"अनमोल वचन 15": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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* कर्तव्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे नाप-जोख कर देखा जाए। ~ शरतचंद्र | * कर्तव्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे नाप-जोख कर देखा जाए। ~ शरतचंद्र | ||
* किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है। ~ जयशंकर प्रसाद | * किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
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* जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुरूप धन की प्राप्ति होती है। त्याग के अनुरूप ही कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुरूप विद्या की प्राप्ति होती है और कर्म के अनुरूप बुद्धि। ~ अज्ञात | * जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुरूप धन की प्राप्ति होती है। त्याग के अनुरूप ही कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुरूप विद्या की प्राप्ति होती है और कर्म के अनुरूप बुद्धि। ~ अज्ञात | ||
* संसार मे झूठ पापो का सरदार है। स्वार्थपरता, निर्दयता, कुटिलता, और कायरता, सब उसके साथी हैं। ~ काका कालेलकर | * संसार मे झूठ पापो का सरदार है। स्वार्थपरता, निर्दयता, कुटिलता, और कायरता, सब उसके साथी हैं। ~ काका कालेलकर | ||
* अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींचकर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं। ~ महर्षि अरविन्द | |||
* अहिंसा अच्छी चीज है इसमें कोई शक नहीं, लेकिन शत्रुहीन होना उससे भी बड़ी बात है। ~ विमल मित्र | |||
* समाज की अनुचित मर्यादा को तोड़ना ही धर्म है। ~ सेठ गोविंददास | * समाज की अनुचित मर्यादा को तोड़ना ही धर्म है। ~ सेठ गोविंददास | ||
* क्षमा में जो महत्ता है, जो औदार्य है, वह क्रोध और प्रतिकार में कहां? ~ सेठ गोविंददास | * क्षमा में जो महत्ता है, जो औदार्य है, वह क्रोध और प्रतिकार में कहां? ~ सेठ गोविंददास | ||
* जब विनाश का समय आता है, जब जीवन पर संकट आता है, तब प्राणी पास के पड़े हुए जाल और फंदे को भी नहीं देखता। ~ जातक | * जब विनाश का समय आता है, जब जीवन पर संकट आता है, तब प्राणी पास के पड़े हुए जाल और फंदे को भी नहीं देखता। ~ जातक | ||
* जिसमें यह चार परम श्रेष्ठ गुण नहीं हैं- सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को नहीं जीत सकता। ~ जातक | * जिसमें यह चार परम श्रेष्ठ गुण नहीं हैं- सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को नहीं जीत सकता। ~ जातक | ||
* अत्याचार जब निरंकुश होकर नग्न तांडव करने लगता है, तब बलिवेदी पर चढ़ने को तैयार होने के सिवा और कोई भी उपाय नहीं रह जाता। ~ हिंदू पंच | * अत्याचार जब निरंकुश होकर नग्न तांडव करने लगता है, तब बलिवेदी पर चढ़ने को तैयार होने के सिवा और कोई भी उपाय नहीं रह जाता। ~ हिंदू पंच | ||
* | * अत्याचारी के न्याय विवेक पर भरोसा करना राजनीति के विरुद्ध है। इतिहास इसका ज्वलंत प्रमाण है। ~ हिंदू पंच, बलिदान अंक | ||
* जो सागर में गहरे जाते हैं, उन्हें मोती मिलता है। जो छिछले पानी वाले किनारे अपनाते हैं, उनके हिससे शंख और सीप ही होते हैं। ~ शाह अब्दुल लतीफ | * जो सागर में गहरे जाते हैं, उन्हें मोती मिलता है। जो छिछले पानी वाले किनारे अपनाते हैं, उनके हिससे शंख और सीप ही होते हैं। ~ शाह अब्दुल लतीफ | ||
* | * प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ | ||
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* | * शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील ही श्रेष्ठ आभूषण और रक्षा करनेवाला कवच है। ~ थेर गाथा | ||
* | * मूर्ख सत्य का एक ही अंग देखता है और पंडित सत्य के सौ अंगों को देखता है। ~ थेरगाथा | ||
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* अतीत का शोक मत कर, क्योंकि ये शोक मनुष्य को बहुत दूर पतन की ओर ले जाते हैं। ~ अथर्ववेद | |||
* जहां मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहां अन्न संचित रहता है और जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होता, वहां लक्ष्मी आप ही आकर विराजमान हो जाती है। ~ अथर्ववेद | |||
* एक दूसरे को इस प्रकार प्रेम करो जैसे गौ अपने बछड़े को करती है। ~ अथर्ववेद | |||
* प्रत्येक शरीर में सात ऋषि हैं। ये सातों प्रमाद रहित हो कर उसका रक्षण करते हैं। जब ऋषि सोने जाते हैं, तब भी भीतर बैठे देव जागते हैं और इस यज्ञशाला की रक्षा करते हैं। ~ यजुर्वेद | |||
* मेरे मन के संकल्प पूर्ण हों। मेरी वाणी सत्य व्यवहार वाली हो। ~ यजुर्वेद | |||
* मनुष्य श्रद्धा से संसार प्रवाह को पार कर जाता है। ~ सूत्र निपात | |||
* सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | |||
* प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त | |||
* स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं। ~ अश्विनीकुमार दत्त | |||
* प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है। ~ अश्विनी कुमार दत्त | |||
* जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां | |||
* सब कार्य प्रसन्नता से करने का प्रयत्न करो, परंतु प्रसन्नता कभी तुम्हारे कार्य का प्रेरक भाव न बनने पाए। ~ श्रीमां | |||
* लघुता में प्रभुता निवास करती है। दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के वृक्ष की कोई खड़ाऊं बनाकर भी नहीं पहनता। ~ दयाराम | |||
* जिसका मन जिससे लग गया, वह उसी में रूप-गुण सब कुछ देखता है। प्रेम स्वाधीन को पराधीन कर सकता है। स्नेह के अतिरिक्त यह सामर्थ्य किसमें है? ~ दयाराम | |||
* हममें दया, प्रेम, त्याग ये सब प्रवृत्तियां मौजूद हैं। इन प्रवृत्तियों को विकसित करके अपने सत्य को और मानवता के सत्य को एकरूप कर देना, यही अहिंसा है। ~ भगवतीचरण वर्मा | |||
* प्रशासन की जन के प्रति दुर्भावना भी एक प्रकार का अत्याचार ही है। जनतंत्र में जन से ऊपर कुछ नहीं। ~ भगवतीचरण वर्मा | |||
* जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभ देव | |||
* धन में अनासक्ति, गुणों से मोह, पराए दुख में अधीन होना और अपने ऊपर पड़े दुख में महान धैर्य- धारण करना, ये गुण महापुरुषों में जन्म से ही होते हैं। ~ वल्लभदेव | |||
* उचित अवसर पर कही गई असुंदर वाणी भी उसी तरह सुशोभित होती जिस तरह भूख में नितांत अस्वादु भोजन भी सुस्वादु हो जाता है। ~ वल्लभदेव | |||
* धर्म की शक्ति ही अनेक जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। ~ राधाकृष्णन | |||
* धर्म विश्वास की अपेक्षा व्यवहार अधिक है। ~ राधाकृष्णन | |||
* अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन् अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन | |||
* सबसे अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है, भले ही वह कितना ही कम, यहां तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो। ~ डॉ. राधाकृष्णन | |||
* जीव के दो स्वभाव हैं- अपना-पराया। स्व और पर दोनों में भी जीव के अस्तित्व होने के कारण दूसरों के प्रति बुरी बात करना अनुचित है। ~ पानुगंटि | |||
* जहां धन होता है, वहां त्याग-बुद्धि नहीं होती है। जहां शौर्य होता है, वहां विवेक शून्य होता है। ~ पानुगंटि | |||
* जीव के दो स्वभाव हैं- अपना-पराया। स्व और पर दोनों में भी जीव के अस्तित्व होने के कारण दूसरों के प्रति बुरी बात करना अनुचित है। ~ पानुगंटि | |||
* मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण | |||
* भाग्य, पुरुषार्थ और काल तीनों संयुक्त हाकर मनुष्य को फल देते हैं। ~ मत्स्यपुराण | |||
* भाग्य पर भरोसा रखकर बैठने वाले आलसी मनुष्यों को त्याग कर लक्ष्मी सदा परिश्रम करने में तत्पर लोगों को खोज कर उनका वरण कर लेती है। ~ मत्स्यपुराण | |||
* जिस मनुष्य में जितना साहस होता है, उसी के अनुसार उसके संकल्प भी होते हैं। ~ मुतनब्बी | |||
