"गजानन माधव 'मुक्तिबोध'": अवतरणों में अंतर
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गजानन माधव 'मुक्तिबोध' ([[अंग्रेज़ी]]:''Gajanan Madhav Muktibodh'', जन्म: 13 नवंबर 1917 - मृत्यु: 11 सितंबर 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है। मुक्तिबोध [[हिन्दी साहित्य]] की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है। | |||
गजानन माधव मुक्तिबोध (जन्म | |||
==जन्म और शिक्षा== | ==जन्म और शिक्षा== | ||
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म [[13 नवंबर]], [[1917]] को श्यौपुर ([[ग्वालियर]]) में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा [[उज्जैन]] में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। [[इन्दौर]] के होल्कर से सन् [[1938]] में बी. ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए।<ref name="sbd">{{cite web |url=http://www.hindikunj.com/2009/01/blog-post_28.html |title=हिन्दीकुंज |accessmonthday=[[12 नवंबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा। | गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म [[13 नवंबर]], [[1917]] को श्यौपुर ([[ग्वालियर]]) में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा [[उज्जैन]] में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। [[इन्दौर]] के होल्कर से सन् [[1938]] में बी. ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए।<ref name="sbd">{{cite web |url=http://www.hindikunj.com/2009/01/blog-post_28.html |title=हिन्दीकुंज |accessmonthday=[[12 नवंबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा। | ||
==परिवार== | ==परिवार== | ||
इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह उर्दू बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ [[बुन्देलखण्ड]] की | इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह [[उर्दू]] बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ [[बुन्देलखण्ड]] की थीं, ईसागढ़ के एक किसान परिवार की। गजानन चार भाई हैं। इनसे छोटे शरतचन्द्र मराठी के प्रतिष्ठित कवि हैं। | ||
==आजीविका== | ==आजीविका== | ||
मुक्तिबोध जी ने छोटी आयु में | मुक्तिबोध जी ने छोटी आयु में बडनगर के मिडिल स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। सन् [[1940]] में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए। इसके बाद [[उज्जैन]], [[कलकत्ता]], [[इंदौर]], [[बम्बई]], [[बंगलौर]], [[बनारस]] तथा [[जबलपुर]] आदि जगहों पर नौकरियाँ की। सन् [[1942]] के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो यह शीराज़ा बिखर गया। डॉ. जोशी बम्बई चले गये। नेमिचन्द्र जैन को भारतभूषण अग्रवाल, उनके मित्र और आप्त ने कलकत्ते बुला लिया-'समाज-सुधारक' के सम्पादन के लिए। मुक्तिबोध उज्जैन चले गये। भिन्न-भिन्न नौकरियाँ- मास्टरी से वायुसेना, [[पत्रकारिता]] से पार्टी तक। नागपुर [[1948]] में आये। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं 'नया ख़ून' में काम किया। अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी। अंतत: [[1958]] से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव में प्राध्यापक हुए। उन्होंने लिखा है कि:- | ||
[[कलकत्ता]], [[इंदौर]], [[बम्बई]], [[बंगलौर]], [[बनारस]] तथा [[जबलपुर]] आदि जगहों पर नौकरियाँ की। सन् [[1942]] के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो यह शीराज़ा बिखर गया। डॉ. जोशी बम्बई चले गये। नेमिचन्द्र जैन को भारतभूषण अग्रवाल, उनके मित्र और आप्त ने कलकत्ते बुला लिया-'समाज-सुधारक' के सम्पादन के लिए। मुक्तिबोध उज्जैन चले गये। भिन्न-भिन्न नौकरियाँ- मास्टरी से वायुसेना, [[पत्रकारिता]] से पार्टी तक। नागपुर [[1948]] में आये। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं 'नया ख़ून' में काम किया। अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी। अंतत: [[1958]] से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव में प्राध्यापक हुए। उन्होंने लिखा है कि:- | |||
<poem>नौकरिया पकड़ता और छोड़ता रहा। | <poem>नौकरिया पकड़ता और छोड़ता रहा। | ||
शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और गैर सरकारी नौकरिया। | शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और गैर सरकारी नौकरिया। | ||
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==सहपाठी मित्र== | ==सहपाठी मित्र== | ||
गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी कल्पना के कवि वीरेन्द्रकुमार जैन थे; और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर 'कर्मवीर' में सहकारी सम्पादक, और उस समय के एक अच्छे, योग्य कवि। कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल 'हृदय' ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था। 'कर्मवीर' में उन की कविताएँ छप रही थीं। माखनलाल और महादेवी की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए नहीं रहते थे। | गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी कल्पना के कवि वीरेन्द्रकुमार जैन थे; और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर 'कर्मवीर' में सहकारी सम्पादक, और उस समय के एक अच्छे, योग्य कवि। कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल 'हृदय' ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था। 'कर्मवीर' में उन की कविताएँ छप रही थीं। माखनलाल और महादेवी की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए नहीं रहते थे। | ||
==विवाह== | ==विवाह== | ||
पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद [[1939]] में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया। | पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद [[1939]] में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया। | ||
==सम्पादन== | ==पत्रिका सम्पादन== | ||
[[आगरा]] से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे। प्रभाकर माचवे भी अक्सर आ जाते। 'तार-सप्तक' की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् [[1943]] में अज्ञेय के सम्पादन में 'तार-सप्तक' का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध की कविताओं से होती है। उज्जैन से सन् 1945 के लगभग मुक्तिबोध बनारस गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ 'हंस' के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था। उनका काशी प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् [[1946]]-[[1947]] में जबलपुर चले गये। वहाँ हितकारिणी हाई स्कूल में वह अध्यापक हो गये। और फिर [[नागपुर]] जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। 'नया ख़ून' साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक 'जय-हिन्द' में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते। | [[आगरा]] से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे। प्रभाकर माचवे भी अक्सर आ जाते। 'तार-सप्तक' की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् [[1943]] में अज्ञेय के सम्पादन में 'तार-सप्तक' का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध की कविताओं से होती है। उज्जैन से सन् 1945 के लगभग मुक्तिबोध [[बनारस]] गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ 'हंस' के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था। उनका काशी प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् [[1946]]-[[1947]] में [[जबलपुर]] चले गये। वहाँ हितकारिणी हाई स्कूल में वह अध्यापक हो गये। और फिर [[नागपुर]] जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। 'नया ख़ून' साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक 'जय-हिन्द' में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते। | ||
====तार-सप्तक==== | ====तार-सप्तक==== | ||
शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो हिन्दी को दी वह 'तार-सप्तक' है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम 'तार-सप्तक' प्रभाकर माचवे का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। अज्ञेय जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया। नेमि और भारत जब कलकत्ते में थे, योजना ने अन्तिम रूप ले लिया। अज्ञेय भी ने डॉ. रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के नाम सुझाये। सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में परिवर्तन अनिवार्य था। '43 में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ, उसने एक लम्बे विवाद को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब भी जारी है। उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था। दुरूह होते हुए बौद्धिक, बौद्धिक होते हुए भी रोमानी। | शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो [[हिन्दी]] को दी वह 'तार-सप्तक' है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम 'तार-सप्तक' प्रभाकर माचवे का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। [[अज्ञेय]] जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया। नेमि और भारत जब कलकत्ते में थे, योजना ने अन्तिम रूप ले लिया। अज्ञेय भी ने डॉ. रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के नाम सुझाये। सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में परिवर्तन अनिवार्य था। '43 में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ, उसने एक लम्बे विवाद को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब भी जारी है। उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था। दुरूह होते हुए बौद्धिक, बौद्धिक होते हुए भी रोमानी। | ||
