ विनोबा | |||
* ऐसी कोई वस्तु नहीं जो अभ्यास से प्राप्त न की जा सकती हो। कोई अभ्यास के बल पर आकाश में गति पा लेते हैं। कोई बाघ और सांपों को काबू कर लेते हैं। कोई तो अभ्यास से शब्द ब्रह्मा को मात दे देते हैं। ~ संत ज्ञानेश्वर | ==प्रेमचंद== | ||
* अभ्यास करते करते जड़मति भी सुजान हो जाता है। रस्सी पर बार बार आने-जाने से पत्थर पर भी निशान बन जाता है। ~ वृंद | * अधिकार में स्वयं एक आनंद है, जो उपयोगिता की परवाह नहीं करता। ~ प्रेमचंद | ||
* अभ्यास के लिए अभिलाषा जरूरी है। जिस अभिलाषा में शक्ति नहीं, उसकी पूर्ति असंभव है। ~ गुलाब रत्न वाजपेयी | * अनाथ बच्चों का हृदय उस चित्र की भांति होता है जिस पर एक बहुत ही साधारण परदा पड़ा हुआ हो। पवन का साधारण झकोरा भी उसे हटा देता है। ~ प्रेमचन्द्र | ||
* आलस्य वह राजरोग है जिसका रोगी कभी संभल नहीं पाता। ~ प्रेमचंद | |||
* अधिक संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट रहता है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | * आलोचना और दूसरों की बुराइयां करने में बहुत फर्क है। आलोचना करीब लाती है और बुराई दूर करती है। ~ प्रेमचंद | ||
* जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | * आशा उत्साह की जननी है। आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। ~ प्रेमचंद्र | ||
* जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | * अगर मूर्ख, लोभ और मोह के पंजे में फंस जाएं तो वे क्षम्य हैं, परंतु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थांधता अत्यंत लज्जाजनक है। ~ प्रेमचंद्र | ||
* विषयों की खोज में दुख है। उनकी प्राप्ति होने पर तृप्ति नहीं होती। उनका वियोग होने पर शोक होना निश्चित है। ~ अश्वघोष | * अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता। ~ प्रेमचंद | ||
* शूरवीर व्यक्ति जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं करते। ~ वाल्मीकी | |||
* कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है। ~ प्रेमचंद | |||
* अगर तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को पीड़ा पहुंचती है, तो तुम अपनी सब नेकी नष्ट हुई समझो। ~ तिरुवल्लुवर | * कुल की प्रतिष्ठा भी नम्रता और सद्व्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुखाई से नहीं। ~ प्रेमचंद | ||
* कोई व्यक्ति सच्चाई, ईमानदारी तथा लोेक-हितकारिता के राजपथ पर दृढ़तापूर्वक रहे तो उसे कोई भी बुराई क्षति नहीं पहुंचा सकती। ~ हरिभाऊ उपाध्याय | * क्रांति बैठे-ठालों का खेल नहीं है। वह नई सभ्यता को जन्म देती है। ~ प्रेमचंद | ||
* कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमानवश अज्ञानी समझते हैं। ~ प्रेमचंद | |||
* अगर सिर्फ तजुर्बों से ही अक्लमंद हो जाता तो लंदन के अजायब घर के पत्थर इतने वर्षों बाद संसार के बड़े से बड़े बुद्धिमानों से ज्यादा बुद्धिमान होते। ~ बर्नाड शॉ | * क्रोध और ग्लानि से सद्भावनाएं विकृत हो जाती हैं। जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल वस्तु को दूषित कर देती है। ~ प्रेमचंद | ||
* बुद्धिमान विवेक से, साधारण मनुष्य अनुभव से, अज्ञानी आवश्यकता से और पशु स्वभाव से सीखते हैं। ~ सिसरो | |||
* बुद्धिमान की बुद्धि आइने के समान है। वह स्वर्ग का प्रकाश लेकर उसे दूसरों को दे देती है। ~ हेयर | * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद | ||
* बुद्धिमान मनुष्य का एक दिन मूर्ख के जीवन भर के बराबर होता है। ~ एक कहावत | * जवानी जोश है, बल है, साहस है, दया है, आत्मविश्वास है, गौरव है और वह सब कुछ है जो जीवन को पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण बना देता है। ~ प्रेमचन्द | ||
* बेवकूफ को उससे बड़ा बेवकूफ उसकी प्रशंसा करने वाला मिल जाता है। ~ वाइलो | * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद | ||
* शिक्षित मूर्ख, अशिक्षित की अपेक्षा अधिक बेवकूफ होता है। ~ मौलियर | * जब दूसरों के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई हो, तो उन पांवों को सहलाने में ही कुशल है। ~ प्रेमचंद | ||
* जो अपने को बुद्धिमान समझता है वह सबसे बड़ा बेवकूफ है। ~ वाल्टेयर | |||
* संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए गढ़ी है। ~ प्रेमचन्द | |||
* अधिक धन-संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | * सफलता में अनंत सजीवता होती है, विफलता में असह्य अशक्ति। ~ प्रेमचंद | ||
* जो जिसके हृदय में स्थित है, वह दूर होते हुए भी उसके समीप है, हृदय से निकला हुआ व्यक्ति समीप होने पर भी दूर ही है। ~ शौनकीयनीतिसार | * समानता की बात तो बहुत से लोग करते हैं, लेकिन जब उसका अवसर आता है तो खामोश रह जाते हैं। ~ प्रेमचंद | ||
* समृद्धि शक्ति भर दुर्गुणों को और विपत्ति शक्ति भर गुणों को खोज निकालती है। ~ बेकन | * स्वार्थ में मनुष्य बावला हो जाता है। ~ प्रेमचंद | ||
* महासागर पत्थर फेंकने से चंचल नहीं होता। जो साधक खिन्न हो जाए वह अभी थोड़े पानी में है। ~ शेख सादी | |||
* यश त्याग से मिलता है, धोखे से नहीं। ~ प्रेमचंद | |||
* गलती करना उतना गलत नहीं जितना उन्हें दोहराना है। ~ प्रेमचंद | |||
* चापलूसी का ज़हरीला प्याला आपको तब तक नुकसान नहीं पहुंचा सकता, जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझकर पी न जाएं। ~ प्रेमचंद | |||
* प्रेम एक बीज है, जो एक बार जमकर फिर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। ~ प्रेमचंद | |||
* डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है। वही सीमेंट जो ईंट पर चढ़कर पत्थर हो जाता है, मिट्टी पर चढ़ा दिया जाए तो मिट्टी हो जाएगा। ~ प्रेमचंद | |||
* धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं। ~ प्रेमचंद | |||
* धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं। ~ प्रेमचंद | |||
* मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह जिंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक बरकत है। ~ प्रेमचंद | |||
* वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद | |||
* प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, चाहे वह गेहूं की हों या बाजरे की। ~ प्रेमचंद | |||
* विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद | |||
* मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह जिंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक बरकत है। ~ प्रेमचंद | |||
* दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। ~ प्रेमचंद | |||
* बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएं एक ही केंद्र पर आ लगती हैं। ~ प्रेमचंद | |||
* कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। ~ प्रेमचंद | |||
* न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं। वह जैसा चाहती है नचाती है। ~ प्रेमचंद | |||
* लोकनिंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है। ~ प्रेमचंद | |||
* विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद | |||
* जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाए, जो हमें भोग-विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का खून पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं भ्रष्टता है। ~ प्रेमचंद | |||
* ख्याति-प्रेम वह प्यास है जो कभी नहीं बुझती। वह अगस्त ऋषि की भांति सागर को पीकर भी शांत नहीं होती। ~ प्रेमचंद | |||
* वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है और भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। ~ प्रेमचंद | |||
* विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। ~ प्रेमचंद | |||
* ख़तरा हमारी छिपी हुई हिम्मतों की कुंजी है। खतरे में पड़कर हम भय की सीमाओं से आगे बढ़ जाते हैं। ~ प्रेमचंद | |||
* उपहास और विरोध तो किसी भी सुधारक के लिए पुरस्कार जैसे हैं। ~ प्रेमचंद | |||
* सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए भूलें एक प्रकार की दैविक यंत्रणाएं जो हमें सदा के लिए सतर्क कर देती हैं। ~ प्रेमचंद | |||
* मनुष्य बराबर वालों की हंसी नहीं सह सकता, क्योंकि उनकी हंसी में ईर्ष्या, व्यंग्य और जलन होती है। ~ प्रेमचंद | |||
* हिम्मत और हौसला मुश्किल को आसान कर सकते हैं, आंधी और तूफ़ान से बचा सकते हैं, मगर चेहरे को खिला सकना उनके सार्मथ्य से बाहर है। ~ प्रेमचंद | |||
* घर सेवा की सीढ़ी का पहला डंडा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते। ~ प्रेमचंद | |||
==वेदव्यास== | |||
* अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, विद्वान पुरुष उसके लिए शोक नहीं करता। ~ वेदव्यास | |||
* अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | |||
* अत्यंत लोभी का धन तथा अधिक आसक्ति रखनेवाले का काम- ये दोनों ही धर्म को हानि पहुंचाते हैं। ~ वेदव्यास | |||
* अधिक बलवान तो वे ही होते हैं जिनके पास बुद्धि बल होता है। जिनमें केवल शारीरिक बल होता है, वे वास्तविक बलवान नहीं होते। ~ वेदव्यास | |||
* अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती और हो भी जाए, तो जो विश्वासपात्र नहीं है उससे कुछ लेने को जी ही नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* अपनी प्रभुता के लिए चाहे जितने उपाय किए जाएं परंतु शील के बिना संसार में सब फीका है। ~ वेदव्यास | |||
* जो विपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय आने पर दुख भी सह लेता है, उसके शत्रु पराजित ही हैं। ~ वेदव्यास | |||
* जैसे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है। ~ वेद व्यास | |||
* जो मनुष्य नाश होने वाले सब प्राणियों में सम भाव से रहने वाले अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही सत्य को देखता है। ~ वेदव्यास | |||
* जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज की अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझने के योग्य है। ~ वेदव्यास | |||
* जो वेद और शास्त्र के ग्रंथों को याद रखने में तत्पर है किन्तु उनके यथार्थ तत्व को नहीं समझता, उसका वह याद रखना व्यर्थ है। ~ वेदव्यास | |||
* जहां कृष्ण हैं वहां धर्म है, और जहां धर्म है वहां जय है। ~ वेदव्यास | |||
* जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन:-पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास | |||
* जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपटपूर्ण हो, वह सत्य नहीं है। ~ वेदव्यास | |||
* जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं, क्षमा करता है, वह अपनी और क्रोध करने वाले की महा संकट से रक्षा करता है। वह दोनों का रोग दूर करने वाला चिकित्सक है। ~ वेदव्यास | |||
* जहां लुटेरो के चंगुल मे फंस जाने पर झूठी शपथ खाने से छुटकारा मिलता हो, वहां झूठ बोलना ही ठीक है। ऐसे मे उसे ही सत्य समझना चाहिए। ~ वेदव्यास | |||
* जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है, और जो इच्छा का बंधुआ मजदूर है, उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्याबी जहां रहे वहीं वन और वही भवन-कंदरा है। ~ वेदव्यास | |||
* जिस मनुष्य की बुद्धि दुर्भावना से युक्त है तथा जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा होने पर भी उन्हें पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता। ~ वेदव्यास | |||
* जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है, उसने मानो सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली। ~ वेदव्यास | |||
* जहां कृष्ण हैं वहां धर्म है, और जहां धर्म है वहां जय है। ~ वेदव्यास | |||
* जिस मनुष्य की बुद्धि दुर्भावना से युक्त है तथा जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा होने पर भी उन्हें पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता। ~ वेदव्यास | |||
* जहां लुटेरो के चंगुल मे फंस जाने पर झूठी शपथ खाने से छुटकारा मिलता हो, वहां झूठ बोलना ही ठीक है। ऐसे मे उसे ही सत्य समझना चाहिए। ~ वेदव्यास | |||
* जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास | |||
* जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास | |||
* जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। ~ वेदव्यास | |||
* जब बोलते समय वक्ता श्रोता की अवहेलना करके दूसरे के लिए अपनी बात कहता है, तब वह वाक्य श्रोता के हृदय में प्रवेश नहीं करता है। ~ वेदव्यास | |||
* जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे उसके साथ भी उसे वैसा व्यवहार करना चाहिए, यह धर्म है। ~ वेदव्यास | |||
* मनुष्य दूसरे के जिस कर्म की निंदा करे उसको स्वयं भी न करे। जो दूसरे की निंदा करता है किंतु स्वयं उसी निंद्य कर्म में लगा रहता है, वह उपहास का पात्र होता है। ~ वेदव्यास | |||
* मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि वह उपकारी के उपकार को कभी न भूले। उसके उपकार से बढ़ कर उसका उपकार कर दे। ~ वेदव्यास | |||
* मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली- भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बड़कर संसार में कुछ भी नहीं है। ~ वेदव्यास | |||
* मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अदोह, अनुग्रह और दान - यह सज्जनों का सनातन धर्म है। ~ वेदव्यास | |||
* माता के रहते मनुष्य को कभी चिंता नहीं होती, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता। जो अपनी मां को पुकारता हुआ घर में प्रवेश करता है, वह निर्धन होता हुआ भी मानो अन्नपूर्णा के पास चला आता है। ~ वेद व्यास | |||
* मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख भी मिट जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत। ~ वेदव्यास | |||
* मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है। ~ वेदव्यास | |||
* संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ है जो मनुष्य की आशाओं का पेट भर सके। पुरुष की आशा समुद्र के समान है, वह कभी भरती ही नहीं। ~ वेदव्यास | |||
* सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। ~ वेदव्यास (महाभारत) | |||
* सत्य ही धर्म, तप और योग है। सत्य ही सनातन ब्रह्मा है, सत्य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्य पर ही टिका है। ~ वेदव्यास | |||
* सत्पुरुष दूसरों के उपकारों को ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किए हुए बैर को नहीं। ~ वेदव्यास | |||
* सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है तथा धर्म से आयु बढ़ती है। ~ वेदव्यास | |||
* स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं। ~ वेदव्यास | |||
* स्वार्थ बड़ा बलवान है। इसी कारण कभी-कभी मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु मित्र। ~ वेदव्यास | |||
* किसी का सहारा लिए बिना कोई ऊंचे नहीं चढ़ सकता, अत: सबको किसी प्रधान आश्रय का सहारा लेना चाहिए। ~ वेदव्यास | |||
* विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है। ~ वेदव्यास | |||
* कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है। ~ वेदव्यास | |||
* धर्म का पालने करने पर जिस धन की प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है। ~ वेदव्यास | |||
* दुखों में जिसका मन उदास नहीं होता, सुखों में जिसकी आसक्ति नहीं होती तथा जो राग, भय व क्रोध से रहित होता है, वही स्थितिप्रज्ञ है। ~ वेदव्यास | |||
* बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। ~ वेदव्यास | |||
* लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोषों को नहीं समझता, वह लोभ और मोह से प्रवृत्त हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* राजधर्म एक नौका के समान है। यह नौका धर्म रूपी समुद्र में स्थित है। सतगुण ही नौका का संचालन करने वाला बल है, धर्मशास्त्र ही उसे बांधने वाली रस्सी है। ~ वेदव्यास | |||
* शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किसके लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेद व्यास | |||
* दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करन। ~ वेदव्यास | |||
* पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भली भांति बढ़ता है। ~ वेदव्यास | |||
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | |||
* यदि अपने पास धन इकट्ठा हो जाए, तो वह पाले हुए शत्रु के समान है क्योंकि उसे छोड़ना भी कठिन हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक करते हैं। ~ वेदव्यास | |||
* कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है। ~ वेदव्यास | |||
* न कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी का शत्रु। स्वार्थ से ही मित्र और शत्रु एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। ~ वेदव्यास | |||
* बलवती आशा कष्टप्रद है। नैराश्य परम सुख है। ~ व्यास | |||
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | |||
* लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोषों को नहीं समझता, वह लोभ और मोह से प्रवृत्त हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* राजधर्म एक नौका के समान है। यह नौका धर्म रूपी समुद्र में स्थित है। सतगुण ही नौका का संचालन करने वाला बल है, धर्मशास्त्र ही उसे बांधने वाली रस्सी है। ~ वेदव्यास | |||
* दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करन। ~ वेदव्यास | |||
* यदि अपने पास धन इकट्ठा हो जाए, तो वह पाले हुए शत्रु के समान है क्योंकि उसे छोड़ना भी कठिन हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* बलवती आशा कष्टप्रद है। नैराश्य परम सुख है। ~ व्यास | |||
* निरोगी रहना, ऋणी न होना, अच्छे लोगों से मेल रखना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निभर्य होकर रहना- ये मनुष्य के सुख हैं। ~ वेदव्यास | |||
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | |||
* शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता हे और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेदव्यास | |||
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | |||
* राजन, यद्यपि कहीं-कहीं शीलहीन मनुष्य भी राज्य लक्ष्मी प्राप्त कर लेते हैं, तथापि वे चिरकाल तक उसका उपभोग नहीं कर पाते और मूल सहित नष्ट हो जाते हैं। ~ वेदव्यास | |||
* बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। ~ वेदव्यास | |||
* राजा की स्थिति प्रजा पर ही निर्भर होती है। जिसे पुरवासी और देशवासियों को प्रसन्न रखने की कला आती है, वह राजा इस लोक और परलोक में सुख पाता है। ~ वेदव्यास | |||
* गहरे जल से भरी हुई नदियां समुद्र में मिल जाती हैं परंतु जैसे उनके जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, उस प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाए, पर लोभी तृप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास | |||
* बाणों से बिंधा हुआ तथा फरसे से कटा हुआ वन भी अंकुरित हो जाता है, किंतु कटु वचन कहकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता। ~ वेदव्यास | |||
* विवेकी पुरुष को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि मैं कहां हूं, कहां जाऊंगा, मैं कौन हूं, यहां किसलिए आया हूं और किसलिए किसका शोक करूं। ~ वेदव्यास | |||
* विजय की इच्छा रखने वाले शूरवीर अपने बल और पराक्रम से वैसी विजय नहीं पाते, जैसी कि सत्य, सज्जनता, धर्म तथा उत्साह से प्राप्त कर लेते हैं। ~ वेदव्यास | |||
* प्रयत्न न करने पर भी विद्वान लोग जिसे आदर दें, वही सम्मानित है। इसलिए दूसरों से सम्मान पाकर भी अभिमान न करे। ~ वेद व्यास | |||
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | |||
* विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और धैर्य, ये पांच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र हैं। बुद्धिमान लोग हमेशा इनके साथ रहते हैं। ~ वेदव्यास | |||
* लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोषों को नहीं समझता, वह लोभ और मोह से प्रवृत्त हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी सब शील के ही आश्रय पर रहते हैं। शील ही सबकी नींव है। ~ वेदव्यास | |||
* बैर के कारण उत्पन होने वाली आग एक पक्ष को स्वाहा किए बिना कभी शांत नहीं होती। ~ वेदव्यास | |||
* मन से दुखों का चिंतन न करना ही दुखों के निवारण की औषधि है। ~ वेदव्यास | |||
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | |||
* किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए और न किसी प्रकार उसे सुनना ही चाहिए। ~ वेदव्यास | |||
* कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है। ~ वेदव्यास | |||
* ज्ञानरूप, जानने योग्य और ज्ञान से प्राप्त होने वाला परमात्मा सबके हृदय में विराजमान है। ~ वेदव्यास | |||
* क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* शोक करनेवाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेदव्यास | |||
* धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी, ये सब मनुष्य के साथ शील के आधार पर रहते हैं। ~ वेदव्यास | |||
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* संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय क्षमा अर्थात सब सहन करने की सामर्थ्य, सभा में अच्छा बोलना और युद्ध में वीरता शोभा देती है। ~ भतृहरि | |||
* किसी मनुष्य में जन साधारण से विशेष गुण या शक्ति का विकास देखकर उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद पद्बति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल | |||
* शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश | |||
* अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन् अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन | |||
* फूल सूंघने से मुरझा जाता है, मगर अतिथि का दिल तोड़ने के लिए एक निगाह ही काफी है। ~ तिरुवल्लुवर | |||
* जिस भांति भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ मधु को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मनुष्य को हिंसा न करते हुए अर्थों को ग्रहण करना चाहिए। ~ विदुर | |||
* हममें दया, प्रेम, त्याग ये सब प्रवृत्तियां मौजूद हैं। इन प्रवृत्तियों को विकसित करके अपने सत्य को और मानवता के सत्य को एकरूप कर देना, यही अहिंसा है। ~ भगवतीचरण वर्मा | |||
* शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | |||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | |||
* मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | |||
* वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | |||
* साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन | |||
* धूल स्वयं अपमान सहन कर लेती है और बदले में पुष्पों का उपहार देती है। ~ रवीन्द्र | |||
* शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश | |||
* मनुष्य का अंत:करण उसके आकार, संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आंख और मुख के विकारों से मालूम पड़ जाता है। ~ पंचतंत्र | |||
* अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन | |||
* अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींचकर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं। ~ महर्षि अरविन्द | |||
* जब प्रकृति को कोई कार्य संपन कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। ~ एमर्सन | |||
* किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है। ~ प्रसाद | |||
* एक दूसरे को इस प्रकार प्रेम करो जैसे गौ अपने बछड़े को करती है। ~ अथर्ववेद | |||
* मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी बात की रक्षा करे। क्योंकि बात बिगड़ जाने पर विनाश हो जाता है। ~ नारायण पंडित | |||
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | |||
* नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को दौड़ता है। ~ नारायण पंडित | |||
* खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | |||
* श्रेष्ठ व्यक्तियों का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थों से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर | |||
* बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | |||
* श्रेष्ठ पुरुषों के मनोरथों को पूर्ण करने में श्रेष्ठ पुरुष ही समर्थ होते हैं। ~ अज्ञात | |||
* संतुष्ट मन वाले के लिए सदा सभी दिशाएं सुखमयी हैं। ~ भागवत | |||
* धनों में श्रद्धारूपी धन ही श्रेष्ठतम है। ~ अश्वघोष | |||
* जीवित होते हुए भी मृत के समान कौन है? जो पुरुषार्थहीन है। ~ शंकराचार्य | |||
* अपने पर अविश्वास का होना अश्रद्धा का रूप है। प्रश्नों का उत्पन्न न होना तो तम या मूर्च्छा है। संदेह या प्रश्नों को परास्त करने की शक्ति ही जिज्ञासु की श्रद्धा कहलाती है। ~ वासुदेवशरण अग्रवाल | |||
* श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा-भर बन सकता है। ~ अज्ञेय | |||
* मन में प्रसन्नता और बड़ी आकांक्षा पैदा कर देना श्रद्धा की पहचान है। ~ मिलिंदप्रश्न | |||
* चाहे गुरु पर हो और चाहे ईश्वर पर हो, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं। ~ समर्थ रामदास | |||
* यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण। ~ रामचंद्र शुक्ल | |||
* मनुष्य के सारे व्यवहारों में ज्वार भाटा का सा उतार चढ़ाव होता है। यदि मनुष्य बाढ़ को पकड़े तो भाग्य की ड्योढ़ी पर पहुंच जाए। ~ शेक्सपियर | |||
* मनुष्य के लिए जीवन में सफलता का रहस्य हर आने वाले अवसर के लिए तैयार रहना है। ~ डिजरायली | |||
* अवसर भी बुद्धिमान के ही पक्ष में लड़ता है, मूर्ख के नहीं। ~ यूरीपेडीज | |||
* अवसर बार बार हाथ नहीं लगता। ऐसा मत सोचो कि अवसर तुम्हारा द्वार दोबारा खटखटाएगा। ~ सफोक्लीज | |||
* समय और उचित अवसर पर बोला गया एक शब्द युगों की बात है। ~ कार्लाइल | |||
* अवसर के अनुकूल आचरण हमें कहीं का कहीं पहुंचा देता है। ~ चेखव | |||
* ऐसी कोई वस्तु नहीं जो अभ्यास से प्राप्त न की जा सकती हो। कोई अभ्यास के बल पर आकाश में गति पा लेते हैं। कोई बाघ और सांपों को काबू कर लेते हैं। कोई तो अभ्यास से शब्द ब्रह्मा को मात दे देते हैं। ~ संत ज्ञानेश्वर | |||
* अभ्यास करते करते जड़मति भी सुजान हो जाता है। रस्सी पर बार बार आने-जाने से पत्थर पर भी निशान बन जाता है। ~ वृंद | |||
* अभ्यास के लिए अभिलाषा जरूरी है। जिस अभिलाषा में शक्ति नहीं, उसकी पूर्ति असंभव है। ~ गुलाब रत्न वाजपेयी | |||
* अधिक संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट रहता है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | |||
* जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | |||
* जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | |||
* विषयों की खोज में दुख है। उनकी प्राप्ति होने पर तृप्ति नहीं होती। उनका वियोग होने पर शोक होना निश्चित है। ~ अश्वघोष | |||
* शूरवीर व्यक्ति जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं करते। ~ वाल्मीकी | |||
* अगर तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को पीड़ा पहुंचती है, तो तुम अपनी सब नेकी नष्ट हुई समझो। ~ तिरुवल्लुवर | |||
* कोई व्यक्ति सच्चाई, ईमानदारी तथा लोेक-हितकारिता के राजपथ पर दृढ़तापूर्वक रहे तो उसे कोई भी बुराई क्षति नहीं पहुंचा सकती। ~ हरिभाऊ उपाध्याय | |||
* अगर सिर्फ तजुर्बों से ही अक्लमंद हो जाता तो लंदन के अजायब घर के पत्थर इतने वर्षों बाद संसार के बड़े से बड़े बुद्धिमानों से ज्यादा बुद्धिमान होते। ~ बर्नाड शॉ | |||
* बुद्धिमान विवेक से, साधारण मनुष्य अनुभव से, अज्ञानी आवश्यकता से और पशु स्वभाव से सीखते हैं। ~ सिसरो | |||
* बुद्धिमान की बुद्धि आइने के समान है। वह स्वर्ग का प्रकाश लेकर उसे दूसरों को दे देती है। ~ हेयर | |||
* बुद्धिमान मनुष्य का एक दिन मूर्ख के जीवन भर के बराबर होता है। ~ एक कहावत | |||
* बेवकूफ को उससे बड़ा बेवकूफ उसकी प्रशंसा करने वाला मिल जाता है। ~ वाइलो | |||
* शिक्षित मूर्ख, अशिक्षित की अपेक्षा अधिक बेवकूफ होता है। ~ मौलियर | |||
* जो अपने को बुद्धिमान समझता है वह सबसे बड़ा बेवकूफ है। ~ वाल्टेयर | |||
* अधिक धन-संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | |||
* जो जिसके हृदय में स्थित है, वह दूर होते हुए भी उसके समीप है, हृदय से निकला हुआ व्यक्ति समीप होने पर भी दूर ही है। ~ शौनकीयनीतिसार | |||
* समृद्धि शक्ति भर दुर्गुणों को और विपत्ति शक्ति भर गुणों को खोज निकालती है। ~ बेकन | |||
* महासागर पत्थर फेंकने से चंचल नहीं होता। जो साधक खिन्न हो जाए वह अभी थोड़े पानी में है। ~ शेख सादी | |||
* अविचारशील मनुष्य दुख को प्राप्त होते हैं। ~ ऋग्वेद | * अविचारशील मनुष्य दुख को प्राप्त होते हैं। ~ ऋग्वेद | ||
* आत्म-विजय अनेक आत्मोत्सर्गों से भी श्रेष्ठतर है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * आत्म-विजय अनेक आत्मोत्सर्गों से भी श्रेष्ठतर है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
* यदि कुछ न हो तो प्रेमपूर्वक बोलकर ही अतिथि का सत्कार करना चाहिए। ~ हितोपदेश | * यदि कुछ न हो तो प्रेमपूर्वक बोलकर ही अतिथि का सत्कार करना चाहिए। ~ हितोपदेश | ||
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* मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है। ~ सुभाषचंद | * मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है। ~ सुभाषचंद | ||
* स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं। ~ अश्विनीकुमार दत्त | * स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं। ~ अश्विनीकुमार दत्त | ||
* केवल शरर के मैल उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से निर्मल बनता है। ~ स्कंदपुराण | * केवल शरर के मैल उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से निर्मल बनता है। ~ स्कंदपुराण | ||
* भक्ति और प्रेम से मनुष्य नि:स्वार्थी बन सकता है। मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है। ~ सुभाषचंद बसु | * भक्ति और प्रेम से मनुष्य नि:स्वार्थी बन सकता है। मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है। ~ सुभाषचंद बसु | ||
पंक्ति 346: | पंक्ति 553: | ||
* जो साधक चरित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है। ~ आचार्य भद्रबाहु | * जो साधक चरित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है। ~ आचार्य भद्रबाहु | ||
* हाथी अपने पैरों से भार अनुभव करता है और चींटी अपने पैरों से। सब अपनी-अपनी समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं। ~ हिंदी लोकोक्ति | * हाथी अपने पैरों से भार अनुभव करता है और चींटी अपने पैरों से। सब अपनी-अपनी समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं। ~ हिंदी लोकोक्ति | ||
* पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | * पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | ||
* विपत्तियों से मूर्च्छित मनुष्य चुल्लू भर पानी से होश में आ जाता है। प्राणहीन मनुष्य पर हजारों घड़े पानी डालो, तो भी कुछ नहीं होता। ~ मुनि रामसिंह | * विपत्तियों से मूर्च्छित मनुष्य चुल्लू भर पानी से होश में आ जाता है। प्राणहीन मनुष्य पर हजारों घड़े पानी डालो, तो भी कुछ नहीं होता। ~ मुनि रामसिंह | ||
* गुणी पुरुषों के संपर्क से छोटा व्यक्ति भी गुरुता प्राप्त कर लेता है। ~ क्षेमेंद्र | * गुणी पुरुषों के संपर्क से छोटा व्यक्ति भी गुरुता प्राप्त कर लेता है। ~ क्षेमेंद्र | ||
* सत्य की सरिता अपनी भूलों की वाहिकाओं से होकर बहती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * सत्य की सरिता अपनी भूलों की वाहिकाओं से होकर बहती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* नम्रता कठोरता से अधिक शक्तिशाली है, जल चट्टान से अधिक शक्तिशाली है, प्रेम बल से अधिक शक्तिशाली है। ~ हरमन हेस | * नम्रता कठोरता से अधिक शक्तिशाली है, जल चट्टान से अधिक शक्तिशाली है, प्रेम बल से अधिक शक्तिशाली है। ~ हरमन हेस | ||
पंक्ति 370: | पंक्ति 574: | ||
* लोक-जीवन से विमुख होकर निर्वाण की कामना विडंबना है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * लोक-जीवन से विमुख होकर निर्वाण की कामना विडंबना है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होमेस | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होमेस | ||
पंक्ति 385: | पंक्ति 587: | ||
* यद्यपि सब कर्म देवाधीन है, तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल | * यद्यपि सब कर्म देवाधीन है, तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल | ||
* जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड | * जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड | ||
* अनुचित आलोचना परोक्ष रूप से आपकी प्रशंसा ही है। ~ डेल कार्नेगी | * अनुचित आलोचना परोक्ष रूप से आपकी प्रशंसा ही है। ~ डेल कार्नेगी | ||
पंक्ति 418: | पंक्ति 619: | ||
* मनुष्य जैसा नित्य यत्न करता है, जिसमें तन्मय होकर जैसी भावना करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है, अन्य प्रकार का नहीं। ~ योगवशिष्ठ | * मनुष्य जैसा नित्य यत्न करता है, जिसमें तन्मय होकर जैसी भावना करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है, अन्य प्रकार का नहीं। ~ योगवशिष्ठ | ||
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | ||
पंक्ति 434: | पंक्ति 633: | ||
* आलस्य में दरिद्रता का वास है। मगर जो आलस्य नहीं करता उसके परिश्रम में कमला बसती हैं। ~ संत तिरुवल्लुवर | * आलस्य में दरिद्रता का वास है। मगर जो आलस्य नहीं करता उसके परिश्रम में कमला बसती हैं। ~ संत तिरुवल्लुवर | ||
* आलस्य आपके लिए मृत्यु के समान है। केवल उद्योग ही आपके लिए जीवन है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * आलस्य आपके लिए मृत्यु के समान है। केवल उद्योग ही आपके लिए जीवन है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
* आराम उनके प्रति विश्वासघात है जो इस संसार से चले गए हैं और जाते समय स्वतंत्रता का दीप प्रज्वलित रखने के लिए हमें दे गए हैं। यह उस ध्येय के प्रति विश्वासघात है जिसे हमने अपनाया है और जिसे प्राप्त करने की हमने प्रतिज्ञा की है। यह उन लाखों के प्रति विश्वासघात है जो कभी आराम नहीं करते। ~ जवाहरलाल नेहरू | * आराम उनके प्रति विश्वासघात है जो इस संसार से चले गए हैं और जाते समय स्वतंत्रता का दीप प्रज्वलित रखने के लिए हमें दे गए हैं। यह उस ध्येय के प्रति विश्वासघात है जिसे हमने अपनाया है और जिसे प्राप्त करने की हमने प्रतिज्ञा की है। यह उन लाखों के प्रति विश्वासघात है जो कभी आराम नहीं करते। ~ जवाहरलाल नेहरू | ||
पंक्ति 446: | पंक्ति 644: | ||
* जब तक तुममें दूसरों को व्यवस्था देने या दूसरों के अवगुण ढूंढने, दूसरों के दोष ही देखने की आदत मौजूद है, तब तक तुम्हारे लिए ईश्वर का साक्षात्कार करना कठिन है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * जब तक तुममें दूसरों को व्यवस्था देने या दूसरों के अवगुण ढूंढने, दूसरों के दोष ही देखने की आदत मौजूद है, तब तक तुम्हारे लिए ईश्वर का साक्षात्कार करना कठिन है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
* निरर्थक आशा से बंधा मानव अपना हृदय सुखा डालता है और आशा की कड़ी टूटते ही वह झट से विदा हो जाता है। ~ रवीन्द्र | * निरर्थक आशा से बंधा मानव अपना हृदय सुखा डालता है और आशा की कड़ी टूटते ही वह झट से विदा हो जाता है। ~ रवीन्द्र | ||
* अमीर जो गरीबों के समान नम्र हैं और गरीब जो कि अमीरों के समान उदार हैं, वही ईश्वर के प्रिय पात्र होते हैं। ~ शेख सादी | * अमीर जो गरीबों के समान नम्र हैं और गरीब जो कि अमीरों के समान उदार हैं, वही ईश्वर के प्रिय पात्र होते हैं। ~ शेख सादी | ||
* दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता जितना अपने को बचाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता जितना अपने को बचाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
* आलोचना से परे कोई भी नहीं है। न साहूकार और न मजदूर। आलोचना से हर कोई सबक ले सकता है। ~ गणेश शंकर विद्यार्थी | * आलोचना से परे कोई भी नहीं है। न साहूकार और न मजदूर। आलोचना से हर कोई सबक ले सकता है। ~ गणेश शंकर विद्यार्थी | ||
* आतंकवाद से लड़ना गोलकीपर के काम जैसा है। आप सैकड़ों शानदार बचाव कर लें लेकिन लोगों को सिर्फ वही शॉट याद रहता है, जो आपको छकाता हुआ गोल में जा पड़ा। ~ पॉल विल्किंसन | * आतंकवाद से लड़ना गोलकीपर के काम जैसा है। आप सैकड़ों शानदार बचाव कर लें लेकिन लोगों को सिर्फ वही शॉट याद रहता है, जो आपको छकाता हुआ गोल में जा पड़ा। ~ पॉल विल्किंसन | ||
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* शत्रु को उपहार देने योग्य सर्वोत्तम वस्तु है- क्षमा, विरोधी को सहनशीलता, मित्र को अपना हृदय, शिशु को उत्तम दृष्टांत, पिता को आदर और माता को ऐसा आचरण जिससे वह तुम पर गर्व करे, अपने को प्रतिष्ठा और सभी मनुष्य को उपकार। ~ वालफोर | * शत्रु को उपहार देने योग्य सर्वोत्तम वस्तु है- क्षमा, विरोधी को सहनशीलता, मित्र को अपना हृदय, शिशु को उत्तम दृष्टांत, पिता को आदर और माता को ऐसा आचरण जिससे वह तुम पर गर्व करे, अपने को प्रतिष्ठा और सभी मनुष्य को उपकार। ~ वालफोर | ||
* सच्ची संस्कृति मस्तिष्क, हृदय और हाथ का अनुशासन है। ~ शिवानंद | * सच्ची संस्कृति मस्तिष्क, हृदय और हाथ का अनुशासन है। ~ शिवानंद | ||
* सच हज़ार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद | * सच हज़ार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद | ||
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* महात्माओं का क्रोध क्षण में ही शांत हो जाता है। पापी जन ही ऐसे हैं, जिसका कोप कल्पों तक भी दूर नहीं होता। ~ देवीभागवत | * महात्माओं का क्रोध क्षण में ही शांत हो जाता है। पापी जन ही ऐसे हैं, जिसका कोप कल्पों तक भी दूर नहीं होता। ~ देवीभागवत | ||
* तुमने निंदायुक्त वचनों को उत्तम मानकर जो यहां कहा है उनसे कोई कार्य तो सिद्ध हुआ नहीं, केवल तुम्हारे स्वरूप का स्पष्टीकरण हो गया है। ~ कालिदास | * तुमने निंदायुक्त वचनों को उत्तम मानकर जो यहां कहा है उनसे कोई कार्य तो सिद्ध हुआ नहीं, केवल तुम्हारे स्वरूप का स्पष्टीकरण हो गया है। ~ कालिदास | ||
* पूर्णतया निंदित या पूर्णतया प्रशंसित पुरुष न था, न होगा, न आजकल है। ~ धम्मपद | * पूर्णतया निंदित या पूर्णतया प्रशंसित पुरुष न था, न होगा, न आजकल है। ~ धम्मपद | ||
* जो अपने मत की प्रशंसा, दूसरों के मत की निंदा करने में ही अपना पांडित्य दिखाते हैं, वे एकांतवादी संसार-चक्र में ही भटकते रहते हैं। ~ सूत्रकृतांग | * जो अपने मत की प्रशंसा, दूसरों के मत की निंदा करने में ही अपना पांडित्य दिखाते हैं, वे एकांतवादी संसार-चक्र में ही भटकते रहते हैं। ~ सूत्रकृतांग | ||
* साधु को दिन में देखना, रात में देखना और तब साधु पर विश्वास करना। ~ रामकृष्ण परमहंस | * साधु को दिन में देखना, रात में देखना और तब साधु पर विश्वास करना। ~ रामकृष्ण परमहंस | ||
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* जो सागर में गहरे जाते हैं, उन्हें मोती मिलता है। जो छिछले पानी वाले किनारे अपनाते हैं, उनके हिससे शंख और सीप ही होते हैं। ~ शाह अब्दुल लतीफ | * जो सागर में गहरे जाते हैं, उन्हें मोती मिलता है। जो छिछले पानी वाले किनारे अपनाते हैं, उनके हिससे शंख और सीप ही होते हैं। ~ शाह अब्दुल लतीफ | ||
* निरर्थक आशा से बंधा हुआ मानव अपना हृदय सुखा डालता है और आशा की कड़ी टूटते ही वह झट से विदा हो जाता है। ~ रवीन्द्रनाथ टैगोर | * निरर्थक आशा से बंधा हुआ मानव अपना हृदय सुखा डालता है और आशा की कड़ी टूटते ही वह झट से विदा हो जाता है। ~ रवीन्द्रनाथ टैगोर | ||
* आशा की भी कितनी सख्त जान है, वह मरते-मरते भी उठ कर खड़ी हो जाती है। ~ सुदर्शन | * आशा की भी कितनी सख्त जान है, वह मरते-मरते भी उठ कर खड़ी हो जाती है। ~ सुदर्शन | ||
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* जो लक्ष्मी प्राणों के देने पर भी नहीं प्राप्त होती, वह चंचल होती हुई भी नीतिज्ञ मनुष्य के पास अपने आप दौड़ी चली आती है। ~ नारायण पंडित | * जो लक्ष्मी प्राणों के देने पर भी नहीं प्राप्त होती, वह चंचल होती हुई भी नीतिज्ञ मनुष्य के पास अपने आप दौड़ी चली आती है। ~ नारायण पंडित | ||
* जिसने विद्या पढ़ी और आचरण नहीं किया- वह उसके समान है, जिसने बैल जोता है और बीज नहीं बिखेरा है। ~ शेख सादी | * जिसने विद्या पढ़ी और आचरण नहीं किया- वह उसके समान है, जिसने बैल जोता है और बीज नहीं बिखेरा है। ~ शेख सादी | ||
* आज का कबूतर, कल के मोर से अच्छा। ~ संस्कृत लोकोक्ति | * आज का कबूतर, कल के मोर से अच्छा। ~ संस्कृत लोकोक्ति | ||
* जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं तब आयु रूपी नदी दिनोंदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर | * जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं तब आयु रूपी नदी दिनोंदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर | ||
* मैं ईश्वर से डरता हूं। ईश्वर के बाद मुख्यत: उससे डरता हूं जो ईश्वर से नहीं डरता। ~ शेख सादी | * मैं ईश्वर से डरता हूं। ईश्वर के बाद मुख्यत: उससे डरता हूं जो ईश्वर से नहीं डरता। ~ शेख सादी | ||
* आनंद ही एक ऐसी वस्तु है जो आपके पास न होने पर आप दूसरों को बिना किसी असुविधा के दे सकते हैं। ~ कारमेन सिल्वा | * आनंद ही एक ऐसी वस्तु है जो आपके पास न होने पर आप दूसरों को बिना किसी असुविधा के दे सकते हैं। ~ कारमेन सिल्वा | ||
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* दुनिया में आलस्य बढ़ाने सरीखा दूसरा भयंकर पाप नहीं है। ~ विनोबा भावे | * दुनिया में आलस्य बढ़ाने सरीखा दूसरा भयंकर पाप नहीं है। ~ विनोबा भावे | ||
* वही उन्नति कर सकता है जो स्वयं अपने को उपदेश देता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * वही उन्नति कर सकता है जो स्वयं अपने को उपदेश देता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
* एकाग्रता आवेश को पवित्र और शांत कर देती है, विचारधारा को शक्तिशाली और कल्पना को स्पष्ट करती है। ~ स्वामी शिवानन्द | * एकाग्रता आवेश को पवित्र और शांत कर देती है, विचारधारा को शक्तिशाली और कल्पना को स्पष्ट करती है। ~ स्वामी शिवानन्द | ||
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* जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभ देव | * जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभ देव | ||
* आत्मवान संयमी पुरुषों को न तो विषयों में आसक्ति होती है और न वे विषयों के लिए युक्ति ही करते हैं। ~ अश्वघोष | * आत्मवान संयमी पुरुषों को न तो विषयों में आसक्ति होती है और न वे विषयों के लिए युक्ति ही करते हैं। ~ अश्वघोष | ||
* बिना विनय के विजय नहीं टिकती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * बिना विनय के विजय नहीं टिकती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
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* जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। ~ रामकृष्ण परमहंस | * जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। ~ रामकृष्ण परमहंस | ||
* मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, जिसमें तन्मय होकर जैसी भावना करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है, अन्य प्रकार का नहीं। ~ योगवासिष्ठ | * मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, जिसमें तन्मय होकर जैसी भावना करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है, अन्य प्रकार का नहीं। ~ योगवासिष्ठ | ||
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* प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, दिखाया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ संत तुकाराम | * प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, दिखाया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ संत तुकाराम | ||
* श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान। यह सर्वोत्तम जोड़ा है। श्रद्धा और सत्य के जोड़ से मनुष्य स्वर्ग जीत लेता है। ~ ऐतरेय ब्राह्मण | * श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान। यह सर्वोत्तम जोड़ा है। श्रद्धा और सत्य के जोड़ से मनुष्य स्वर्ग जीत लेता है। ~ ऐतरेय ब्राह्मण | ||
* श्रद्धा धर्म की अनुगामिनी है। जहां धर्म का स्फुरण दिखाई पड़ता है, वहीं श्रद्धा टिकती है। ~ रामचंद्र शुक्ल | * श्रद्धा धर्म की अनुगामिनी है। जहां धर्म का स्फुरण दिखाई पड़ता है, वहीं श्रद्धा टिकती है। ~ रामचंद्र शुक्ल | ||
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* राजनीति वेश्या के समान अनेक प्रकार से व्यवहार में लाई जाती है। कहीं झूठी, कहीं सच, कहीं कठोर तो कहीं वह अत्यंत प्रिय भाषिणी होती है। कहीं हिंसक तो कहीं दयालु होती है। कहीं कृपण तो कहीं उदार होती है। कहीं अत्यधिक व्यय को अनिवार्य बना देती है, तो कहीं मामूली सी बचत को भी बहुत बड़ा मुद्दा बना लेती है। ~ भर्तृहरि | * राजनीति वेश्या के समान अनेक प्रकार से व्यवहार में लाई जाती है। कहीं झूठी, कहीं सच, कहीं कठोर तो कहीं वह अत्यंत प्रिय भाषिणी होती है। कहीं हिंसक तो कहीं दयालु होती है। कहीं कृपण तो कहीं उदार होती है। कहीं अत्यधिक व्यय को अनिवार्य बना देती है, तो कहीं मामूली सी बचत को भी बहुत बड़ा मुद्दा बना लेती है। ~ भर्तृहरि | ||
* ऐश्वर्य उपाधि में नहीं, बल्कि इस चेतना में है कि हम उसके योग्य हैं। ~ अरस्तू | * ऐश्वर्य उपाधि में नहीं, बल्कि इस चेतना में है कि हम उसके योग्य हैं। ~ अरस्तू | ||
* लोगों के छिपे हुए ऐब ज़ाहिर मत करो। इससे उनकी इज्जत जरूर घट जाएगी, मगर तुम्हारा तो एतबार ही उठ जाएगा। ~ शेख सादी | * लोगों के छिपे हुए ऐब ज़ाहिर मत करो। इससे उनकी इज्जत जरूर घट जाएगी, मगर तुम्हारा तो एतबार ही उठ जाएगा। ~ शेख सादी | ||
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* जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | * जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | ||
* जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | * जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | ||
* आत्मज्ञानी साधक को ऊंची या नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना चाहिए, न कुपित। ~ आचारांग | * आत्मज्ञानी साधक को ऊंची या नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना चाहिए, न कुपित। ~ आचारांग | ||
* प्यार से विष भी पिला सकते हैं, लेकिन बलपूर्वक दूध पिलाना मुश्किल है। ~ कुंदकूरि वीरेशलिंग पंतुलु | * प्यार से विष भी पिला सकते हैं, लेकिन बलपूर्वक दूध पिलाना मुश्किल है। ~ कुंदकूरि वीरेशलिंग पंतुलु | ||
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* कृतज्ञता हृदय की स्मृति है। ~ कहावत | * कृतज्ञता हृदय की स्मृति है। ~ कहावत | ||
* संसार में कर्म ही मुख्य है और कुलीनता कर्म पर ही निर्भर करती है। ~ गोविंद दास | * संसार में कर्म ही मुख्य है और कुलीनता कर्म पर ही निर्भर करती है। ~ गोविंद दास | ||
* काल सब प्राणियों के सिर पर है, इसलिए पहले कुशल-क्षेम पूछना चाहिए। ~ कालिदास | * काल सब प्राणियों के सिर पर है, इसलिए पहले कुशल-क्षेम पूछना चाहिए। ~ कालिदास | ||
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* विवेकपूर्ण कार्य उपयोगी होता है। उपयोगी होने पर कार्य की कठिनता की परवाह नहीं करता। ~ रस्क िन | * विवेकपूर्ण कार्य उपयोगी होता है। उपयोगी होने पर कार्य की कठिनता की परवाह नहीं करता। ~ रस्क िन | ||
* संसार के पदार्थों में घटनाएं तो सभी देखते हैं, लेकिन जिन आंखों से उन्हें कवि देखता है, वे निराली ही होती हैं। ~ पुरुषोत्तमदास टंडन | * संसार के पदार्थों में घटनाएं तो सभी देखते हैं, लेकिन जिन आंखों से उन्हें कवि देखता है, वे निराली ही होती हैं। ~ पुरुषोत्तमदास टंडन | ||
* कवि सौंदर्य देखता है। वह चाहे बर्हिजगत का हो चाहे अंतर्जगत का। जो केवल बाहरी सौंदर्य का ही वर्णन करता है, वह कवि है पर जो मनुष्य के मन के सौंदर्य का भी वर्णन करता है, वह महाकवि है। ~ रामनरेश त्रिपाठी | * कवि सौंदर्य देखता है। वह चाहे बर्हिजगत का हो चाहे अंतर्जगत का। जो केवल बाहरी सौंदर्य का ही वर्णन करता है, वह कवि है पर जो मनुष्य के मन के सौंदर्य का भी वर्णन करता है, वह महाकवि है। ~ रामनरेश त्रिपाठी | ||
* जीवित रहने को तो कीट-पतंगे भी रहते हैं, किंतु मनुष्य को कीट-पतंगों की भांति नहीं जीना चाहिए। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | * जीवित रहने को तो कीट-पतंगे भी रहते हैं, किंतु मनुष्य को कीट-पतंगों की भांति नहीं जीना चाहिए। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | ||
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* आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है। कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। ~ भगवद्गीता | * आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है। कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। ~ भगवद्गीता | ||
* अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी गुलामी करना कायरपन है। ~ शरतचंद्र | * अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी गुलामी करना कायरपन है। ~ शरतचंद्र | ||
* उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं, संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं। ~ चीनी कहावत | * उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं, संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं। ~ चीनी कहावत | ||
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* लोगों के छिपे हुए ऐब ज़ाहिर मत करो। इससे उनकी इज्जत तो जरूर घट जाएगी पर तुम्हारा तो ऐतबार ही उठ जाएगा। ~ सादी | * लोगों के छिपे हुए ऐब ज़ाहिर मत करो। इससे उनकी इज्जत तो जरूर घट जाएगी पर तुम्हारा तो ऐतबार ही उठ जाएगा। ~ सादी | ||
* कमजोरी कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है, कमजोरी ही मृत्यु है। ~ विवेकानंद | * कमजोरी कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है, कमजोरी ही मृत्यु है। ~ विवेकानंद | ||
* लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक - दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला | * लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक - दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला | ||
* तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठे पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिजाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम | * तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठे पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिजाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम | ||
* तपस्या से लोगों को विस्मित न करे, यज्ञ करके असत्य न बोले। पीडि़त हो कर भी गुरु की निंदा न करे। और दान दे कर उसकी चर्चा न करे। ~ मनुस्मृति | * तपस्या से लोगों को विस्मित न करे, यज्ञ करके असत्य न बोले। पीडि़त हो कर भी गुरु की निंदा न करे। और दान दे कर उसकी चर्चा न करे। ~ मनुस्मृति | ||
* जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि | * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि | ||
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* अनर्थ भी अपने अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास | * अनर्थ भी अपने अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास | ||
* विपत्ति में पड़े हुए मनुष्य का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्य का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | ||
* जब करुणा के नेत्र खुल जाते हैं तो व्यक्ति अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में देख सकने में समर्थ हो जाता है। ~ राजगोपालाचारी | * जब करुणा के नेत्र खुल जाते हैं तो व्यक्ति अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में देख सकने में समर्थ हो जाता है। ~ राजगोपालाचारी | ||
* कृतज्ञता हृदय की स्मृति है। ~ अंग्रेजी कहावत | * कृतज्ञता हृदय की स्मृति है। ~ अंग्रेजी कहावत | ||
* क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है। ~ भागवत गीता | * क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है। ~ भागवत गीता | ||
* करुणा में शीतल अग्नि होती है जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदय भी आर्द्र कर देती है। ~ सुदर्शन | * करुणा में शीतल अग्नि होती है जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदय भी आर्द्र कर देती है। ~ सुदर्शन | ||
* इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करनेवाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। ~ वेद | * इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करनेवाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। ~ वेद | ||
* निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है और ईश्वर उसको सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है और ईश्वर उसको सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
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* जब आर्थिक परिवर्तन की प्रगति बहुत बढ़ जाती है, पर शासन तंत्र जैसा का तैसा बना रहता है, तब दोनों के बीच बहुत बड़ा अंतर आ जाता है। प्राय: यह अंतर एक आकस्मिक परिवर्तन से दूर होता है, जिसे क्रांति कहते हैं। ~ जवाहरलाल नेहरू | * जब आर्थिक परिवर्तन की प्रगति बहुत बढ़ जाती है, पर शासन तंत्र जैसा का तैसा बना रहता है, तब दोनों के बीच बहुत बड़ा अंतर आ जाता है। प्राय: यह अंतर एक आकस्मिक परिवर्तन से दूर होता है, जिसे क्रांति कहते हैं। ~ जवाहरलाल नेहरू | ||
* क्रांतिकारी- उसकी नस नस में भगवान ने ऐसी आग जला दी है कि उन्हें चाहे जेल में ठूंस दो, चाहे सूली पर चढ़ा दो, कह न दिया कि पंचभूतों को सौंपने के सिवा और कोई सज़ा ही लागू नहीं होती। न तो इनमें दया है, न धर्म कर्म ही मानते हैं। ~ शरतचंद्र | * क्रांतिकारी- उसकी नस नस में भगवान ने ऐसी आग जला दी है कि उन्हें चाहे जेल में ठूंस दो, चाहे सूली पर चढ़ा दो, कह न दिया कि पंचभूतों को सौंपने के सिवा और कोई सज़ा ही लागू नहीं होती। न तो इनमें दया है, न धर्म कर्म ही मानते हैं। ~ शरतचंद्र | ||
* धन्य है वह जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप | * धन्य है वह जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप | ||
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* शरीर निर्बल और रोगी रखने के समान दूसरा कोई पाप नहीं। ~ लोकमान्य तिलक | * शरीर निर्बल और रोगी रखने के समान दूसरा कोई पाप नहीं। ~ लोकमान्य तिलक | ||
* सच्चे इंसान द्वारा किए गए कर्म न सिर्फ खुशबू देते हैं बल्कि दूसरो को खुश भी करते हैं। ~ विष्णु प्रभकर | * सच्चे इंसान द्वारा किए गए कर्म न सिर्फ खुशबू देते हैं बल्कि दूसरो को खुश भी करते हैं। ~ विष्णु प्रभकर | ||
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* जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | * जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | ||
* कर्म से हीन बन जाना संन्यास नहीं है। कर्म के समुद को पार कर जाना ही संन्यास है। ~ लक्ष्मी नारायण मिश्र | * कर्म से हीन बन जाना संन्यास नहीं है। कर्म के समुद को पार कर जाना ही संन्यास है। ~ लक्ष्मी नारायण मिश्र | ||
* संधियों का पालन तभी तक किया जाता है जब तक उनका हितों से सामंजस्य रहता है। ~ नेपोलियन प्रथम | * संधियों का पालन तभी तक किया जाता है जब तक उनका हितों से सामंजस्य रहता है। ~ नेपोलियन प्रथम | ||
* संसार ही युद्ध-क्षेत्र है, इससे पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ ? ~ जयशंकर प्रसाद | * संसार ही युद्ध-क्षेत्र है, इससे पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ ? ~ जयशंकर प्रसाद | ||
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* कर्तव्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे नाप-जोख कर देखा जाए। ~ शरत चंद्र | * कर्तव्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे नाप-जोख कर देखा जाए। ~ शरत चंद्र | ||
* कर्म की परिसमाप्ति ज्ञान में और कर्म का मूल भक्ति अथवा संपूर्ण आत्मसमर्पण में है। ~ अरविंद घोष | * कर्म की परिसमाप्ति ज्ञान में और कर्म का मूल भक्ति अथवा संपूर्ण आत्मसमर्पण में है। ~ अरविंद घोष | ||
* हे परमेश्वर, हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ। हमें सुखदायी बल और कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋग्वेद | * हे परमेश्वर, हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ। हमें सुखदायी बल और कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋग्वेद | ||
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* श्रेष्ठ व्यक्तियों का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थों से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर | * श्रेष्ठ व्यक्तियों का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थों से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* हे परमेश्वर हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ। हमें सुखदायी बल और कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋग्वेद | * हे परमेश्वर हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ। हमें सुखदायी बल और कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋग्वेद | ||
* यदि पुरुष के जीवन-विकास में स्त्री का आकर्षण विनाशकारी होता तो प्रकृति यह आकर्षण पैदा ही क्यों करती। ~ यशपाल | * यदि पुरुष के जीवन-विकास में स्त्री का आकर्षण विनाशकारी होता तो प्रकृति यह आकर्षण पैदा ही क्यों करती। ~ यशपाल | ||
* जिसने अपने को समझ लिया वह दूसरों को समझाने नहीं जाएगा। ~ धम्मपदं | * जिसने अपने को समझ लिया वह दूसरों को समझाने नहीं जाएगा। ~ धम्मपदं | ||
* साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन | * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन | ||
* खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरण सूत्र | * खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरण सूत्र | ||
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* जैसा मनुष्य के लिए सौजन्य रूपी अलंकार है, वैसा न तो आभूषण है, न राज्य, न पैरुष, न विद्या और न धन। ~ शुक्रनीति | * जैसा मनुष्य के लिए सौजन्य रूपी अलंकार है, वैसा न तो आभूषण है, न राज्य, न पैरुष, न विद्या और न धन। ~ शुक्रनीति | ||
* ज्ञानी पुरुष का मन पहले प्रौढ़ होता है उसके पश्चात् शरीर, परन्तु मूर्ख का शरीर पहले प्रौढ़ अवस्था प्राप्त करता है और मस्तिष्क कभी भी परिपक्व नहीं होता। ~ सुभाषित रत्नमाला | * ज्ञानी पुरुष का मन पहले प्रौढ़ होता है उसके पश्चात् शरीर, परन्तु मूर्ख का शरीर पहले प्रौढ़ अवस्था प्राप्त करता है और मस्तिष्क कभी भी परिपक्व नहीं होता। ~ सुभाषित रत्नमाला | ||
* जो एक अपने को नमा लेता है-जीत लेता है, वह समग्र संसार को जीत लेता है। ~ आचारांग | * जो एक अपने को नमा लेता है-जीत लेता है, वह समग्र संसार को जीत लेता है। ~ आचारांग | ||
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* शिवस्वरूप परमात्मा के इस शरीर में प्रतिष्ठित होने पर भी मूढ़ व्यक्ति तीर्थ, दान, जप, यज्ञ, लकड़ी और पत्थर में शिव को खोजा करता है। ~ जाबालदर्शनोपनिषद् | * शिवस्वरूप परमात्मा के इस शरीर में प्रतिष्ठित होने पर भी मूढ़ व्यक्ति तीर्थ, दान, जप, यज्ञ, लकड़ी और पत्थर में शिव को खोजा करता है। ~ जाबालदर्शनोपनिषद् | ||
* मनुष्य देह का गौरव केवल ब्रह्मा को प्रत्यक्ष जानने में नहीं है, केवल ब्रह्मानंद का स्वयं भोग करने में नहीं है, बल्कि निर्विशेष रूप ब्रह्मानंद को सबमें वितरण करने का अधिकार प्राप्त करने में है। ~ गोपीनाथ कविराज | * मनुष्य देह का गौरव केवल ब्रह्मा को प्रत्यक्ष जानने में नहीं है, केवल ब्रह्मानंद का स्वयं भोग करने में नहीं है, बल्कि निर्विशेष रूप ब्रह्मानंद को सबमें वितरण करने का अधिकार प्राप्त करने में है। ~ गोपीनाथ कविराज | ||
* महान की उपासना करना स्वयं महान होने के बराबर है। ~ मैडम नेकर | * महान की उपासना करना स्वयं महान होने के बराबर है। ~ मैडम नेकर | ||
* प्रत्येक मनुष्य जिससे मैं मिलता हूं किसी न किसी रीति में मुझसे श्रेष्ठ होता है, इसलिए मैं उससे कुछ शिक्षा लेता हूं। ~ एमर्सन | * प्रत्येक मनुष्य जिससे मैं मिलता हूं किसी न किसी रीति में मुझसे श्रेष्ठ होता है, इसलिए मैं उससे कुछ शिक्षा लेता हूं। ~ एमर्सन | ||
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* सज्जन स्वयं ही दूसरे के हित के लिए उद्यम करते हैं, उन्हें किसी के द्वारा याचना की प्रतीक्षा नहीं होती। ~ भतृहरि | * सज्जन स्वयं ही दूसरे के हित के लिए उद्यम करते हैं, उन्हें किसी के द्वारा याचना की प्रतीक्षा नहीं होती। ~ भतृहरि | ||
* गुणी ही गुण जानता है, निर्गुणी नहीं। कोयल ही वसंत जानती है, कौवा नहीं। ~ अज्ञात | * गुणी ही गुण जानता है, निर्गुणी नहीं। कोयल ही वसंत जानती है, कौवा नहीं। ~ अज्ञात | ||
* रथचक्र की अरों के समान मनुष्य के जीवन की दशा ऊपर-नीचे हुआ करती है। कभी के दिन बड़े कभी की रात। ~ कालिदास | * रथचक्र की अरों के समान मनुष्य के जीवन की दशा ऊपर-नीचे हुआ करती है। कभी के दिन बड़े कभी की रात। ~ कालिदास | ||
* उपकार के बदले में उपकार चाहने वाले मनुष्य को विपत्ति के रूप में फल मिलता है। ~ भास | * उपकार के बदले में उपकार चाहने वाले मनुष्य को विपत्ति के रूप में फल मिलता है। ~ भास | ||
* गुणों से गुरुता होती है, न कि बाह्य आकार से। ~ भारवि | * गुणों से गुरुता होती है, न कि बाह्य आकार से। ~ भारवि | ||
* गुणवान हो और गुणों का आदर भी करता हो -ऐसा सरल मनुष्य विरला ही होता है। ~ मनुस्मृति | * गुणवान हो और गुणों का आदर भी करता हो -ऐसा सरल मनुष्य विरला ही होता है। ~ मनुस्मृति | ||
* गुणों से मनुष्य साधु होता है और अवगुणों से असाधु होता है। सद्गुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो। जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वह पूज्य है। ~ भगवान महावीर | * गुणों से मनुष्य साधु होता है और अवगुणों से असाधु होता है। सद्गुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो। जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वह पूज्य है। ~ भगवान महावीर | ||
* गुण ही व्यक्ति की असली पहचान होती है। गुण सभी स्थानों पर अपना आदर करा लेता है। ~ कालिदास | * गुण ही व्यक्ति की असली पहचान होती है। गुण सभी स्थानों पर अपना आदर करा लेता है। ~ कालिदास | ||
* गलती खुद अंधी होती है, लेकिन वह ऐसी संतान पैदा करती है जो देख सकती हे। ~ एक कहावत | * गलती खुद अंधी होती है, लेकिन वह ऐसी संतान पैदा करती है जो देख सकती हे। ~ एक कहावत | ||
* मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | ||
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* संसार मन से भिन्न नहीं है। मन हृदय से भिन्न नहीं है। अत: समस्त कथा हृदय में ही समाप्त हो जाती है। ~ श्रीरमणगीता | * संसार मन से भिन्न नहीं है। मन हृदय से भिन्न नहीं है। अत: समस्त कथा हृदय में ही समाप्त हो जाती है। ~ श्रीरमणगीता | ||
* जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वह पूज्य है। ~ भगवान महावीर | * जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वह पूज्य है। ~ भगवान महावीर | ||
* इस संसार में घृणा घृणा से भी कभी कम नहीं, घृणा प्रेम से ही कम होती है, यही सर्वदा उसका स्वभाव रहा है। ~ धम्मपद | * इस संसार में घृणा घृणा से भी कभी कम नहीं, घृणा प्रेम से ही कम होती है, यही सर्वदा उसका स्वभाव रहा है। ~ धम्मपद | ||
* मीठी बातें तो वह करता है जिसका कुछ स्वार्थ होता है, जो डरता है, जो प्रशंसा अथवा मान का भूखा रहता है। ~ हरिऔध | * मीठी बातें तो वह करता है जिसका कुछ स्वार्थ होता है, जो डरता है, जो प्रशंसा अथवा मान का भूखा रहता है। ~ हरिऔध | ||
* घाव पर कपड़ा भी छुरी बनकर लगता है। दुखे हुए अंग को हवा भी दुखा देती है। ~ सुदर्शन | * घाव पर कपड़ा भी छुरी बनकर लगता है। दुखे हुए अंग को हवा भी दुखा देती है। ~ सुदर्शन | ||
* मनुष्य के अंतरंग का श्रृंगार है चातुर्य, वस्त्र तो केवल बाहरी सजावट है। ~ गुरु रामदास | * मनुष्य के अंतरंग का श्रृंगार है चातुर्य, वस्त्र तो केवल बाहरी सजावट है। ~ गुरु रामदास | ||
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* प्रेम संयम और तप से उत्पन होता है। भक्ति साधना से प्राप्त होती है, श्रद्धा के लिए अभ्यास और निष्ठा की जरूरत होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * प्रेम संयम और तप से उत्पन होता है। भक्ति साधना से प्राप्त होती है, श्रद्धा के लिए अभ्यास और निष्ठा की जरूरत होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
* जैसे मनुष्यों की प्रार्थनाएं उनकी इच्छा का रोग हैं, वैसे ही उनके मतवाद उनकी बुद्धि के रोग हैं। ~ एमर्सन | * जैसे मनुष्यों की प्रार्थनाएं उनकी इच्छा का रोग हैं, वैसे ही उनके मतवाद उनकी बुद्धि के रोग हैं। ~ एमर्सन | ||
* जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | ||
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* गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | * गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | ||
* दो चीजें बुद्धि की लज्जा हैं- बोलने के समय चुप रहना और चुप रहने के समय बोलना। ~ शेख सादी | * दो चीजें बुद्धि की लज्जा हैं- बोलने के समय चुप रहना और चुप रहने के समय बोलना। ~ शेख सादी | ||
* बोल वह है जो सुनने वालों को वशीभूत कर दे और न सुनने वालों में भी सुनने की इच्छा उत्पन्न कर दे। ~ तिरुवल्लुवर | * बोल वह है जो सुनने वालों को वशीभूत कर दे और न सुनने वालों में भी सुनने की इच्छा उत्पन्न कर दे। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* कठोर वचन बोलने से कठोर बात सुननी पड़ेगी। चोट करने पर चोट सहनी पड़ेगी। रुलाने से रोना पड़ेगा। ~ तैलंग स्वामी | * कठोर वचन बोलने से कठोर बात सुननी पड़ेगी। चोट करने पर चोट सहनी पड़ेगी। रुलाने से रोना पड़ेगा। ~ तैलंग स्वामी | ||
* मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माईल इबन् अबीबकर | * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माईल इबन् अबीबकर | ||
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* विजयाभिलाषी जब तक जीवित रहता है तब तक बुद्धिमानों के उपदेश का पात्र होता है। ~ भट्टनारायण | * विजयाभिलाषी जब तक जीवित रहता है तब तक बुद्धिमानों के उपदेश का पात्र होता है। ~ भट्टनारायण | ||
* धर्म का दान हमारे सारे दानों को जीत लेता है। धर्म रस सारे रसों को जीत लेता है। धर्म में प्रेम सारे प्रेमों को जीत लेता है। ~ धम्मपद | * धर्म का दान हमारे सारे दानों को जीत लेता है। धर्म रस सारे रसों को जीत लेता है। धर्म में प्रेम सारे प्रेमों को जीत लेता है। ~ धम्मपद | ||
* जिसमें यह चार परम श्रेष्ठ गुण नहीं हैं- सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को नहीं जीत सकता। ~ जातक | * जिसमें यह चार परम श्रेष्ठ गुण नहीं हैं- सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को नहीं जीत सकता। ~ जातक | ||
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* प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त | * प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त | ||
* प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद | * प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
* जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे ही विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे ही विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
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* नम्रता एवं मधुर वचन ही मनुष्य के असली आभूषण हैं। ~ तिरुवल्लुवर | * नम्रता एवं मधुर वचन ही मनुष्य के असली आभूषण हैं। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* हम महान व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं, जब हम नम्रता में महान होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * हम महान व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं, जब हम नम्रता में महान होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* जिसके पास अपनी शक्ति नहीं, उसे भगवान भी शक्ति नहीं दे सकता। शक्ति आत्मा के अंदर से आती है, बाहर से नहीं। जो बाहर की शक्ति पर भरोसा करता है, वह अपने लिए काले दिनो को पुकारता है। ~ सुदर्शन | * जिसके पास अपनी शक्ति नहीं, उसे भगवान भी शक्ति नहीं दे सकता। शक्ति आत्मा के अंदर से आती है, बाहर से नहीं। जो बाहर की शक्ति पर भरोसा करता है, वह अपने लिए काले दिनो को पुकारता है। ~ सुदर्शन | ||
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* जिसके पास भगवद्-भक्ति, भगवद्-प्रेम है- वही इस संसार में धनी है। ऐसे व्यक्ति के समक्ष महाराजाधिराज भी दीन भिक्षुक के समान है। ~ सुभाषचंद वसु | * जिसके पास भगवद्-भक्ति, भगवद्-प्रेम है- वही इस संसार में धनी है। ऐसे व्यक्ति के समक्ष महाराजाधिराज भी दीन भिक्षुक के समान है। ~ सुभाषचंद वसु | ||
* बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | * बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | ||
* यदि धर्म लोक के विरुद्ध हो तो वह सुखकारी नहीं हो सकता। ~ देवीभागवत | * यदि धर्म लोक के विरुद्ध हो तो वह सुखकारी नहीं हो सकता। ~ देवीभागवत | ||
* भिक्षुओं! बेड़े की भांति पार जाने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, पकड़ कर रखने के लिए नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | * भिक्षुओं! बेड़े की भांति पार जाने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, पकड़ कर रखने के लिए नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | ||
* आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | * आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | ||
* जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा | * जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा | ||
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* जिसके मन में कभी क्रोध नहीं होता और जिसके हृदय में रात-दिन राम बसते हैं, वह भक्त भगवान के समान ही है। ~ रैदास | * जिसके मन में कभी क्रोध नहीं होता और जिसके हृदय में रात-दिन राम बसते हैं, वह भक्त भगवान के समान ही है। ~ रैदास | ||
* सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | * सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | ||
* सज्जन लोग स्वभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट | * सज्जन लोग स्वभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट | ||
* गुण का सच्चा मानदण्ड मन में स्थित है। जिसके सत्य विचार हैं, वे सत्यपुरुष हैं। ~ आइजक बिकरस्टाफ | * गुण का सच्चा मानदण्ड मन में स्थित है। जिसके सत्य विचार हैं, वे सत्यपुरुष हैं। ~ आइजक बिकरस्टाफ | ||
* सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | * सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | ||
* सत्य को न देखने के कारण यह संसार जला है, इस समय जल रहा है और जलेगा। ~ अश्वघोष | * सत्य को न देखने के कारण यह संसार जला है, इस समय जल रहा है और जलेगा। ~ अश्वघोष | ||
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* कान से सुनकर लोग चलते हैं, आंख से देखकर चलने वाले कम हैं। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * कान से सुनकर लोग चलते हैं, आंख से देखकर चलने वाले कम हैं। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
* जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | ||
* संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | ||
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* जो मनुष्य तौल कर बातें नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। ~ सादी | * जो मनुष्य तौल कर बातें नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। ~ सादी | ||
* क्रोध और ग्लानि से सद्भावनाएं विकृत हो जाती हैं। जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल वस्तु को दूषित कर देती है। ~ प्रेमचंद | * क्रोध और ग्लानि से सद्भावनाएं विकृत हो जाती हैं। जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल वस्तु को दूषित कर देती है। ~ प्रेमचंद | ||
* जब क्रोध नम्रता का रूप धारण कर लेता है, तो अभिमान भी सिर झुका लेता है। ~ सुदर्शन | * जब क्रोध नम्रता का रूप धारण कर लेता है, तो अभिमान भी सिर झुका लेता है। ~ सुदर्शन | ||
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* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | ||
* मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | ||
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
* पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। ~ अज्ञात | * पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। ~ अज्ञात | ||
* दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | ||
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* कांच का कटोरा, नेत्रों का जन, मोती और मन, यह एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति नहीं होती, अत: पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति | * कांच का कटोरा, नेत्रों का जन, मोती और मन, यह एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति नहीं होती, अत: पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति | ||
* जीव के दो स्वभाव हैं- अपना-पराया। स्व और पर दोनों में भी जीव के अस्तित्व होने के कारण दूसरों के प्रति बुरी बात करना अनुचित है। ~ पानुगंटि | * जीव के दो स्वभाव हैं- अपना-पराया। स्व और पर दोनों में भी जीव के अस्तित्व होने के कारण दूसरों के प्रति बुरी बात करना अनुचित है। ~ पानुगंटि | ||
* जो व्यक्ति अपना पक्ष छोड़कर दूसरे पक्ष से मिल जाता है, वह अपने पक्ष के नष्ट हो जाने पर स्वयं भी परपक्ष द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ~ वाल्मीकि | * जो व्यक्ति अपना पक्ष छोड़कर दूसरे पक्ष से मिल जाता है, वह अपने पक्ष के नष्ट हो जाने पर स्वयं भी परपक्ष द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ~ वाल्मीकि | ||
* वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद | * वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद | ||
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* यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण | * यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण | ||
* नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद | * नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद | ||
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* जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। ~ रामकृष्ण परमहंस | * जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। ~ रामकृष्ण परमहंस | ||