* जो मनुष्य भीरु है, वह छोटे-छोटे कार्यों को भी बहुत बड़े कार्य समझता है। और जो साहसी होता है, वह बहुत बड़े कार्यों को भी छोटे छोटे कार्य ही समझता है। ~ मुतनब्बी | |||
* नम्रता अगर किसी में स्वाभाविक न हो तो चिर आयु पाने पर भी वह नम्र नहीं हो सकता। ~ मुतनव्बी | |||
* परिश्रम ही हर सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | |||
* उचित पाबंदी को निभाकर चलना उतना ही कल्याणकारी है, जितना अनुचित पाबंदी को तोड़कर चलना। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | |||
* परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | |||
* जिसे हम प्यार करते हैं उसी के अनुसार हमारा रूप और आकार निर्मित होता है। ~ गेटे | |||
* किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे | |||
* यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन नहीं हुई है तो तुम कदापि दूसरों के हृदय प्रभावित नहीं कर सकते। ~ गेटे | |||
* लोगों की धर्म तथा अधर्म की प्रवृत्ति में कारण राजा ही होता है। ~ शुक्रनीति | |||
* जैसा मनुष्य के लिए सौजन्य रूपी अलंकार है, वैसा न तो आभूषण है, न राज्य, न पैरुष, न विद्या और न धन। ~ शुक्रनीति | |||
* जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति | |||
* वीरता कभी-कभी हृदय की कोमलता का भी दर्शन कराती है। ऐसी कोमलता देखकर सारी प्रकृति कोमल हो जाती है, ऐसी सुंदरता देख लोग माहित हो जाते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | |||
* वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | |||
* वीर कभी बड़े मौकों का इंतज़ार नहीं करते, छोटे मौकों को ही बड़ा बना देते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | |||
* परिस्थितियां ही मनुष्य में साहस का संचार करती हैं। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | |||
* वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं, यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | |||
* अपने सम्मान, सत्य और वास्तविकता के लिए प्राण देनेवाला ही वास्तविक विजेता होता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | |||
* सारे ही धर्म एक समान बात करते हैं। मनुष्यता के ऊंचे गुणों को विकसित करना ही धर्म का उद्देश्य है। ~ हरिकृष्ण 'प्रेमी' | |||
* जीवित रहने को तो कीट-पतंगे भी रहते हैं, किंतु मनुष्य को कीट-पतंगों की भांति नहीं जीना चाहिए। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | |||
* संयम करने से वैर नहीं बढ़ता है। ~ उदान | |||
* जिसमें न दंभ है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वार्थ है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशांत है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है। ~ उदान | |||
* सत्य का मुंह स्वर्ण पात्र से ढका हुआ है। हे ईश्वर, उस स्वर्ण पात्र को तू उठा दे जिससे सत्य धर्म का दर्शन हो सके। ~ ईशावास्योपनिषद | |||
* किसी के धन का लालच मत करो। ~ ईशावास्योपनिषद् | |||
* प्रेम दुख और वेदना का बंधु है। इस संसार में जहां दुख और वेदना का अथाह सागर है, वहां प्रेम की अधिक आवश्यकता है। ~ डॉ. रामकुमार वर्मा | |||
* प्रशंसा अच्छे गुणो की छाया है, परंतु वह जिन गुणो की छाया है उन्हीं के अनुसार उनकी योग्यता भी होती है। ~ राम कुमार वर्मा | |||
* सेनापति वही है जो सिपाही की सेवा को अधिकार न समझ कर श्रद्धा की वस्तु समझता है। ~ रामकुमार वर्मा | |||
* जो व्यक्ति प्रजा के पैर बनकर चलता है, उसे कभी कांटे नहीं चुभ सकते। ~ रामकुमार वर्मा | |||
* किसी की भी जीभ पकड़ी नहीं जा सकती। जिसको जैसा समझ में आए, वैसा कहता रहे। ~ तुलसीदास | |||
* अधिक कहने से रस नहीं रह जाता, जैसे गूलर के फल को फोड़ने पर रस नहीं निकलता। ~ तुलसीदास | |||
* धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपात स्थिति में होती है। ~ तुलसीदास | |||
* जिसके मन में राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णा को त्याग कर शील तथा संतोष को ग्रहण किए हुए है, वह संत पुरुष जगत के लिए जहाज़ है। ~ तुलसीदास | |||
* श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा भर बन सकता है। ~ अज्ञेय | |||
* जहां प्रेम जितना उग्र होता है वहां वैसी ही तीखी घृणा भी होती है। ~ अज्ञेय | |||
* धर्म की रक्षक विद्या ही है क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। ~ दयानंद | |||
* क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो। ~ दयानंद सरस्वती | |||
* जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | |||
* राजनीति साधुओं के लिए नहीं है। ~ लोकमान्य तिलक | |||
* शरीर निर्बल और रोगी रखने के समान दूसरा कोई पाप नहीं। ~ लोकमान्य तिलक | |||
* यदि राजसत्ता अत्याचारी हो तो किसान का सीधा उत्तर है- जा, जा, तेरे ऐसे कितने राज मैंने मिट्टी में मिलते देखे हैं। ~ सरदार पटेल | |||
* विद्वान तो बहुत होते हैं, लेकिन विद्या के साथ जीवन का आचरण करने वाले कम होते हैं। ~ सरदार पटेल | |||
* पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता। ~ भवभूति | |||
* कोई भीतरी कारण ही पदा को परस्पर मिलाता है, बाहरी गुणों पर प्रीति आश्रित नहीं होती। ~ भवभूति | |||
* जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति | |||
* संकल्प और भावना जीवन-तखड़ी के दो पलड़े हैं। जिसको अधिक भार से लाद दीजिए वही नीचे चला जाएगा। संकल्प कर्त्तव्य है और भावना कला। दोनों के समान समन्वय की आवश्यकता है। ~ वृंदावनलाल लाल वर्मा | |||
* काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | |||
* वासनाओं से अलग रहकर जो कर्म किया जाता है, वही सुकर्म है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | |||
* जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। ~ गौतम बुद्ध | |||
* जो मनुष्य मन में उठे हुए क्रोध को दौड़ते हुए रथ के समान शीघ्र रोक लेता है, उसी को मैं सारथी समझता हूं, क्रोध के अनुसार चलने वाले को केवल लगाम रखने वाला कहा जा सकता है। ~ गौतम बुद्ध | |||
* धैर्य सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना है। ~ भगवान बुद्ध | |||
* जैसे कच्ची छत में जल भरता है, वैसे ही अज्ञानी के मन में कामनाएं जमा होती हैं। ~ गौतम बुद्ध | |||
* जैसे चक्की छत में जल भरता है वैसे ही अज्ञानी के मन में कामनाएं जमा होती हैं। ~ बुद्ध | |||
* जिसने अपने आप को वश मे कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार मे नहीं बदल सकते। ~ महात्मा बुद्ध | |||
* मूर्ख किसान का भी बीज अच्छे खेत में पड़ जाए, तो उसे अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। ~ विशाखदत्त | |||
* आए हुए उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना सज्जनों का कुलव्रत है। ~ विशाखदत्त | |||
* जिसकी अभिलाषाएं नहीं मरतीं, वह मरकर भी भटकते हैं। अभिलाषाओं से मुक्ति ही प्रभु में विलय है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | |||
* मृत्यु देह के लिए अनमोल वरदान है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | |||
* संसार के समस्त संबंध तथा पदार्थ क्षणिक हैं। केवल अपना कर्म ही शेष रहता है। ~ धनंजय | |||
* न्यून वाणी मूर्खो की समझ में नहीं आती और अधिक बोलना विद्वानों को उद्विग्न करता है। ~ धनंजय | |||
* पूर्ण मनुष्य वही है, जो पूर्ण होने पर और बड़ा होने पर भी नम्र रहता हो और सेवा में निमग्न रहता हो। ~ शब्सतरी | |||
* पथिक को बहुत दूर नहीं चलना है। हां, उसके मार्ग में विघ्न बाधाएं अवश्य बहुत हैं। ~ शब्सतरी | |||
* झूठ से भरा भाषण प्रजा का नाश करने वाला होता है। ~ बंकिम चंद्र | |||
* प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असंत को संत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय बनाता है। ~ बंकिमचंद | |||
