"अँधेरे बंद कमरे -मोहन राकेश": अवतरणों में अंतर

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'''अँधेरे बंद कमरे''' प्रसिद्ध साहित्यकार, उपन्यासकार और नाटककार [[मोहन राकेश]] द्वारा रचित उपन्यास है। इसका प्रकाशन [[1 जनवरी]], [[2003]] को 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा हुआ था।


'''अँधेरे बंद कमरे''' प्रसिद्ध साहित्यकार और नाटककार [[मोहन राकेश]] द्वारा रचित उपन्यास है। इसका प्रकाशन [[1 जनवरी]], [[2003]] को 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा हुआ था।
वर्तमान भारतीय समाज का अभिजातवर्गीय नागर मन दो हिस्सों में विभाजित है- एक में है पश्चिमी आधुनिकतावाद और दूसरे में वंशानुगत संस्कारवाद। इससे इस वर्ग के भीतर जो द्वंद्व पैदा होता है, उससे पूर्वता के बीच रिक्तता, स्वच्छंदता के बीच अवरोध और प्रकाश के बीच अंधकार आ खड़ा होता है। परिणामतः व्यक्ति ऊबने लगता है, भीतर-ही-भीतर क्रोध, ईर्ष्या और संदेह जकड़ लेते हैं उसे, जैसे वह अपने ही लिए अजनबी हो। वह उठता है, और तब इसे हम हरबंस की शक्ल में पहचानते हैं। हरबंस इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है, जो दाम्पत्य संबंधों की तलाश में भटक रहा है। हरबंस और नीलिमा के माध्यम से पारस्परिक ईमानदारी, भावनात्मक लगाव और मानसिक समदृष्टि से रिक्त दांपत्य जीवन का यहाँ प्रभावशाली चित्रण हुआ है। अपनी पहचान के लिए पहचानहीन होते जा रहे भारतीय अभिजातवर्ग की भौतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक महत्त्वाकांक्षाओं के अँधेरे बंद, कमरों को खोलने वाला यह उपन्यास [[हिन्दी]] की गिनी-चुनी कथाकृतियों में से एक है।
 
