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आइंस्टाइन ने सापेक्षता के विशेष और सामान्य सिद्धांत सहित कई योगदान दिए। उनके अन्य योगदानों में- सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स की समस्याऍ, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांतम, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीक्रीत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण शामिल है। आइंसटाइन ने पचास से अधिक शोध-पत्र और विज्ञान से अलग किताबें लिखीं। 1999 में टाइम पत्रिका ने शताब्दी-पुरूष घोषित किया। एक सर्वेक्षण के अनुसार वे सार्वकालिक महानतम वैज्ञानिक माने गए। आइंसटाइन शब्द बुद्धिमान का पर्याय माना जाता है।
आइंस्टाइन ने सापेक्षता के विशेष और सामान्य सिद्धांत सहित कई योगदान दिए। उनके अन्य योगदानों में- सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स की समस्याऍ, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांतम, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीक्रीत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण शामिल है। आइंसटाइन ने पचास से अधिक शोध-पत्र और विज्ञान से अलग किताबें लिखीं। 1999 में टाइम पत्रिका ने शताब्दी-पुरूष घोषित किया। एक सर्वेक्षण के अनुसार वे सार्वकालिक महानतम वैज्ञानिक माने गए। आइंसटाइन शब्द बुद्धिमान का पर्याय माना जाता है।
==आइंस्टाइन और रवीन्द्रनाथ टैगोर==
अलबर्ट आइंस्टाइन केवल विज्ञान ही नहीं, साहित्य, कला, संगीत और अध्यात्म के भी मर्मज्ञ थे। यही कारण है कि [[14 जुलाई]] [[1930]] को अपनी जर्मन यात्रा के दौरान विश्वकवि [[रवीन्द्रनाथ टैगोर|गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर]] उनसे मिलने जब उनके निवास पर पहुँचे तो वह एक ऐतिहासिक क्षण हो गया। विज्ञान और कविता के इन दो शिखरों के बीच उस दिन ''सत्य की प्रकृति'' को लेकर एक अनूठा संवाद हुआ था। प्रस्तुत है इस संवाद का अंग्रेज़ी से अविकल अनुवाद में कुछ अंश-
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अलबर्ट आइंस्टाइन : ''क्या आप मानते हैं कि ईश्वरत्व की संसार से कोई पृथक सत्ता है ?''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''पृथक नहीं। मानवीयता के अनंत व्यक्तित्वों में ब्रह्माण्ड समाहित है। ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जो मानवीय व्यक्तित्व के नियमों से बाहर हो। इससे यही सिद्ध होता है कि ब्रम्हांड का सत्य मानवीयता का भी सत्य है। इसे समझने के लिए मैंने एक वैज्ञानिक तथ्य को लिया है। पदार्थ प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉनों से बना है। इनके बीच एक 'गेप' होती है। परंतु पदार्थ एक एक [[इलेक्ट्रॉन]] और [[प्रोटॉन]] को जोड़ने वाली इस छोटी सी दूरी के बावजूद ठोस नज़र आता है। इसी प्रकार मानवीयता की छोटी छोटी व्यक्ति इकाइयाँ है, पर उनका आपसी मानवीय संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को एक जीवंत एकता प्रदान करता है (जैसे एक एक इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन पृथक सत्ता रखते हुए भी आपस में जुड़े हुए हैं वैसे ही) हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं। इस सत्य को मैं कला के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से और मनुष्य की धार्मिक चेतना के माध्यम से तलाश करता रहा हूँ।''
अलबर्ट आइंस्टाइन : ''ब्रह्माण्ड की प्रकृति के बारे में दो अलग अलग मत है एक 'ब्रह्माण्ड की एकता मनुष्यता पर निर्भर है, दूसरा यह कि ब्रह्माण्ड एक ऐसा सत्य है जो मानवीय फेक्टर से परे है, उस पर उसकी निर्भरता नहीं है। ''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''जब हमारा ब्रह्माण्ड मनुष्य के साथ एक सा तालबद्ध होता है तब ईश्वरत्व को हम सत्य की भाँति जानते हैं। उसे हम सौन्दर्य के रूप में महसूस करते हैं।''
अलबर्ट आइंस्टाइन : ''यह तो ब्रह्माण्ड की केवल मानवीय अवधारणा है। ''
रवीन्द्रनाथ टैगोर : ''दूसरी धारणा हो भी नहीं सकती। यह संसार मानवीय संसार है। इसकी वैज्ञानिक अवधारणा वैज्ञानिक मनुष्य की अवधारणा है। हमसे पृथक इसीलिए संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। यह एक सापेक्ष संसार है जो अपने सत्य के लिए हमारी चेतना पर निर्भर रहता है। तर्क और आनंद का एक मानदंड होता है जो संसार को उसका सत्य प्रदान करता है। यह मानदंड उस ब्रह्माण्ड पुरुष का है जिसका अनुभव हमारे अनुभवों में प्रकट होता है।''
अलबर्ट आइंस्टाइन : ''क्या यह मानवीय अस्तित्व का या उसके वास्तविक अस्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है ?