* जो निष्काम कर्म की राह पर चलता है, उसे इस बात की परवाह कब रहती है कि किसने उसका अहित साधन किया है। ~ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय | |||
* तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | |||
* मान-बड़ाई मीठी छुरी है। विष भरा सोने का घड़ा है। ~ शिव | |||
* न पहले कभी हुआ और न किसी ने देखा, सोने के मृग की कभी बात भी नहीं हुई, फिर भी राम को सुवर्ण मृग का लोभ हुआ। विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है। ~ चाणक्य नीति | |||
* जो विद्या केवल पुस्तकों में रहती है और जो धन दूसरे के हाथों में रहता है, समय पड़ने पर न वह विद्या है और न वह धन। ~ लघुचाणक्य | |||
* विद्या कामधेनु के गुणों से संपन्न होती है। वह सदा फल देनेवाली है। परदेश में वह माता के समान है। विद्या को इसीलिए गुप्त धन कहा जाता है। ~ वृद्धचाणक्य | |||
* लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न करनेवाली है। ~ बल्लाल कवि | |||
* पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | |||
* मन में संयमित शक्ति ही ऊपर उठ कर बौद्धिक बल में परिणत होती है। ~ कर्तव्य दर्शन | |||
* दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे, जो रंज की घड़ी को खुशी में गुजार दे। ~ दाग़ देहलवी | * दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे, जो रंज की घड़ी को खुशी में गुजार दे। ~ दाग़ देहलवी | ||
* संसार में अपने पंखों को फैलाना सीखो क्योंकि दूसरों के पंखों के सहारे उड़ना संभव नहीं। ~ इकबाल | * संसार में अपने पंखों को फैलाना सीखो क्योंकि दूसरों के पंखों के सहारे उड़ना संभव नहीं। ~ इकबाल | ||
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* भिक्षुओ! संसार में दो व्यक्ति दुर्लभ हैं। कौन से दो? तृप्त और तृप्तिदाता। ~ अंगुत्तरनिकाय | * भिक्षुओ! संसार में दो व्यक्ति दुर्लभ हैं। कौन से दो? तृप्त और तृप्तिदाता। ~ अंगुत्तरनिकाय | ||
* प्रेम का एक-एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। ~ फरीदुद्दीन अत्तार | * प्रेम का एक-एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। ~ फरीदुद्दीन अत्तार | ||
* हमारे यथार्थ शत्रु तीन हैं-दरिद्रता, रोग और मूर्खता। वे वीर धन्य हैं जो इन तीनो के विरुद्ध युद्ध छेड़ते हैं। वे मानवता के यथार्थ के उपासक और हमारे सच्चे सेनानायक हैं। ~ रामवृक्ष बेनीपुरी | * हमारे यथार्थ शत्रु तीन हैं-दरिद्रता, रोग और मूर्खता। वे वीर धन्य हैं जो इन तीनो के विरुद्ध युद्ध छेड़ते हैं। वे मानवता के यथार्थ के उपासक और हमारे सच्चे सेनानायक हैं। ~ रामवृक्ष बेनीपुरी | ||
* शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शैनकीयनीतिसार | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शैनकीयनीतिसार | ||
* श्रम आत्मा के लिए रसायन का काम करता है। श्रम ही मनुष्य की आत्मा है। ~ स्वामी कृष्णानंद | |||
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* संसार में दो वस्तुएं बहुत ही कम पाई जाती हैं। एक तो शुद्ध कमाई का धन और दूसरे सत्य-शिक्षक मित्र। ~ अबुल जवायज | * संसार में दो वस्तुएं बहुत ही कम पाई जाती हैं। एक तो शुद्ध कमाई का धन और दूसरे सत्य-शिक्षक मित्र। ~ अबुल जवायज | ||
* अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए मैं स्वयं को सदा इच्छाओं की छाया से दूर संतोष की मीठी धूप में रखता हूँ। ~ ब्रह्माकुमार | * अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए मैं स्वयं को सदा इच्छाओं की छाया से दूर संतोष की मीठी धूप में रखता हूँ। ~ ब्रह्माकुमार | ||
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* निश्चित ही शत्रुयुक्त पुरुष की तभी जय होती है जब वैरी-पुरुष लोक से निंदित होता है। ~ युधिष्ठिर विजयम् | * निश्चित ही शत्रुयुक्त पुरुष की तभी जय होती है जब वैरी-पुरुष लोक से निंदित होता है। ~ युधिष्ठिर विजयम् | ||
* धर्म तथा सत्कार्यों में अधिक व्यय के कारण जिसका कोष/खजाना क्षीण हो गया है, ऐसे व्यक्ति की निर्धनता भी शोभनीय होती है। ~ कामंदकीय नीतिसार | * धर्म तथा सत्कार्यों में अधिक व्यय के कारण जिसका कोष/खजाना क्षीण हो गया है, ऐसे व्यक्ति की निर्धनता भी शोभनीय होती है। ~ कामंदकीय नीतिसार | ||
* कांच के लिए मोती की हानि करना उचित नहीं है। ~ कथासरित्सागर | * कांच के लिए मोती की हानि करना उचित नहीं है। ~ कथासरित्सागर | ||
* विचारहीन लोग धर्मग्रंथों को उसी प्रकार बांचते रहते हैं, जिस प्रकार पिंजरे में तोता राम राम की रट लगाता है। ~ लल्लेश्वरी | * विचारहीन लोग धर्मग्रंथों को उसी प्रकार बांचते रहते हैं, जिस प्रकार पिंजरे में तोता राम राम की रट लगाता है। ~ लल्लेश्वरी | ||
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* मनुष्य देह का गौरव केवल ब्रह्मा को प्रत्यक्ष जानने में नहीं है, केवल ब्रह्मानंद का स्वयं भोग करने में नहीं है, बल्कि निर्विशेष रूप ब्रह्मानंद को सबमें वितरण करने का अधिकार प्राप्त करने में है। ~ गोपीनाथ कविराज | * मनुष्य देह का गौरव केवल ब्रह्मा को प्रत्यक्ष जानने में नहीं है, केवल ब्रह्मानंद का स्वयं भोग करने में नहीं है, बल्कि निर्विशेष रूप ब्रह्मानंद को सबमें वितरण करने का अधिकार प्राप्त करने में है। ~ गोपीनाथ कविराज | ||
* गंगा पाप का, चंद्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करता है, परंतु सत्संग पाप, ताप और दैन्य- तीनों का तत्काल नाश कर देता है। ~ गर्गसंहिता | * गंगा पाप का, चंद्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करता है, परंतु सत्संग पाप, ताप और दैन्य- तीनों का तत्काल नाश कर देता है। ~ गर्गसंहिता | ||
* संसार मन से भिन्न नहीं है। मन हृदय से भिन्न नहीं है। अत: समस्त कथा हृदय में ही समाप्त हो जाती है। ~ श्रीरमणगीता | * संसार मन से भिन्न नहीं है। मन हृदय से भिन्न नहीं है। अत: समस्त कथा हृदय में ही समाप्त हो जाती है। ~ श्रीरमणगीता | ||
* मीठी बातें तो वह करता है जिसका कुछ स्वार्थ होता है, जो डरता है, जो प्रशंसा अथवा मान का भूखा रहता है। ~ हरिऔध | * मीठी बातें तो वह करता है जिसका कुछ स्वार्थ होता है, जो डरता है, जो प्रशंसा अथवा मान का भूखा रहता है। ~ हरिऔध | ||
* आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | |||
* कठोर वचन बोलने से कठोर बात सुननी पड़ेगी। चोट करने पर चोट सहनी पड़ेगी। रुलाने से रोना पड़ेगा। ~ तैलंग स्वामी | |||
* एक स्वतंत्र राष्ट्र में प्रजातंत्र को कार्यरूप में परिणत करने के लिए पहली शर्त यह है कि उसके कानूनों का पालन हो। चाहे हम उन्हें पसंद करें या न करें। ~ कैलाशनाथ काटजू | * एक स्वतंत्र राष्ट्र में प्रजातंत्र को कार्यरूप में परिणत करने के लिए पहली शर्त यह है कि उसके कानूनों का पालन हो। चाहे हम उन्हें पसंद करें या न करें। ~ कैलाशनाथ काटजू | ||
* बैठने वाले का भाग्य भी बैठ जाता है और खड़े होने वाले का भाग्य भी खड़ा हो जाता है। इसी प्रकार सोने वाले का भाग्य भी सो जाता है और पुरुषार्थी का भाग्य भी गतिशील हो जाता है। इसलिए चले चलो, चले चलो। ~ वेदवाणी | * बैठने वाले का भाग्य भी बैठ जाता है और खड़े होने वाले का भाग्य भी खड़ा हो जाता है। इसी प्रकार सोने वाले का भाग्य भी सो जाता है और पुरुषार्थी का भाग्य भी गतिशील हो जाता है। इसलिए चले चलो, चले चलो। ~ वेदवाणी | ||
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* अपने में अविश्वास का होना अश्रद्धा का रूप है। प्रश्नों का उत्पन्न न होना तो तम या मूर्च्छा है। ~ वासुदेवशरण अग्रवाल | * अपने में अविश्वास का होना अश्रद्धा का रूप है। प्रश्नों का उत्पन्न न होना तो तम या मूर्च्छा है। ~ वासुदेवशरण अग्रवाल | ||
* गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | * गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | ||