वर्तमान भारतीय समाज का अभिजातवर्गीय नागर मन दो हिस्सों में विभाजित है- एक में है पश्चिमी आधुनिकतावाद और दूसरे में वंशानुगत संस्कारवाद। इससे इस वर्ग के भीतर जो द्वंद्व पैदा होता है, उससे पूर्वता के बीच रिक्तता, स्वच्छंदता के बीच अवरोध और प्रकाश के बीच अंधकार आ खड़ा होता है। परिणामतः व्यक्ति ऊबने लगता है, भीतर-ही-भीतर क्रोध, ईर्ष्या और संदेह जकड़ लेते हैं उसे, जैसे वह अपने ही लिए अजनबी हो। वह उठता है, और तब इसे हम हरबंस की शक्ल में पहचानते हैं। हरबंस, इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है, जो दाम्पत्य संबंधों की तलाश में भटक रहा है। हरबंस और नीलिमा के माध्यम से पारस्परिक ईमानदारी, भावनात्मक लगाव और मानसिक समदृष्टि से रिक्त दांपत्य जीवन का यहाँ प्रभावशाली चित्रण हुआ है। अपनी पहचान के लिए पहचानहीन होते जा रहे भारतीय अभिजातवर्ग की भौतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक महत्त्वाकांक्षाओं के अँधेरे बंद, कमरों को खोलनेवाले यह उपन्यास हिंदी की गिनी-चुनी कथाकृतियों में से एक है।
==कथासार==
==कथासार==
मधुसुदन एक पत्रकार है, जो [[दिल्ली]] आकर कस्‍साबपुरा में एक ठकुराइन के यहां बसता है। कस्‍साबपुरा में निम्‍न समाजिक स्थिति के लोग रहते है। मधुसूदन और ठकुराइन के बीच रस रंग की बाते भी होती रहती है। मधुसुदन उस गंदे और घुटनभरे वातावरण से निकलकर कनाट प्‍लेस की चहल पहल में रहना चाहता है। एक दिन अचानक उसकी भेंट हरबंस से हो जाती है, जिससे उनका परिचय [[बम्बई]] में हुआ था। सूदन का परिचय, हरदल की पत्‍नी नीलिमा और उसकी सालियाँ शुक्‍ला और सरोज से हो जाता है। हरबंस उखड़ा-उखड़ा सा रहता है। यह एक कॉलेज में अस्‍थायी रुप से पढ़ाता है, साहित्‍यकार बनने की धुन भी लगी रहती है। भारतीय इतिहास पर काम भी करता है। नीलिमा को चित्रकला में शौक था, किन्तु धीरे-धीरे नृत्य कला की ओर उसका झुकाव हो जाता है। दिल्‍ली से भागकर हरबंस [[लन्दन]] चला जाता है और वहाँ पहुँचकर नीलिमा को आमत्रि‍त करता है। लन्‍दन पहुँचकर नीलिमा बेबी सिटिंग से तंग आकर उमादत्‍त -ट्रप के साथ पेरिस चली जाती है। ट्रप लौट आता है और नीलिमा ऊ बानू नामक एक वर्मी कलाकार के साथ दो दिन पेरिस में रूककर पुनः लन्‍दन लौट आती है। हरबंस दिल्‍ली लौटकर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय राजनीति, [[कला]] और सभ्‍यता के झूठे नकाब में अपने विजन को विस्‍थापित करता है। नीलिमा के असफल नृत्‍य प्रदर्शन पर प्रशंसापूर्ण टिप्‍पणियाँ छपती हैं। हरबंस उसके साथ सहयोग नहीं करता है। नीलिमा हरबंस को छोड़कर चली जाती है। हरबंस रात भर छटपटाता है और मधुसूदन रात भर उसके साथ रहता है। सवेरा होने पर दरवाजा खोलते ही वह नीलिमा को चाय बनाते देखता है। मधुसूदन ने आत्‍मकथा के रुप में ठकुराइन, हरबंस और नीलिमा, अपनी और सुषमा श्रीवास्‍तव की कहानी कही है।<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.favreads.in/reviews.php?id_product=191&id_product_comment=69&action=view#.UOQqnKyBWSo |title=अँधेरे बंद कमरे |accessmonthday=02 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
मधुसुदन एक पत्रकार है, जो [[दिल्ली]] आकर कस्‍साबपुरा में एक ठकुराइन के यहाँ बसता है। कस्‍साबपुरा में निम्‍न समाजिक स्थिति के लोग रहते हैं। मधुसूदन और ठकुराइन के बीच रस रंग की बातें भी होती रहती हैं। मधुसुदन उस गंदे और घुटन भरे वातावरण से निकलकर कनाट प्‍लेस की चहल पहल में रहना चाहता है। एक दिन अचानक उसकी भेंट हरबंस से हो जाती है, जिससे उनका परिचय [[बम्बई]] में हुआ था। मधुसूदन का परिचय, हरबंल की पत्‍नी नीलिमा और उसकी सालियाँ शुक्‍ला और सरोज से हो जाता है। हरबंस उखड़ा-उखड़ा सा रहता है। वह एक कॉलेज में अस्‍थायी रुप से पढ़ाता है, साहित्‍यकार बनने की धुन भी लगी रहती है। [[भारतीय इतिहास]] पर काम भी करता है। नीलिमा को चित्रकला में शौक था, किन्तु धीरे-धीरे [[नृत्य कला]] की ओर उसका झुकाव हो जाता है। दिल्‍ली से भागकर हरबंस [[लन्दन]] चला जाता है और वहाँ पहुँचकर नीलिमा को आमंत्रि‍त करता है। लन्‍दन पहुँचकर नीलिमा बेबी सिटिंग से तंग आकर उमादत्‍त-ट्रप के साथ पेरिस चली जाती है। ट्रप लौट आता है और नीलिमा ऊ बानू नामक एक बर्मी कलाकार के साथ दो दिन पेरिस में रुककर पुनः लन्‍दन लौट आती है। हरबंस दिल्‍ली लौटकर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय राजनीति, [[कला]] और सभ्‍यता के झूठे नकाब में अपने विजन को विस्‍थापित करता है। नीलिमा के असफल नृत्‍य प्रदर्शन पर प्रशंसापूर्ण टिप्‍पणियाँ छपती हैं। हरबंस उसके साथ सहयोग नहीं करता है। नीलिमा हरबंस को छोड़कर चली जाती है। हरबंस रात भर छटपटाता है और मधुसूदन रात भर उसके साथ रहता है। सवेरा होने पर दरवाजा खोलते ही वह नीलिमा को [[चाय]] बनाते देखता है। मधुसूदन ने आत्‍मकथा के रुप में ठकुराइन, हरबंस और नीलिमा, अपनी और सुषमा श्रीवास्‍तव की कहानी कही है।<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.favreads.in/reviews.php?id_product=191&id_product_comment=69&action=view#.UOQqnKyBWSo |title=अँधेरे बंद कमरे |accessmonthday=02 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
==चरित्र-विधान==
==चरित्र-विधान==