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''हाँ , एक दिव्य यथार्थ। इसे हम अपनी भावनाओं और गतिविधियों के माध्यम से हासिल करते हैं। हम अपनी सीमाओं के माध्यम से ब्रह्माण्ड पुरुष का प्रत्यक्षीकरण करते हैं जिसकी कोई व्यक्तिगत सीमाएँ नहीं है। यह र्निव्यैयक्तिक गहन आवश्यकताएँ हैं। हमारी व्यक्तिगत सत्य चेतना सार्वभौमिक महत्व पाती है। धर्म हमारे सत्यों को मूल्यवान बनाता है और हम सत्य को उससे अपनी अनुषांगिकता के कारण अच्छी तरह जान पाते हैं। ''
अलबर्ट आइंस्टाइन : ''तो क्या सत्य अथवा सौन्दर्य का मनुष्य से परे कोई स्वाधीन या अनाश्रित अस्तित्व नहीं है ? ''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''नहीं। ''
अलबर्ट आइंस्टाइन : ''यदि मनुष्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं हो तो क्या यह भुवन भास्कर (यह देदीप्यमान सूर्य) क्या सुंदर नहीं रह जाएंगे ?''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''नहीं रहेंगे ।''
अलबर्ट आइंस्टाइन : ''मैं इसे सौन्दर्य दृष्टि से सही मानता हूँ, परंतु सत्य के मामले में नहीं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''क्यों नहीं ?'' सत्य का प्रत्यक्षीकरण भी तो मनुष्य के माध्यम से ही होता है।''
आइंस्टाइन : ''मैं इसे सिद्ध नहीं कर सकता कि मैं सही हूँ, यह मेरा धर्म है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''सौंदर्य एक पूर्ण 'सम-लयता' में उपलब्ध होता है जो केवल सार्वभौमिक होकर ही पायी जा सकती है और सत्य केवल सार्वभौमिक मन की ही पूर्ण ज्ञानबुद्धि है। हम अलग अलग लोग अपनी भूलों और महाभूलों के द्वारा सत्य तक पहुँचते हैं और वह भी अपने संचयित अनुभवों के द्वारा और अपनी ज्योर्तिमय चेतना के द्वारा। अन्यथा हमें उसका पता ही कैसे चलता?''