* पापी की परिभाषा व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करती है। अत्याचार करने वाले से सहने वाला अधिक पापी है। ~ कंचनलता सब्बरवाल | * पापी की परिभाषा व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करती है। अत्याचार करने वाले से सहने वाला अधिक पापी है। ~ कंचनलता सब्बरवाल | ||
* जीव का अपवित्र मन ही प्रधान नरक है, एवं उस मन की वेदना-चिंता और भय-अशांति ही नारकीय यातना है। ~ तत्वकथा | * जीव का अपवित्र मन ही प्रधान नरक है, एवं उस मन की वेदना-चिंता और भय-अशांति ही नारकीय यातना है। ~ तत्वकथा | ||
* बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | * बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | ||
* ईश्वर उससे संतुष्ट होता है जो सब धर्मों के उपदेशों को सुनता है, सभी देवताओं की उपासना करता है, जो ईर्ष्या से मुक्त है और क्रोध को जीत चुका है। ~ विष्णुधर्मोत्तर पुराण | * ईश्वर उससे संतुष्ट होता है जो सब धर्मों के उपदेशों को सुनता है, सभी देवताओं की उपासना करता है, जो ईर्ष्या से मुक्त है और क्रोध को जीत चुका है। ~ विष्णुधर्मोत्तर पुराण | ||
* यदि तुम में सहनशक्ति हो तो तुम्हें किसी बात की कमी नहीं होगी। ~ आदिभट्टल नारायणदासु | * यदि तुम में सहनशक्ति हो तो तुम्हें किसी बात की कमी नहीं होगी। ~ आदिभट्टल नारायणदासु | ||
* दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | ||
* राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण | * राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण | ||
* न शत्रु न शस्त्र, न अग्नि, न विष और न दारुण रोग ही मनुष्य को उतना संतप्त करते हैं। जितनी कड़वी वाणी। ~ नीतिविदषाष्टिका | * न शत्रु न शस्त्र, न अग्नि, न विष और न दारुण रोग ही मनुष्य को उतना संतप्त करते हैं। जितनी कड़वी वाणी। ~ नीतिविदषाष्टिका | ||
* हे परमेश्वर! हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ, हमें सुखदायी बल व कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋगवेद | |||
* जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | * जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | ||
* अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | * अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | ||
* यौवन साहस करता है और वृद्धावस्था विचार करती है। ~ राउपाख | * यौवन साहस करता है और वृद्धावस्था विचार करती है। ~ राउपाख | ||
* मनुष्य को अपनी करनी का फल तो भोगना ही पड़ता है। ~ सोमेन दत्त | * मनुष्य को अपनी करनी का फल तो भोगना ही पड़ता है। ~ सोमेन दत्त | ||
* काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | * काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | ||
* कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | * कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | ||
* जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | * जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | ||
* अन्यायी और अत्याचारी की करतूतें मनुष्यता के नाम खुली चुनौती हैं जिसे वीर पुरुषों को स्वीकार करना ही चाहिए। ~ श्रीराम शर्मा आचार्य | * अन्यायी और अत्याचारी की करतूतें मनुष्यता के नाम खुली चुनौती हैं जिसे वीर पुरुषों को स्वीकार करना ही चाहिए। ~ श्रीराम शर्मा आचार्य | ||
* किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है। ~ प्रसाद | * किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है। ~ प्रसाद | ||
* झूठ बोलने वाला कभी भी श्रेष्ठ पद को नहीं पा सकता। ~ उपनिषद | |||
* | * दुष्ट को, मूर्ख को और बहके हुए को समझा पाना बहुत कठिन है। ~ स्थानांग | ||
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* जब करुणा प्राणों में बस जाती है, तभी धर्म मनुष्य को सुलभ होता है। ~ दुर्गा भागवत | * जब करुणा प्राणों में बस जाती है, तभी धर्म मनुष्य को सुलभ होता है। ~ दुर्गा भागवत | ||
* जो अत्याचारी के प्रति विद्रोह करता है, उसका साथ सब देना चाहते हैं। ~ माखनलाल चतुर्वेदी | |||
* आलोचना से परे कोई भी नहीं है। न साहूकार और न मजदूर। आलोचना से हर कोई सबक ले सकता है। ~ गणेश शंकर विद्यार्थी | |||
* मन की दशा ठीक कर लोगे तो अपनी दशा स्वयं ठीक हो जाएगी। ~ सुधांशु जी महाराज | |||
* झूठ का कभी पीछा मत करो। उसे अकेला छोड़ दो। वह अपनी मौत खुद मर जाएगा। ~ लीमेन बीकर | |||
* जो पाप हमें विनम्र और विनीत बनाता है, वह बेहतर है उस पुण्य से जो हमें घमंडी और उद्धत बनाता है। ~ इब्न अताउल्लाह | |||
* परिश्रम और प्रतिभा आप ही आप आदमी को अकेला बना देती हैं। परिश्रम आदमी को भीड़ बनने और प्रतिभा भीड़ में खो जाने की इजाजत नहीं देती। ~ राजकमल चौधरी | |||
* प्रशंसा ऐसा विष है जिसे अल्प मात्रा में ही ग्रहण किया जा सकता है। ~ बालजाक | |||
* विचारहीन लोग धर्मग्रंथों को उसी प्रकार बांचते रहते हैं, जिस प्रकार पिंजरे में तोता राम-राम की रट लगाता है। ~ लल्लेश्वरी | |||
* यह नहीं हो सकता कि मुर्गी का आधा हिस्सा पका लें और आधा हिस्सा अंडा देने के लिए छोड़ दें। ~ विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति | |||
* सत्य तथा असत्य के विवेक को वैराग्य का साधन कहते हैं। ~ श्री रमण गीता | |||
* केवल शरर के मैल उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से निर्मल बनता है। ~ स्कंदपुराण | |||
* श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान। यह सर्वोत्तम जोड़ा है। श्रद्धा और सत्य के जोड़ से मनुष्य स्वर्ग जीत लेता है। ~ ऐतरेय ब्राह्मण | |||
* उस स्वर्ण से भी क्या जहां चारित्र्य का खंडन हो? यदि मैं शील से विभूषित हूं तो मुझे और क्या चाहिए? ~ स्वयंभूदेव | |||
* धर्म के विषय में जोर-जबर्दस्ती ठीक नहीं होती। ~ क़ुरान | * धर्म के विषय में जोर-जबर्दस्ती ठीक नहीं होती। ~ क़ुरान | ||
* जिसके मन में कभी क्रोध नहीं होता और जिसके हृदय में रात-दिन राम बसते हैं, वह भक्त भगवान के समान ही है। ~ रैदास | |||
* धर्म करना चाहिए, अधर्म नहीं। प्रिय करना चाहिए, अप्रिय नही। सत्य करना चाहिए, असत्य नहीं। ~ संयुत्तनिकाय | * धर्म करना चाहिए, अधर्म नहीं। प्रिय करना चाहिए, अप्रिय नही। सत्य करना चाहिए, असत्य नहीं। ~ संयुत्तनिकाय | ||
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
* सज्जनों की संगति होने पर दुर्जनों में भी सुजनता आ ही जाती है। ~ क्षत्रचूड़ामणि | * सज्जनों की संगति होने पर दुर्जनों में भी सुजनता आ ही जाती है। ~ क्षत्रचूड़ामणि | ||
* महान ध्येय के प्रयत्न में ही आनंद है, उल्लास है और किसी अंश तक प्राप्ति की मात्रा भी है। ~ नेहरू | * महान ध्येय के प्रयत्न में ही आनंद है, उल्लास है और किसी अंश तक प्राप्ति की मात्रा भी है। ~ नेहरू | ||
* महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य | * महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य | ||
* कभी किसी महात्मा से यह न पूछो कि तुम्हारी जाति क्या है क्योंकि भगवान के दरबार में जाति का बंधन नहीं रह जाता। ~ कबीर | * कभी किसी महात्मा से यह न पूछो कि तुम्हारी जाति क्या है क्योंकि भगवान के दरबार में जाति का बंधन नहीं रह जाता। ~ कबीर | ||
* भिक्षु हो या राजा; जो निष्काम है, वही शोभित होता है। ~ अष्टावक्र गीता | * भिक्षु हो या राजा; जो निष्काम है, वही शोभित होता है। ~ अष्टावक्र गीता | ||
* प्यार से विष भी पिला सकते हैं, लेकिन बलपूर्वक दूध पिलाना मुश्किल है। ~ कुंदकूरि वीरेशलिंग पंतुलु | * प्यार से विष भी पिला सकते हैं, लेकिन बलपूर्वक दूध पिलाना मुश्किल है। ~ कुंदकूरि वीरेशलिंग पंतुलु | ||
* संसार में कर्म ही मुख्य है और कुलीनता कर्म पर ही निर्भर करती है। ~ गोविंद दास | * संसार में कर्म ही मुख्य है और कुलीनता कर्म पर ही निर्भर करती है। ~ गोविंद दास | ||