* उन्नत चित्त वाले पुरुषों का यह स्वभाव है कि वे बड़ों पर महान पराक्रम दिखाते हैं, दुर्बलों पर नहीं। ~ विष्णु शर्मा | * उन्नत चित्त वाले पुरुषों का यह स्वभाव है कि वे बड़ों पर महान पराक्रम दिखाते हैं, दुर्बलों पर नहीं। ~ विष्णु शर्मा | ||
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* जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां | * जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां | ||
* कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा | ||
* मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष | * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष | ||
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* अगर आप काम करते रहते हैं तो आपके इस दुनिया में होने का अर्थ बना रहता है। रिटायर होने के बाद अपनी बाकी जिंदगी टुच्चे खेलों में बिता देने का विचार बहुत बेहूदा है। ~ हैराल्ड जेनीन | * अगर आप काम करते रहते हैं तो आपके इस दुनिया में होने का अर्थ बना रहता है। रिटायर होने के बाद अपनी बाकी जिंदगी टुच्चे खेलों में बिता देने का विचार बहुत बेहूदा है। ~ हैराल्ड जेनीन | ||
* न शत्रु न शस्त्र, न अग्नि, न विष और न दारुण रोग ही मनुष्य को उतना संतप्त करते हैं। जितनी कड़वी वाणी। ~ नीतिविदषाष्टिका | * न शत्रु न शस्त्र, न अग्नि, न विष और न दारुण रोग ही मनुष्य को उतना संतप्त करते हैं। जितनी कड़वी वाणी। ~ नीतिविदषाष्टिका | ||
* जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | * जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | ||
* अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | * अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | ||
* कभी यह न सोचना कि तुम प्रेम का पथ निर्धारित कर सकते हो। क्योंकि प्रेम यदि तुमको उसका अधिकारी समझता है, तो तुम्हारी राह वह स्वयं निर्धारित करता है। ~ खलील जिब्रान | * कभी यह न सोचना कि तुम प्रेम का पथ निर्धारित कर सकते हो। क्योंकि प्रेम यदि तुमको उसका अधिकारी समझता है, तो तुम्हारी राह वह स्वयं निर्धारित करता है। ~ खलील जिब्रान | ||
* जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक | * जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक | ||
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* स्वजन शत्रु हो जाते हैं और पराए मित्र हो जाते हैं। कार्यवश ही लोग स्नेह करते है और तोड़ते हैं। ~ अश्वघोष | * स्वजन शत्रु हो जाते हैं और पराए मित्र हो जाते हैं। कार्यवश ही लोग स्नेह करते है और तोड़ते हैं। ~ अश्वघोष | ||
* यह संभव नहीं कि कोई व्यक्ति निरंतर मुस्कराता ही रहे और वह दुष्ट भी हो। ~ शेक्सपियर | * यह संभव नहीं कि कोई व्यक्ति निरंतर मुस्कराता ही रहे और वह दुष्ट भी हो। ~ शेक्सपियर | ||
* तू ने स्वर्ग और नर्क नहीं देखा। समझ ले कि उद्यम स्वर्ग है और आलस्य नरक है। ~ अज्ञात | * तू ने स्वर्ग और नर्क नहीं देखा। समझ ले कि उद्यम स्वर्ग है और आलस्य नरक है। ~ अज्ञात | ||
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* संसार मे झूठ पापो का सरदार है। स्वार्थपरता, निर्दयता, कुटिलता, और कायरता, सब उसके साथी हैं। ~ काका कालेलकर | * संसार मे झूठ पापो का सरदार है। स्वार्थपरता, निर्दयता, कुटिलता, और कायरता, सब उसके साथी हैं। ~ काका कालेलकर | ||
* लोग झूठ बोलने वाले मनुष्य से उसी प्रकार डरते हैं जैसे सांप से। संसार मे सत्य सबसे महान धर्म है। वही सबका मूल है। ~ वाल्मीकि | * लोग झूठ बोलने वाले मनुष्य से उसी प्रकार डरते हैं जैसे सांप से। संसार मे सत्य सबसे महान धर्म है। वही सबका मूल है। ~ वाल्मीकि | ||
* झूठ बोलने वाला कभी भी श्रेष्ठ पद को नहीं पा सकता। ~ उपनिषद | * झूठ बोलने वाला कभी भी श्रेष्ठ पद को नहीं पा सकता। ~ उपनिषद | ||
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* वृद्ध व्यक्ति जो झुककर चलता है, वह धरती में क्या खोजता चलता है? उसका जो यौवन रूपी रत्न खो गया है, उसे ही खोजता है कि शायद कहीं पर गिरा हुआ हो। ~ जायसी | * वृद्ध व्यक्ति जो झुककर चलता है, वह धरती में क्या खोजता चलता है? उसका जो यौवन रूपी रत्न खो गया है, उसे ही खोजता है कि शायद कहीं पर गिरा हुआ हो। ~ जायसी | ||
* काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | * काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | ||
* झुकने वाले के सामने झुकें। संगति करने वाले के साथ संगति करें। ~ जातक | * झुकने वाले के सामने झुकें। संगति करने वाले के साथ संगति करें। ~ जातक | ||
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* जीवन को सुंदर बनाने वाला प्रत्येक विचार ही मानो वेद है। ~ साने गुरुजी | * जीवन को सुंदर बनाने वाला प्रत्येक विचार ही मानो वेद है। ~ साने गुरुजी | ||
* डॉक्टर असंख्य गलतियां करते हैं। इलाज के मामले में वे आदतन आशावादी होते हैं, लेकिन इलाज के नतीजों के मामले में उतने ही निराशावादी नजर आते हैं। ~ सैम्युअल बटलर | * डॉक्टर असंख्य गलतियां करते हैं। इलाज के मामले में वे आदतन आशावादी होते हैं, लेकिन इलाज के नतीजों के मामले में उतने ही निराशावादी नजर आते हैं। ~ सैम्युअल बटलर | ||
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* मेरी समझ से इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | * मेरी समझ से इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | ||
* जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | ||
* तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | * तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | ||
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* तृष्णा संतोष की बैरिन है, यह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है। ~ सुदर्शन | * तृष्णा संतोष की बैरिन है, यह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है। ~ सुदर्शन | ||
* जिस जगह मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का भी लाभी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य | * जिस जगह मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का भी लाभी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य | ||
* त्रुटि निकालना सरल है, अच्छा कार्य करना कठिन है। ~ प्लूटार्क | * त्रुटि निकालना सरल है, अच्छा कार्य करना कठिन है। ~ प्लूटार्क | ||
* फूल चुनकर इकट्ठा करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो। तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * फूल चुनकर इकट्ठा करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो। तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं, तब आयु रूपी नदी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर | * जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं, तब आयु रूपी नदी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर | ||
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* कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | * कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | ||
* सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो। ~ स्वामी शंकराचार्य | * सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो। ~ स्वामी शंकराचार्य | ||
* जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | * जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | ||
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* जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | * जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | ||
* लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम तर्कशास्त्रियों के साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हम ऐसे लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जिनमें मानसिक आवेश है, पक्षपात है और जो गर्व एवं अहंकार से संचरित होते हैं। ~ डेल कारनेगी | * लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम तर्कशास्त्रियों के साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हम ऐसे लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जिनमें मानसिक आवेश है, पक्षपात है और जो गर्व एवं अहंकार से संचरित होते हैं। ~ डेल कारनेगी | ||
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* दूसरों को प्रसन्न रखने की कला स्वयं प्रसन्न होने में है। सौम्य होने का अर्थ है स्वयं व दूसरों से संतुष्ट होना। ~ हैजलिट | * दूसरों को प्रसन्न रखने की कला स्वयं प्रसन्न होने में है। सौम्य होने का अर्थ है स्वयं व दूसरों से संतुष्ट होना। ~ हैजलिट | ||
* जो महान है, वह महान पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | * जो महान है, वह महान पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं। ~ लोकोक्ति | * अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं। ~ लोकोक्ति | ||
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* जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायां हाथ न जानने पाए, ताकि तेरा दान गुप्त हो। ~ नवविधान | * जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायां हाथ न जानने पाए, ताकि तेरा दान गुप्त हो। ~ नवविधान | ||
* मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इबन् अबीबकर | * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इबन् अबीबकर | ||
* वाणी मधुर हो तो सब वश में हो जाते हैं। वाणी कटु हो तो सब शत्रु हो जाते हैं। ~ हिंदी लोकोक्ति | * वाणी मधुर हो तो सब वश में हो जाते हैं। वाणी कटु हो तो सब शत्रु हो जाते हैं। ~ हिंदी लोकोक्ति | ||
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* पार्थिव सुख ही एकमात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए, दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद | * पार्थिव सुख ही एकमात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए, दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद | ||
* धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपात स्थिति में होती है। ~ तुलसीदास | * धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपात स्थिति में होती है। ~ तुलसीदास | ||
* ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे | * ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे | ||
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* जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि | * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि | ||
* भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवासिष्ठ | * भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवासिष्ठ | ||
* भाग्य, पुरुषार्थ और काल तीनों संयुक्त हाकर मनुष्य को फल देते हैं। ~ मत्स्यपुराण | * भाग्य, पुरुषार्थ और काल तीनों संयुक्त हाकर मनुष्य को फल देते हैं। ~ मत्स्यपुराण | ||
* जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति | * जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति | ||
* श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र | * श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र | ||
* दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
* अंतर्निहित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटका हुआ सत्य उसका सबसे अधिक मूल्यवान रत्न। ~ अरविन्द | * अंतर्निहित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटका हुआ सत्य उसका सबसे अधिक मूल्यवान रत्न। ~ अरविन्द | ||
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* दुष्टों का बल हिंसा है। राजाओं का बल दंड विधि है। स्त्रियों का बल सेवा है। लेकिन गुण वालों का बल क्षमा है। ~ विदुर | * दुष्टों का बल हिंसा है। राजाओं का बल दंड विधि है। स्त्रियों का बल सेवा है। लेकिन गुण वालों का बल क्षमा है। ~ विदुर | ||
* सेवा के लिए अर्पण किया गया बल हमेशा टिकेगा, वह अमर होगा। ~ वाल्मीकि | * सेवा के लिए अर्पण किया गया बल हमेशा टिकेगा, वह अमर होगा। ~ वाल्मीकि | ||
* दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | ||
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* ज्ञाताज्ञात पाप ही अंत:करण की मलिनता है। जब तक अंत:करण मलरहित, पापरहित नहीं होगा, तब तक वास्तविक दृष्टि का उदय नहीं होगा। ~ शंकराचार्य | * ज्ञाताज्ञात पाप ही अंत:करण की मलिनता है। जब तक अंत:करण मलरहित, पापरहित नहीं होगा, तब तक वास्तविक दृष्टि का उदय नहीं होगा। ~ शंकराचार्य | ||
* बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | ||
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* धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर | * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* दान, भोग और नाश - ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है। ~ भर्तृहरि | * दान, भोग और नाश - ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है। ~ भर्तृहरि | ||
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* संपत्ति तो जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था, शोक और राग के बीज का उत्तम अंकुर है। इसके प्रभाव में अंधा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता। ~ देवीभागवत | * संपत्ति तो जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था, शोक और राग के बीज का उत्तम अंकुर है। इसके प्रभाव में अंधा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता। ~ देवीभागवत | ||
* धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरुवत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शाड़ंधर-पद्धति | * धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरुवत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शाड़ंधर-पद्धति | ||
* जैसे रथ का पहिया इधर-उधर नीचे-ऊपर घूमता रहता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियों के पास आता-जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। ~ ऋग्वेद | * जैसे रथ का पहिया इधर-उधर नीचे-ऊपर घूमता रहता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियों के पास आता-जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। ~ ऋग्वेद | ||
* हे राजन्, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | * हे राजन्, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ करदंड कई बार उतनी समस्याओं से रक्षा नहीं करता, जितनी कि थकान उत्पन्न कर देता है। ~ कालिदास | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ करदंड कई बार उतनी समस्याओं से रक्षा नहीं करता, जितनी कि थकान उत्पन्न कर देता है। ~ कालिदास | ||
* जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते। ~ भगवान बुद्ध | * जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते। ~ भगवान बुद्ध | ||
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* 'कृपया' और 'धन्यवाद'- ये ऐसी रेजगारी हैं जिनके द्वारा हम सामाजिक प्राणी होने का मूल्य चुकाते हैं। ~ गार्डनर | * 'कृपया' और 'धन्यवाद'- ये ऐसी रेजगारी हैं जिनके द्वारा हम सामाजिक प्राणी होने का मूल्य चुकाते हैं। ~ गार्डनर | ||
* अच्छी नसीहत मानना अपनी योग्यता बढ़ाना है। ~ सोलन | * अच्छी नसीहत मानना अपनी योग्यता बढ़ाना है। ~ सोलन | ||
* वही व्यक्ति सबसे अधिक दौलतमंद है, जिसकी प्रसन्नता सबसे सस्ती है। ~ थोरो | * वही व्यक्ति सबसे अधिक दौलतमंद है, जिसकी प्रसन्नता सबसे सस्ती है। ~ थोरो | ||
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* धर्म का अर्थ कर्मकांड नहीं होता, वह हमारे हृदय की संचित ऊर्जा है जो सबके कल्याण के लिए उद्यम करती है। ~ विवेकानंद | * धर्म का अर्थ कर्मकांड नहीं होता, वह हमारे हृदय की संचित ऊर्जा है जो सबके कल्याण के लिए उद्यम करती है। ~ विवेकानंद | ||
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
* धर्म से अर्थ उत्पन होता है। धर्म से सुख होता है। धर्म से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म जगत का सार है। ~ वाल्मीकि | * धर्म से अर्थ उत्पन होता है। धर्म से सुख होता है। धर्म से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म जगत का सार है। ~ वाल्मीकि | ||
* धर्म की शक्ति ही अनेक जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। ~ राधाकृष्णन | * धर्म की शक्ति ही अनेक जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। ~ राधाकृष्णन | ||
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* जिसे हम प्यार करते हैं उसी के अनुसार हमारा रूप और आकार निर्मित होता है। ~ गेटे | * जिसे हम प्यार करते हैं उसी के अनुसार हमारा रूप और आकार निर्मित होता है। ~ गेटे | ||
* जो हानि हो चुकी है, उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर | * जो हानि हो चुकी है, उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर | ||
* शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शैनकीयनीतिसार | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शैनकीयनीतिसार | ||
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* अच्छे लोग जिस बात को अपने ऊपर लेते हैं, उसका निर्वाह करते हैं। ~ बिल्हन | * अच्छे लोग जिस बात को अपने ऊपर लेते हैं, उसका निर्वाह करते हैं। ~ बिल्हन | ||
* अपना अहित करनेवाले के साथ भी जो सद्व्यवहार करता है, उसे ही सज्जन 'साधु' कहते हैं। ~ विष्णु शर्मा | * अपना अहित करनेवाले के साथ भी जो सद्व्यवहार करता है, उसे ही सज्जन 'साधु' कहते हैं। ~ विष्णु शर्मा | ||
* सज्जन नारियल के समान ऊपर से कठोर, किंतु भीतर से कोमल होते हैं। ~ नारायण पंडित | * सज्जन नारियल के समान ऊपर से कठोर, किंतु भीतर से कोमल होते हैं। ~ नारायण पंडित | ||
* वास्तव में धीर पुरुष वे ही हैं, जिनका चित्त विकार उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में भी अस्थिर नहीं होता। ~ कालिदास | * वास्तव में धीर पुरुष वे ही हैं, जिनका चित्त विकार उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में भी अस्थिर नहीं होता। ~ कालिदास | ||
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* नेक बनने में सारी आयु लग जाती है, बदनाम होने में तो एक दिन भी नहीं लगता। ऊपर चढ़ना कैसा कठिन है, इसमें कितना समय लगता है? मगर गिरना कितना आसान है, इसमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। ~ सुदर्शन | * नेक बनने में सारी आयु लग जाती है, बदनाम होने में तो एक दिन भी नहीं लगता। ऊपर चढ़ना कैसा कठिन है, इसमें कितना समय लगता है? मगर गिरना कितना आसान है, इसमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। ~ सुदर्शन | ||
* मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नई दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नई दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | ||
* हमारा गौरव कभी न गिरने में नहीं है, बल्कि प्रत्येक बार उठ खड़े होने में है। ~ कन्फ्यूशस | * हमारा गौरव कभी न गिरने में नहीं है, बल्कि प्रत्येक बार उठ खड़े होने में है। ~ कन्फ्यूशस | ||
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु ज़्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन होते हैं। ~ कल्हण | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु ज़्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन होते हैं। ~ कल्हण | ||
* जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | ||
* शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | ||
* नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित | * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित | ||
* महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य | * महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य | ||
* गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। ~ भट्टनारायण | * गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। ~ भट्टनारायण | ||
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* किसी मनुष्य का स्वभाव ही उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू | * किसी मनुष्य का स्वभाव ही उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू | ||
* अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद | * अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद | ||
* ज्यों - ज्यों लाभ होता है, त्यों - त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | * ज्यों - ज्यों लाभ होता है, त्यों - त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | ||
पंक्ति 1,456: | पंक्ति 1,552: | ||
* नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के आभूषण होते हैं। शेष सब नाममात्र के भूषण हैं। ~ संत तिरुवल्लवुर | * नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के आभूषण होते हैं। शेष सब नाममात्र के भूषण हैं। ~ संत तिरुवल्लवुर | ||
* दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता, जितना अपने को बचाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता, जितना अपने को बचाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
* निराश व्यक्ति को प्रलोभन मत दो। ~ शेक्सपियर | * निराश व्यक्ति को प्रलोभन मत दो। ~ शेक्सपियर | ||
पंक्ति 1,480: | पंक्ति 1,575: | ||
* निष्कपट प्रेम किसी भी कपट को नहीं सह सकता है। ~ चैतन्यचंदोदयम् | * निष्कपट प्रेम किसी भी कपट को नहीं सह सकता है। ~ चैतन्यचंदोदयम् | ||
* विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | * विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | ||
* गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | * गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | ||
पंक्ति 1,486: | पंक्ति 1,580: | ||
* नैतिक शिक्षा देते समय संक्षेप में कहो। ~ होरेस | * नैतिक शिक्षा देते समय संक्षेप में कहो। ~ होरेस | ||
* राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा वैसा ही आचरण करने लगती है। ~ वाल्मीकि | * राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा वैसा ही आचरण करने लगती है। ~ वाल्मीकि | ||
* श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति। ~ रामचन्द्र शुक्ल | * श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति। ~ रामचन्द्र शुक्ल | ||
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* सभी प्रकार के बलों में नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है। ~ पिंगलि सूरना | * सभी प्रकार के बलों में नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है। ~ पिंगलि सूरना | ||
* घृणा और द्वेष जो बढ़ा है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * घृणा और द्वेष जो बढ़ा है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
* गलती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ | * गलती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ | ||
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* विजयाभिलाषी जब तक जीवित रहता है तब तक बुद्धिमानों के उपदेश का पात्र होता है। ~ भट्टनारायण | * विजयाभिलाषी जब तक जीवित रहता है तब तक बुद्धिमानों के उपदेश का पात्र होता है। ~ भट्टनारायण | ||
* धर्म का दान हमारे सारे दानों को जीत लेता है। धर्म रस सारे रसों को जीत लेता है। धर्म में प्रेम सारे प्रेमों को जीत लेता है। ~ धम्मपद | * धर्म का दान हमारे सारे दानों को जीत लेता है। धर्म रस सारे रसों को जीत लेता है। धर्म में प्रेम सारे प्रेमों को जीत लेता है। ~ धम्मपद | ||
* जिसमें यह चार परम श्रेष्ठ गुण नहीं हैं- सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को नहीं जीत सकता। ~ जातक | * जिसमें यह चार परम श्रेष्ठ गुण नहीं हैं- सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को नहीं जीत सकता। ~ जातक | ||
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* प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त | * प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त | ||
* प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद | * प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
* जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे ही विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे ही विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
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* नम्रता एवं मधुर वचन ही मनुष्य के असली आभूषण हैं। ~ तिरुवल्लुवर | * नम्रता एवं मधुर वचन ही मनुष्य के असली आभूषण हैं। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* हम महान व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं, जब हम नम्रता में महान होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * हम महान व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं, जब हम नम्रता में महान होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* जिसके पास अपनी शक्ति नहीं, उसे भगवान भी शक्ति नहीं दे सकता। शक्ति आत्मा के अंदर से आती है, बाहर से नहीं। जो बाहर की शक्ति पर भरोसा करता है, वह अपने लिए काले दिनो को पुकारता है। ~ सुदर्शन | * जिसके पास अपनी शक्ति नहीं, उसे भगवान भी शक्ति नहीं दे सकता। शक्ति आत्मा के अंदर से आती है, बाहर से नहीं। जो बाहर की शक्ति पर भरोसा करता है, वह अपने लिए काले दिनो को पुकारता है। ~ सुदर्शन | ||