13:57, 2 जनवरी 2013 का अवतरण

अँधेरे बंद कमरे -मोहन राकेश
अँधेरे बंद कमरे
अँधेरे बंद कमरे
लेखक मोहन राकेश
मूल शीर्षक अँधेरे बंद कमरे
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2003
ISBN 81-267-0074-2
देश भारत
पृष्ठ: 330
भाषा हिन्दी
प्रकार उपन्यास

अँधेरे बंद कमरे प्रसिद्ध साहित्यकार, उपन्यासकार और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित उपन्यास है। इसका प्रकाशन 1 जनवरी, 2003 को 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा हुआ था।

वर्तमान भारतीय समाज का अभिजातवर्गीय नागर मन दो हिस्सों में विभाजित है- एक में है पश्चिमी आधुनिकतावाद और दूसरे में वंशानुगत संस्कारवाद। इससे इस वर्ग के भीतर जो द्वंद्व पैदा होता है, उससे पूर्वता के बीच रिक्तता, स्वच्छंदता के बीच अवरोध और प्रकाश के बीच अंधकार आ खड़ा होता है। परिणामतः व्यक्ति ऊबने लगता है, भीतर-ही-भीतर क्रोध, ईर्ष्या और संदेह जकड़ लेते हैं उसे, जैसे वह अपने ही लिए अजनबी हो। वह उठता है, और तब इसे हम हरबंस की शक्ल में पहचानते हैं। हरबंस इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है, जो दाम्पत्य संबंधों की तलाश में भटक रहा है। हरबंस और नीलिमा के माध्यम से पारस्परिक ईमानदारी, भावनात्मक लगाव और मानसिक समदृष्टि से रिक्त दांपत्य जीवन का यहाँ प्रभावशाली चित्रण हुआ है। अपनी पहचान के लिए पहचानहीन होते जा रहे भारतीय अभिजातवर्ग की भौतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक महत्त्वाकांक्षाओं के अँधेरे बंद, कमरों को खोलने वाला यह उपन्यास हिन्दी की गिनी-चुनी कथाकृतियों में से एक है।

कथासार

मधुसुदन एक पत्रकार है, जो दिल्ली आकर कस्‍साबपुरा में एक ठकुराइन के यहाँ बसता है। कस्‍साबपुरा में निम्‍न समाजिक स्थिति के लोग रहते हैं। मधुसूदन और ठकुराइन के बीच रस रंग की बातें भी होती रहती हैं। मधुसुदन उस गंदे और घुटन भरे वातावरण से निकलकर कनाट प्‍लेस की चहल पहल में रहना चाहता है। एक दिन अचानक उसकी भेंट हरबंस से हो जाती है, जिससे उनका परिचय बम्बई में हुआ था। मधुसूदन का परिचय, हरबंल की पत्‍नी नीलिमा और उसकी सालियाँ शुक्‍ला और सरोज से हो जाता है। हरबंस उखड़ा-उखड़ा सा रहता है। वह एक कॉलेज में अस्‍थायी रुप से पढ़ाता है, साहित्‍यकार बनने की धुन भी लगी रहती है। भारतीय इतिहास पर काम भी करता है। नीलिमा को चित्रकला में शौक था, किन्तु धीरे-धीरे नृत्य कला की ओर उसका झुकाव हो जाता है। दिल्‍ली से भागकर हरबंस लन्दन चला जाता है और वहाँ पहुँचकर नीलिमा को आमंत्रि‍त करता है। लन्‍दन पहुँचकर नीलिमा बेबी सिटिंग से तंग आकर उमादत्‍त-ट्रप के साथ पेरिस चली जाती है। ट्रप लौट आता है और नीलिमा ऊ बानू नामक एक बर्मी कलाकार के साथ दो दिन पेरिस में रुककर पुनः लन्‍दन लौट आती है। हरबंस दिल्‍ली लौटकर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय राजनीति, कला और सभ्‍यता के झूठे नकाब में अपने विजन को विस्‍थापित करता है। नीलिमा के असफल नृत्‍य प्रदर्शन पर प्रशंसापूर्ण टिप्‍पणियाँ छपती हैं। हरबंस उसके साथ सहयोग नहीं करता है। नीलिमा हरबंस को छोड़कर चली जाती है। हरबंस रात भर छटपटाता है और मधुसूदन रात भर उसके साथ रहता है। सवेरा होने पर दरवाजा खोलते ही वह नीलिमा को चाय बनाते देखता है। मधुसूदन ने आत्‍मकथा के रुप में ठकुराइन, हरबंस और नीलिमा, अपनी और सुषमा श्रीवास्‍तव की कहानी कही है।[1]