==लेखक संघ== | ==लेखक संघ== | ||
उज्जैन में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। इसकी विशिष्ट सभाओं में भाग लेने के लिए वह बाहर से [[रामविलास शर्मा|डॉ. रामविलास शर्मा]], [[अमृतराय]] आदि साहित्यिक विचारकों को बुलाते थे। उन्होंने सन् 1944 के अन्त में [[इन्दौर]] में फ़ासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया, जो राहुल जी की अध्यक्षता में हुई। लेखकों के दायित्व पर मुक्तिबोध ने स्वयं भी एक निबन्ध उस पर पढ़ा था। मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभावों का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें आगे लाते। हरिनारायण व्यास, श्याम परमार, जगदीश वोरा आदि उन के प्रभाव में थे। मुक्तिबोध ने मजदूरों से वास्तविक सम्पर्क स्थापित किया और उनसे घुलमिल कर रहे। अक्सर कष्ट में पड़े साथियों और साहित्यिक बन्धुओं के लिए दौड़-धूप करते। मसलन 'नटवर' जी के लिए उन की दौड़-धूप की, बात चलती है तो, लोग याद करते हैं। | |||
==प्रगतिशील कवि== | |||
मुक्तिबोध मूलत: कवि हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व से ही नि:सृत और परिभाषित है। वही उसकी शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के कठमुल्लेपन को उभार कर सामने रखा, दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना दृष्टि का पैनापन और मौलिकता असन्दिग्ध है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है। [[जयशंकर प्रसाद]], शमशेर, कुँवरनारायण जैसे कवियों की उन्होंने जो आलोचना की है, उसमें पर्याप्त विचारोत्तेजकता है और विरोधी दृष्टि रखने वाले भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। काव्य की सृजन प्रक्रिया पर उनका निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। ख़ासकर फैण्टेसी का जैसा विवेचन उन्होंने किया है, वह अत्यन्त गहन और तात्विक है। | |||
उन्होंने नयी कविता का अपना शास्त्र ही गढ़ डाला है। पर वे निरे शास्त्रीय आलोचक नहीं हैं। उनकी कविता की ही तरह उनकी आलोचना में भी वही चरमता है, ईमान और अनुभव की वही पारदर्शिता, जो प्रथम श्रेणी के लेखकों में पाई जाती है। उन्होंने अपनी आलोचना द्वारा ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया है, जिन पर साधारणत: ध्यान नहीं दिया जाता रहा। 'जड़ीभूत सौन्दर्याभरुचि' तथा 'व्यक्ति के अन्त:करण के संस्कार में उसके परिवार का योगदान' उदाहरण के रूप में गिनाए जा सकते हैं। | |||
====अभिरुचि==== | |||
*अध्ययन-अध्यापन | |||
*लेखन-पत्रकारिता-राजनीति की नियमित-अनियमित व्यस्तता के बीच। | |||
==कृतियाँ== | ==कृतियाँ== | ||
सन् [[1954]] में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया, जिसके फलस्वरूप [[राजनाँदगाँव]] के दिग्विजय कॉलेज में नियुक्त हुए। उनकी कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कविताएँ यहीं लिखी गईं। उनकी कृतियों के नाम इस प्रकार है:- | सन् [[1954]] में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया, जिसके फलस्वरूप [[राजनाँदगाँव]] के दिग्विजय कॉलेज में नियुक्त हुए। उनकी कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कविताएँ यहीं लिखी गईं। उनकी कृतियों के नाम इस प्रकार है:- | ||
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*'काठ का सपना' (कहानी संग्रह [[1966]])। | *'काठ का सपना' (कहानी संग्रह [[1966]])। | ||
इनके अलावा अनेक गद्य और पद्य रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं। | इनके अलावा अनेक गद्य और पद्य रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं। | ||
==प्रकाशित पुस्तकें== | ==प्रकाशित पुस्तकें== | ||
====काव्य==== | |||
*चाँद का मुँह टेढ़ा है, | *चाँद का मुँह टेढ़ा है, | ||
*भूरी भूरी खाक धूल। | *भूरी भूरी खाक धूल। | ||
====आलोचना-साहित्य==== | |||
*कामायनी: एक पुनर्विचार | *कामायनी: एक पुनर्विचार | ||
*भारत: इतिहास और संस्कृति | *भारत: इतिहास और संस्कृति | ||
*नई कविता का आत्म संघर्ष तथा अन्य निबंध | *नई कविता का आत्म संघर्ष तथा अन्य निबंध | ||
*एक साहित्यिक की डायरी | *एक साहित्यिक की डायरी | ||
*समीक्षा की समस्याएँ | *समीक्षा की समस्याएँ | ||
*नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, जिसका नया संस्करण अब कुछ परिवर्तित रूप में 'आखिर रचना क्यों?' नाम से प्रकाशित हुआ। | *नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, जिसका नया संस्करण अब कुछ परिवर्तित रूप में 'आखिर रचना क्यों?' नाम से प्रकाशित हुआ। | ||
====कथा-साहित्य==== | |||
*काठ का सपना | *काठ का सपना | ||
*विपात्र | *विपात्र | ||
*सतह से उठता आदमी। | *सतह से उठता आदमी। | ||
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एक लम्बी बीमारी के बाद [[11 सितम्बर]], [[1964]] को नयी दिल्ली में मुक्तिबोध जी की मृत्यु हो गयी। | एक लम्बी बीमारी के बाद [[11 सितम्बर]], [[1964]] को [[नयी दिल्ली]] में मुक्तिबोध जी की मृत्यु हो गयी। | ||