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* जिसके पास भगवद्-भक्ति, भगवद्-प्रेम है- वही इस संसार में धनी है। ऐसे व्यक्ति के समक्ष महाराजाधिराज भी दीन भिक्षुक के समान है। ~ सुभाषचंद वसु | * जिसके पास भगवद्-भक्ति, भगवद्-प्रेम है- वही इस संसार में धनी है। ऐसे व्यक्ति के समक्ष महाराजाधिराज भी दीन भिक्षुक के समान है। ~ सुभाषचंद वसु | ||
* बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | * बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | ||
* यदि धर्म लोक के विरुद्ध हो तो वह सुखकारी नहीं हो सकता। ~ देवीभागवत | * यदि धर्म लोक के विरुद्ध हो तो वह सुखकारी नहीं हो सकता। ~ देवीभागवत | ||
* भिक्षुओं! बेड़े की भांति पार जाने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, पकड़ कर रखने के लिए नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | * भिक्षुओं! बेड़े की भांति पार जाने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, पकड़ कर रखने के लिए नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | ||
* आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | * आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | ||
* जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा | * जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा | ||
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* जिसके मन में कभी क्रोध नहीं होता और जिसके हृदय में रात-दिन राम बसते हैं, वह भक्त भगवान के समान ही है। ~ रैदास | * जिसके मन में कभी क्रोध नहीं होता और जिसके हृदय में रात-दिन राम बसते हैं, वह भक्त भगवान के समान ही है। ~ रैदास | ||
* सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | * सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | ||
* सज्जन लोग स्वभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट | * सज्जन लोग स्वभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट | ||
* गुण का सच्चा मानदण्ड मन में स्थित है। जिसके सत्य विचार हैं, वे सत्यपुरुष हैं। ~ आइजक बिकरस्टाफ | * गुण का सच्चा मानदण्ड मन में स्थित है। जिसके सत्य विचार हैं, वे सत्यपुरुष हैं। ~ आइजक बिकरस्टाफ | ||
* सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | * सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | ||
* सत्य को न देखने के कारण यह संसार जला है, इस समय जल रहा है और जलेगा। ~ अश्वघोष | * सत्य को न देखने के कारण यह संसार जला है, इस समय जल रहा है और जलेगा। ~ अश्वघोष | ||
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* कान से सुनकर लोग चलते हैं, आंख से देखकर चलने वाले कम हैं। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * कान से सुनकर लोग चलते हैं, आंख से देखकर चलने वाले कम हैं। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
* जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | ||
* संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | ||
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* जो मनुष्य तौल कर बातें नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। ~ सादी | * जो मनुष्य तौल कर बातें नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। ~ सादी | ||
* जब क्रोध नम्रता का रूप धारण कर लेता है, तो अभिमान भी सिर झुका लेता है। ~ सुदर्शन | * जब क्रोध नम्रता का रूप धारण कर लेता है, तो अभिमान भी सिर झुका लेता है। ~ सुदर्शन | ||
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* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स | ||
* मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | ||
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
* दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | ||
* साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित | * साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित | ||
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* कांच का कटोरा, नेत्रों का जन, मोती और मन, यह एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति नहीं होती, अत: पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति | * कांच का कटोरा, नेत्रों का जन, मोती और मन, यह एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति नहीं होती, अत: पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति | ||
* जीव के दो स्वभाव हैं- अपना-पराया। स्व और पर दोनों में भी जीव के अस्तित्व होने के कारण दूसरों के प्रति बुरी बात करना अनुचित है। ~ पानुगंटि | * जीव के दो स्वभाव हैं- अपना-पराया। स्व और पर दोनों में भी जीव के अस्तित्व होने के कारण दूसरों के प्रति बुरी बात करना अनुचित है। ~ पानुगंटि | ||
* जो व्यक्ति अपना पक्ष छोड़कर दूसरे पक्ष से मिल जाता है, वह अपने पक्ष के नष्ट हो जाने पर स्वयं भी परपक्ष द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ~ वाल्मीकि | * जो व्यक्ति अपना पक्ष छोड़कर दूसरे पक्ष से मिल जाता है, वह अपने पक्ष के नष्ट हो जाने पर स्वयं भी परपक्ष द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ~ वाल्मीकि | ||
* बिना विवेक के वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * बिना विवेक के वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
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* यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण | * यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण | ||
* नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद | * नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद | ||
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* मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | * मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | ||
* जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | ||
* जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद | * जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद | ||
* जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। ~ रामकृष्ण परमहंस | * जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। ~ रामकृष्ण परमहंस | ||
* मनुष्य की सच्ची परीक्षा विपत्ति में ही होती है। ~ महात्मा गांधी | * मनुष्य की सच्ची परीक्षा विपत्ति में ही होती है। ~ महात्मा गांधी | ||
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* जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां | * जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां | ||
* कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा | ||
* मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष | * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष | ||
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* अगर आप काम करते रहते हैं तो आपके इस दुनिया में होने का अर्थ बना रहता है। रिटायर होने के बाद अपनी बाकी जिंदगी टुच्चे खेलों में बिता देने का विचार बहुत बेहूदा है। ~ हैराल्ड जेनीन | * अगर आप काम करते रहते हैं तो आपके इस दुनिया में होने का अर्थ बना रहता है। रिटायर होने के बाद अपनी बाकी जिंदगी टुच्चे खेलों में बिता देने का विचार बहुत बेहूदा है। ~ हैराल्ड जेनीन | ||
* न शत्रु न शस्त्र, न अग्नि, न विष और न दारुण रोग ही मनुष्य को उतना संतप्त करते हैं। जितनी कड़वी वाणी। ~ नीतिविदषाष्टिका | * न शत्रु न शस्त्र, न अग्नि, न विष और न दारुण रोग ही मनुष्य को उतना संतप्त करते हैं। जितनी कड़वी वाणी। ~ नीतिविदषाष्टिका | ||
* जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | * जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | ||
* अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | * अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | ||
* कभी यह न सोचना कि तुम प्रेम का पथ निर्धारित कर सकते हो। क्योंकि प्रेम यदि तुमको उसका अधिकारी समझता है, तो तुम्हारी राह वह स्वयं निर्धारित करता है। ~ खलील जिब्रान | * कभी यह न सोचना कि तुम प्रेम का पथ निर्धारित कर सकते हो। क्योंकि प्रेम यदि तुमको उसका अधिकारी समझता है, तो तुम्हारी राह वह स्वयं निर्धारित करता है। ~ खलील जिब्रान | ||
* जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक | * जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक | ||
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* स्वजन शत्रु हो जाते हैं और पराए मित्र हो जाते हैं। कार्यवश ही लोग स्नेह करते है और तोड़ते हैं। ~ अश्वघोष | * स्वजन शत्रु हो जाते हैं और पराए मित्र हो जाते हैं। कार्यवश ही लोग स्नेह करते है और तोड़ते हैं। ~ अश्वघोष | ||
* यह संभव नहीं कि कोई व्यक्ति निरंतर मुस्कराता ही रहे और वह दुष्ट भी हो। ~ शेक्सपियर | * यह संभव नहीं कि कोई व्यक्ति निरंतर मुस्कराता ही रहे और वह दुष्ट भी हो। ~ शेक्सपियर | ||
* तू ने स्वर्ग और नर्क नहीं देखा। समझ ले कि उद्यम स्वर्ग है और आलस्य नरक है। ~ अज्ञात | * तू ने स्वर्ग और नर्क नहीं देखा। समझ ले कि उद्यम स्वर्ग है और आलस्य नरक है। ~ अज्ञात | ||
पंक्ति 1,696: | पंक्ति 1,767: | ||
* संसार मे झूठ पापो का सरदार है। स्वार्थपरता, निर्दयता, कुटिलता, और कायरता, सब उसके साथी हैं। ~ काका कालेलकर | * संसार मे झूठ पापो का सरदार है। स्वार्थपरता, निर्दयता, कुटिलता, और कायरता, सब उसके साथी हैं। ~ काका कालेलकर | ||
* लोग झूठ बोलने वाले मनुष्य से उसी प्रकार डरते हैं जैसे सांप से। संसार मे सत्य सबसे महान धर्म है। वही सबका मूल है। ~ वाल्मीकि | * लोग झूठ बोलने वाले मनुष्य से उसी प्रकार डरते हैं जैसे सांप से। संसार मे सत्य सबसे महान धर्म है। वही सबका मूल है। ~ वाल्मीकि | ||
* झूठ बोलने वाला कभी भी श्रेष्ठ पद को नहीं पा सकता। ~ उपनिषद | * झूठ बोलने वाला कभी भी श्रेष्ठ पद को नहीं पा सकता। ~ उपनिषद | ||
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* वृद्ध व्यक्ति जो झुककर चलता है, वह धरती में क्या खोजता चलता है? उसका जो यौवन रूपी रत्न खो गया है, उसे ही खोजता है कि शायद कहीं पर गिरा हुआ हो। ~ जायसी | * वृद्ध व्यक्ति जो झुककर चलता है, वह धरती में क्या खोजता चलता है? उसका जो यौवन रूपी रत्न खो गया है, उसे ही खोजता है कि शायद कहीं पर गिरा हुआ हो। ~ जायसी | ||
* काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | * काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | ||
* झुकने वाले के सामने झुकें। संगति करने वाले के साथ संगति करें। ~ जातक | * झुकने वाले के सामने झुकें। संगति करने वाले के साथ संगति करें। ~ जातक | ||
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* जीवन को सुंदर बनाने वाला प्रत्येक विचार ही मानो वेद है। ~ साने गुरुजी | * जीवन को सुंदर बनाने वाला प्रत्येक विचार ही मानो वेद है। ~ साने गुरुजी | ||
* डॉक्टर असंख्य गलतियां करते हैं। इलाज के मामले में वे आदतन आशावादी होते हैं, लेकिन इलाज के नतीजों के मामले में उतने ही निराशावादी नजर आते हैं। ~ सैम्युअल बटलर | * डॉक्टर असंख्य गलतियां करते हैं। इलाज के मामले में वे आदतन आशावादी होते हैं, लेकिन इलाज के नतीजों के मामले में उतने ही निराशावादी नजर आते हैं। ~ सैम्युअल बटलर | ||
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* मेरी समझ से इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | * मेरी समझ से इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | ||
* जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | ||
* तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | * तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | ||
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* तृष्णा संतोष की बैरिन है, यह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है। ~ सुदर्शन | * तृष्णा संतोष की बैरिन है, यह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है। ~ सुदर्शन | ||
* जिस जगह मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का भी लाभी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य | * जिस जगह मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का भी लाभी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य | ||
* त्रुटि निकालना सरल है, अच्छा कार्य करना कठिन है। ~ प्लूटार्क | * त्रुटि निकालना सरल है, अच्छा कार्य करना कठिन है। ~ प्लूटार्क | ||
* फूल चुनकर इकट्ठा करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो। तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * फूल चुनकर इकट्ठा करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो। तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं, तब आयु रूपी नदी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर | * जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं, तब आयु रूपी नदी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर | ||
पंक्ति 1,755: | पंक्ति 1,818: | ||
* कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | * कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | ||
* सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो। ~ स्वामी शंकराचार्य | * सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो। ~ स्वामी शंकराचार्य | ||
* जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | * जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | ||
पंक्ति 1,764: | पंक्ति 1,826: | ||
* जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | * जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | ||
* लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम तर्कशास्त्रियों के साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हम ऐसे लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जिनमें मानसिक आवेश है, पक्षपात है और जो गर्व एवं अहंकार से संचरित होते हैं। ~ डेल कारनेगी | * लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम तर्कशास्त्रियों के साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हम ऐसे लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जिनमें मानसिक आवेश है, पक्षपात है और जो गर्व एवं अहंकार से संचरित होते हैं। ~ डेल कारनेगी | ||
पंक्ति 1,783: | पंक्ति 1,843: | ||
* दूसरों को प्रसन्न रखने की कला स्वयं प्रसन्न होने में है। सौम्य होने का अर्थ है स्वयं व दूसरों से संतुष्ट होना। ~ हैजलिट | * दूसरों को प्रसन्न रखने की कला स्वयं प्रसन्न होने में है। सौम्य होने का अर्थ है स्वयं व दूसरों से संतुष्ट होना। ~ हैजलिट | ||
* जो महान है, वह महान पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | * जो महान है, वह महान पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं। ~ लोकोक्ति | * अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं। ~ लोकोक्ति | ||
पंक्ति 1,795: | पंक्ति 1,854: | ||
* जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायां हाथ न जानने पाए, ताकि तेरा दान गुप्त हो। ~ नवविधान | * जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायां हाथ न जानने पाए, ताकि तेरा दान गुप्त हो। ~ नवविधान | ||
* मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इबन् अबीबकर | * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इबन् अबीबकर | ||
* वाणी मधुर हो तो सब वश में हो जाते हैं। वाणी कटु हो तो सब शत्रु हो जाते हैं। ~ हिंदी लोकोक्ति | * वाणी मधुर हो तो सब वश में हो जाते हैं। वाणी कटु हो तो सब शत्रु हो जाते हैं। ~ हिंदी लोकोक्ति | ||
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* पार्थिव सुख ही एकमात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए, दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद | * पार्थिव सुख ही एकमात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए, दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद | ||
* धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपात स्थिति में होती है। ~ तुलसीदास | * धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपात स्थिति में होती है। ~ तुलसीदास | ||
* ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे | * ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे | ||
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* जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि | * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि | ||
* भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवासिष्ठ | * भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवासिष्ठ | ||
* भाग्य, पुरुषार्थ और काल तीनों संयुक्त हाकर मनुष्य को फल देते हैं। ~ मत्स्यपुराण | * भाग्य, पुरुषार्थ और काल तीनों संयुक्त हाकर मनुष्य को फल देते हैं। ~ मत्स्यपुराण | ||
* जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति | * जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति | ||
* श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र | * श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र | ||
* दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
* अंतर्निहित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटका हुआ सत्य उसका सबसे अधिक मूल्यवान रत्न। ~ अरविन्द | * अंतर्निहित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटका हुआ सत्य उसका सबसे अधिक मूल्यवान रत्न। ~ अरविन्द | ||
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* दुष्टों का बल हिंसा है। राजाओं का बल दंड विधि है। स्त्रियों का बल सेवा है। लेकिन गुण वालों का बल क्षमा है। ~ विदुर | * दुष्टों का बल हिंसा है। राजाओं का बल दंड विधि है। स्त्रियों का बल सेवा है। लेकिन गुण वालों का बल क्षमा है। ~ विदुर | ||
* सेवा के लिए अर्पण किया गया बल हमेशा टिकेगा, वह अमर होगा। ~ वाल्मीकि | * सेवा के लिए अर्पण किया गया बल हमेशा टिकेगा, वह अमर होगा। ~ वाल्मीकि | ||
* दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | ||
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* ज्ञाताज्ञात पाप ही अंत:करण की मलिनता है। जब तक अंत:करण मलरहित, पापरहित नहीं होगा, तब तक वास्तविक दृष्टि का उदय नहीं होगा। ~ शंकराचार्य | * ज्ञाताज्ञात पाप ही अंत:करण की मलिनता है। जब तक अंत:करण मलरहित, पापरहित नहीं होगा, तब तक वास्तविक दृष्टि का उदय नहीं होगा। ~ शंकराचार्य | ||
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | ||
* बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
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* धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर | * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* दान, भोग और नाश - ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है। ~ भर्तृहरि | * दान, भोग और नाश - ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है। ~ भर्तृहरि | ||
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* संपत्ति तो जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था, शोक और राग के बीज का उत्तम अंकुर है। इसके प्रभाव में अंधा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता। ~ देवीभागवत | * संपत्ति तो जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था, शोक और राग के बीज का उत्तम अंकुर है। इसके प्रभाव में अंधा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता। ~ देवीभागवत | ||
* धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरुवत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शाड़ंधर-पद्धति | * धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरुवत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शाड़ंधर-पद्धति | ||
* जैसे रथ का पहिया इधर-उधर नीचे-ऊपर घूमता रहता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियों के पास आता-जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। ~ ऋग्वेद | * जैसे रथ का पहिया इधर-उधर नीचे-ऊपर घूमता रहता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियों के पास आता-जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। ~ ऋग्वेद | ||
* हे राजन्, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | * हे राजन्, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ करदंड कई बार उतनी समस्याओं से रक्षा नहीं करता, जितनी कि थकान उत्पन्न कर देता है। ~ कालिदास | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ करदंड कई बार उतनी समस्याओं से रक्षा नहीं करता, जितनी कि थकान उत्पन्न कर देता है। ~ कालिदास | ||
* जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते। ~ भगवान बुद्ध | * जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते। ~ भगवान बुद्ध | ||
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* 'कृपया' और 'धन्यवाद'- ये ऐसी रेजगारी हैं जिनके द्वारा हम सामाजिक प्राणी होने का मूल्य चुकाते हैं। ~ गार्डनर | * 'कृपया' और 'धन्यवाद'- ये ऐसी रेजगारी हैं जिनके द्वारा हम सामाजिक प्राणी होने का मूल्य चुकाते हैं। ~ गार्डनर | ||
* अच्छी नसीहत मानना अपनी योग्यता बढ़ाना है। ~ सोलन | * अच्छी नसीहत मानना अपनी योग्यता बढ़ाना है। ~ सोलन | ||
* वही व्यक्ति सबसे अधिक दौलतमंद है, जिसकी प्रसन्नता सबसे सस्ती है। ~ थोरो | * वही व्यक्ति सबसे अधिक दौलतमंद है, जिसकी प्रसन्नता सबसे सस्ती है। ~ थोरो | ||
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* धर्म का अर्थ कर्मकांड नहीं होता, वह हमारे हृदय की संचित ऊर्जा है जो सबके कल्याण के लिए उद्यम करती है। ~ विवेकानंद | * धर्म का अर्थ कर्मकांड नहीं होता, वह हमारे हृदय की संचित ऊर्जा है जो सबके कल्याण के लिए उद्यम करती है। ~ विवेकानंद | ||
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
* धर्म से अर्थ उत्पन होता है। धर्म से सुख होता है। धर्म से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म जगत का सार है। ~ वाल्मीकि | * धर्म से अर्थ उत्पन होता है। धर्म से सुख होता है। धर्म से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म जगत का सार है। ~ वाल्मीकि | ||
* धर्म की शक्ति ही अनेक जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। ~ राधाकृष्णन | * धर्म की शक्ति ही अनेक जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। ~ राधाकृष्णन | ||
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* जिसे हम प्यार करते हैं उसी के अनुसार हमारा रूप और आकार निर्मित होता है। ~ गेटे | * जिसे हम प्यार करते हैं उसी के अनुसार हमारा रूप और आकार निर्मित होता है। ~ गेटे | ||
* जो हानि हो चुकी है, उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर | * जो हानि हो चुकी है, उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर | ||
* शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शैनकीयनीतिसार | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शैनकीयनीतिसार | ||
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* अच्छे लोग जिस बात को अपने ऊपर लेते हैं, उसका निर्वाह करते हैं। ~ बिल्हन | * अच्छे लोग जिस बात को अपने ऊपर लेते हैं, उसका निर्वाह करते हैं। ~ बिल्हन | ||
* अपना अहित करनेवाले के साथ भी जो सद्व्यवहार करता है, उसे ही सज्जन 'साधु' कहते हैं। ~ विष्णु शर्मा | * अपना अहित करनेवाले के साथ भी जो सद्व्यवहार करता है, उसे ही सज्जन 'साधु' कहते हैं। ~ विष्णु शर्मा | ||
* सज्जन नारियल के समान ऊपर से कठोर, किंतु भीतर से कोमल होते हैं। ~ नारायण पंडित | * सज्जन नारियल के समान ऊपर से कठोर, किंतु भीतर से कोमल होते हैं। ~ नारायण पंडित | ||
* वास्तव में धीर पुरुष वे ही हैं, जिनका चित्त विकार उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में भी अस्थिर नहीं होता। ~ कालिदास | * वास्तव में धीर पुरुष वे ही हैं, जिनका चित्त विकार उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में भी अस्थिर नहीं होता। ~ कालिदास | ||