अलबर्ट आइंस्टाइन: ''मैं इसे सिद्ध नहीं कर सकता कि वैज्ञानिक सत्य को एक ऐसे सत्य के रूप में उद्भूत होना चाहिए जो पूरी तरह मनुष्यता से परे और अपने आप में पूरी तरह अनाश्रित या स्वतंत्र हो, परंतु मैं इसमें दृढ़ता से विश्वास करता हूँ। उदाहरण के लिए मैं मानता हूँ कि 'पायथागोरस' का ज्यामिति में सिद्धांत जो कुछ कहता है वह सत्य लगभग मनुष्य के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है। ऐसी ही इस वास्तविकता का भी एक अपना सत्य है। इसमें एक का भी इंकार दूसरे के अस्तित्व को नकार देगा।''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''सत्य जो सार्वभौमिक चेतना से एकाकार है, उसे अनिवार्य रूप से मानवीय होना ही पड़ेगा। अन्यथा हम व्यक्ति तौर पर जो कुछ जानते या महसूस करते हों उसे सत्य कहा ही नहीं जा सकेगा। कम से कम वह सत्य जिसे वैज्ञानिक सत्य कहा जाता है उसे एक लॉजिक या एक तर्क के माध्यम से अन्वेषित किया जाता है, परंतु वह भी अंतत: मानवीय माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है। हिन्दू दर्शन के अनुसार ब्रह्म की परम सत्य है, उसे कोई सर्वथा अलग थलग होकर नहीं जान सकता है, और ना उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है। उसे तभी पा सकते हैं जब अपने व्यक्तित्व को उसकी अनंतता में समाहित कर दिया जा सके। परंतु ऐसे सत्य का विज्ञान से कोई संबंध नहीं हो सकता। हम सत्य की जिस प्रकृति पर चर्चा कर रहे हैं वह उसके प्रकटीकरण की चर्चा है, अर्थात जो [[प्रत्यक्ष]] हो सके वही मानवीय मन के लिए सत्य है, इसीलिए मानव को माया का रूप कहा जा सकता है''
अलबर्ट आइंस्टाइन: ''तो, आपके मतानुसार जो हिन्दू अवधारणा है उसमें मिथ्यात्व का अनुभव व्यक्ति विशेष का नहीं संपूर्ण मानवता का अनुभव है ?''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''विज्ञान में हम सत्य के करीब पहुँचने के लिए एक अनुशासन से गुजरते हैं जिसमें हमें अपने व्यक्तिगत मस्तिष्कों की सीमाएँ हटा कर ही प्रवेश मिलता हैं। इस प्रकार सत्य का जो सार हम पाते हैं वह सार्वभौमिक मनुष्य का सच होता है।
अलबर्ट आइंस्टाइन: ''हमारी प्राथमिक समस्या ये है कि क्या सत्य हमारी चेतना पर निर्भर नहीं है ?'
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''जिसे हम सत्य कहते हैं वह वस्तुनिष्ठ और विषयनिष्ठ पक्षों के बीच एक बौद्धिक सामंजस्य है। और ये दोनों ही पक्ष उस 'सुपर पर्सनल मनुष्य' से संबंधित है।''
अलबर्ट आइंस्टाइन: ''मानवीयता से परे सत्य के अस्तित्व को लेकर हमारा जो पक्ष है उसे समझाया या सिद्ध नहीं किया जा सकता, परंतु यह एक विश्वास है जिससे कोई भी रहित नहीं है। यहाँ तक कि छोटे से छोटा जीव भी। हम सत्य को एक 'सुपर ह्यूमन' वस्तुनिष्ठता प्रदान करते हैं। हमारे लिए अपरिहार्य है ये सत्य जो हमारे अस्तित्व, हमारे अनुभव और हमारी बुद्धि पर निर्भर नहीं है,भले ही हम कह न सके कि इसका क्या मतलब है ?''