"भारतीय विदेश सेवा": अवतरणों में अंतर
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प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष, सचिव स्तर का अधिकारी होता था। विदेश विभाग के सचिव को सरकार के विदेशी और आंतरिक राजनयिक संबंधों के बारे में हर प्रकार का पत्राचार करने का कार्य सौंपा गया। विदेश मंत्रालय के विदेशी और राजनैतिक प्रकार्यों के बीच शुरू से ही अंतर रखा गया। एशियाई शक्तियों<ref>ब्रिटिश राज के दौरान भारत के रजवाड़ों सहित</ref> के साथ संबंधों को राजनैतिक और सारी यूरोपीय शक्तियों के साथ संबंधों को विदेशी माना गया। हालाँकि 'भारत सरकार अधिनियम, 1935' में विदेश विभाग के विदेशी और राजनैतिक स्कन्धों के प्रकार्यों को काफ़ी स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया था, तथापि शीघ्र की यह महसूस किया गया कि विदेश विभाग को पूरी तरह दो भागों में बांटना प्रशासनिक रूप से अति आवश्यक था। तदनुसार गवर्नर-जनरल के सीधे प्रभार में पृथक विदेश विभाग का गठन किया गया। | प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष, सचिव स्तर का अधिकारी होता था। विदेश विभाग के सचिव को सरकार के विदेशी और आंतरिक राजनयिक संबंधों के बारे में हर प्रकार का पत्राचार करने का कार्य सौंपा गया। विदेश मंत्रालय के विदेशी और राजनैतिक प्रकार्यों के बीच शुरू से ही अंतर रखा गया। एशियाई शक्तियों<ref>ब्रिटिश राज के दौरान भारत के रजवाड़ों सहित</ref> के साथ संबंधों को राजनैतिक और सारी यूरोपीय शक्तियों के साथ संबंधों को विदेशी माना गया। हालाँकि 'भारत सरकार अधिनियम, 1935' में विदेश विभाग के विदेशी और राजनैतिक स्कन्धों के प्रकार्यों को काफ़ी स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया था, तथापि शीघ्र की यह महसूस किया गया कि विदेश विभाग को पूरी तरह दो भागों में बांटना प्रशासनिक रूप से अति आवश्यक था। तदनुसार गवर्नर-जनरल के सीधे प्रभार में पृथक विदेश विभाग का गठन किया गया। | ||
==पृथक राजनयिक सेवा== | ==पृथक राजनयिक सेवा== | ||
भारत सरकार के विदेश संबंधी क्रिया-कलापों को करने के लिए पृथक राजनयिक सेवा स्थापित करने का विचार मूलत: सरकार के योजना और विकास विभाग के सचिव लेफ़्टिनेंट जनरल टी. जे. हटन द्वारा [[30 सितम्बर]], [[1944]] को लिखित रूप में व्यक्त किया गया। इसमें टिप्पणियों के लिए विदेश विभाग को भेजे जाने पर ओलफ़ कैरो, विदेश सचिव ने प्रस्तावित सेवा के कार्य क्षेत्र, संघटन और प्रकार्यों का वर्णन करते हुए एक विस्तृत लेख में अपनी टिप्पणियाँ दर्ज कीं। कैरो ने यह उल्लेख किया कि क्योंकि [[भारत]] का स्वाधीनता और राष्ट्रीय संचेतना की अवस्थिति में अवतरण हुआ है, विदेश में प्रतिनिधित्व की एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करना अत्यावश्यक है, जो भावी सरकार के उद्देश्यों के अनुरूप हो। सितम्बर, [[1946]] में भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत सरकार ने विदेशों में भारत के राजनयिक, कौंसली और वाणिज्यिक प्रतिनिधित्व के लिए 'भारतीय विदेश सेवा' नामक एक सेवा के सृजन का निर्णय लिया। वर्ष [[1947]] में ब्रिटिश भारत सरकार के विदेश और राजनीतिक विभाग का लगभग पूर्ण रूप से 'विदेश और राष्ट्रमंडल संबंध' नामक नए मंत्रालय में रूपांतरण कर दिया गया। [[1948]] में 'संघ लोक सेवा आयोग' की संयुक्त 'सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली' के तहत नियुक्त प्रथम बैच ने अपनी सेवा शुरू कर दी। 