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* नेक बनने में सारी आयु लग जाती है, बदनाम होने में तो एक दिन भी नहीं लगता। ऊपर चढ़ना कैसा कठिन है, इसमें कितना समय लगता है? मगर गिरना कितना आसान है, इसमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। ~ सुदर्शन | * नेक बनने में सारी आयु लग जाती है, बदनाम होने में तो एक दिन भी नहीं लगता। ऊपर चढ़ना कैसा कठिन है, इसमें कितना समय लगता है? मगर गिरना कितना आसान है, इसमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। ~ सुदर्शन | ||
* मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नई दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नई दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | ||
* हमारा गौरव कभी न गिरने में नहीं है, बल्कि प्रत्येक बार उठ खड़े होने में है। ~ कन्फ्यूशस | * हमारा गौरव कभी न गिरने में नहीं है, बल्कि प्रत्येक बार उठ खड़े होने में है। ~ कन्फ्यूशस | ||
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु ज़्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन होते हैं। ~ कल्हण | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु ज़्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन होते हैं। ~ कल्हण | ||
* जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | ||
* शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | ||
* नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित | * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित | ||
* महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य | * महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य | ||
* गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। ~ भट्टनारायण | * गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। ~ भट्टनारायण | ||
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* किसी मनुष्य का स्वभाव ही उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू | * किसी मनुष्य का स्वभाव ही उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू | ||
* अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद | * अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद | ||
* ज्यों - ज्यों लाभ होता है, त्यों - त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | * ज्यों - ज्यों लाभ होता है, त्यों - त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | ||
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* नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के आभूषण होते हैं। शेष सब नाममात्र के भूषण हैं। ~ संत तिरुवल्लवुर | * नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के आभूषण होते हैं। शेष सब नाममात्र के भूषण हैं। ~ संत तिरुवल्लवुर | ||
* दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता, जितना अपने को बचाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | * दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता, जितना अपने को बचाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ | ||
* निराश व्यक्ति को प्रलोभन मत दो। ~ शेक्सपियर | * निराश व्यक्ति को प्रलोभन मत दो। ~ शेक्सपियर | ||
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* निष्कपट प्रेम किसी भी कपट को नहीं सह सकता है। ~ चैतन्यचंदोदयम् | * निष्कपट प्रेम किसी भी कपट को नहीं सह सकता है। ~ चैतन्यचंदोदयम् | ||
* विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | * विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | ||
* गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | * गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | ||
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* नैतिक शिक्षा देते समय संक्षेप में कहो। ~ होरेस | * नैतिक शिक्षा देते समय संक्षेप में कहो। ~ होरेस | ||
* राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा वैसा ही आचरण करने लगती है। ~ वाल्मीकि | * राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा वैसा ही आचरण करने लगती है। ~ वाल्मीकि | ||
* श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति। ~ रामचन्द्र शुक्ल | * श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति। ~ रामचन्द्र शुक्ल | ||
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* सभी प्रकार के बलों में नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है। ~ पिंगलि सूरना | * सभी प्रकार के बलों में नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है। ~ पिंगलि सूरना | ||
* घृणा और द्वेष जो बढ़ा है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * घृणा और द्वेष जो बढ़ा है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
* गलती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ | * गलती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ | ||
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* जहां प्रेम जितना उग्र होता है वहां वैसी ही तीखी घृणा भी होती है। ~ अज्ञेय | * जहां प्रेम जितना उग्र होता है वहां वैसी ही तीखी घृणा भी होती है। ~ अज्ञेय | ||
* हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनाता है। ~ वाल्मीकि | * हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनाता है। ~ वाल्मीकि | ||
* मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
पंक्ति 2,085: | पंक्ति 2,115: | ||
* एकाएक बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए। सम्यक विचार न करना परम आपत्ति का उत्पादक होता है। गुण के ऊपर अपने आप को समर्पण करने वाली संपत्तियां विचारवान पुरुष को स्वयं मनोनीत करती हैं। ~ भारवि | * एकाएक बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए। सम्यक विचार न करना परम आपत्ति का उत्पादक होता है। गुण के ऊपर अपने आप को समर्पण करने वाली संपत्तियां विचारवान पुरुष को स्वयं मनोनीत करती हैं। ~ भारवि | ||
* मनुष्य जितना चाहता है, उतनी ही उसकी प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती जाती है। अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार कर के उसकी ग़ुलामी करना ही कायरपन है। ~ शरतचंद्र | * मनुष्य जितना चाहता है, उतनी ही उसकी प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती जाती है। अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार कर के उसकी ग़ुलामी करना ही कायरपन है। ~ शरतचंद्र | ||
* कार्य उसी का सिद्ध होता है जो समय को विचार कर कार्य करता है। वह खिलाड़ी कभी नहीं हारता जो दांव पर विचार कर खेलता है। ~ वृंद | * कार्य उसी का सिद्ध होता है जो समय को विचार कर कार्य करता है। वह खिलाड़ी कभी नहीं हारता जो दांव पर विचार कर खेलता है। ~ वृंद | ||
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* पार्थिव सुख ही एक मात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद | * पार्थिव सुख ही एक मात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद | ||
* दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में, दुख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग | * दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में, दुख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग | ||
* मनुष्य के दुख से दुखी होना ही सच्चा सुख है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * मनुष्य के दुख से दुखी होना ही सच्चा सुख है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
* ऐश्वर्य का भूषण, सज्जनता-शूरता का मित-भाषण, ज्ञान का शांति, कुल का भूषण विनय, धन का उचित व्यय, तप का अक्रोध, समर्थ का क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है। यह तो सबका पृथक-पृथक हुआ, परंतु सबसे बढ़कर सबका भूषण शील है। ~ भर्तृहरि | * ऐश्वर्य का भूषण, सज्जनता-शूरता का मित-भाषण, ज्ञान का शांति, कुल का भूषण विनय, धन का उचित व्यय, तप का अक्रोध, समर्थ का क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है। यह तो सबका पृथक-पृथक हुआ, परंतु सबसे बढ़कर सबका भूषण शील है। ~ भर्तृहरि | ||
* मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर है। ~ विवेकानंद | ||
* मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण | * मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण | ||
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* तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | * तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | ||
* किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे | * किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे | ||
* मनुष्य अनुकरण करने वाला प्राणी है और जो सबसे आगे बढ़ जाता है वही समूह का नेतृत्व करता है। ~ शिलर | * मनुष्य अनुकरण करने वाला प्राणी है और जो सबसे आगे बढ़ जाता है वही समूह का नेतृत्व करता है। ~ शिलर | ||
पंक्ति 2,134: | पंक्ति 2,159: | ||
* मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण करता है, उस समय वह पशुओ से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्र नाथ | * मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण करता है, उस समय वह पशुओ से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्र नाथ | ||
* शास्त्र पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है वह विद्वान होता है। रोगियो के लिए भली भांति सोचकर तय की गई दवा का नाम लेने भर से किसी को रोग से छुटकारा नहीं मिल सकता। ~ हितोपदेश | * शास्त्र पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है वह विद्वान होता है। रोगियो के लिए भली भांति सोचकर तय की गई दवा का नाम लेने भर से किसी को रोग से छुटकारा नहीं मिल सकता। ~ हितोपदेश | ||
* मनुष्य का आचरण ही बताता है कि दरअसल वह कैसा है। ~ काका कालेलकर | * मनुष्य का आचरण ही बताता है कि दरअसल वह कैसा है। ~ काका कालेलकर | ||
पंक्ति 2,142: | पंक्ति 2,166: | ||
* अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव | * अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव | ||
* जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत | * जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत | ||
* जल से शरीर शुद्ध होता है, मन से सत्य शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | * जल से शरीर शुद्ध होता है, मन से सत्य शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | ||
* कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | ||
* शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | ||
* आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार बिना चाहे प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। ~ भागवत | * आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार बिना चाहे प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। ~ भागवत | ||
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* यदि तुम सूर्य के खो जाने पर आंसू बहाओगे, तो तारों को भी खो बैठोगे। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | * यदि तुम सूर्य के खो जाने पर आंसू बहाओगे, तो तारों को भी खो बैठोगे। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | ||
* प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद | * प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
* प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। ~ रामचंद शुक्ल | * प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। ~ रामचंद शुक्ल | ||
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* विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | * विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | ||
* संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही महान कहलाते हैं। ~ विष्णु शर्मा | * संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही महान कहलाते हैं। ~ विष्णु शर्मा | ||
* विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक | * विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक | ||
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* हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | ||
* हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। ~ भारवि | * हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। ~ भारवि | ||
* शील ही विद्वानों का धन है। ~ सोमदेव | * शील ही विद्वानों का धन है। ~ सोमदेव | ||
* खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | * खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | ||
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* दिन बीत जाने पर रात्रि की प्रतीक्षा की जाती है। कुशलपूर्वक प्रभात होने पर फिर दिन की चिंता होती है। भविष्य के अनिष्टों की चिंता करने वालों को शांति तो बीते समय का स्मरण करके ही मिलती है। ~ भास | * दिन बीत जाने पर रात्रि की प्रतीक्षा की जाती है। कुशलपूर्वक प्रभात होने पर फिर दिन की चिंता होती है। भविष्य के अनिष्टों की चिंता करने वालों को शांति तो बीते समय का स्मरण करके ही मिलती है। ~ भास | ||
* इस संसार में दो तरह के व्यक्ति दुर्लभ हैं, कौन से दो? उपकारी और कृतज्ञ। ~ अंगुत्तरनिकाय | * इस संसार में दो तरह के व्यक्ति दुर्लभ हैं, कौन से दो? उपकारी और कृतज्ञ। ~ अंगुत्तरनिकाय | ||
* मेरा मुकुट मेरे हृदय में है, न कि मेरे सिर पर। मेरा मुकुट न तो हीरों से जटित है और न ही रत्नों से। मेरा मुकुट दिखाई भी नहीं देता है। मेरे मुकुट का नाम है 'संतोष' और राजा लोग कदाचित ही इसे धारण करते हैं। ~ शेक्सपियर | * मेरा मुकुट मेरे हृदय में है, न कि मेरे सिर पर। मेरा मुकुट न तो हीरों से जटित है और न ही रत्नों से। मेरा मुकुट दिखाई भी नहीं देता है। मेरे मुकुट का नाम है 'संतोष' और राजा लोग कदाचित ही इसे धारण करते हैं। ~ शेक्सपियर | ||
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* धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर | * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* पहले स्वयं पुरुषार्थ करना चाहिए, भगवान भी तभी मददगार होते हैं। ~ यूरीपिडीज़ | * पहले स्वयं पुरुषार्थ करना चाहिए, भगवान भी तभी मददगार होते हैं। ~ यूरीपिडीज़ | ||
* मुक्ति शून्यता में नहीं, पूर्णता में है। पूर्णता सृष्टि करती है, ध्वंस नहीं। ~ रवीन्द्रनाथ टैगोर | * मुक्ति शून्यता में नहीं, पूर्णता में है। पूर्णता सृष्टि करती है, ध्वंस नहीं। ~ रवीन्द्रनाथ टैगोर | ||
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* प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है। ~ अश्विनी कुमार दत्त | * प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है। ~ अश्विनी कुमार दत्त | ||
* जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद | * जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद | ||
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* योग्य व्यक्ति से किसका काम पूरा नहीं होता। ~ माघ | * योग्य व्यक्ति से किसका काम पूरा नहीं होता। ~ माघ | ||
* अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास | * अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास | ||
* साधन की सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है। ~ अशोकानंद | * साधन की सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है। ~ अशोकानंद | ||
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* दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास | * दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास | ||
* इस संसार में दुख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प हैं। इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। ~ योगवासिष्ठ | * इस संसार में दुख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प हैं। इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। ~ योगवासिष्ठ | ||
* किसी का रुपया वापस दिया जा सकता है, परंतु सहानुभूति के दो शब्द वह ऋण है जिसे चुकाना मनुष्य के सार्मथ्य के बाहर है। ~ सुदर्शन | * किसी का रुपया वापस दिया जा सकता है, परंतु सहानुभूति के दो शब्द वह ऋण है जिसे चुकाना मनुष्य के सार्मथ्य के बाहर है। ~ सुदर्शन | ||
* सम्मान सच्चे परिश्रम में है। ~ जी. क्लीवलैंड | * सम्मान सच्चे परिश्रम में है। ~ जी. क्लीवलैंड | ||
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* विपत्ति में पड़े मनुष्यों का हित देखने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | * विपत्ति में पड़े मनुष्यों का हित देखने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | ||
* युवकों की उमंगों की वृद्धों से आशा मत करो। क्योंकि नदी का प्रवाहित जल दुबारा नहीं आता। ~ शेख सादी | * युवकों की उमंगों की वृद्धों से आशा मत करो। क्योंकि नदी का प्रवाहित जल दुबारा नहीं आता। ~ शेख सादी | ||
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | ||
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
* वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | * वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | ||
* राजलक्ष्मी तो सर्प की जिह्वा के समान चंचल होती है। ~ भास | * राजलक्ष्मी तो सर्प की जिह्वा के समान चंचल होती है। ~ भास | ||
* राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीने के लिए नहीं। ~ अरस्तू | * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीने के लिए नहीं। ~ अरस्तू | ||
* बिना राजा के देश में किसी की कोई वस्तु अपनी नहीं रहती। मछलियों की भांति सब लोग एक-दूसरे को अपना ग्रास बनाते, लूटते-खसोटते रहते हैं। ~ माघ | * बिना राजा के देश में किसी की कोई वस्तु अपनी नहीं रहती। मछलियों की भांति सब लोग एक-दूसरे को अपना ग्रास बनाते, लूटते-खसोटते रहते हैं। ~ माघ | ||
* राजा सत्य है, राजा धर्म है, राजा कुलीन पुरुषों का कुल है, राजा ही माता और पिता है तथा राजा समस्त मानवों का हित साधन करने वाला है। ~ केशवदास | * राजा सत्य है, राजा धर्म है, राजा कुलीन पुरुषों का कुल है, राजा ही माता और पिता है तथा राजा समस्त मानवों का हित साधन करने वाला है। ~ केशवदास | ||
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* मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | ||
* रुपया और भय संसार में साथ ही आते हैं और साथ ही चले जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो वे दोनों सगे भाई हैं। ~ सनाई | * रुपया और भय संसार में साथ ही आते हैं और साथ ही चले जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो वे दोनों सगे भाई हैं। ~ सनाई | ||
* आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | * आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | ||
* वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | ||
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* परिस्थितियां ही मनुष्य में साहस का संचार करती हैं। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | * परिस्थितियां ही मनुष्य में साहस का संचार करती हैं। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | ||
* जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। ~ यशपाल | * जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। ~ यशपाल | ||
* जहां मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहां अन्न संचित रहता है और जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होता, वहां लक्ष्मी आप ही आकर विराजमान हो जाती है। ~ अथर्व वेद | * जहां मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहां अन्न संचित रहता है और जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होता, वहां लक्ष्मी आप ही आकर विराजमान हो जाती है। ~ अथर्व वेद | ||
* लक्ष्मी पूजा के अनेक रूप हैं। लेकिन गरीबों की पेट पूजा करना ही श्रेष्ठ लक्ष्मी पूजन है। इससे आत्मतोष भी होता है। ~ रामतीर्थ | * लक्ष्मी पूजा के अनेक रूप हैं। लेकिन गरीबों की पेट पूजा करना ही श्रेष्ठ लक्ष्मी पूजन है। इससे आत्मतोष भी होता है। ~ रामतीर्थ | ||
* इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर सकता है, क्योंकि संतोष ही इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी | * इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर सकता है, क्योंकि संतोष ही इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी | ||
* जिसमें लोभ है, उसे दूसरे अवगुण की क्या आवश्यकता? ~ भर्तृहरि | * जिसमें लोभ है, उसे दूसरे अवगुण की क्या आवश्यकता? ~ भर्तृहरि | ||
* मनुष्य बूढ़ा हो जाता है परंतु लोभ बूढ़ा नहीं होता। ~ सुदर्शन | * मनुष्य बूढ़ा हो जाता है परंतु लोभ बूढ़ा नहीं होता। ~ सुदर्शन | ||
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* लघुता में प्रभुता का निवास है और प्रभुता, लघुता का भवन है। दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं भी नहीं पहनता। ~ दयाराम | * लघुता में प्रभुता का निवास है और प्रभुता, लघुता का भवन है। दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं भी नहीं पहनता। ~ दयाराम | ||
* ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस तरह से लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | * ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस तरह से लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | ||
* प्रकृति-पुरुष के संयोग से ब्रह्मांड की रचना ही रासलीला है। इस रासलीला में परमात्मा की सहचरी माया या प्रकृति ही राधा है। ~ गंगेश्वरानंद | * प्रकृति-पुरुष के संयोग से ब्रह्मांड की रचना ही रासलीला है। इस रासलीला में परमात्मा की सहचरी माया या प्रकृति ही राधा है। ~ गंगेश्वरानंद | ||
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* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है, जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है, जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | ||
* जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद् | * जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद् | ||
* जिसने कभी कोई शत्रु नहीं बनाया, उसका कोई मित्र भी नहीं बनता है। ~ टेनिसन | * जिसने कभी कोई शत्रु नहीं बनाया, उसका कोई मित्र भी नहीं बनता है। ~ टेनिसन | ||
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* क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो। ~ दयानंद सरस्वती | * क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो। ~ दयानंद सरस्वती | ||
* मौन की भाषा वाणी की भाषा की अपेक्षा अधिक बलवती होती है। ~ शिवानंद | * मौन की भाषा वाणी की भाषा की अपेक्षा अधिक बलवती होती है। ~ शिवानंद | ||
* वाणी न होती तो धर्म-अधर्म का ज्ञान भी न होता। सत्य, असत्य, साधु, असाधु ये सब वाणी की वजह से ही हमें ज्ञात हैं। ~ छन्दोग्योपनिषद | * वाणी न होती तो धर्म-अधर्म का ज्ञान भी न होता। सत्य, असत्य, साधु, असाधु ये सब वाणी की वजह से ही हमें ज्ञात हैं। ~ छन्दोग्योपनिषद | ||
* शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझते हैं। ~ अश्वघोष | * शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझते हैं। ~ अश्वघोष | ||
* उचित अवसर पर कही गई असुंदर वाणी भी उसी तरह सुशोभित होती जिस तरह भूख में नितांत अस्वादु भोजन भी सुस्वादु हो जाता है। ~ वल्लभदेव | * उचित अवसर पर कही गई असुंदर वाणी भी उसी तरह सुशोभित होती जिस तरह भूख में नितांत अस्वादु भोजन भी सुस्वादु हो जाता है। ~ वल्लभदेव | ||
* साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन | * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन | ||
* जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट | * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट | ||
पंक्ति 2,407: | पंक्ति 2,407: | ||
* जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। ~ महादेवी वर्मा | * जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। ~ महादेवी वर्मा | ||
* सभी सच्चे काम आराम हैं। ~ रामतीर्थ | * सभी सच्चे काम आराम हैं। ~ रामतीर्थ | ||
* इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। ~ विवेकानंद | * इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। ~ विवेकानंद | ||
पंक्ति 2,413: | पंक्ति 2,412: | ||
* हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | ||
* सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं -जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद | * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं -जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद | ||
* अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार ही शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवासिष्ठ | * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार ही शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवासिष्ठ | ||