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* जब करुणा के नेत्र खुल जाते हैं तो व्यक्ति अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में देख सकने में समर्थ हो जाता है। ~ राजगोपालाचारी | * जब करुणा के नेत्र खुल जाते हैं तो व्यक्ति अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में देख सकने में समर्थ हो जाता है। ~ राजगोपालाचारी | ||
* इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करनेवाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। ~ वेद | * इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करनेवाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। ~ वेद | ||
* सुवासना और दुर्वासना- ये दोनों मोक्ष और बंधन के मूल कारण हैं। ~ माधवदेव | |||
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* निष्कपट प्रेम किसी भी कपट को नहीं सह सकता है। ~ चैतन्यचंदोदयम् | * निष्कपट प्रेम किसी भी कपट को नहीं सह सकता है। ~ चैतन्यचंदोदयम् | ||
* विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | * विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | ||
* गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | * गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | ||
* पापी की परिभाषा व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करती है। अत्याचार करने वाले से सहने वाला अधिक पापी है। ~ कंचनलता सब्बरवाल | * पापी की परिभाषा व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करती है। अत्याचार करने वाले से सहने वाला अधिक पापी है। ~ कंचनलता सब्बरवाल | ||
* प्रसन्न चित्त से दिया गया अल्प दान भी, हजारों बार के दान की बराबरी करता है। ~ विमानवत्थु | * प्रसन्न चित्त से दिया गया अल्प दान भी, हजारों बार के दान की बराबरी करता है। ~ विमानवत्थु | ||
* प्रेम की मृत्यु नहीं होती, प्रेम अमृत रहता है। ~ उमाशंकर जोशी | * प्रेम की मृत्यु नहीं होती, प्रेम अमृत रहता है। ~ उमाशंकर जोशी | ||
* जिस प्रकार दीपक दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करता है और अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार अंत:करण दूसरी वस्तुओं को भी प्रत्यक्ष करता है और अपने आप को भी। ~ संपूर्णानंद | * जिस प्रकार दीपक दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करता है और अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार अंत:करण दूसरी वस्तुओं को भी प्रत्यक्ष करता है और अपने आप को भी। ~ संपूर्णानंद | ||
* सभी प्रकार के बलों में नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है। ~ पिंगलि सूरना | |||
* ईश्वर उससे संतुष्ट होता है जो सब धर्मों के उपदेशों को सुनता है, सभी देवताओं की उपासना करता है, जो ईर्ष्या से मुक्त है और क्रोध को जीत चुका है। ~ विष्णुधर्मोत्तर पुराण | * ईश्वर उससे संतुष्ट होता है जो सब धर्मों के उपदेशों को सुनता है, सभी देवताओं की उपासना करता है, जो ईर्ष्या से मुक्त है और क्रोध को जीत चुका है। ~ विष्णुधर्मोत्तर पुराण | ||
* यदि तुम में सहनशक्ति हो तो तुम्हें किसी बात की कमी नहीं होगी। ~ आदिभट्टल नारायणदासु | * यदि तुम में सहनशक्ति हो तो तुम्हें किसी बात की कमी नहीं होगी। ~ आदिभट्टल नारायणदासु | ||
* अपने पर अविश्वास का होना अश्रद्धा का रूप है। प्रश्नों का उत्पन्न न होना तो तम या मूर्च्छा है। संदेह या प्रश्नों को परास्त करने की शक्ति ही जिज्ञासु की श्रद्धा कहलाती है। ~ वासुदेवशरण अग्रवाल | |||
* मन में प्रसन्नता और बड़ी आकांक्षा पैदा कर देना श्रद्धा की पहचान है। ~ मिलिंदप्रश्न | |||
* अभ्यास के लिए अभिलाषा जरूरी है। जिस अभिलाषा में शक्ति नहीं, उसकी पूर्ति असंभव है। ~ गुलाब रत्न वाजपेयी | |||
* बीते हुए का शोक नहीं करते। आने वाले भविष्य की चिंता नहीं करते। जो है, उसी में निर्वाह करते हैं। इसी से साधकों का चेहरा खिला रहता है। ~ संयुत्तनिकाय | |||
* जो साधक चरित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है। ~ आचार्य भद्रबाहु | |||
* बुद्धिमान वे हैं, जिनकी दृष्टि में कांच कांच है और मणि मणि है। ~ भल्लट भट्ट | |||
* अपमान और दवा की गोलियां निगल जाने के लिए होते हैं। मुंह में रखकर चूसने के लिए नहीं। ~ वक्रमुख | |||
* ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे | |||
* स्वेच्छा से ग्रहण किए हुए दुख को ऐश्वर्य के समान भोगा जा सकता है। ~ शरत | |||
* सुन लो पलटू भेद यह, हंसी बोले भगवान। दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान। ~ पलटू साहब | |||
* समग्र विश्व एक ही परिवार है। सारे वर्णभेद असत्य हैं। प्रेम बंधन ही बहुमूल्य है। ~ गुरजाडा अप्पाराव | |||
* श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र | |||
* दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | ||
* यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण | * यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण | ||
* नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद | * नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद | ||
* राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण | * राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण | ||
* जंगली पशु खेल और मनोरंजन के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | * जंगली पशु खेल और मनोरंजन के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | ||
* कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | * कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश | ||
* जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | * जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत | ||
* अपमान और दवा की गोलियां निगल जाने के लिए होते हैं। मुंह में रखकर चूसने के लिए नहीं। ~ वक्रमुख | * अपमान और दवा की गोलियां निगल जाने के लिए होते हैं। मुंह में रखकर चूसने के लिए नहीं। ~ वक्रमुख | ||
* ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे | * ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे | ||
* पहले से ही अधिक दुखी व्यक्ति को दुख के अन्य कारण दुखी नहीं करते। ~ भानुदत्त | * पहले से ही अधिक दुखी व्यक्ति को दुख के अन्य कारण दुखी नहीं करते। ~ भानुदत्त | ||
* सुन लो पलटू भेद यह, हंसी बोले भगवान। दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान। ~ पलटू साहब | * सुन लो पलटू भेद यह, हंसी बोले भगवान। दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान। ~ पलटू साहब | ||
* समग्र विश्व एक ही परिवार है। सारे वर्णभेद असत्य हैं। प्रेम बंधन ही बहुमूल्य है। ~ गुरजाडा अप्पाराव | * समग्र विश्व एक ही परिवार है। सारे वर्णभेद असत्य हैं। प्रेम बंधन ही बहुमूल्य है। ~ गुरजाडा अप्पाराव | ||
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* जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | * जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि | ||
* अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | * अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य | ||
* मनुष्य को अपनी करनी का फल तो भोगना ही पड़ता है। ~ सोमेन दत्त | * मनुष्य को अपनी करनी का फल तो भोगना ही पड़ता है। ~ सोमेन दत्त | ||
* कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या | * कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या | ||
* वृद्ध व्यक्ति जो झुककर चलता है, वह धरती में क्या खोजता चलता है? उसका जो यौवन रूपी रत्न खो गया है, उसे ही खोजता है कि शायद कहीं पर गिरा हुआ हो। ~ जायसी | * वृद्ध व्यक्ति जो झुककर चलता है, वह धरती में क्या खोजता चलता है? उसका जो यौवन रूपी रत्न खो गया है, उसे ही खोजता है कि शायद कहीं पर गिरा हुआ हो। ~ जायसी | ||
* विपत्ति में अपनी प्रकृति बदल लेना अच्छा है पर अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा करना सर्वथा गलत है। ~ अभिनंद | |||