'भारतीय विदेश सेवा' में प्रविष्टि की यह प्रणाली आज भी भर्ती का मुख्य माध्यम है। | भारत सरकार के विदेश संबंधी क्रिया-कलापों को करने के लिए पृथक राजनयिक सेवा स्थापित करने का विचार मूलत: सरकार के योजना और विकास विभाग के सचिव लेफ़्टिनेंट जनरल टी. जे. हटन द्वारा [[30 सितम्बर]], [[1944]] को लिखित रूप में व्यक्त किया गया। इसमें टिप्पणियों के लिए विदेश विभाग को भेजे जाने पर ओलफ़ कैरो, विदेश सचिव ने प्रस्तावित सेवा के कार्य क्षेत्र, संघटन और प्रकार्यों का वर्णन करते हुए एक विस्तृत लेख में अपनी टिप्पणियाँ दर्ज कीं। कैरो ने यह उल्लेख किया कि क्योंकि [[भारत]] का स्वाधीनता और राष्ट्रीय संचेतना की अवस्थिति में अवतरण हुआ है, विदेश में प्रतिनिधित्व की एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करना अत्यावश्यक है, जो भावी सरकार के उद्देश्यों के अनुरूप हो। सितम्बर, [[1946]] में भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत सरकार ने विदेशों में भारत के राजनयिक, कौंसली और वाणिज्यिक प्रतिनिधित्व के लिए 'भारतीय विदेश सेवा' नामक एक सेवा के सृजन का निर्णय लिया। वर्ष [[1947]] में ब्रिटिश भारत सरकार के विदेश और राजनीतिक विभाग का लगभग पूर्ण रूप से 'विदेश और राष्ट्रमंडल संबंध' नामक नए मंत्रालय में रूपांतरण कर दिया गया। [[1948]] में '[[संघ लोक सेवा आयोग]]' की संयुक्त 'सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली' के तहत नियुक्त प्रथम बैच ने अपनी सेवा शुरू कर दी। 'भारतीय विदेश सेवा' में प्रविष्टि की यह प्रणाली आज भी भर्ती का मुख्य माध्यम है। | ||
==प्रशिक्षण== | ==प्रशिक्षण== | ||
'संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा' के माध्यम से 'भारतीय विदेश सेवा' में चयन के उपरांत नव नियुक्तों को बहुमुखी और विस्तृत प्रशिक्षण दिया जाता है। इसका उद्देश्य उन्हें राजनयिक ज्ञान, राजनयिक गुण-विशेषताएँ और कौशल प्रदान करना है। परीवीक्षार्थी अन्य 'अखिल भारतीय सेवाओं' के अपने सहयोगियों के साथ 'लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन', [[मसूरी]] में अपना प्रशिक्षण आरंभ करते हैं। उसके पश्चात परीवीक्षार्थी [[नई दिल्ली]] में स्थित 'विदेश सेवा संस्थान' में उन विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, जिसकी जानकारी एक वृत्तिक राजनयिक को होनी चाहिए। विदेश सेवा संस्थान के पाठ्यक्रम में व्याख्यान, सरकार के विभिन्न स्कंधों के साथ कार्य में लगाना और देश के भीतर और विदेश दोनों में सुपरिचयन यात्राएँ शामिल हैं। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य राजनयिक रंगरूटों को [[इतिहास]] की बारीकियों, राजनय के ज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से अवगत कराना और सामान्य आर्थिक और राजनीतिक सिद्धांतों का ज्ञान कराना होता है। प्रशिक्षण कार्यक्रम के संपन्न होने पर अधिकारी को उसकी अनिवार्य विदेशी भाषा आबंटित की जाती है। विदेश मंत्रालय में डेस्क अटैचमेंट की अल्पावधि के उपरांत अधिकारी को ऐसे देश में स्थित भारतीय मिशन में नियुक्त किया जाता है, जहाँ उसे आबंटित अनिवार्य विदेशी भाषा उस देश की स्थानीय भाषा हो और उसका दाखिला भाषा पाठ्यक्रम में कराया जाता है। उस अधिकारी से अपेक्षा की जाती है कि वह आबंटित अनिवार्य विदेशी भाषा में दक्षता हासिल करेगा और सेवा में स्थायी होने से पूर्व आवश्यक परीक्षा उत्तीर्ण करेगा। | 'संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा' के माध्यम से 'भारतीय विदेश सेवा' में चयन के उपरांत नव नियुक्तों को बहुमुखी और विस्तृत प्रशिक्षण दिया जाता है। इसका उद्देश्य उन्हें राजनयिक ज्ञान, राजनयिक गुण-विशेषताएँ और कौशल प्रदान करना है। परीवीक्षार्थी अन्य 'अखिल भारतीय सेवाओं' के अपने सहयोगियों के साथ 'लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन', [[मसूरी]] में अपना प्रशिक्षण आरंभ करते हैं। उसके पश्चात परीवीक्षार्थी [[नई दिल्ली]] में स्थित 'विदेश सेवा संस्थान' में उन विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, जिसकी जानकारी एक वृत्तिक राजनयिक को होनी चाहिए। विदेश सेवा संस्थान के पाठ्यक्रम में व्याख्यान, सरकार के विभिन्न स्कंधों के साथ कार्य में लगाना और देश के भीतर और विदेश दोनों में सुपरिचयन यात्राएँ शामिल हैं। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य राजनयिक रंगरूटों को [[इतिहास]] की बारीकियों, राजनय के ज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से अवगत कराना और सामान्य आर्थिक और राजनीतिक सिद्धांतों का ज्ञान कराना होता है। प्रशिक्षण कार्यक्रम के संपन्न होने पर अधिकारी को उसकी अनिवार्य विदेशी भाषा आबंटित की जाती है। विदेश मंत्रालय में डेस्क अटैचमेंट की अल्पावधि के उपरांत अधिकारी को ऐसे देश में स्थित भारतीय मिशन में नियुक्त किया जाता है, जहाँ उसे आबंटित अनिवार्य विदेशी भाषा उस देश की स्थानीय भाषा हो और उसका दाखिला भाषा पाठ्यक्रम में कराया जाता है। उस अधिकारी से अपेक्षा की जाती है कि वह आबंटित अनिवार्य विदेशी भाषा में दक्षता हासिल करेगा और सेवा में स्थायी होने से पूर्व आवश्यक परीक्षा उत्तीर्ण करेगा। |
05:52, 14 दिसम्बर 2012 का अवतरण
भारतीय विदेश सेवा भारत सरकार की केंद्रीय सेवाओं का ही एक हिस्सा है। भारत के विदेश सचिव इस सेवा के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं। 'संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा' के माध्यम से भारतीय विदेश सेवा में चयन के उपरांत नव नियुक्तों को बहुमुखी और विस्तृत प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसका उद्देश्य उन्हें राजनयिक ज्ञान, राजनयिक गुण, विशेषताएँ और कौशल प्रदान करना होता है। राजनयिक के तौर पर नियुक्त विदेश सेवा अधिकारी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विभिन्न मुद्दों पर देश और विदेश दोनों में भारत के हितों को आगे रखेगा।
स्थापना
'भारतीय विदेश सेवा' की नींव ब्रिटिश शासन के दौरान उस समय रखी गई थी, जब विदेशी यूरोपीय शक्तियों के साथ कार्य संचालन के लिए 'विदेश विभाग' का सृजन किया गया।13 सितंबर, 1783 को ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशक मंडल ने फ़ोर्ट विलियम, कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में एक ऐसे विभाग के निर्माण हेतु संकल्प पारित किया, जो वारेन हेस्टिंग्स प्रशासन पर अपने गुप्त और राजनैतिक कार्य संचालन पर पड़ रहे दबाव को कम करने में सहायक हो सके। इसके बाद 'भारतीय विदेश विभाग' नामक इस विभाग ने ब्रिटिश हितों की रक्षा हेतु, जहाँ आवश्यक हुआ राजनयिक प्रतिनिधित्व का विस्तार किया। 1843 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड एलनबरो ने प्रशासनिक सुधार किया, जिसके तहत सरकार के सचिवालय को निम्न चार विभागों में बाँटा गया-
- विदेश विभाग
- गृह विभाग
- वित्त विभाग
- सैन्य विभाग