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गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
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पूरा नाम | गजानन माधव मुक्तिबोध |
अन्य नाम | मुक्तिबोध |
जन्म | 13 नवंबर 1917 |
जन्म भूमि | श्यौपुर (ग्वालियर) |
मृत्यु | 11 सितंबर 1964 |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
पति/पत्नी | श्रीमती शांता मुक्तिबोध |
कर्म-क्षेत्र | आधुनिक कविता |
मुख्य रचनाएँ | चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी ख़ाक धूल, 'कामायनी:पुनर्विचार' |
भाषा | हिन्दी |
प्रसिद्धि | प्रगति शील कवि |
विशेष योगदान | आधुनिक कविता |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (अंग्रेज़ी:Gajanan Madhav Muktibodh, जन्म: 13 नवंबर 1917 - मृत्यु: 11 सितंबर 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है। मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।
जन्म और शिक्षा
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म 13 नवंबर, 1917 को श्यौपुर (ग्वालियर) में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। इन्दौर के होल्कर से सन् 1938 में बी. ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए।[1] इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा।
परिवार
इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह उर्दू बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ बुन्देलखण्ड की थीं, ईसागढ़ के एक किसान परिवार की। गजानन चार भाई हैं। इनसे छोटे शरतचन्द्र मराठी के प्रतिष्ठित कवि हैं।
आजीविका
मुक्तिबोध जी ने छोटी आयु में बडनगर के मिडिल स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। सन् 1940 में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए। इसके बाद उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि जगहों पर नौकरियाँ की। सन् 1942 के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो यह शीराज़ा बिखर गया। डॉ. जोशी बम्बई चले गये। नेमिचन्द्र जैन को भारतभूषण अग्रवाल, उनके मित्र और आप्त ने कलकत्ते बुला लिया-'समाज-सुधारक' के सम्पादन के लिए। मुक्तिबोध उज्जैन चले गये। भिन्न-भिन्न नौकरियाँ- मास्टरी से वायुसेना, पत्रकारिता से पार्टी तक। नागपुर 1948 में आये। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं 'नया ख़ून' में काम किया। अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी। अंतत: 1958 से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव में प्राध्यापक हुए। उन्होंने लिखा है कि:-
नौकरिया पकड़ता और छोड़ता रहा।
शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और गैर सरकारी नौकरिया।
निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।
सहपाठी मित्र
गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी कल्पना के कवि वीरेन्द्रकुमार जैन थे; और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर 'कर्मवीर' में सहकारी सम्पादक, और उस समय के एक अच्छे, योग्य कवि। कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल 'हृदय' ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था। 'कर्मवीर' में उन की कविताएँ छप रही थीं। माखनलाल और महादेवी की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए नहीं रहते थे।
विवाह
पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद 1939 में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया।
पत्रिका सम्पादन
आगरा से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे। प्रभाकर माचवे भी अक्सर आ जाते। 'तार-सप्तक' की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् 1943 में अज्ञेय के सम्पादन में 'तार-सप्तक' का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध की कविताओं से होती है। उज्जैन से सन् 1945 के लगभग मुक्तिबोध बनारस गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ 'हंस' के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था। उनका काशी प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् 1946-1947 में जबलपुर चले गये। वहाँ हितकारिणी हाई स्कूल में वह अध्यापक हो गये। और फिर नागपुर जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। 'नया ख़ून' साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक 'जय-हिन्द' में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते।
तार-सप्तक
शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो हिन्दी को दी वह 'तार-सप्तक' है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम 'तार-सप्तक' प्रभाकर माचवे का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। अज्ञेय जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया। नेमि और भारत जब कलकत्ते में थे, योजना ने अन्तिम रूप ले लिया। अज्ञेय भी ने डॉ. रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के नाम सुझाये। सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में परिवर्तन अनिवार्य था। '43 में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ, उसने एक लम्बे विवाद को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब भी जारी है। उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था। दुरूह होते हुए बौद्धिक, बौद्धिक होते हुए भी रोमानी।
लेखक संघ
उज्जैन में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। इसकी विशिष्ट सभाओं में भाग लेने के लिए वह बाहर से डॉ. रामविलास शर्मा, अमृतराय आदि साहित्यिक विचारकों को बुलाते थे। उन्होंने सन् 1944 के अन्त में इन्दौर में फ़ासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया, जो राहुल जी की अध्यक्षता में हुई। लेखकों के दायित्व पर मुक्तिबोध ने स्वयं भी एक निबन्ध उस पर पढ़ा था। मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभावों का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें आगे लाते। हरिनारायण व्यास, श्याम परमार, जगदीश वोरा आदि उन के प्रभाव में थे। मुक्तिबोध ने मजदूरों से वास्तविक सम्पर्क स्थापित किया और उनसे घुलमिल कर रहे। अक्सर कष्ट में पड़े साथियों और साहित्यिक बन्धुओं के लिए दौड़-धूप करते। मसलन 'नटवर' जी के लिए उन की दौड़-धूप की, बात चलती है तो, लोग याद करते हैं।
प्रगतिशील कवि
मुक्तिबोध मूलत: कवि हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व से ही नि:सृत और परिभाषित है। वही उसकी शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के कठमुल्लेपन को उभार कर सामने रखा, दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना दृष्टि का पैनापन और मौलिकता असन्दिग्ध है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है। जयशंकर प्रसाद, शमशेर, कुँवरनारायण जैसे कवियों की उन्होंने जो आलोचना की है, उसमें पर्याप्त विचारोत्तेजकता है और विरोधी दृष्टि रखने वाले भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। काव्य की सृजन प्रक्रिया पर उनका निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। ख़ासकर फैण्टेसी का जैसा विवेचन उन्होंने किया है, वह अत्यन्त गहन और तात्विक है।
उन्होंने नयी कविता का अपना शास्त्र ही गढ़ डाला है। पर वे निरे शास्त्रीय आलोचक नहीं हैं। उनकी कविता की ही तरह उनकी आलोचना में भी वही चरमता है, ईमान और अनुभव की वही पारदर्शिता, जो प्रथम श्रेणी के लेखकों में पाई जाती है। उन्होंने अपनी आलोचना द्वारा ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया है, जिन पर साधारणत: ध्यान नहीं दिया जाता रहा। 'जड़ीभूत सौन्दर्याभरुचि' तथा 'व्यक्ति के अन्त:करण के संस्कार में उसके परिवार का योगदान' उदाहरण के रूप में गिनाए जा सकते हैं।
अभिरुचि
- अध्ययन-अध्यापन
- लेखन-पत्रकारिता-राजनीति की नियमित-अनियमित व्यस्तता के बीच।
कृतियाँ
सन् 1954 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया, जिसके फलस्वरूप राजनाँदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में नियुक्त हुए। उनकी कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कविताएँ यहीं लिखी गईं। उनकी कृतियों के नाम इस प्रकार है:-
- 'चाँद का मुँह टेढ़ा है'- कविता संग्रह: 1964,
- 'एक साहित्यिक की डायरी'- 1965 'वसुधा' में धारावाहिक रूप से छपी थी,
- 'कामायनी:पुनर्विचार' (आलोचना: 1952),
- 'नयी कविता का आत्म-संघर्ष तथा अन्य निबन्ध' (1968),
- 'काठ का सपना' (कहानी संग्रह 1966)।
इनके अलावा अनेक गद्य और पद्य रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं।
प्रकाशित पुस्तकें
काव्य
- चाँद का मुँह टेढ़ा है,
- भूरी भूरी खाक धूल।
आलोचना-साहित्य
- कामायनी: एक पुनर्विचार
- भारत: इतिहास और संस्कृति
- नई कविता का आत्म संघर्ष तथा अन्य निबंध
- एक साहित्यिक की डायरी
- समीक्षा की समस्याएँ
- नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, जिसका नया संस्करण अब कुछ परिवर्तित रूप में 'आखिर रचना क्यों?' नाम से प्रकाशित हुआ।
कथा-साहित्य
- काठ का सपना
- विपात्र
- सतह से उठता आदमी।
निधन
एक लम्बी बीमारी के बाद 11 सितम्बर, 1964 को नयी दिल्ली में मुक्तिबोध जी की मृत्यु हो गयी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दीकुंज (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 12 नवंबर, 2010।
बाहरी कड़ियाँ
- चांद का मुँह टेढ़ा है (कविता) / गजानन माधव मुक्तिबोध
- विपात्र / गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
- नाश देवता - गजानन माधव "मुक्तिबोध"
- गजानन माधव मुक्तिबोध-कविता
- अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
- गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता
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