* श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र | * श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र | ||
* प्रसन्न चित्त से दिया गया अल्प दान भी, हजारों बार के दान की बराबरी करता है। ~ विमानवत्थु | * प्रसन्न चित्त से दिया गया अल्प दान भी, हजारों बार के दान की बराबरी करता है। ~ विमानवत्थु | ||
* मूर्ख किसान का भी बीज अच्छे खेत में पड़ जाए, तो उसे अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। ~ विशाखदत्त | * मूर्ख किसान का भी बीज अच्छे खेत में पड़ जाए, तो उसे अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। ~ विशाखदत्त | ||
* प्रेम की मृत्यु नहीं होती, प्रेम अमृत रहता है। ~ उमाशंकर जोशी | * प्रेम की मृत्यु नहीं होती, प्रेम अमृत रहता है। ~ उमाशंकर जोशी | ||
* धन वह है जो हाथ में हो, मित्र वह है जो विपत्ति में हमेशा साथ दे, रूप वह है जहां गुण है, विज्ञान वह है जहां धर्म हो। ~ हाल सातवाहन | * धन वह है जो हाथ में हो, मित्र वह है जो विपत्ति में हमेशा साथ दे, रूप वह है जहां गुण है, विज्ञान वह है जहां धर्म हो। ~ हाल सातवाहन | ||
* मोहांध तथा अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं टिकती। ~ कथासरित्सागर | * मोहांध तथा अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं टिकती। ~ कथासरित्सागर | ||
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* विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | * विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास | ||
* गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | * गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी | ||
* दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में, दुख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग | * दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में, दुख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग | ||
* परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य | * परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य | ||
* मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण करता है, उस समय वह पशुओ से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्र नाथ | * मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण करता है, उस समय वह पशुओ से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्र नाथ | ||
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* अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महद् धन है तथा विद्या तप और कीर्ति अतिधन हैं। ~ भगदत्त जल्हण | * अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महद् धन है तथा विद्या तप और कीर्ति अतिधन हैं। ~ भगदत्त जल्हण | ||
* धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरुवत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शाड़ंधर-पद्धति | * धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरुवत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शाड़ंधर-पद्धति | ||
* जीव का अपवित्र मन ही प्रधान नरक है, एवं उस मन की वेदना-चिंता और भय-अशांति ही नारकीय यातना है। ~ तत्वकथा | * जीव का अपवित्र मन ही प्रधान नरक है, एवं उस मन की वेदना-चिंता और भय-अशांति ही नारकीय यातना है। ~ तत्वकथा | ||
* बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | * बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण | ||
* कान से सुनकर लोग चलते हैं, आंख से देखकर चलने वाले कम हैं। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * कान से सुनकर लोग चलते हैं, आंख से देखकर चलने वाले कम हैं। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
* विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | * विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | ||
* विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक | * विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक | ||
* मैं महान उसको मानता हूं जो स्वत: अपना मार्ग बनाते हैं, परंतु कहीं मिथ्या मार्ग पर चल पड़ें तो लौट आने का साहस और बुद्धि भी रखते हैं। ~ गुरुदत्त | * मैं महान उसको मानता हूं जो स्वत: अपना मार्ग बनाते हैं, परंतु कहीं मिथ्या मार्ग पर चल पड़ें तो लौट आने का साहस और बुद्धि भी रखते हैं। ~ गुरुदत्त | ||
* यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | * यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | ||
* धर्म करना चाहिए, अधर्म नहीं। प्रिय करना चाहिए, अप्रिय नही। सत्य करना चाहिए, असत्य नहीं। ~ संयुत्तनिकाय | * धर्म करना चाहिए, अधर्म नहीं। प्रिय करना चाहिए, अप्रिय नही। सत्य करना चाहिए, असत्य नहीं। ~ संयुत्तनिकाय | ||
* यदि तू अपने हृदय में फूल का विचार करेगा तो फूल हो जाएगा और यदि उसी के प्रेमी बुलबुल में ध्यान लगाएगा तो बुलबुल बन जाएगा। ~ जामी | * यदि तू अपने हृदय में फूल का विचार करेगा तो फूल हो जाएगा और यदि उसी के प्रेमी बुलबुल में ध्यान लगाएगा तो बुलबुल बन जाएगा। ~ जामी | ||
* सज्जनों की संगति होने पर दुर्जनों में भी सुजनता आ ही जाती है। ~ क्षत्रचूड़ामणि | * सज्जनों की संगति होने पर दुर्जनों में भी सुजनता आ ही जाती है। ~ क्षत्रचूड़ामणि | ||
* किसी मनुष्य का स्वभाव उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू | * किसी मनुष्य का स्वभाव उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू | ||
* योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूर्ति प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूर्ति प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | ||
* किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपतराय | * किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपतराय | ||
* दार्शनिक विवाद में अधिकतम लाभ उसे होता है, जो हारता है। क्योंकि वह अधिकतम सीखता है। ~ एपिक्युरस | * दार्शनिक विवाद में अधिकतम लाभ उसे होता है, जो हारता है। क्योंकि वह अधिकतम सीखता है। ~ एपिक्युरस | ||
* संसार में दो वस्तुएं बहुत ही कम पाई जाती हैं। एक तो शुद्ध कमाई का धन, दूसरे, सत्य- शिक्षक मित्र। ~ अबुल जवायज | * संसार में दो वस्तुएं बहुत ही कम पाई जाती हैं। एक तो शुद्ध कमाई का धन, दूसरे, सत्य- शिक्षक मित्र। ~ अबुल जवायज | ||
* स्वभावत : कुटिल पुरुष द्वारा किया गया विद्या का अभ्यास दुष्टता को बढ़ाने वाला ही होता है। ~ मुरारि | * स्वभावत : कुटिल पुरुष द्वारा किया गया विद्या का अभ्यास दुष्टता को बढ़ाने वाला ही होता है। ~ मुरारि | ||
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* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
* राजा सत्य है, राजा धर्म है, राजा कुलीन पुरुषों का कुल है, राजा ही माता और पिता है तथा राजा समस्त मानवों का हित साधन करने वाला है। ~ केशवदास | * राजा सत्य है, राजा धर्म है, राजा कुलीन पुरुषों का कुल है, राजा ही माता और पिता है तथा राजा समस्त मानवों का हित साधन करने वाला है। ~ केशवदास | ||
* राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण | * राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण | ||
* गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | * गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | ||
* भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करनेवाली कामधेनु कहा है। ~ दण्डी | * भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करनेवाली कामधेनु कहा है। ~ दण्डी | ||
* 'आज' निश्चित है, जो 'कल' है, वह अनिश्चित है। ~ शतपथ | * 'आज' निश्चित है, जो 'कल' है, वह अनिश्चित है। ~ शतपथ | ||