विदेश विभाग का गठन
प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष, सचिव स्तर का अधिकारी होता था। विदेश विभाग के सचिव को सरकार के विदेशी और आंतरिक राजनयिक संबंधों के बारे में हर प्रकार का पत्राचार करने का कार्य सौंपा गया। विदेश मंत्रालय के विदेशी और राजनैतिक प्रकार्यों के बीच शुरू से ही अंतर रखा गया। एशियाई शक्तियों[1] के साथ संबंधों को राजनैतिक और सारी यूरोपीय शक्तियों के साथ संबंधों को विदेशी माना गया। हालाँकि 'भारत सरकार अधिनियम, 1935' में विदेश विभाग के विदेशी और राजनैतिक स्कन्धों के प्रकार्यों को काफ़ी स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया था, तथापि शीघ्र की यह महसूस किया गया कि विदेश विभाग को पूरी तरह दो भागों में बांटना प्रशासनिक रूप से अति आवश्यक था। तदनुसार गवर्नर-जनरल के सीधे प्रभार में पृथक विदेश विभाग का गठन किया गया।
पृथक राजनयिक सेवा
भारत सरकार के विदेश संबंधी क्रिया-कलापों को करने के लिए पृथक राजनयिक सेवा स्थापित करने का विचार मूलत: सरकार के योजना और विकास विभाग के सचिव लेफ़्टिनेंट जनरल टी. जे. हटन द्वारा 30 सितम्बर, 1944 को लिखित रूप में व्यक्त किया गया। इसमें टिप्पणियों के लिए विदेश विभाग को भेजे जाने पर ओलफ़ कैरो, विदेश सचिव ने प्रस्तावित सेवा के कार्य क्षेत्र, संघटन और प्रकार्यों का वर्णन करते हुए एक विस्तृत लेख में अपनी टिप्पणियाँ दर्ज कीं। कैरो ने यह उल्लेख किया कि क्योंकि भारत का स्वाधीनता और राष्ट्रीय संचेतना की अवस्थिति में अवतरण हुआ है, विदेश में प्रतिनिधित्व की एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करना अत्यावश्यक है, जो भावी सरकार के उद्देश्यों के अनुरूप हो। सितम्बर, 1946 में भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत सरकार ने विदेशों में भारत के राजनयिक, कौंसली और वाणिज्यिक प्रतिनिधित्व के लिए 'भारतीय विदेश सेवा' नामक एक सेवा के सृजन का निर्णय लिया। वर्ष 1947 में ब्रिटिश भारत सरकार के विदेश और राजनीतिक विभाग का लगभग पूर्ण रूप से 'विदेश और राष्ट्रमंडल संबंध' नामक नए मंत्रालय में रूपांतरण कर दिया गया। 1948 में 'संघ लोक सेवा आयोग' की संयुक्त 'सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली' के तहत नियुक्त प्रथम बैच ने अपनी सेवा शुरू कर दी। 'भारतीय विदेश सेवा' में प्रविष्टि की यह प्रणाली आज भी भर्ती का मुख्य माध्यम है।
प्रशिक्षण
'संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा' के माध्यम से 'भारतीय विदेश सेवा' में चयन के उपरांत नव नियुक्तों को बहुमुखी और विस्तृत प्रशिक्षण दिया जाता है। इसका उद्देश्य उन्हें राजनयिक ज्ञान, राजनयिक गुण-विशेषताएँ और कौशल प्रदान करना है। परीवीक्षार्थी अन्य 'अखिल भारतीय सेवाओं' के अपने सहयोगियों के साथ 'लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन', मसूरी में अपना प्रशिक्षण आरंभ करते हैं। उसके पश्चात परीवीक्षार्थी नई दिल्ली में स्थित 'विदेश सेवा संस्थान' में उन विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, जिसकी जानकारी एक वृत्तिक राजनयिक को होनी चाहिए। विदेश सेवा संस्थान के पाठ्यक्रम में व्याख्यान, सरकार के विभिन्न स्कंधों के साथ कार्य में लगाना और देश के भीतर और विदेश दोनों में सुपरिचयन यात्राएँ शामिल हैं। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य राजनयिक रंगरूटों को इतिहास की बारीकियों, राजनय के ज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से अवगत कराना और सामान्य आर्थिक और राजनीतिक सिद्धांतों का ज्ञान कराना होता है। प्रशिक्षण कार्यक्रम के संपन्न होने पर अधिकारी को उसकी अनिवार्य विदेशी भाषा आबंटित की जाती है। विदेश मंत्रालय में डेस्क अटैचमेंट की अल्पावधि के उपरांत अधिकारी को ऐसे देश में स्थित भारतीय मिशन में नियुक्त किया जाता है, जहाँ उसे आबंटित अनिवार्य विदेशी भाषा उस देश की स्थानीय भाषा हो और उसका दाखिला भाषा पाठ्यक्रम में कराया जाता है। उस अधिकारी से अपेक्षा की जाती है कि वह आबंटित अनिवार्य विदेशी भाषा में दक्षता हासिल करेगा और सेवा में स्थायी होने से पूर्व आवश्यक परीक्षा उत्तीर्ण करेगा।
कार्य
वृत्तिक राजनयिक के तौर पर विदेश सेवा अधिकारी से यह आशा की जाती है कि वह विभिन्न मुद्दों पर देश-विदेश दोनों में भारत के हितों का ध्यान रखेगा और इसे आगे बढ़ायेगा। इनमें द्विपक्षीय राजनैतिक और आर्थिक सहयोग, व्यापार और निवेश संवर्द्धन, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, प्रेस और मीडिया संपर्क तथा सभी बहुपक्षीय मुद्दे शामिल हैं। भारतीय राजनयिक के प्रकार्य संक्षिप्त रूप से निम्नलिखित हैं-
- अपने दूतावासों, उच्चायोगों, कौंसलावासों और संयुक्त राष्ट्र जैसे बहुपक्षीय संगठनों के स्थायी मिशनों में भारत का प्रतिनिधित्व करना।
- नियुक्त किये जाने वाले देश में भारत के राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा करना।
- अनिवासी भारतीयों और भारतीय मूल के व्यक्तियों सहित मेज़बान राष्ट्र और उसकी जनता के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखना।
- विदेश में उन घटनाक्रमों की सही-सही जानकारी देना, जो भारत के नीति-निर्माण को प्रभावित कर सकते हैं।
- मेज़बान राष्ट्र के प्राधिकारियों के साथ विभिन्न मुद्दों पर समझौता-वार्ता करना।
- विदेश स्थित भारतीय राष्ट्रकों और विदेशियों को कौंसली सुविधाएँ प्रदाना करना।
देश के भीतर विदेश मंत्रालय, विदेशों के साथ संबंधों से जुड़े सभी पहलुओं के लिए उत्तरदायी है। क्षेत्रीय प्रभाग, द्विपक्षीय राजनैतिक और आर्थिक कार्य देखते हैं, जबकि क्रियात्मक प्रभाग नीति नियोजना, बहुपक्षीय संगठनों, क्षेत्रीय दलों, विधिक मामलों, निशस्त्रीकरण, नयाचार, कौंसली, भारतीय डायसपोरा, प्रेस और प्रचार, प्रशासन और अन्य कार्यों को देखते हैं।
भविष्य की संभावनाएँ
विदेश सेवा अधिकारी विदेश में अपनी सेवा तृतीय सचिव के तौर पर आरंभ करता है और सेवा में स्थायी होते ही द्वितीय सचिव के पद पर प्रोन्नत कर दिया जाता है। इसके बाद होने वाली प्रोन्नतियाँ प्रथम सचिव, कांउसलर, मंत्रि और राजदूत, उच्चायुक्त, या स्थायी प्रतिनिधि के स्तर की होती हैं। अधिकारियों को विदेश स्थित भारतीय कौंसलावासों में भी नियुक्त किया जा सकता है, जहाँ बढ़ता हुआ पद क्रम उप-कौंसुल, कौंसुल और प्रधान कौंसुल का होता है। विदेश मंत्रालय में पद क्रम की छ: अवस्थाएँ होती हैं-
- अवर सचिव
- उप सचिव
- निदेशक
- संयुक्त सचिव
- अपर सचिव
- सचिव
अधिकारी
'भारतीय विदेश सेवा में' प्रतिवर्ष औसतन 8 से 15 अधिकारी नियुक्त किए गए हैं। इस सेवा संवर्ग में इस समय 600 अधिकारी हैं, जो लगभग 162 भारतीय मिशनों और विदेशों में स्थित पदों तथा देश में स्थित मंत्रालय में विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रिटिश राज के दौरान भारत के रजवाड़ों सहित
बाहरी कड़ियाँ
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