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि एक टेबल जो ठोस चीज़ की तरह नजर आता है वह मात्र एक दृष्टिगोचर दिखावट है। जिसे मानवीय दिमाग एक टेबल की तरह महसूस करता है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा, यदि वह निरंतर महसूस करने वाला दिमाग न हो तो। इसी के साथ यह भी हमें स्वीकार करना होगा कि टेबल की परम भौतिक सच्चाई अलग अलग घूमते हुए विद्युतीय बलों के केन्द्रों का एक विशाल समूह होना ही है, जिसका मानवीय चेतना से भी संबंध है। सत्य के साक्षात्कार में ब्रह्माण्ड पुरुष के मन और व्यक्ति स्तर पर एक अलौकिक संघर्ष होता है। पुर्नमिलान की एक सनातन प्रक्रिया विज्ञान और दर्शन और हमारे नीति शास्त्रों में निरंतर चलती रहती है। किसी भी मामले में यदि कोई ऐसा सत्य है जो मानवीयता से संबंधित नहीं है तो उसका हमारे लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है।''
अलबर्ट आइंस्टाइन: ''तब तो मैं आपसे ज्यादा धार्मिक हूँ ....... । ''
रवीन्द्रनाथ टैगोर: ''मेरा धर्म उस ब्रह्माण्ड पुरुष (ईश्वर) की चेतना के साथ मेरे अपने होने की निरंतर मिलन प्रक्रिया में है। मेरे हिबर्ट-व्याख्यान का भी यही विषय था जिसे मैंने 'धार्मिक मनुष्य' कहा था।''{{cite web |url=http://anmoleinstein.blogspot.in/search/label/%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%A8%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%20%E0%A4%9F%E0%A5%88%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B0%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6 |title=अलबर्ट आइन्स्टीन और रवीन्द्रनाथ टैगोर का संवाद |accessmonthday=19 जनवरी |accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=अलबर्ट आइंसटाइन |language= हिंदी}}




 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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10:00, 19 जनवरी 2013 का अवतरण

अलबर्ट आइंस्टाइन (अंग्रेज़ी: Albert Einstein, जन्म: 14 मार्च, 1979 - मृत्यु: 18 अप्रैल, 1955) एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक और सैद्धांतिक भौतिकविद् थे। वे सापेक्षता के सिद्धांत और द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण E = mc2 के लिए जाने जाते हैं। उन्हें सैद्धांतिक भौतिकी, खासकर प्रकाश-विद्युत ऊत्सर्जन की खोज के लिए 1921 में नोबेल पुरस्कार मिला था।

जीवन परिचय

अलबर्ट आइंस्टाइन का जन्म जर्मनी में वुटेमबर्ग के एक यहूदी परिवार में हुआ। उनके पिता 'हर्मन आइंस्टाइन' एक इंजीनियर और सेल्समैन थे। उनकी मां का नाम पौलीन आइंस्टाइन थी। हालांकि आइंस्टाइन को शुरू-शुरू में बोलने में कठिनाई होती थी, लेकिन वे पढाई में अव्वल थे। उनकी मात्रभाषा जर्मन थी और बाद में उन्होंने इटालियन और अंग्रेज़ी सीखी। उनका परिवार यहूदी धार्मिक परम्पराओं को नही मानता और आइनस्‍टाइन कैथोलिक विद्यालय में पड़ने गये। अपनी माँ के कहने पर उन्होंने सारंगी बजाना सीखा। उन्हें ये पसन्द नहीं था और बाद में इसे छोड़ भी दिया, लेकिन बाद में उन्हें मोजार्ट के सारंगी संगीत में बहुत आनन्द आता था।

बचपन और शिक्षा

1893 में अलबर्ट आइंस्टाइन एक कैथोलिक प्राथमिक स्कूल में पढ़े। हालांकि आइंस्टीन ने कठिनाई से बोलना सीखा वे प्राथमिक स्कूल में एक अव्वल छात्र थे। आइंस्टीन ने मज़े के लिए मॉडल और यांत्रिक उपकरणों का निर्माण किया और गणित में प्रतिभा दिखना भी शुरू किया। 1889 मैक्स तल्मूड ने दस वर्षीय आइंस्टीन को विज्ञान के महत्वपूर्ण ग्रंथों से वाकिफ़ कराया। तल्मूड एक ग़रीब यहूदी मेडिकल छात्र था। यहूदी समुदाय ने तल्मूड को छह साल के लिए प्रत्येक गुरुवार को आइंस्टाइन के साथ भोजन करने की व्यवस्था की। इस समय के दौरान तल्मूड ने पूरे दिल से कई धर्मनिरपेक्ष शैक्षिक हितों के माध्यम से आइंस्टाइन को निर्देशित करता।