* प्रकृति-पुरुष के संयोग से ब्रह्मांड की रचना ही रासलीला है। इस रासलीला में परमात्मा की सहचरी माया या प्रकृति ही राधा है। ~ गंगेश्वरानंद | * प्रकृति-पुरुष के संयोग से ब्रह्मांड की रचना ही रासलीला है। इस रासलीला में परमात्मा की सहचरी माया या प्रकृति ही राधा है। ~ गंगेश्वरानंद | ||
* योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | |||
* किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपत राय | * किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपत राय | ||
* गंभीरता से शंका करने वाला मन सजीव मन है। ~ सिस्टर निवेदिता | * गंभीरता से शंका करने वाला मन सजीव मन है। ~ सिस्टर निवेदिता | ||
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* जो अहित करने वाली चीज है, वह थोड़ी देर के लिए सुंदर बनाने पर भी असुंदर है, क्योंकि वह अकल्याणकारी है। सुंदर वही हो सकता है जो कल्याणकारी हो। ~ भगवतीचरण वर्मा | * जो अहित करने वाली चीज है, वह थोड़ी देर के लिए सुंदर बनाने पर भी असुंदर है, क्योंकि वह अकल्याणकारी है। सुंदर वही हो सकता है जो कल्याणकारी हो। ~ भगवतीचरण वर्मा | ||
* सच्चे सौंदर्य का रहस्य सच्ची सरलता है। ~ साधु वासवानी | * सच्चे सौंदर्य का रहस्य सच्ची सरलता है। ~ साधु वासवानी | ||
* इस संसार को बाज़ार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी हैं। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता है। मूर्ख और गंवार व्यर्थ ही मर जाते हैं, लाभ नहीं पाते। ~ विद्यापति | * इस संसार को बाज़ार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी हैं। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता है। मूर्ख और गंवार व्यर्थ ही मर जाते हैं, लाभ नहीं पाते। ~ विद्यापति | ||
* संसार स्वप्न की तरह है। जिस प्रकार जागने पर स्वप्न झूठा प्रतीत होता है, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान प्राप्त होने पर यह संसार मिथ्या प्रतीत होता है। ~ याज्ञवल्क्य | * संसार स्वप्न की तरह है। जिस प्रकार जागने पर स्वप्न झूठा प्रतीत होता है, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान प्राप्त होने पर यह संसार मिथ्या प्रतीत होता है। ~ याज्ञवल्क्य | ||
* सत्य से ही सूर्य तप रहा है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है। ~ विश्वामित्र | * सत्य से ही सूर्य तप रहा है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है। ~ विश्वामित्र | ||
* प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ संत एम्ब्रोज | * प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ संत एम्ब्रोज | ||
* संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियां हैं, शिक्षा सबसे बढ़कर है। ~ निराला | * संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियां हैं, शिक्षा सबसे बढ़कर है। ~ निराला | ||
* अयोग्य लोगो की तारीफ छिपे हुए व्यंग्य के समान होती है। ~ हरिशंकर परसाई | * अयोग्य लोगो की तारीफ छिपे हुए व्यंग्य के समान होती है। ~ हरिशंकर परसाई | ||
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* सत्य बहुधा लोक में अप्रिय होता है। ~ एडलाइ स्टीवेन्स | * सत्य बहुधा लोक में अप्रिय होता है। ~ एडलाइ स्टीवेन्स | ||
* दुख, प्रेम के साथ ही निरन्तर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता | * दुख, प्रेम के साथ ही निरन्तर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता | ||
* बुद्धिमान व्यक्ति अपने शत्रुओं से भी बहुत सी बातें सीखते हैं। ~ एरिस्टोफेनिज | * बुद्धिमान व्यक्ति अपने शत्रुओं से भी बहुत सी बातें सीखते हैं। ~ एरिस्टोफेनिज | ||
* झूठा नाता जगत का, झूठा है घरवास। यह तन झूठा देखकर सहजो भई उदास। ~ सहजोबाई | * झूठा नाता जगत का, झूठा है घरवास। यह तन झूठा देखकर सहजो भई उदास। ~ सहजोबाई | ||
* महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य | |||
* कभी किसी महात्मा से यह न पूछो कि तुम्हारी जाति क्या है क्योंकि भगवान के दरबार में जाति का बंधन नहीं रह जाता। ~ कबीर | |||
* भिक्षु हो या राजा; जो निष्काम है, वही शोभित होता है। ~ अष्टावक्र गीता | |||
* यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण | |||
* नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद | |||
* इस संसार में दो तरह के व्यक्ति दुर्लभ हैं, कौन से दो? उपकारी और कृतज्ञ। ~ अंगुत्तरनिकाय | |||
* धन में आसक्त लोगों का न कोई गुरु होता है और न कोई बंधु। ~ नीतिशास्त्र | |||
* समय रूपी अमृत बहता जा रहा है, संभव है प्यास बुझाने का अवसर तुम्हें फिर न मिले। ~ शंकर कुरुप | |||
* गंभीरता से शंका करने वाला मन सजीव मन है। ~ भगिनी निवेदिता | |||
* जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद | |||
* वही अच्छी प्रार्थना करता है जो महान और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कालरिज | |||
* पढ़ना सुलभ है पर उसका पालन करना अत्यंत दुर्लभ। ~ ललद्देश्वरी | * पढ़ना सुलभ है पर उसका पालन करना अत्यंत दुर्लभ। ~ ललद्देश्वरी | ||
* सज्जन अत्यंत क्रुद्ध होने पर भी मिलने-जुलने से मृदु हो जाते हैं, किंतु नीच नहीं। ~ अमृतवर्धन | * सज्जन अत्यंत क्रुद्ध होने पर भी मिलने-जुलने से मृदु हो जाते हैं, किंतु नीच नहीं। ~ अमृतवर्धन | ||
* धर्मान्धो! सुनो, दूसरों के पाप गिनने से पहले अपने पापों को गिनो। ~ काजी नजरूल इस्लाम | * धर्मान्धो! सुनो, दूसरों के पाप गिनने से पहले अपने पापों को गिनो। ~ काजी नजरूल इस्लाम | ||
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* युक्तिपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य के कार्य भी असावधान हो जाने से नष्ट हो जाते हैं। ~ शिशुपालवध | * युक्तिपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य के कार्य भी असावधान हो जाने से नष्ट हो जाते हैं। ~ शिशुपालवध | ||
* चींटी चलती रहे तो हजारों योजन पार कर जाती है। न चलता हुआ गरुण भी एक क़दम आगे नहीं चलता। ~ मार्कण्डेय पुराण | * चींटी चलती रहे तो हजारों योजन पार कर जाती है। न चलता हुआ गरुण भी एक क़दम आगे नहीं चलता। ~ मार्कण्डेय पुराण | ||
* साधन की सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है। ~ अशोकानंद | * साधन की सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है। ~ अशोकानंद | ||
* सदाचार के तीन आधार हैं- अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता। ~ विद्यानंद 'विदेह' | * सदाचार के तीन आधार हैं- अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता। ~ विद्यानंद 'विदेह' | ||
* लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग | * लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग | ||
* दु:ख, सुख के साथ ही निरंतर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता | * दु:ख, सुख के साथ ही निरंतर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता | ||
* जो व्यक्ति मूर्ख के सामने विद्वान दिखने की कामना करते हैं, वे विद्वानों के सामने मूर्ख लगते हैं। ~ क्विन्टिलियन | * जो व्यक्ति मूर्ख के सामने विद्वान दिखने की कामना करते हैं, वे विद्वानों के सामने मूर्ख लगते हैं। ~ क्विन्टिलियन | ||
* विश्वास लाख हथौड़ी की चोट से भी नहीं टूटता। नीलकंठ के समान विष पान करके भी विश्वास सदा अजर अमर है। ~ अमृतलाल नागर | * विश्वास लाख हथौड़ी की चोट से भी नहीं टूटता। नीलकंठ के समान विष पान करके भी विश्वास सदा अजर अमर है। ~ अमृतलाल नागर | ||
* विपत्ति में प्रकृति बदल देना अच्छा है, पर अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा करना अच्छा नहीं। ~ अभिनंद | |||
* संवेदनशील बनो और निर्मल भी। प्रेमी बनो और पवित्र भी। ~ बायरन | |||
* दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हंसी हंसता है, वैसी ही हंसी, मस्ती बिखेरने वाली हंसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हंसी हंसता है, वैसी ही हंसी, मस्ती बिखेरने वाली हंसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | ||