चरित्र-विधान

हरबंस इस उपन्‍यास का नायक है और नीलिमा नायिका। अन्‍य महत्‍वपूर्ण पात्रों में लेखक स्‍वयं मधुसूदन के रुप में उपस्थित है। मधुसूदन के अतिरिक्‍त मधुसुदन के सम्‍पर्क में आने वाले अन्य पात्रों में कस्‍साबपुरा की ठकुराईन और सुषमा श्रीवास्‍तव हैं। नीलिमा और हरबंस के चरित्र को उजागर करने वाले पात्रों में मुक्‍ता, सुरजीत और ऊबानू आदि हैं। हरबंस और नीलिमा के बारे में यह आरोप लगाया है कि मधुसुदन दोनों के निकट सम्‍पर्क में रहता है, तथापि वह अपनी तथाकथित तटस्‍थ दृष्टि से उनमें से किसी भी यथार्थ को प्रस्‍फुटन करना पसन्‍द नहीं करता। यह केवल अलग-अलग शीशों में झलकते हुए उनके विभिन्न प्रतिबिम्‍बों की प्रक्षिप्‍त करता हुआ चलता है। फल यह देखने में आता है कि दोनों में से एक का भी व्‍यक्तित्‍व सुस्‍पष्‍ट, सजीव और मूर्त रुप में पाठकों के आगे प्रस्फुटित नहीं हो पाता। दोनों जैसे पुआल के बने स्प्रिगदार पुतले हों, जिन्‍हें ऊपर से अनमने ढंग से सजाकर लेखक इच्‍छानुसार नचाता चलता है। यह आक्षेप हरबंस के बारे में सही है, किन्तु नीलिमा के बारे में सत्‍य नहीं है। हरबंस दुहरे व्‍यक्तित्‍व का प्राणी है, जिसके व्‍यक्तित्‍व का गठन एकात्‍मक रुप से नहीं हुआ है। कभी यह नीलिमा के समक्ष झुकता है और कभी उपेक्षा करता है। नीलिमा से भागता है और कभी अपने पास बुलाता है। नीलिमा में संवेदनशीलता है, कलाकार बनने की कामना होते हुए भी नारीत्व है। पत्‍नीत्‍व का उसमें अभाव है, किन्‍तु संवेदना का नहीं। नीलिमा निश्चित रूप से प्राणवान नारी पात्र है। नीलिमा से भी अधिक प्राणवान पात्र कस्‍सावपुरे की ठकुराइन है। उसकी सजीवता और प्राणता पाठक के मन को गुदगुदाती है। कस्‍सावपुरे की ठकुराइन की कथा के विकास में महत्‍वपूर्ण हाथ नहीं है, इसलिए उसका विकास भी नहीं हो सका है। शुक्‍ला और सुरजीत सफल दाम्‍पत्य के प्रतीक हैं। मधुसूदन के जीवन में दो विरोधी पात्र आते हैं, जो विरोधी जीवन पद्धतियों के प्रतीक हैं, कस्‍सावपुरे की ठकुराइन निम्‍न वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करती है और सुषमा श्रीवास्‍तव अभिजात्य वर्ग का। ऊ बानू में तो व्‍यक्तित्‍व है ही नहीं। वह तो नीलिमा का पालतू कुत्‍ता प्रतीत होता है। दार्शनिक जटिलताओं के पात्रों के प्राणों का स्‍पन्‍दन दब जाता है, किन्‍तु उपन्‍यास में दार्शनिक जटिलताओं के होते हुए भी अनुभूतिशीलता होने के कारण हरबंस आदि को छोडकर सभी पात्र सप्राण हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 अँधेरे बंद कमरे (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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