* श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थ से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर | * श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थ से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* हम संसार को गलत पढ़ते हैं और कहते हैं कि वह हमें धोखा दे रहा है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * हम संसार को गलत पढ़ते हैं और कहते हैं कि वह हमें धोखा दे रहा है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद | * अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद | ||
* विजय सदा ही भव्य होती है, चाहे वह संयोग से प्राप्त हो या दक्षता से। ~ एरिओस्टो | * विजय सदा ही भव्य होती है, चाहे वह संयोग से प्राप्त हो या दक्षता से। ~ एरिओस्टो | ||
* जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्ट | * जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्ट | ||
* विजय सदा ही भव्य होती है, चाहे वह संयोग से प्राप्त हो या भव्यता से। ~ एरिओस्टो | * विजय सदा ही भव्य होती है, चाहे वह संयोग से प्राप्त हो या भव्यता से। ~ एरिओस्टो | ||
* उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | * उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | ||
* वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | * वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | ||
* मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी | * मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी | ||
पंक्ति 2,438: | पंक्ति 2,433: | ||
* जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। ~ महादेवी वर्मा | * जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। ~ महादेवी वर्मा | ||
* सभी सच्चे काम आराम हैं। ~ रामतीर्थ | * सभी सच्चे काम आराम हैं। ~ रामतीर्थ | ||
* इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। ~ विवेकानंद | * इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। ~ विवेकानंद | ||
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* शूर जन जल हीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि | * शूर जन जल हीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि | ||
* वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | * वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | ||
* जो महान है वह महान पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | * जो महान है वह महान पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
* दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | ||
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | ||
* जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा | * जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा | ||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | ||
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* मोहांध और अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं रहती। ~ सोमदेव | * मोहांध और अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं रहती। ~ सोमदेव | ||
* अच्छे स्वभाव वाले मित्र अपने घर के सोने चांदी अथवा उत्तम आभूषणो को अपने अच्छे मित्रो से अलग नहीं समझते। ~ वाल्मीकि | * अच्छे स्वभाव वाले मित्र अपने घर के सोने चांदी अथवा उत्तम आभूषणो को अपने अच्छे मित्रो से अलग नहीं समझते। ~ वाल्मीकि | ||
* मुंह के सामने मीठी बाते करने और पीठ पीछे छुरी चलाने वाले मित्र को दुधमुंहे विष भरे घड़े की तरह छोड़ दे। ~ हितोपदेश | * मुंह के सामने मीठी बाते करने और पीठ पीछे छुरी चलाने वाले मित्र को दुधमुंहे विष भरे घड़े की तरह छोड़ दे। ~ हितोपदेश | ||
* जैसे आग में डालने से सोना काला नहीं पड़ता, वैसे ही जिस शिक्षक के सिखाने में किसी तरह की भूल न दिखलाई पड़े उसे ही सच्ची शिक्षा कहते हैं। ~ कालिदास | * जैसे आग में डालने से सोना काला नहीं पड़ता, वैसे ही जिस शिक्षक के सिखाने में किसी तरह की भूल न दिखलाई पड़े उसे ही सच्ची शिक्षा कहते हैं। ~ कालिदास | ||
* मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | ||
* वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | * वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | ||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | ||
पंक्ति 2,509: | पंक्ति 2,497: | ||
* जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल | * जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल | ||
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | ||
* जैसे चक्की छत में जल भरता है वैसे ही अज्ञानी के मन में कामनाएं जमा होती हैं। ~ बुद्ध | * जैसे चक्की छत में जल भरता है वैसे ही अज्ञानी के मन में कामनाएं जमा होती हैं। ~ बुद्ध | ||
* जो खोटे लोग होते हैं वे उन महात्माओं के काम को बुरा बताते ही हैं जिनहें पहचानने की उनमें योग्यता नहीं होती। ~ कालिदास | * जो खोटे लोग होते हैं वे उन महात्माओं के काम को बुरा बताते ही हैं जिनहें पहचानने की उनमें योग्यता नहीं होती। ~ कालिदास | ||
* सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले आते हैं। ~ पंचतंत्र | * सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले आते हैं। ~ पंचतंत्र | ||
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* कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा | ||
* तू छोटा बन, बस छोटा बन। गागर में आएगा सागर। ~ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | * तू छोटा बन, बस छोटा बन। गागर में आएगा सागर। ~ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | ||
* मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष | * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष | ||
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* विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान बन जाता है जैसे निर्मली के बीज से मटमैला पानी स्वच्छ हो जाता है। ~ कालिदास | * विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान बन जाता है जैसे निर्मली के बीज से मटमैला पानी स्वच्छ हो जाता है। ~ कालिदास | ||
* जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | ||
* संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | ||
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* यदि मनुष्य प्रतीक्षा करे तो हर वस्तु प्राप्त हो जाती है। ~ डिजरायली | * यदि मनुष्य प्रतीक्षा करे तो हर वस्तु प्राप्त हो जाती है। ~ डिजरायली | ||
* दु:ख, सुख के साथ ही निरंतर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता | * दु:ख, सुख के साथ ही निरंतर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता | ||
* शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | ||
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* जब तक तुम स्वयं में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते। ~ विवेकानंद | * जब तक तुम स्वयं में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते। ~ विवेकानंद | ||
* वीरता कभी-कभी हृदय की कोमलता का भी दर्शन कराती है। ऐसी कोमलता देखकर सारी प्रकृति कोमल हो जाती है, ऐसी सुंदरता देख लोग माहित हो जाते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | * वीरता कभी-कभी हृदय की कोमलता का भी दर्शन कराती है। ऐसी कोमलता देखकर सारी प्रकृति कोमल हो जाती है, ऐसी सुंदरता देख लोग माहित हो जाते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | ||
* विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो मनुष्य को जीवित रखती है, विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। ~ विलियम जेम्स | * विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो मनुष्य को जीवित रखती है, विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। ~ विलियम जेम्स | ||
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* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्मेस | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्मेस | ||
* जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभदेव | * जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभदेव | ||
* आत्मवान संयमी पुरुषों को न तो विषयों में आसक्ति होती है और न वे विषयों के लिए युक्ति ही करते हैं। ~ अश्वघोष | * आत्मवान संयमी पुरुषों को न तो विषयों में आसक्ति होती है और न वे विषयों के लिए युक्ति ही करते हैं। ~ अश्वघोष | ||
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* अज्ञानी मनुष्य थोड़ा ही आरंभ करते हैं और बहुत व्याकुल होते हैं, पर ज्ञानी बड़ा कार्य आरंभ करने पर भी नहीं घबराते। ~ हितोपदेश | * अज्ञानी मनुष्य थोड़ा ही आरंभ करते हैं और बहुत व्याकुल होते हैं, पर ज्ञानी बड़ा कार्य आरंभ करने पर भी नहीं घबराते। ~ हितोपदेश | ||
* जीवन की गहराई की अनुभूति के कुछ क्षण ही होते हैं, वर्ष नहीं। ~ महादेवी वर्मा | * जीवन की गहराई की अनुभूति के कुछ क्षण ही होते हैं, वर्ष नहीं। ~ महादेवी वर्मा | ||
* आत्मविश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। ~ विवेकानंद | * आत्मविश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। ~ विवेकानंद | ||
* शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही विद्वान है। ~ हितोपदेश | * शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही विद्वान है। ~ हितोपदेश | ||
* जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं। ~ पतंजलि | * जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं। ~ पतंजलि | ||
* मनुष्य जिस समय पशु तुल्य आचरण करता है उस समय वह पशुओं से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्रनाथ | * मनुष्य जिस समय पशु तुल्य आचरण करता है उस समय वह पशुओं से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्रनाथ | ||
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* शस्त्र जहां हार जाते हैं, वहीं बुद्धि जीतती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * शस्त्र जहां हार जाते हैं, वहीं बुद्धि जीतती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
* शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं, वह तुम्हारे अंदर ही निवास करती हैं। ~ सत्य साईं बाबा | * शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं, वह तुम्हारे अंदर ही निवास करती हैं। ~ सत्य साईं बाबा | ||
* अपने भीतर ही यदि शांति मिल गई तो सारा संसार शांतिमय प्रतीत होता है। ~ योगवाशिष्ठ | * अपने भीतर ही यदि शांति मिल गई तो सारा संसार शांतिमय प्रतीत होता है। ~ योगवाशिष्ठ | ||
* संतोष से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं। जो मनुष्य इस विशेष सद्गुण से संपन्न है वह त्रिलोक में सबसे धनी व्यक्ति है। ~ स्वामी शिवानन्द | * संतोष से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं। जो मनुष्य इस विशेष सद्गुण से संपन्न है वह त्रिलोक में सबसे धनी व्यक्ति है। ~ स्वामी शिवानन्द | ||
* संतोष यद्यपि कड़वा वृक्ष है तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ मौलाना रूमी | * संतोष यद्यपि कड़वा वृक्ष है तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ मौलाना रूमी | ||
* पवित्रता वह संपत्ति है जो प्रेम के बाहुल्य से पैदा होती है। ~ रवीन्द्र | * पवित्रता वह संपत्ति है जो प्रेम के बाहुल्य से पैदा होती है। ~ रवीन्द्र | ||
* शांति की अपनी विजयें होती हैं, जो युद्ध की अपेक्षा कम कीर्तिमयी नहीं होतीं। ~ मिल्टन | * शांति की अपनी विजयें होती हैं, जो युद्ध की अपेक्षा कम कीर्तिमयी नहीं होतीं। ~ मिल्टन | ||
* कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिम निकाय | * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिम निकाय | ||
* किसी के धन का लालच मत करो। ~ ईशावास्योपनिषद् | * किसी के धन का लालच मत करो। ~ ईशावास्योपनिषद् | ||
* सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि | * सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि | ||
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* शांति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें तथा संतोष से लाभ को जीतें। ~ दशवैकालिक | * शांति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें तथा संतोष से लाभ को जीतें। ~ दशवैकालिक | ||
* दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी | * दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी | ||
* यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान | * यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान | ||
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* जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल-प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न खाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि | * जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल-प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न खाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि | ||
* दही में जितना भी दूध डालिए, दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * दही में जितना भी दूध डालिए, दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
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* विषयों की खोज में दुख है। उनकी प्राप्ति होने पर तृप्ति नहीं होती। उनका वियोग होने पर शोक होना निश्चित है। ~ अश्वघोष | * विषयों की खोज में दुख है। उनकी प्राप्ति होने पर तृप्ति नहीं होती। उनका वियोग होने पर शोक होना निश्चित है। ~ अश्वघोष | ||
* शूरवीर व्यक्ति जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं करते। ~ वाल्मीकि | * शूरवीर व्यक्ति जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं करते। ~ वाल्मीकि | ||
* बोल वह है जो कि सुनने वाले को वाशीभूत कर ले, और न सुनने वालों में भी सुनने की इच्छा उत्पन्न कर दे। ~ तिरुवल्लुवर | * बोल वह है जो कि सुनने वाले को वाशीभूत कर ले, और न सुनने वालों में भी सुनने की इच्छा उत्पन्न कर दे। ~ तिरुवल्लुवर | ||
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* आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज तथा काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | * आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज तथा काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | ||
* शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | ||
* अच्छी संतान इस लोक और परलोक, दोनों में सुख देती है। ~ कालिदास | * अच्छी संतान इस लोक और परलोक, दोनों में सुख देती है। ~ कालिदास | ||
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* हर व्यक्ति में दिव्यता का कुछ अंश है, कुछ विशेषता है- शिक्षा का यही कार्य है कि वह इसको खोज निकाले। ~ अरविंद | * हर व्यक्ति में दिव्यता का कुछ अंश है, कुछ विशेषता है- शिक्षा का यही कार्य है कि वह इसको खोज निकाले। ~ अरविंद | ||
* पृथ्वी में कुआं जितना ही गहरा खुदेगा, उतना ही अधिक जल निकलेगा। वैसे ही मानव की जितनी शिक्षा होगी, उतनी ही तीव्र बुद्धि बनेगी। ~ तिरुवल्लुवर | * पृथ्वी में कुआं जितना ही गहरा खुदेगा, उतना ही अधिक जल निकलेगा। वैसे ही मानव की जितनी शिक्षा होगी, उतनी ही तीव्र बुद्धि बनेगी। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* शत्रु की कृपा से मित्र का अत्याचार अधिक अच्छा होता है। ~ हाफिज | * शत्रु की कृपा से मित्र का अत्याचार अधिक अच्छा होता है। ~ हाफिज | ||
* पक्षपात, गुणों को दोष और दोष को गुण बना देता है। ~ राजशेखर | * पक्षपात, गुणों को दोष और दोष को गुण बना देता है। ~ राजशेखर | ||
* योग्य शिष्य को जो शिक्षा दी जाती है, वह अवश्य फलती है। ~ कालिदास | * योग्य शिष्य को जो शिक्षा दी जाती है, वह अवश्य फलती है। ~ कालिदास | ||
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* बिना विवेक के वीरता महासमुद में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * बिना विवेक के वीरता महासमुद में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
* परोपकार संतों का सहज स्वभाव होता है। वे वृक्ष के समान हैं, जो अपने पत्तों, फूल-फल, छाल, जड़ और छाया से सबका उपकार करते हैं। ~ एकनाथ | * परोपकार संतों का सहज स्वभाव होता है। वे वृक्ष के समान हैं, जो अपने पत्तों, फूल-फल, छाल, जड़ और छाया से सबका उपकार करते हैं। ~ एकनाथ | ||
* इस संसार को बाज़ार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी हैं। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता है। मूर्ख और गंवार व्यर्थ ही मर जाते हैं, लाभ नहीं पाते। ~ विद्यापति | * इस संसार को बाज़ार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी हैं। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता है। मूर्ख और गंवार व्यर्थ ही मर जाते हैं, लाभ नहीं पाते। ~ विद्यापति | ||
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* उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर कार्य में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जार्ज सांतायना | * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर कार्य में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जार्ज सांतायना | ||
* आपत्तियां हमें आत्मज्ञान कराती हैं, वे हमें दिखा देती हैं कि हम किस मिट्टी के बने हैं। ~ जवाहरलाल नेहरू | * आपत्तियां हमें आत्मज्ञान कराती हैं, वे हमें दिखा देती हैं कि हम किस मिट्टी के बने हैं। ~ जवाहरलाल नेहरू | ||
* आत्मविश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। ~ स्वामी विवेकानंद | * आत्मविश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। ~ स्वामी विवेकानंद | ||
पंक्ति 2,764: | पंक्ति 2,731: | ||
* वह सत्य नहीं हे जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया-युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिससे मनुष्यों का हित होता हो, वही सत्य है। ~ देवीभागवत | * वह सत्य नहीं हे जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया-युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिससे मनुष्यों का हित होता हो, वही सत्य है। ~ देवीभागवत | ||
* प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ संत एम्ब्रोज | * प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ संत एम्ब्रोज | ||
* प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शांत, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। ~ प्रेमचंद | * प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शांत, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। ~ प्रेमचंद | ||
पंक्ति 2,779: | पंक्ति 2,745: | ||
* अयोग्य लोगो की तारीफ छिपे हुए व्यंग्य के समान होती है। ~ हरिशंकर पर साई | * अयोग्य लोगो की तारीफ छिपे हुए व्यंग्य के समान होती है। ~ हरिशंकर पर साई | ||
* सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | * सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | ||
* ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग ही भक्ति है। ~ भक्तिदर्शन | * ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग ही भक्ति है। ~ भक्तिदर्शन | ||
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* अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | ||
* सज्जनों के मन थोड़े से गुणों के कारण फूलों की भांति ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं। ~ बाणभट्ट | * सज्जनों के मन थोड़े से गुणों के कारण फूलों की भांति ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं। ~ बाणभट्ट | ||
* जो सत्य का पालन करता है, वही सज्जन है। ~ तुकाराम | * जो सत्य का पालन करता है, वही सज्जन है। ~ तुकाराम | ||
पंक्ति 2,829: | पंक्ति 2,793: | ||
* किसी की भी जीभ पकड़ी नहीं जा सकती। जिसको जैसा समझ में आए, वैसा कहता रहे। ~ तुलसीदास | * किसी की भी जीभ पकड़ी नहीं जा सकती। जिसको जैसा समझ में आए, वैसा कहता रहे। ~ तुलसीदास | ||
* सत्य हज़ार ढंग से कहा जा सकता है और फिर भी हर ढंग सत्य हो सकता है। ~ स्वामी विवेकानंद | * सत्य हज़ार ढंग से कहा जा सकता है और फिर भी हर ढंग सत्य हो सकता है। ~ स्वामी विवेकानंद | ||
* सत्य का सबसे बड़ा मित्र समय है। इसका सबसे बड़ा शत्रु पक्षपात और इसका अचल साथी नम्रता है। ~ कोल्टन | * सत्य का सबसे बड़ा मित्र समय है। इसका सबसे बड़ा शत्रु पक्षपात और इसका अचल साथी नम्रता है। ~ कोल्टन | ||
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* योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | ||
* जो भी घटित होता है उससे मैं संतुष्ट हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि परमात्मा द्वारा चयन मेरे द्वारा चयन से अधिक श्रेष्ठ है। ~ एपिक्टेटस | * जो भी घटित होता है उससे मैं संतुष्ट हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि परमात्मा द्वारा चयन मेरे द्वारा चयन से अधिक श्रेष्ठ है। ~ एपिक्टेटस | ||
* सज्जन अत्यंत क्रुद्ध होने पर भी मिलने-जुलने से मृदु हो जाते हैं, किंतु नीच नहीं। ~ अमृतवर्धन | * सज्जन अत्यंत क्रुद्ध होने पर भी मिलने-जुलने से मृदु हो जाते हैं, किंतु नीच नहीं। ~ अमृतवर्धन | ||
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* सज्जनों को दूसरों की तुलना में से अधिक लज्जा आती है। ~ श्री हर्ष | * सज्जनों को दूसरों की तुलना में से अधिक लज्जा आती है। ~ श्री हर्ष | ||
* विद्या शील के अभाव में शोचनीय हो जाती है और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेन्द्र | * विद्या शील के अभाव में शोचनीय हो जाती है और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेन्द्र | ||
* धर्मान्धो! सुनो, दूसरों के पाप गिनने से पहले अपने पापों को गिनो। ~ काजी नजरूल इस्लाम | * धर्मान्धो! सुनो, दूसरों के पाप गिनने से पहले अपने पापों को गिनो। ~ काजी नजरूल इस्लाम | ||
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* जो कुछ तुझे मिल गया है, उसी पर संतोष कर और सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करता रह। यहां पर 'मेरी' और 'तेरी' का अधिकार किसी को भी नहीं दिया गया है। ~ हाफिज | * जो कुछ तुझे मिल गया है, उसी पर संतोष कर और सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करता रह। यहां पर 'मेरी' और 'तेरी' का अधिकार किसी को भी नहीं दिया गया है। ~ हाफिज | ||
* अधिक धन-संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | * अधिक धन-संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | ||
* जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, वह संतुष्ट कहा जा सकता है। ~ महोपनिषद् | * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, वह संतुष्ट कहा जा सकता है। ~ महोपनिषद् | ||
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* जो हानि हो चुकी है उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर | * जो हानि हो चुकी है उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर | ||
* श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा भर बन सकता है। ~ अज्ञेय | * श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा भर बन सकता है। ~ अज्ञेय | ||
* सुमार्ग पर चलने, कुमार्ग से बचने और जगत के प्रबंध की उत्तमता के लिए विश्वास एकमात्र सहारा है। ~ बालकृष्ण भट्ट | * सुमार्ग पर चलने, कुमार्ग से बचने और जगत के प्रबंध की उत्तमता के लिए विश्वास एकमात्र सहारा है। ~ बालकृष्ण भट्ट | ||
पंक्ति 2,912: | पंक्ति 2,870: | ||
* संत कौन हैं? संपूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गई है, जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है और जो कल्याणस्वरूप परमात्मा तत्व में स्थित हैं। ~ शंकराचार्य | * संत कौन हैं? संपूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गई है, जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है और जो कल्याणस्वरूप परमात्मा तत्व में स्थित हैं। ~ शंकराचार्य | ||
* जिसके जीने से बहुत से लोग जीवित रहें, वही इस संसार में वास्तव में जीता है। ~ विष्णु शर्मा | * जिसके जीने से बहुत से लोग जीवित रहें, वही इस संसार में वास्तव में जीता है। ~ विष्णु शर्मा | ||
* ठीक वक्त पर किया हुआ थोड़ा सा काम भी बहुत उपकारी होता है और समय बीतने पर किया हुआ महान उपकार भी व्यर्थ हो जाता है। ~ योग वशिष्ठ | * ठीक वक्त पर किया हुआ थोड़ा सा काम भी बहुत उपकारी होता है और समय बीतने पर किया हुआ महान उपकार भी व्यर्थ हो जाता है। ~ योग वशिष्ठ | ||
* समय पुन: वापस न आने के लिए उड़ा चला जा रहा है। ~ वर्जिल | * समय पुन: वापस न आने के लिए उड़ा चला जा रहा है। ~ वर्जिल | ||