योगदान

आइंस्टाइन ने सापेक्षता के विशेष और सामान्य सिद्धांत सहित कई योगदान दिए। उनके अन्य योगदानों में- सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स की समस्याऍ, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांतम, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीक्रीत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण शामिल है। आइंसटाइन ने पचास से अधिक शोध-पत्र और विज्ञान से अलग किताबें लिखीं। 1999 में टाइम पत्रिका ने शताब्दी-पुरूष घोषित किया। एक सर्वेक्षण के अनुसार वे सार्वकालिक महानतम वैज्ञानिक माने गए। आइंसटाइन शब्द बुद्धिमान का पर्याय माना जाता है।

आइंस्टाइन और रवीन्द्रनाथ टैगोर

अलबर्ट आइंस्टाइन केवल विज्ञान ही नहीं, साहित्य, कला, संगीत और अध्यात्म के भी मर्मज्ञ थे। यही कारण है कि 14 जुलाई 1930 को अपनी जर्मन यात्रा के दौरान विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उनसे मिलने जब उनके निवास पर पहुँचे तो वह एक ऐतिहासिक क्षण हो गया। विज्ञान और कविता के इन दो शिखरों के बीच उस दिन सत्य की प्रकृति को लेकर एक अनूठा संवाद हुआ था। प्रस्तुत है इस संवाद का अंग्रेज़ी से अविकल अनुवाद में कुछ अंश- <poem> अलबर्ट आइंस्टाइन : क्या आप मानते हैं कि ईश्वरत्व की संसार से कोई पृथक सत्ता है ? रवीन्द्रनाथ टैगोर: पृथक नहीं। मानवीयता के अनंत व्यक्तित्वों में ब्रह्माण्ड समाहित है। ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जो मानवीय व्यक्तित्व के नियमों से बाहर हो। इससे यही सिद्ध होता है कि ब्रम्हांड का सत्य मानवीयता का भी सत्य है। इसे समझने के लिए मैंने एक वैज्ञानिक तथ्य को लिया है। पदार्थ प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉनों से बना है। इनके बीच एक 'गेप' होती है। परंतु पदार्थ एक एक इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन को जोड़ने वाली इस छोटी सी दूरी के बावजूद ठोस नज़र आता है। इसी प्रकार मानवीयता की छोटी छोटी व्यक्ति इकाइयाँ है, पर उनका आपसी मानवीय संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को एक जीवंत एकता प्रदान करता है (जैसे एक एक इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन पृथक सत्ता रखते हुए भी आपस में जुड़े हुए हैं वैसे ही) हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं। इस सत्य को मैं कला के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से और मनुष्य की धार्मिक चेतना के माध्यम से तलाश करता रहा हूँ। अलबर्ट आइंस्टाइन : ब्रह्माण्ड की प्रकृति के बारे में दो अलग अलग मत है एक 'ब्रह्माण्ड की एकता मनुष्यता पर निर्भर है, दूसरा यह कि ब्रह्माण्ड एक ऐसा सत्य है जो मानवीय फेक्टर से परे है, उस पर उसकी निर्भरता नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर: जब हमारा ब्रह्माण्ड मनुष्य के साथ एक सा तालबद्ध होता है तब ईश्वरत्व को हम सत्य की भाँति जानते हैं। उसे हम सौन्दर्य के रूप में महसूस करते हैं। अलबर्ट आइंस्टाइन : यह तो ब्रह्माण्ड की