* मनुष्य को सुख और दुख सहने के लिए बनाया गया है, किसी एक से मुंह मोड़ लेना कायरता है। ~ भगवतीचरण वर्मा | * मनुष्य को सुख और दुख सहने के लिए बनाया गया है, किसी एक से मुंह मोड़ लेना कायरता है। ~ भगवतीचरण वर्मा | ||
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* प्रकृति हर एक व्यक्ति को सभी उपहार नहीं प्रदान करती, वरन हर एक को वह कुछ-कुछ देती है और इस प्रकार सभी को मिलाकर वह समस्त उपहार देती है। ~ लाला हरदयाल | * प्रकृति हर एक व्यक्ति को सभी उपहार नहीं प्रदान करती, वरन हर एक को वह कुछ-कुछ देती है और इस प्रकार सभी को मिलाकर वह समस्त उपहार देती है। ~ लाला हरदयाल | ||
* समग्र विश्व एक ही परिवार है। वर्णभेद सब असत्य है। प्रेम बंधन अमूल्य है। ~ गुरजाडा अप्पाराव | * समग्र विश्व एक ही परिवार है। वर्णभेद सब असत्य है। प्रेम बंधन अमूल्य है। ~ गुरजाडा अप्पाराव | ||
* हम पवित्र विचार करें, पवित्र बोलें और पवित्र काम करें। ~ अवेस्ता | * हम पवित्र विचार करें, पवित्र बोलें और पवित्र काम करें। ~ अवेस्ता | ||
* प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता, तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त ही है। ~ हालसातवाहन | * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता, तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त ही है। ~ हालसातवाहन | ||
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* आपत्तियों से मूर्च्छित मनुष्य चुल्लू भर पानी से होश में आ जाता है। प्राणहीन मनुष्य पर हजारों घड़े पानी डालें तो भी क्या होगा? ~ मानु रामसिंह | * आपत्तियों से मूर्च्छित मनुष्य चुल्लू भर पानी से होश में आ जाता है। प्राणहीन मनुष्य पर हजारों घड़े पानी डालें तो भी क्या होगा? ~ मानु रामसिंह | ||
* संपत्ति जल के बुलबुले के समान होती है। वह विद्युत की भांति एकाएक उदय होती है और नष्ट हो जाती है। ~ दण्डी | * संपत्ति जल के बुलबुले के समान होती है। वह विद्युत की भांति एकाएक उदय होती है और नष्ट हो जाती है। ~ दण्डी | ||
* लोभ के कारण पाप होते हैं, रस के कारण रोग होते हैं और स्नेह के कारण दुख होते हैं। अत: लोभ, रस और स्नेह का त्याग करके सुखी हो जाओ। ~ नारायण स्वामी | * लोभ के कारण पाप होते हैं, रस के कारण रोग होते हैं और स्नेह के कारण दुख होते हैं। अत: लोभ, रस और स्नेह का त्याग करके सुखी हो जाओ। ~ नारायण स्वामी | ||
* सुधार आंतरिक होना चाहिए, बाह्य नहीं। तुम सद्गुणों के लिए नियम नहीं बना सकते। ~ गिबन | * सुधार आंतरिक होना चाहिए, बाह्य नहीं। तुम सद्गुणों के लिए नियम नहीं बना सकते। ~ गिबन | ||
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* समस्या का हल विधि नहीं करती, मनुष्य करता है। ~ एच. मैशके | * समस्या का हल विधि नहीं करती, मनुष्य करता है। ~ एच. मैशके | ||
* सभ्य जंगली सबसे बुरा जंगली होता है। ~ सी. जे. वेबर | * सभ्य जंगली सबसे बुरा जंगली होता है। ~ सी. जे. वेबर | ||
* शांति का सीधा संबंध हमारे हृदय से है, सहृदय होकर शांति की खोज करनी चाहिए। ~ चिदानंद सरस्वती | * शांति का सीधा संबंध हमारे हृदय से है, सहृदय होकर शांति की खोज करनी चाहिए। ~ चिदानंद सरस्वती | ||
* परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चन्द्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है। ~ सुप्रभाचार्य | * परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चन्द्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है। ~ सुप्रभाचार्य | ||
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* यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करे तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि क्षमा करना ही वीरों का काम है, परंतु यदि अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे अवश्य दंड दो। ~ गुरु गोविंद सिंह | * यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करे तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि क्षमा करना ही वीरों का काम है, परंतु यदि अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे अवश्य दंड दो। ~ गुरु गोविंद सिंह | ||
* लज्जा और संकोच होने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्धिमग्ग | * लज्जा और संकोच होने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्धिमग्ग | ||
* उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर काम में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जॉर्ज सांतायना | * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर काम में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जॉर्ज सांतायना | ||
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | ||
* | * जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद् | ||
* | * महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव | ||
* वाणी न होती तो धर्म-अधर्म का ज्ञान भी न होता। सत्य, असत्य, साधु, असाधु ये सब वाणी की वजह से ही हमें ज्ञात हैं। ~ छन्दोग्योपनिषद | |||
* | * मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी | ||
* | * ईंट-पत्थर के सब मंदिरों के ऊपर हृदय का मंदिर है। ~ साधु वासवानी | ||
* धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरु पर्वत के समान होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शांड़्धर-पद्धति | |||
* | * अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महद् धन है और विद्या, तप और कीर्ति अतिधन है। ~ भगदत्त जल्हण | ||
* | * वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो। वही जीवन है जो परसेवा में बीते। वही अर्जित है जिसका भोग स्वजन करें। ~ गरुड़पुराण | ||
* तू छोटा बन, बस छोटा बन। गागर में आएगा सागर। ~ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | |||
* गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता है। ~ अमोघवर्ष | |||
* नि:स्पृह मुनि शत्रुओं की उपेक्षा कर शांति से सफलता प्राप्त करते हैं, किंतु राजा नहीं। ~ भारवि | |||
* वही प्रशंसनीय है जो विपत्ति में अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। ~ प्रकाशवर्ष | * वही प्रशंसनीय है जो विपत्ति में अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। ~ प्रकाशवर्ष | ||
* श्रद्धा और सत्य के जोड़े से मनुष्य स्वर्ग लोक को भी जीत लेता है। ~ ऐतरेय ब्राह्माण | * श्रद्धा और सत्य के जोड़े से मनुष्य स्वर्ग लोक को भी जीत लेता है। ~ ऐतरेय ब्राह्माण | ||
* श्रम की पूजा करो। उसकी पूजा करनेवाला त्रिकाल में भी कभी निराश नहीं होता। ~ राम प्रताप त्रिपाठी | * श्रम की पूजा करो। उसकी पूजा करनेवाला त्रिकाल में भी कभी निराश नहीं होता। ~ राम प्रताप त्रिपाठी | ||
* यद्यपि सब कर्म देवाधीन है, तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल | * यद्यपि सब कर्म देवाधीन है, तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल | ||
* पूर्ण मनुष्य वही है जो पूर्ण होने पर और बड़ा होने पर भी नम्र रहता हो और सेवा में निमग्न रहता हो। ~ शब्सतरी | * पूर्ण मनुष्य वही है जो पूर्ण होने पर और बड़ा होने पर भी नम्र रहता हो और सेवा में निमग्न रहता हो। ~ शब्सतरी | ||
* सच्चे इंसान द्वारा किए गए कर्म न सिर्फ खुशबू देते हैं बल्कि दूसरो को खुश भी करते हैं। ~ विष्णु प्रभकर | * सच्चे इंसान द्वारा किए गए कर्म न सिर्फ खुशबू देते हैं बल्कि दूसरो को खुश भी करते हैं। ~ विष्णु प्रभकर | ||
* संयम का अर्थ घुट-घुटकर जीना नहीं है, स्वस्थ पवन की तरह बहना है। ~ रांगेय राघव | |||
* नूर फ़कीर जानै नहीं, जात बरन एक राम। तुव चरनन में आय के, मन मिल्यौ बिसराम।। ~ नूरूद्दीन | |||
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14:35, 25 जुलाई 2012 का अवतरण
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