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* सदाचार के तीन आधार हैं- अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता। ~ विद्यानंद 'विदेह' | * सदाचार के तीन आधार हैं- अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता। ~ विद्यानंद 'विदेह' | ||
* पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। ~ अज्ञात | * पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। ~ अज्ञात | ||
* दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हंसी हंसता है, वैसी ही हंसी, मस्ती बिखेरने वाली हंसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हंसी हंसता है, वैसी ही हंसी, मस्ती बिखेरने वाली हंसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | ||
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* शोक के मूल में प्रिय व्यक्ति या वस्तु होता है। ~ आचार्य नारायण राम | * शोक के मूल में प्रिय व्यक्ति या वस्तु होता है। ~ आचार्य नारायण राम | ||
* किसे हमेश सुख मिला है और किसे हमेशा दुख मिला है। सुख-दुख सबके साथ लगे हुए हैं। ~ कालिदास | * किसे हमेश सुख मिला है और किसे हमेशा दुख मिला है। सुख-दुख सबके साथ लगे हुए हैं। ~ कालिदास | ||
* सब कुछ दूसरे के वश में होना दुख है और सब कुछ अपने वश में होना सुख है। ~ मनुस्मृति | * सब कुछ दूसरे के वश में होना दुख है और सब कुछ अपने वश में होना सुख है। ~ मनुस्मृति | ||
* जो दुख अभी तक आया नहीं है, वह दूर किया जा सकता है। ~ योगसूत्रम | * जो दुख अभी तक आया नहीं है, वह दूर किया जा सकता है। ~ योगसूत्रम | ||
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* सेवा करने वाले हाथ स्तुति करने वाले होठों की अपेक्षा अधिक पवित्र हैं। ~ सत्य साईं बाबा | * सेवा करने वाले हाथ स्तुति करने वाले होठों की अपेक्षा अधिक पवित्र हैं। ~ सत्य साईं बाबा | ||
* सेवा करके विज्ञापन मत करो, जिसकी सेवा की है, उस पर बोझ मत बनो। ~ हनुमानप्रसाद पोद्दार | * सेवा करके विज्ञापन मत करो, जिसकी सेवा की है, उस पर बोझ मत बनो। ~ हनुमानप्रसाद पोद्दार | ||
* अच्छी संगति बुद्धि के अंधकार को हरती है, वचनों को सत्य की धार से सींचती है, मान को बढ़ती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न रखती है और चारों ओर यश फैलाकर मनुष्यों को क्या क्या लाभ नहीं पहुंचाती? ~ भर्तृहरि | * अच्छी संगति बुद्धि के अंधकार को हरती है, वचनों को सत्य की धार से सींचती है, मान को बढ़ती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न रखती है और चारों ओर यश फैलाकर मनुष्यों को क्या क्या लाभ नहीं पहुंचाती? ~ भर्तृहरि | ||
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* वास्तव में वे ही लोग श्रेष्ठ हैं जिनके हृदय में सर्वदा दया और धर्म बसता है, जो अमृत-वाणी बोलते हैं तथा जिनके नेत्र नम्रतावश सदा नीचे रहते हैं। ~ मलूकदास | * वास्तव में वे ही लोग श्रेष्ठ हैं जिनके हृदय में सर्वदा दया और धर्म बसता है, जो अमृत-वाणी बोलते हैं तथा जिनके नेत्र नम्रतावश सदा नीचे रहते हैं। ~ मलूकदास | ||
* साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित | * साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित | ||
* सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है, जिसे सभी प्राणी समझते हैं। ~ जेम्स एलेन | * सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है, जिसे सभी प्राणी समझते हैं। ~ जेम्स एलेन | ||
* हितकर, किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि | * हितकर, किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि | ||
* अज्ञानी होना उतनी शर्म की बात नहीं है, जितनी कि किसी काम को सही ढंग से सीखने की इच्छा न होना। ~ बेंजामिन फ्रैंकलिन | * अज्ञानी होना उतनी शर्म की बात नहीं है, जितनी कि किसी काम को सही ढंग से सीखने की इच्छा न होना। ~ बेंजामिन फ्रैंकलिन | ||
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* मनुष्य में शक्ति की कमी नहीं होती, संकल्प की कमी होती है। ~ मेरी विक्टर ह्युगो | * मनुष्य में शक्ति की कमी नहीं होती, संकल्प की कमी होती है। ~ मेरी विक्टर ह्युगो | ||
* संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होते हैं और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराते हैं। ~ जेम्स एलेन | * संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होते हैं और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराते हैं। ~ जेम्स एलेन | ||
* संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होता है और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराता है। ~ जेम्स एलेन | * संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होता है और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराता है। ~ जेम्स एलेन | ||
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* सही स्थान पर बोया गया सुकर्म का बीज ही महान फल देता है। ~ कथासरित्सागर | * सही स्थान पर बोया गया सुकर्म का बीज ही महान फल देता है। ~ कथासरित्सागर | ||
* बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए। ~ यशपाल | * बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए। ~ यशपाल | ||
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* संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा | * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा | ||
* उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर कार्य में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जार्ज सांतायना | * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर कार्य में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जार्ज सांतायना | ||
* सच हज़ार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद | * सच हज़ार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद | ||
* सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं- जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानन्द | * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं- जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानन्द | ||
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* किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे | * किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे | ||
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
* अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार भी शांत दिखाई देने लगता है। ~ योग वासिष्ठ | * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार भी शांत दिखाई देने लगता है। ~ योग वासिष्ठ | ||
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* हम इस संसार को ठहरने का घर बनाकर बैठे हैं, किंतु यहां से तो नित्य चलने का धोखा बना रहता है। ठहरने का पक्का स्थान तो इसे तभी जाना जा सकता है, यदि यह लोक अचल हो। ~ गुरुनानक | * हम इस संसार को ठहरने का घर बनाकर बैठे हैं, किंतु यहां से तो नित्य चलने का धोखा बना रहता है। ठहरने का पक्का स्थान तो इसे तभी जाना जा सकता है, यदि यह लोक अचल हो। ~ गुरुनानक | ||
* संत कौन हैं? संपूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गई है, जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है और जो कल्याणस्वरूप परमात्मतत्व में स्थित हैं। ~ शंकराचार्य | * संत कौन हैं? संपूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गई है, जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है और जो कल्याणस्वरूप परमात्मतत्व में स्थित हैं। ~ शंकराचार्य | ||
* संयम का अर्थ घुट-घुटकर जीना नहीं है, स्वस्थ पवन की तरह बहना है। ~ रांगेय राघव | * संयम का अर्थ घुट-घुटकर जीना नहीं है, स्वस्थ पवन की तरह बहना है। ~ रांगेय राघव | ||
* सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना ही अहिंसा की पूर्ण दृष्टि है। ~ दशवैकालिक | * सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना ही अहिंसा की पूर्ण दृष्टि है। ~ दशवैकालिक | ||
* जिसने इंद्रियों पर विजय पा ली है उसके मन में विघन्कार वस्तुएं थोड़ा भी छोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं। ~ कालिदास | * जिसने इंद्रियों पर विजय पा ली है उसके मन में विघन्कार वस्तुएं थोड़ा भी छोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं। ~ कालिदास | ||
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* संयम करने से वैर नहीं बढ़ता है। ~ उदान | * संयम करने से वैर नहीं बढ़ता है। ~ उदान | ||
* बड़ों की कुछ समता हम विनीत होकर ही पाते हैं। ~ रवींद्रनाथ | * बड़ों की कुछ समता हम विनीत होकर ही पाते हैं। ~ रवींद्रनाथ | ||
* आसक्ति का त्याग करते हुए सिद्बि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर कर्म करना चाहिए। समता का नाम ही योग है। ~ गीता | * आसक्ति का त्याग करते हुए सिद्बि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर कर्म करना चाहिए। समता का नाम ही योग है। ~ गीता | ||
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* सुधार आंतरिक होना चाहिए, बाह्य नहीं। तुम सद्गुणों के लिए नियम नहीं बना सकते। ~ गिबन | * सुधार आंतरिक होना चाहिए, बाह्य नहीं। तुम सद्गुणों के लिए नियम नहीं बना सकते। ~ गिबन | ||
* अच्छा आदमी सामान्यत: कोप करता ही नहीं। यदि कोप करता है तो बुरा नहीं सोचता। यदि बुरा सोचता है तो भी कहता नहीं। और यदि कह भी देता है तो लज्जित होता है। ~ सातवाहन | * अच्छा आदमी सामान्यत: कोप करता ही नहीं। यदि कोप करता है तो बुरा नहीं सोचता। यदि बुरा सोचता है तो भी कहता नहीं। और यदि कह भी देता है तो लज्जित होता है। ~ सातवाहन | ||
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* अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है और आदमी है कि सर्वत्र उससे लोहा लेने के लिए कमर कसे रहता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | * अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है और आदमी है कि सर्वत्र उससे लोहा लेने के लिए कमर कसे रहता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | ||
* सबसे अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है, भले ही वह कितना ही कम, यहां तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो। ~ डॉ. राधाकृष्णन | * सबसे अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है, भले ही वह कितना ही कम, यहां तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो। ~ डॉ. राधाकृष्णन | ||
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* नियम में स्थिर रह कर मर जाना अच्छा है, न कि नियम से फिसल कर जीवन धारण करना। ~ अश्वघोष | * नियम में स्थिर रह कर मर जाना अच्छा है, न कि नियम से फिसल कर जीवन धारण करना। ~ अश्वघोष | ||
* सभ्य जंगली सबसे बुरा जंगली होता है। ~ सी. जे. वेबर | * सभ्य जंगली सबसे बुरा जंगली होता है। ~ सी. जे. वेबर | ||
* संपन्नता अनेक प्रकार के भय और रुचिकर बातों से रहित नहीं होती, और निर्धनता सांत्वनाओं और आशाओं से रहित नहीं होती। ~ बकेन | * संपन्नता अनेक प्रकार के भय और रुचिकर बातों से रहित नहीं होती, और निर्धनता सांत्वनाओं और आशाओं से रहित नहीं होती। ~ बकेन | ||
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* जब तक तुम्हें अपने सम्मान और दूसरे का अपमान सुख देता है, तब तक तुम अपमानित ही होते रहोगे। ~ हनुमान प्रसाद पोद्दार | * जब तक तुम्हें अपने सम्मान और दूसरे का अपमान सुख देता है, तब तक तुम अपमानित ही होते रहोगे। ~ हनुमान प्रसाद पोद्दार | ||
* तलवार का घाव भर जाता है, पर अपमान का घाव कभी नहीं भरता। ~ एक कहावत | * तलवार का घाव भर जाता है, पर अपमान का घाव कभी नहीं भरता। ~ एक कहावत | ||
* अपना मान तभी बना रह सकता है जब हम दूसरों के सम्मान की चिंता करें। ~ जैनेंद्र कुमार | * अपना मान तभी बना रह सकता है जब हम दूसरों के सम्मान की चिंता करें। ~ जैनेंद्र कुमार | ||
* जब मनुष्य मन में उठती हुई सभी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा द्वारा ही आत्मा में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। ~ गीता | * जब मनुष्य मन में उठती हुई सभी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा द्वारा ही आत्मा में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। ~ गीता | ||
* संदेह का भार पुरुष ढोता है, स्त्री विश्वास चाहती है। ~ लक्ष्मीनारायण लाल | * संदेह का भार पुरुष ढोता है, स्त्री विश्वास चाहती है। ~ लक्ष्मीनारायण लाल | ||
* प्रेम में विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं होता। ~ जैनेंद्र कुमार | * प्रेम में विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं होता। ~ जैनेंद्र कुमार | ||
* विदेश में बंधु का मिलना मरुस्थल में अमृत के निर्झर की प्राप्ति के समान होता है। ~ सोमदेव | * विदेश में बंधु का मिलना मरुस्थल में अमृत के निर्झर की प्राप्ति के समान होता है। ~ सोमदेव | ||
* मनुष्यों की गुणों से रहित वाणी भी यदि उचित अवसर पर कही गई हो, तो शोभा देती है। ~ अज्ञात | * मनुष्यों की गुणों से रहित वाणी भी यदि उचित अवसर पर कही गई हो, तो शोभा देती है। ~ अज्ञात | ||
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* दुख आ पड़ने पर मुस्कराओ। उसका सामना करके विजयी होने का साधन इसके समान और कोई नहीं है। ~ तिरुवल्लुवर | * दुख आ पड़ने पर मुस्कराओ। उसका सामना करके विजयी होने का साधन इसके समान और कोई नहीं है। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंक कर आगे बढ़ जाती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | * दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंक कर आगे बढ़ जाती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | ||
* जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | ||
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* शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील ही श्रेष्ठ आभूषण और रक्षा करनेवाला कवच है। ~ थेर गाथा | * शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील ही श्रेष्ठ आभूषण और रक्षा करनेवाला कवच है। ~ थेर गाथा | ||
* वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं क्योंकि हृदयाकाश के केंद में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | * वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं क्योंकि हृदयाकाश के केंद में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | ||
* आपत्तिकाल में प्रकृति बदल देना अच्छा परंतु अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा अच्छा नहीं। ~ अभिनंद | * आपत्तिकाल में प्रकृति बदल देना अच्छा परंतु अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा अच्छा नहीं। ~ अभिनंद | ||
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* शूर जन जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि | * शूर जन जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि | ||
* हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। ~ शेख सादी | * हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। ~ शेख सादी | ||
* कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन, ये एक बार टूटने पर पहले जैसे नहीं रह जाते। अत: सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति | * कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन, ये एक बार टूटने पर पहले जैसे नहीं रह जाते। अत: सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति | ||
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* यदि तुम भूलों को रोकने के लिए द्वार बंद कर दोगे तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * यदि तुम भूलों को रोकने के लिए द्वार बंद कर दोगे तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* दूसरों की भूलों से बुद्धिमान लोग अपनी भूलें सुधारते हैं। ~ साइरस | * दूसरों की भूलों से बुद्धिमान लोग अपनी भूलें सुधारते हैं। ~ साइरस | ||
* यदि मनुष्य सीखना चाहे तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ शिक्षा दे सकती है। ~ डिकेंस | * यदि मनुष्य सीखना चाहे तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ शिक्षा दे सकती है। ~ डिकेंस | ||
पंक्ति 3,177: | पंक्ति 3,107: | ||
* हंसते तो सभी हैं। लेकिन जब मैं स्वयं पर हंसता हूं तो मेरा अपना बोझ हलका हो जाता है। ~ रवींद्रनाथ | * हंसते तो सभी हैं। लेकिन जब मैं स्वयं पर हंसता हूं तो मेरा अपना बोझ हलका हो जाता है। ~ रवींद्रनाथ | ||
* हमारे भीतर का अवसाद और विषाद हंसी के तेज झोकों से रुई के कतरों की भांति उड़ कर नष्ट हो जाता है। ~ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय | * हमारे भीतर का अवसाद और विषाद हंसी के तेज झोकों से रुई के कतरों की भांति उड़ कर नष्ट हो जाता है। ~ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय | ||
* सब दुर्बलता और सब बंधन कल्पना है। उससे एक शब्द कहो और वह लापता हो जाएगी। ~ विवेकानंद | * सब दुर्बलता और सब बंधन कल्पना है। उससे एक शब्द कहो और वह लापता हो जाएगी। ~ विवेकानंद | ||
* जो मनुष्य भीरु है, वह छोटे-छोटे कार्यों को भी बहुत बड़े कार्य समझता है। और जो साहसी होता है, वह बहुत बड़े कार्यों को भी छोटे छोटे कार्य ही समझता है। ~ मुतनब्बी | * जो मनुष्य भीरु है, वह छोटे-छोटे कार्यों को भी बहुत बड़े कार्य समझता है। और जो साहसी होता है, वह बहुत बड़े कार्यों को भी छोटे छोटे कार्य ही समझता है। ~ मुतनब्बी | ||
पंक्ति 3,186: | पंक्ति 3,114: | ||
* प्रेम सबको वश में कर लेता है। हमें भी प्रेम के वश में हो जाना चाहिए। ~ वर्जिल | * प्रेम सबको वश में कर लेता है। हमें भी प्रेम के वश में हो जाना चाहिए। ~ वर्जिल | ||
* जो निष्काम कर्म की राह पर चलता है, उसे इस बात की परवाह कब रहती है कि किसने उसका अहित साधन किया है। ~ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय | * जो निष्काम कर्म की राह पर चलता है, उसे इस बात की परवाह कब रहती है कि किसने उसका अहित साधन किया है। ~ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय | ||
* संतुष्ट मन वाले के लिए सदा सभी दिशाएं सुखमयी हैं। ~ भागवत | * संतुष्ट मन वाले के लिए सदा सभी दिशाएं सुखमयी हैं। ~ भागवत | ||
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* हे परमेश्वर! हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ, हमें सुखदायी बल व कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋग्वेद | * हे परमेश्वर! हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ, हमें सुखदायी बल व कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋग्वेद | ||
* पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | * पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | ||
* प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता, तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त ही है। ~ हालसातवाहन | * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता, तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त ही है। ~ हालसातवाहन | ||
* विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | ||
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* जो मनुष्य मन में उठे हुए क्रोध को दौड़ते हुए रथ के समान शीघ्र रोक लेता है, उसी को मैं सारथी समझता हूं, क्रोध के अनुसार चलने वाले को केवल लगाम रखने वाला कहा जा सकता है। ~ गौतम बुद्ध | * जो मनुष्य मन में उठे हुए क्रोध को दौड़ते हुए रथ के समान शीघ्र रोक लेता है, उसी को मैं सारथी समझता हूं, क्रोध के अनुसार चलने वाले को केवल लगाम रखने वाला कहा जा सकता है। ~ गौतम बुद्ध | ||
* क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती। प्रतिहिंसा पाशव धर्म है। ~ जयशंकर प्रसाद | * क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती। प्रतिहिंसा पाशव धर्म है। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
* यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करे तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि क्षमा करना ही वीरों का काम है, परंतु यदि अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे अवश्य दंड दो। ~ गुरु गोविंद सिंह | * यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करे तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि क्षमा करना ही वीरों का काम है, परंतु यदि अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे अवश्य दंड दो। ~ गुरु गोविंद सिंह | ||
* अपने अज्ञान का आभाष होना ही ज्ञान की तरफ एक बड़ा क़दम है। ~ डिजराइली | * अपने अज्ञान का आभाष होना ही ज्ञान की तरफ एक बड़ा क़दम है। ~ डिजराइली | ||
* ज्ञान का सार यह है कि ज्ञान रहते उसका प्रयोग करना चाहिए और उसके अभाव में अपनी अज्ञानता स्वीकार कर लेनी चाहिए। ~ कन्फ्यूशस | * ज्ञान का सार यह है कि ज्ञान रहते उसका प्रयोग करना चाहिए और उसके अभाव में अपनी अज्ञानता स्वीकार कर लेनी चाहिए। ~ कन्फ्यूशस | ||
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* शांति, क्षमा, दान और दया का आश्रय लेने वाले लोगों के लिए शील ही विशाल कुल है, ऐसा विद्वानों का मत है। ~ क्षेमेंद्र | * शांति, क्षमा, दान और दया का आश्रय लेने वाले लोगों के लिए शील ही विशाल कुल है, ऐसा विद्वानों का मत है। ~ क्षेमेंद्र | ||
* प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। ~ गौतम बुद्ध | * जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। ~ गौतम बुद्ध | ||
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* विप्रों का आभूषण विद्या है, पृथ्वी का आभूषण राजा है, आकाश का आभूषण चंद्रमा है पर शील सबका आभूषण है। ~ बृहस्पतिनीतिसार | * विप्रों का आभूषण विद्या है, पृथ्वी का आभूषण राजा है, आकाश का आभूषण चंद्रमा है पर शील सबका आभूषण है। ~ बृहस्पतिनीतिसार | ||
* वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाते। ~ विवेकानंद | * वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाते। ~ विवेकानंद | ||
* सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | * सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | ||
* ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित, मित और ग्राह्य हो। ~ प्रश्नव्याकरण सूत्र | * ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित, मित और ग्राह्य हो। ~ प्रश्नव्याकरण सूत्र | ||
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* उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर काम में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जॉर्ज सांतायना | * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर काम में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जॉर्ज सांतायना | ||
* हर प्रशंसा की तुलना में बुरा समाचार दूर तक जाता है। ~ बाल्टासार ग्राशियन | * हर प्रशंसा की तुलना में बुरा समाचार दूर तक जाता है। ~ बाल्टासार ग्राशियन | ||
* कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन - इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन - इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | ||
* ऐश्वर्य का आभूषण सज्जनता है, शौर्य का वाक संयम, ज्ञान का शांति और विनय तथा सार्मथ्य का आभूषण क्षमा है। ~ भर्तृहरि | * ऐश्वर्य का आभूषण सज्जनता है, शौर्य का वाक संयम, ज्ञान का शांति और विनय तथा सार्मथ्य का आभूषण क्षमा है। ~ भर्तृहरि | ||
पंक्ति 3,276: | पंक्ति 3,195: | ||
* सर्वोपरि श्रेष्ठ दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, विद्या व ज्ञान का दान है। ~ रामतीर्थ | * सर्वोपरि श्रेष्ठ दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, विद्या व ज्ञान का दान है। ~ रामतीर्थ | ||
* हम महान व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं जब हम नम्रता में महान होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * हम महान व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं जब हम नम्रता में महान होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
* संसार के समस्त संबंध तथा पदार्थ क्षणिक हैं। केवल अपना कर्म ही शेष रहता है। ~ धनंजय | * संसार के समस्त संबंध तथा पदार्थ क्षणिक हैं। केवल अपना कर्म ही शेष रहता है। ~ धनंजय | ||
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* पूर्ण मनुष्य वही है जो पूर्ण होने पर और बड़ा होने पर भी नम्र रहता हो और सेवा में निमग्न रहता हो। ~ शब्सतरी | * पूर्ण मनुष्य वही है जो पूर्ण होने पर और बड़ा होने पर भी नम्र रहता हो और सेवा में निमग्न रहता हो। ~ शब्सतरी | ||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को अपना बना ले। ~ विमल मित्र | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को अपना बना ले। ~ विमल मित्र | ||
01:05, 18 जुलाई 2012 का अवतरण
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अनमोल वचन |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