केवल मानवीय अवधारणा है। रवीन्द्रनाथ टैगोर : दूसरी धारणा हो भी नहीं सकती। यह संसार मानवीय संसार है। इसकी वैज्ञानिक अवधारणा वैज्ञानिक मनुष्य की अवधारणा है। हमसे पृथक इसीलिए संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। यह एक सापेक्ष संसार है जो अपने सत्य के लिए हमारी चेतना पर निर्भर रहता है। तर्क और आनंद का एक मानदंड होता है जो संसार को उसका सत्य प्रदान करता है। यह मानदंड उस ब्रह्माण्ड पुरुष का है जिसका अनुभव हमारे अनुभवों में प्रकट होता है। अलबर्ट आइंस्टाइन : क्या यह मानवीय अस्तित्व का या उसके वास्तविक अस्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है ? रवीन्द्रनाथ टैगोर: हाँ , एक दिव्य यथार्थ। इसे हम अपनी भावनाओं और गतिविधियों के माध्यम से हासिल करते हैं। हम अपनी सीमाओं के माध्यम से ब्रह्माण्ड पुरुष का प्रत्यक्षीकरण करते हैं जिसकी कोई व्यक्तिगत सीमाएँ नहीं है। यह र्निव्यैयक्तिक गहन आवश्यकताएँ हैं। हमारी व्यक्तिगत सत्य चेतना सार्वभौमिक महत्व पाती है। धर्म हमारे सत्यों को मूल्यवान बनाता है और हम सत्य को उससे अपनी अनुषांगिकता के कारण अच्छी तरह जान पाते हैं। अलबर्ट आइंस्टाइन : तो क्या सत्य अथवा सौन्दर्य का मनुष्य से परे कोई स्वाधीन या अनाश्रित अस्तित्व नहीं है ? रवीन्द्रनाथ टैगोर: नहीं। अलबर्ट आइंस्टाइन : यदि मनुष्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं हो तो क्या यह भुवन भास्कर (यह देदीप्यमान सूर्य) क्या सुंदर नहीं रह जाएंगे ? रवीन्द्रनाथ टैगोर: नहीं रहेंगे । अलबर्ट आइंस्टाइन : मैं इसे सौन्दर्य दृष्टि से सही मानता हूँ, परंतु सत्य के मामले में नहीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर: क्यों नहीं ? सत्य का प्रत्यक्षीकरण भी तो मनुष्य के माध्यम से ही होता है। आइंस्टाइन : मैं इसे सिद्ध नहीं कर सकता कि मैं सही हूँ, यह मेरा धर्म है। रवीन्द्रनाथ टैगोर: सौंदर्य एक पूर्ण 'सम-लयता' में उपलब्ध होता है जो केवल सार्वभौमिक होकर ही पायी जा सकती है और सत्य केवल सार्वभौमिक मन की ही पूर्ण ज्ञानबुद्धि है। हम अलग अलग लोग अपनी भूलों और महाभूलों के द्वारा सत्य तक पहुँचते हैं और वह भी अपने संचयित अनुभवों के द्वारा और अपनी ज्योर्तिमय चेतना के द्वारा। अन्यथा हमें उसका पता ही कैसे चलता? अलबर्ट आइंस्टाइन: मैं इसे सिद्ध नहीं कर सकता कि वैज्ञानिक सत्य को एक ऐसे सत्य के रूप में उद्भूत होना चाहिए जो पूरी तरह मनुष्यता से परे और अपने आप में पूरी तरह अनाश्रित या स्वतंत्र हो, परंतु मैं इसमें दृढ़ता से विश्वास करता हूँ। उदाहरण के लिए मैं मानता हूँ कि 'पायथागोरस' का ज्यामिति में सिद्धांत जो कुछ कहता है वह सत्य लगभग मनुष्य के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है। ऐसी ही इस वास्तविकता का भी एक अपना सत्य है। इसमें एक का भी इंकार दूसरे के अस्तित्व को नकार देगा। रवीन्द्रनाथ टैगोर: सत्य जो सार्वभौमिक चेतना से एकाकार है, उसे अनिवार्य रूप से मानवीय होना ही पड़ेगा। अन्यथा हम व्यक्ति तौर पर जो कुछ जानते या महसूस करते हों उसे सत्य कहा ही नहीं जा सकेगा। कम से कम वह सत्य जिसे वैज्ञानिक सत्य कहा जाता है उसे एक लॉजिक या एक तर्क के माध्यम से अन्वेषित किया जाता है, परंतु वह भी अंतत: मानवीय माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है। हिन्दू दर्शन के अनुसार ब्रह्म की परम सत्य है, उसे कोई सर्वथा अलग थलग होकर नहीं जान सकता है, और ना उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है। उसे तभी पा सकते हैं जब अपने व्यक्तित्व को उसकी अनंतता में समाहित कर दिया जा सके। परंतु ऐसे सत्य का विज्ञान से कोई संबंध नहीं हो सकता। हम सत्य की जिस प्रकृति पर चर्चा कर रहे हैं वह उसके प्रकटीकरण की चर्चा है, अर्थात जो प्रत्यक्ष हो सके वही मानवीय मन के लिए सत्य है, इसीलिए मानव को माया का रूप कहा जा सकता है अलबर्ट आइंस्टाइन: तो, आपके मतानुसार जो हिन्दू अवधारणा है उसमें मिथ्यात्व का अनुभव व्यक्ति विशेष का नहीं संपूर्ण मानवता का अनुभव है ? रवीन्द्रनाथ टैगोर: विज्ञान में हम सत्य के करीब पहुँचने के लिए एक अनुशासन से गुजरते हैं जिसमें हमें अपने व्यक्तिगत मस्तिष्कों की सीमाएँ हटा कर ही प्रवेश मिलता हैं। इस प्रकार सत्य का जो सार हम पाते हैं वह सार्वभौमिक मनुष्य का सच होता है। अलबर्ट आइंस्टाइन: हमारी प्राथमिक समस्या ये है कि क्या सत्य हमारी चेतना पर निर्भर नहीं है ?' रवीन्द्रनाथ टैगोर: जिसे हम सत्य कहते हैं वह वस्तुनिष्ठ और विषयनिष्ठ पक्षों के बीच एक बौद्धिक सामंजस्य है। और ये दोनों ही पक्ष उस 'सुपर पर्सनल मनुष्य' से संबंधित है। अलबर्ट आइंस्टाइन: मानवीयता से परे सत्य के अस्तित्व को लेकर हमारा जो पक्ष है उसे समझाया या सिद्ध नहीं किया जा सकता, परंतु यह एक विश्वास है जिससे कोई भी रहित नहीं है। यहाँ तक कि छोटे से छोटा जीव भी। हम सत्य को एक 'सुपर ह्यूमन' वस्तुनिष्ठता प्रदान करते हैं। हमारे लिए अपरिहार्य है ये सत्य जो हमारे अस्तित्व, हमारे अनुभव और हमारी बुद्धि पर निर्भर नहीं है,भले ही हम कह न सके कि इसका क्या मतलब है ? रवीन्द्रनाथ टैगोर: विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि एक टेबल जो ठोस चीज़ की तरह नजर आता है वह मात्र एक दृष्टिगोचर दिखावट है। जिसे मानवीय दिमाग एक टेबल की तरह महसूस करता है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा, यदि वह निरंतर महसूस करने वाला दिमाग न हो तो। इसी के साथ यह भी हमें स्वीकार करना होगा कि टेबल की परम भौतिक सच्चाई अलग अलग घूमते हुए विद्युतीय बलों के केन्द्रों का एक विशाल समूह होना ही है, जिसका मानवीय चेतना से भी संबंध है। सत्य के साक्षात्कार में ब्रह्माण्ड पुरुष के मन और व्यक्ति स्तर पर एक अलौकिक संघर्ष होता है। पुर्नमिलान की एक सनातन प्रक्रिया विज्ञान और दर्शन और हमारे नीति शास्त्रों में निरंतर चलती रहती है। किसी भी मामले में यदि कोई ऐसा सत्य है जो मानवीयता से संबंधित नहीं है तो उसका हमारे लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है। अलबर्ट आइंस्टाइन: तब तो मैं आपसे ज्यादा धार्मिक हूँ ....... । रवीन्द्रनाथ टैगोर: मेरा धर्म उस ब्रह्माण्ड पुरुष (ईश्वर) की चेतना के साथ मेरे अपने होने की निरंतर मिलन प्रक्रिया में है। मेरे हिबर्ट-व्याख्यान का भी यही विषय था जिसे मैंने 'धार्मिक मनुष्य' कहा था। अलबर्ट आइन्स्टीन और रवीन्द्रनाथ टैगोर का संवाद (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) अलबर्ट आइंसटाइन। अभिगमन तिथि: 19 जनवरी, 2013।


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